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उसका विरोध नहीं है, घातिकर्म ही केवलज्ञान के विरोधी हैं।
विवेचना:-दिगम्बर कहते हैं-ज्ञान का अत्यंत उत्कर्ष होनेसे केवली जिस प्रकार सामान्य जन की अपेक्षा भिन्न है, इस प्रकार सर्वथा आहार रहित होने के कारण भी भिन्न है। बिना आहार के स्थिर दृढ शरीर का होना एक आवश्यक अतिशय है, जो केवली में प्रकट होता है। छद्मस्थ लोग कबलाहार करते हैं। केवली छद्मस्थ नहीं है. इसलिए उसका कवलाहार नहीं है। शरीर की स्थिति कवलाहार के बिना नहीं हो सकती। इसलिए केवली के लिए भी कवलाहार आव. श्यक है । यह मत युक्त नहीं है । शरीरधारियों के शरीर की दशा सर्वथा समान नहीं होती। देव शरीरधारी है। परंतु वे मनुष्य पशु आदि के समान कवलाहार नहीं करते। आगम देवों के आहार को कवलाहार की अपेक्षा विलक्षण कहते हैं । कवलाहार के बिना मनुष्य आदि के शरीर की स्थिति चिरकाल तक नहीं रहती। इस कारण यदि केवलो के लिए कवलाहार आवश्यक हो, तो केवली में सर्वज्ञता का का निश्चय नहीं हो सकेगा। मनुष्य आदि जो प्राणी कवला. हार करते हैं वे सर्वज्ञ नहीं है। यदि केवली कवलाहार करे तो वह भी अल्पज्ञ हो जाना चाहिए।
इसके उत्तर में श्वेताम्बर कहते हैंछद्मस्थ के साथ केवली का जो भेद है वह जान आदि के कारण है । छद्मस्थों के साथ केवली को समानता और असमानता दोनों हैं । सामान्य मनुष्य जिस प्रकार त्रस पंचेन्द्रिय मनुष्य है इस प्रकार केवली भी त्रस पंचेन्द्रिय और मनुष्य है । शरीरों में भेद हो सकता है, परंतु स्वभाव का