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विवेचनाः-शास्त्रों में मनःपर्याय दर्शन रूप नहीं है, किन्त ज्ञान रूप है यदि मनःपर्याय विशेष धर्मों से सर्वथा रहित शुद्ध पर्याय को जाने तो मनः पर्याय का एक भेद दशंन रूप भी हो जायगा। अत: ऋजमति नाम का जो मन:पर्याय-सामान्य को जानता है वह विशेष रूप सामान्य को हो जानता है । (वह एक, दो अथवा तीन विशेषों को भी जान सकता है। ) यहाँ पर सामान्य शब्द न्यून संख्या के विशेषों का बोधक है।
मूलम्:-विपुला विशेष ग्राहिणी मतिविपुलमतिः । तत्र ऋजुमत्या घटादिमात्र मनेन वि. नितमिनि ज्ञायते, विपुलमत्या तु पर्यायशतोपेतं तत् परिच्छिद्यत इति । ___ अर्थः-बहु संख्या में विशेषों को जो मति ग्रहण करती है वह विपुलमति है इतना ही ऋजुमति जानता है। विपुलमति तो उसी घट को सेंकडों पर्यायों के साथ जानता है।
मूलमः-एते च द्वे ज्ञाने विकलविषयत्वादिकलप्रत्यक्षे परिभाष्यते ।
अर्थः-अवधि और मनःपर्याय ये दो ज्ञान समस्त पर्यायों को नहीं जानते । इन दोनों का विषय विकल है, इसलिए ये विकल प्रत्यक्ष कहे जाते हैं।