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[--मनःपर्यवज्ञान का निरूपण---]
मूलम्- मनोमात्रसाक्षात्कारि मनःपर्यत्रज्ञानम् । मनःपर्यायानिदं साक्षात्परिच्छेत्तुम. लम् . प.ह्यानर्थान् पुनस्तदन्यथाऽनुपपत्त्याऽनुमानेनैव परिच्छिनत्तीति द्रष्टव्यम्।
अर्थ---जो ज्ञान केवल मन का साक्षात्कार करता है वह मनःपर्यव ज्ञान है। यह ज्ञान केवल मन के पर्यायों को साक्षात् करने में समर्थ है । बाह्य अर्थों को तो अनुमान से ही जानता है। मन के पर्याय बाह्य अर्थों के बिना नहीं हो सकते, इसलिए उन बाह्य अर्थों का उसको अनुमान होता है। ___विवेचना--मन में जो पर्याय होते हैं उनका प्रत्यक्ष मनःपर्यव ज्ञान कर सकता है। इन बाह्य पदार्थों का ज्ञान न हो तो इस प्रकार के मन के पर्याय नहीं उत्पन्न हो सकते इस रीति से मनःपर्याय ज्ञानी मनुष्य अनुमान करता है इसलिये बाह्य अर्थों का ज्ञान उसको अनुमान के द्वारा ही होता है।
समस्त अर्थों के विषय में केवल ज्ञान उत्पन्न होता है बह.मन द्रव्य को भी प्रत्यक्ष करता है। परन्तु मनःपर्यव ज्ञान मन को ही प्रत्यक्ष करता है । केवल ज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान का इतना भेद है। ___ रूपवाले द्रव्यों के विषय में अवधिज्ञान होता है मन पौद्गलिक है, इसलिए वह रूपी द्रव्य है। परन्तु कोई भी अवधिज्ञान इस प्रकार का नहीं है जो केवल मन का प्रत्यक्ष