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नीय आदि कर्म हैं, परंतु जली हुई रज्जु के समान है, अतः उनके उदय से कवलाहार नहीं हो सकता । यदि इस प्रकार कहो तो इस प्रकार के आयुकर्म से भव में केवली की स्थिति भी नहीं होनी चाहिए।
विवेचनाः-यदि असातवेदनीय कर्म, जली रज्जु के समान होनेसे कर लाहार को उत्पन्न करने में समर्थ न हो तो आयुकर्म को भी अपना कार्य नहीं उत्पन्न करना चाहिए। उसका कार्य है प्राणों का धारण । आयू कर्म भी भगवान में जली रज्जु के समान है। भगवान प्राणों का धारण करते हैं। जिस प्रकार आयु से प्राणों का धारण होता है, इस प्रकार आहार पर्याप्ति आदि से केवली का कवलाहार भी होता है। इसके अतिरिक्त सातवेदनीय कर्म से भगवान को सुख का अनुभव नहीं होना चाहिए, वह भी जलो रफ्जु के समान है।
मूलम्:-किच, औदारिष.शरीरस्थितिः कथं कवलभुक्तिं विना भगवतः स्यात् । अनन्तवीर्यत्वेन तां विना तदुपपत्तो प्रस्थावस्थायाम. प्यपरिमितबलत्वरणाद भुक्त्यभावः स्यादि. त्यन्यत्र विस्तरः।
अर्थः-अन्य हेतु भी है, कवलाहार के बिना भगवान का औदारिक शरीर कैसे रह सकता है ? भगवान में अनंतवीर्य है, इसलिए भगवान का शरीर कवलाहार के बिना रह सकता है । यदि इस प्रकार आप कहो तो
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परत.।