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सिद्ध होता है। परन्तु अल्प संख्या में प्रकाशन स्वभाव रूप में सिद्ध नहीं होता। कोई भी अर्थ स्वभाव से विरुद्ध कार्य को नहीं कर सकता । रूप का प्रकाशन चक्षु का स्वभाव है। वह किसी काल में रस, स्पर्श आदिका प्रकाशन नहीं कर सकती। एक दो अथवा तीन चार आदिको संख्या में अर्थ का प्रकाशन जो ज्ञान का स्वभाव हो, तो अनुमान का मूल कारण व्याप्ति ज्ञान नहीं होना चाहिए। समस्त वस्तुओं के विषय में ही नहीं, एक वस्तु के विषय में जो अनुमान होता है-उसका मूलभूत व्याप्तिज्ञान भी नहीं होना चाहिए। धूम से वह्नि का अनुमान प्रसिद्ध है । जहाँ जहाँ धूम है वहाँ वहाँ वह्नि है, यह व्याप्ति यहाँ पर मूल है । वर्तमानकाल के और समीप देश के धूम और वह्नि को ही नहीं, किन्तु अतीत अनागत और दूर देश के धूम और अग्नि की भी व्याप्ति है इस रीति से जो व्याप्ति ज्ञान न हो. तो धूम से अग्नि का अनुमान न हो सके। धूम और अग्नि की व्याप्ति का ज्ञान कालान्तर और देशान्तर में रहने वाले अर्थों के प्रकाशन में ज्ञान की शक्ति को प्रकट करता है। प्रमेयत्व और वाच्यत्व की व्याप्ति का ज्ञान सामान्य रूप से समस्त अर्थों के प्रकाशन में ज्ञान को शक्ति को सिद्ध करता है।
कर्म आवरण है । सम्यगदर्शन आदि विरोधी कारण जितने परिमाण में उसका नाश करते हैं, उतने परिमाण में अर्थों का प्रकाशन होता है। सामान्य जन के ज्ञान में जो अस्पष्टता है, उसका कारण कर्मरूप-आवरण है। आवरण की न्यूनाधिकता के कारण-दीपक, चन्द्र, सूर्य आदि अस्पष्ट और स्पष्ट रूप से अर्थों को प्रकाशित करते हैं। ज्ञान का स्वभाव दीपक आदि के प्रकाश के समान है। वह मी ज्ञाना