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मूलम्:-तथापि 'अक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् प्रत्यक्षरूपमेवेदं युक्तम्' इति केचित् ,
अर्थः-कुछ लोग कहते हैं, इन्द्रिय के साथ प्रत्यभिज्ञान के अन्वय और व्यतिरेक हैं, इसलिए यह प्रत्यक्ष ही है।
विवेचना:-इन्द्रिय के द्वारा जो उत्पन्न होता है वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है । रूप, रस, गन्ध, आदिका ज्ञान इन्द्रियों से होता है, इसलिए वह प्रत्यक्ष है । "वही यह फल है" इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान इन्द्रिय के बिना नहीं होता। इस ज्ञान के 'वही' अंश में स्मरण है । 'यह' इतने अंश में प्रत्यक्ष है। इस प्रकार आप भी मानते हो । इसलिए पूर्व काल के स्मरण की और उत्तर काल के प्रत्यक्ष की उत्पत्ति स्पष्ट है । स्मरण के अनन्तर उत्पन्न होनेसे प्रत्यक्ष ज्ञान का प्रत्यक्षभाव दूर नहीं हो सकता । स्मरण से पूर्वकाल में अथवा स्मरण से उत्तरकाल में अर्थ के साथ इन्द्रिय के संबंध से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष ही है । कुमारिल भट्ट के अनुगामी और नैयायिक प्रत्यभिज्ञान को इस रीति से प्रत्यक्ष ज्ञान रूप कहते हैं ।
मूलम्:-तन्नः साक्षादक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वस्यासिद्धः, प्रत्यभिज्ञानस्य साक्षात्प्रत्यक्षस्मरणान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वेनानुभूयमानत्वात् , अन्यथा प्रथमव्यक्तिदर्शनकालेप्युत्पत्तिप्रसंगात् ।