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मलम्-सत्यम् स्वार्थव्यवसितेरेव तत्फलत्वात्।
अर्थ-सिद्धान्ती कहते हैं स्व और पर का निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण है, स्व और पर का निश्चय
इस पर शंकाकार कहता है
मलम्-जन्वेवं प्रमाण स्वपरव्यवसायित्वं न स्यात् , प्रमाणस्य परव्यवसायित्वात् फलस्य च स्वव्यवसायित्वादिति चेत् ।
अर्थ-अब शंकाकार कहता है कि स्व और पर के निश्चय को प्रमाण का फल मानने पर प्रमाण स्व पर व्यवसायी नहीं हो सकेगा । कारण, प्रमाण पर का निश्चय कराने वाला और फल अपने स्वरूप का निश्चय कराने वाला होता है।
विवेचना-शंकाकार मानता है-स्व और पर का निश्चय यदि प्रमाण हो तो. प्रमारण और फल का भेद नहीं हो सकता। ज्ञान स्व और पर के स्वरूप का निश्चय कराता है निश्चय स्वयं ज्ञान है वही स्व पर का निश्चय कराता है. इस दशा में ज्ञान और निश्चय का कोई भेद नहीं है । फल रूप ज्ञान का जो विषय है वही प्रमाण रूप ज्ञान का विषय है । प्रमाण और फल के भेद को स्पष्ट करने के लिये दोनों ज्ञानों के द्वारा जो विषय प्रकाशित होते हैं उनके भेद को प्रकट करना होगा। विषय का यह भेद प्रमाण को पर का निश्चय कराने वाला और फल को स्वरूप का निश्चय कराने वाला मान कर ही हो सकता है । ज्ञान का जो स्वरूप पहले विद्यमान है