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तो धूम न होता । जितना अंश साध्य और साधन के रूप में विद्यमान है उसका ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा होता है। प्रत्यक्ष से जो ज्ञात है उपी अर्थ को यदि तक प्रकाशित करे तो उससे तर्क का प्रामाण्य नहीं हो सकता। तर्क का जो अपना विषय है वह कल्पित है। साध्य और साधन को प्रत्यक्ष से जानकर उत्तरकाल में कल्पनारूप तर्क ज्ञान होता है-इसलिये वह प्रमाण नहीं।
मूलमः-तन्न, प्रत्यक्षष्ठभाविनो विकल्पस्यापि प्रत्यक्षगृहीतमात्राध्यवसायित्वेन सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्राहकत्वाभावात् । तादृशस्य तस्य सामान्य. विषयस्याप्यनुमानवत् प्रमाणत्वात् , अवस्तुनि
र्भासेऽपि परम्परया पदार्थ प्रतिबन्धेन भवतां व्यघहारतः प्रामाण्यप्रसिद्धः।
अर्थ-यह कथन युक्त नहीं है। प्रत्यक्ष के उत्तरकाल में जो विकल्प उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात पदार्थ को ही जान सकता है । वह विकल्प समस्त साध्य
और साधनों की व्याप्ति को नहीं जान सकता । यदि तर्क विकल्परूप और सामान्य का प्रकाशक हो, तो भी अनुमान के समान प्रमाण है । परमार्थ में जो वस्तु नहीं है । उसका प्रकाशक होने पर भी परंपरा के द्वारा पदार्थ के साथ संबंध होने के कारण आपके मत में व्यवहार से प्रामाण्य की प्रसिद्धि है। ...