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विवेचना-मतिज्ञान प्रमाण है । अज्ञात अर्थ को यथार्थ रूप में जो जानता है वह प्रमाण कहा जाता है। अवग्रह और ईहा ये दो ज्ञान अज्ञात अर्थ को प्रकाशित करते हैं परंतु अविच्युति और स्मृति ये दो ज्ञान जिस अर्थ का ज्ञान पहले हो चुका है उसीको प्रकाशित करते हैं। इन दो में से जो अविच्युति हैं वह पहले हो चुके अपाय का ही बारबार आवर्तन है । आवर्तन से वस्तु का स्वरूप भिन्न नहीं होता प्रत्युत वही स्वरूप दृढ हो जाता है। अतः पहली बार का अपाय जिस वस्तु को जानता है उसीको ही दूसरी बार का अपाय जानता है। इसी रीति से तीसरी और चौथी आदि बारों के अपाय भी पहले जाने हए अर्थ को ही जानते हैं, इसलिये गृहीत-ग्राही होने के कारण अविच्युति प्रमाण नहीं है प्रमाण न होने से मतिज्ञान का भेद नहीं है।
स्मृति भी पूर्व काल में जिस अर्थ का अनुभव हो चुका है उसो अर्थ में होती है। अज्ञात अर्थ का प्रकाशक न होने के कारण वह भी प्रमाण नहीं है। इसी कारण मतिज्ञान का भंद रूप भी नहीं हो सकती।
जो संस्कार है वह चाहे कर्म का क्षयोपशम रूप हो, अथवा ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति के रूप में हो, अज्ञानात्मक है । इस कारण ज्ञानात्मक मति का भेद नहीं हो सकता । संस्कार का स्वरूप बिकल्पात्मक भी नहीं हो सकता, कारण संस्कार चिर काल तक रहता हैं पर विकल्प की स्थिति अल्प काल की है। इस रीति से अवग्रह, ईहा, और अपाय से भिन्न मतिज्ञान का कोई स्वरूप सिद्ध नहीं होता।
मूलम्-न, स्पष्टस्पष्टतरस्पष्टतमभिन्नधर्मकपासनाजनकत्वेन अन्यान्यवस्तुग्राहित्वादवि -