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अकेली चक्षु स्मरण के बिना प्रकाश की सहायता से देखती है । जब प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है, तब स्मरण इन्द्रिय का सहकारी नहीं होता । संस्कार से स्मरण और इन्द्रिय से प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है। ये दोनों ज्ञान मिलकर प्रत्यभिज्ञान को उत्पन्न करते हैं । अतः प्रत्यभिज्ञान स्वयं प्रत्यक्ष नहीं किन्तु प्रत्यक्ष से उत्पन्न है ।
जो इस प्रकार न माना जाय तो अनुमान भी प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं हो सकेगा । धूम और अग्नि की व्याप्ति के स्मरण से पर्वत में घूम को देखकर अग्नि का अनुमान होता है। स्मरण की सहायता से मन पर्वतीय अग्नि के ज्ञान में कारण है. अतः पर्वतीय अग्नि का ज्ञान मी प्रत्यक्ष है. इस प्रकार की आपत्ति होगी । अतः स्मरण मन का सहायक नहीं और स्मृति सहित मन से उत्पन्न अनुमान प्रत्यक्ष नहीं, इस प्रकार मानना पडेगा । स्मरण की सहायता पाकर मन अनुमान को उत्पन्न करता है और अनुमान प्रत्यक्ष से भिन्न ज्ञान है । इसी प्रकार प्रत्यभिज्ञान स्मरण और अनुभव से उत्पन्न होता है और प्रत्यक्ष से भिन्न है । स्मरण इन्द्रिय का सहायक नहीं सिद्ध हो सकता, इसलिए स्मृति की सहायता न होनेसे प्रथम दर्शन में इन्द्रिय प्रत्यभिज्ञान को नहीं उत्पन्न करती, इस प्रकार नहीं कहा जा सकता अब यदि अकेली इन्द्रिय प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति में कारण हो तो प्रथम वार के ज्ञान में ही "यह वही फल है" इत्यादि प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होना चाहिए, यह आपत्ति स्थिर रहेगी ।
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मूलम्:- किञ्च, 'प्रत्यभिजानामि' इति विलक्षणप्रतीतेरप्यतिरिक्तमेतत् ।