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का निश्चय रूप यह प्रथम अपाय उत्तरवर्ती "यह शब्द शङ्क का ही है'' इत्यादि अपाय की अपेक्षा से सामान्य का प्रकाशक है। भावी काल की अन्य ईहा और अन्य अपाय की अपेक्षा से यह शब्द शङ्ख का ही है इस प्रकार का विशेष ज्ञान भी सामान्य ज्ञान कहलाता है। इस रीति से सामान्य और विशेष का व्यवहार अपेक्षा से वस्तु के अंतिम विशेष तक चलता है । जिस विशेष के अनंतर वस्तु के अन्य विशेष न हों वह अन्तिम विशेष है। अथवा अन्य विशेष के होने पर भी जिस विशेष के अनन्तर ज्ञाता की जिज्ञासा दूर हो जाती है वह अन्तिम है। व्यावहारिक अर्थावग्रह ईहा और अपाय के लिये अन्तिम विशेष तक सामान्य और विशेष की अपेक्षा चलती है क्षिप्र और अक्षिप्र आदि भेद व्यावहारिक अर्थावग्रह के ही है।
उत्तर-उत्तर काल के ज्ञानों की जो प्रवृत्ति है वह ज्ञानसन्तान कहो जाती है। इस ज्ञान संतान के कारण सामान्य विशेष का व्यवहार व्यवहारिक अवग्रह में उत्पन्न होता है । यदि व्यावहारिक अवग्रह स्वीकार न किया जाय तो प्रथम अपाय के अनन्तर ईहा न हो, और उसके अनन्तर उत्तरवर्ती विशेषों का ज्ञान न हो। इस दशा में प्रथम अपाय से जो अर्थ निश्चित है वह विशेष ही होगा, सामान्य नहीं। इस कारण अपेक्षा मूलक सामान्य विशेष व्यवहार असंभव हो जायगा। अन्तिम विशेष तक सामान्य विशेष के व्यवहार के लिये व्यावहारिक अर्थावग्रह आवश्यक है।
ध्यान रहे, निश्चय से जो अर्थावग्रह है उसका विषय अव्यक्त सामान्य है । वह किसी अपेक्षा से विशेष नहीं है उसकी अपेक्षा पूर्व काल में यदि सामान्य ज्ञान हो तो वह विशेष हो सकता है। पर इस प्रकार नहीं होता अतः वह