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विवेचनाः - पानी और दूध को जो भिन्न करता है वह हंस है, उससे यह दूर है - यह समीप है, इत्यादि ज्ञानों में बह्य इन्द्रिय साक्षात् साधन नहीं । मन के द्वारा ये समस्त ज्ञान "होते हैं। सुख-दुःख आदिका ज्ञान जिस प्रकार मन के द्वारा होता है । इस प्रकार ये सब ज्ञान मनके द्वारा होते हैं सुख-दुःख आढिका ज्ञान मानस प्रत्यक्ष है, इसी प्रकार अपेक्षा के द्वारा दूरत्व और समीपत्व आदिका ज्ञान भी मानस प्रत्यक्ष है । इस प्रकार यदि आप समस्त ज्ञानों का अन्तर्भाव मानस प्रत्यक्ष में करेंगे तो उपमान का भी मानस प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव आवश्यक हो जायगा । उसकी भी प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न प्रमाण के रूप में सिद्धि नहीं हो सकेगी ।
जब
वस्तुतः प्रत्यक्ष ज्ञान अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता । वृक्ष को देखता है, तब वृक्ष का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । यह प्रत्यक्ष ज्ञान किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता । सुख अथवा दुःख का साक्षात्कार जब मन के द्वारा होता है, तब किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती । परन्तु साद्दश्यउचाई दूरत्व आदिका ज्ञान जब मन के द्वारा होता है, तब अन्य ज्ञानों की अपेक्षा आवश्यक रूप से होती है । इसलिए ये समस्त ज्ञान प्रत्यक्षरूप नहीं हैं।
मूलम् - प्रत्यभिजानामि' इति प्रतोत्या प्रत्यभिज्ञानत्वमेवाभ्युपेयमिति दिक् ।
अर्थ- प्रत्यभिजानामि - अर्थात् ' मैं पहचानता हूँ" इस प्रकार की प्रतीति होनेके कारण इन समस्त ज्ञानों को प्रत्यभिज्ञान रूप ही स्वीकार करना चाहिए ।