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अर्थ-"यह गवय पद का वाच्य है" इस प्रकार की प्रतीति के लिए यदि प्रत्यभिज्ञान से भिन्न प्रमाण माना जायगा तो आमलक आदिके दर्शन से उत्पन्न संस्कारवाले मनुष्य को बिल्वफल आदि को देखने पर "वह इससे सूक्ष्म है" इत्यादि प्रतीति होती है, उसके लिए अन्य प्रमाण मानना पडेगा।
विवेचना:-ज्ञानों का संकलन होने पर भी वाच्य-वाचक. भाव को प्रतीति यदि प्रत्यभिज्ञान के द्वारा न हो, तो जहाँ जहां प्रत्यक्ष वस्तु में अपेक्षा द्वारा ज्ञान होता है, वहां वहां अतिरिक्त प्रमाणों का स्वीकार आवश्यक हो जायगा। पूर्व. काल में जिसने आंवले को देखा है उसको 'आंवले का फल बिल्व के फल से छोटा है। इस प्रकार की प्रतीति अपेक्षा से होती है । इस प्रतीति में साद्दश्य का ज्ञान नहीं है । पूर्वकाल में और उत्तरकाल में देखे हुए परिमाणों का ज्ञान अपेक्षा से करके वह छोटा है और यह बड़ा है इस प्रकार का ज्ञान होता है। इस ज्ञान में भी दो ज्ञानों का संकलन है। इसी रीति से 'यह उससे दूर है और यह उससे समीप है यह उससे ऊँचा है और यह उससे नीचा है' इत्यादि शाम अपेक्षा के द्वारा होता है। इन ज्ञानों में दो ज्ञानों का संकलन है, इसलिए ये सब ज्ञान प्रत्यभिज्ञानरूप हैं।
मूलम्-मानसत्वे चासामुपमानस्थापि मानसत्यप्रसङ्गगत् ।
अर्थ-यदि आप कहें-'ये सब ज्ञान मानसज्ञान हैं। तो उपमान भी मानसज्ञान है-इस प्रकार मानना पडेगा।