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हैं। त्वचा के साथ कोमल फूल फल आदि का जब संबंध होता है, तब जो सुख उत्पन्न होता है वह इन्द्रिय और अर्थ के संबंध से होता है। त्वचा इन्द्रिय है और फूल फल अर्थ हैं इससे भिन्न प्रकार का सुख दुःख वह है जो इन्द्रिय और अर्थ का संबंध न होने पर भी केवल ज्ञान से उत्पन्न होता है। जागरण दशा में मनुष्य जब समीप में प्रिय बन्धु के न होने पर भी उसकी उपस्थिति की कल्पना करता है और उसके साथ वार्ता आदि की कल्पना करता है तो सुख होता है । इस प्रकार के सुख की उत्पत्ति का कारण केवल कल्पना है । मित्रों के अंग का स्पर्श और वार्ता आदि सत्य नहीं है । इसी रीति से भीषण अग्नि के भडकने और उसमें अपनी संपत्ति के विनाश की कल्पना से दुःख उत्पन्न होता है । अथवा जब कोई शत्रु भाव से किसी को प्रिय बन्धु के रोग आदि की मिथ्या सूचना देता है तब सुनने वाले को दुख होता है । इसी रीति से विष खाने की भ्रान्ति हो जाय तो भी मनुष्य दुःखी होकर विलाप करता है । इस प्रकार के समस्त दुःख ज्ञान से उत्पन्न हैं। इन दो प्रकार के सुख दुःखों का भेद प्रत्यक्ष सिद्ध है और युक्ति से भी सिद्ध है । सत्य भोजन से जो तृप्ति होती है वह भोजन के भ्रम से नहीं होती । तृप्ति का भ्रम हो सकता है, पर उदर के साथ खाद्य पदार्थों के संबंध से जो परिणाम उत्पन्न होता है वह तृप्ति के भ्रम से नहीं उत्पन्न होता । सत्य तृप्ति क्रिया का फल है । इन्द्रियों का अर्थ के साथ जब संबंध होता है तब क्रिया होती है । कुछ काल तक तृप्ति का भ्रम हो सकता है पर उसके द्वारा क्षुधा की शान्ति नहीं होती । जब क्षुधा तीव्र होती है तब तृप्ति का भ्रम दूर हो जाता है। जब तक मनुष्य भोजन नहीं करता तब तक क्षुधा की पीडा नहीं दूर होती । कल्पना से उत्पन्न सुख दुःख