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होता है । इसके अनन्तर अर्थ की प्रतीति होती है । इस रोति से लिपि अक्षर और व्यञ्जनाक्षर श्रुतज्ञान के कारण हैं । श्रुतज्ञान के कारण होने से उनमें श्रुत शब्द का व्यवहार उपचार से है । प्राण की रक्षा का साधन होनेसे जिस प्रकार अन्न प्राण कहा जाता है इसी प्रकार शब्द से जाय बोधरूप श्र तज्ञान का साधन होनेसे ये दोनों श्रुत कहे जाते है।
मूलम् - लब्ध्यक्षरं तु इन्द्रियमनोनिमित्तः श्रतोपयोगः तदावरणक्षयोपशमो वा-एतन पगेपदेशं विनापि नासम्भाव्यम् , अनाकलितो. पदेशानामपि मुग्धानां गवादीनां च शब्दश्रवणे तदाभिमुख्यदशनात्, एकेन्द्रियाणामप्यव्यक्ताक्षरलाभाच्च। ___ अर्थ--(१) वचन को सुनकर इन्द्रिय और मनरूप निमित्त से जो श्रुतज्ञान होता है वह लब्धि अक्षर है । अथवा श्रुत ज्ञान के आवरण का क्षयोपशम लब्धि अक्षर है । परके उपदेश के बिना भी लब्धि अक्षर रूप श्रुत हो सकता है । जिन्होंने उपदेश नहीं प्राप्त किया इस प्रकार के मुग्ध लोग और गौ आदि भी शब्द सुनकर जिस दिशा से शब्द आ रहा है उस दिशा की ओर देखते हैं। इतना ही नहीं एकेन्द्रिय जीवों को भी अक्षरश्रुत का अव्यक्त लाभ होता है।