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वरण कर्म को न्यूनाधिकता के होने पर अर्थों को स्पष्ट और अस्पष्ट रूप से प्रकाशित करता है ।
मलम्:- 'योगजधर्मानुगृहीन मनोजन्यमेवेदमस्तु' इति केचित् तन्नः धर्मानुगृहीतेनापि मनसा पञ्चेन्द्रियार्थज्ञानवदस्य जनयितुमश
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क्यत्वात् ।
अर्थ :- कुछ लोग कहते हैं, समाधि से उत्पन्न धर्म जब मन का सहायक हो जाता है, तब मन से सकल प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है - यह मन युक्त नहीं । समाधि से उत्पन्न धर्म के सहकारी होने पर भी मन जिस प्रकार रूप आदि के ज्ञान की उत्पत्ति में समर्थ नहीं होता, इस प्रकार समाधि से उत्पन्न धर्म की सहायता लेकर भी केवलज्ञान को नहीं उत्पन्न कर सकता । आवरण के न होने पर पाँच इन्द्रिय जिस प्रकार रूप आदि को प्रकाशित करते हैं, इस प्रकार आत्मा कर्म रूप आवरणके नष्ट होने पर समस्त स्थूल, सूक्ष्म और व्यवहित 'आदि विषयों को प्रकाशित करता है ।
विवेचना:- जिस साधन का जो विषय है उस विषय में वही सधन कार्य कर सकता है। सहकारी कारणों की सहायता पाकर साधन अपने विषय में ही उत्कर्ष के साथ कार्य करता है । जो अपना विषय नहीं है, उसमें सहायता के द्वारा प्रवत्ति नहीं होती । चक्षु का विषय रूप है अञ्जन