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स्य प्रागेवोपरतत्वात् कालान्तरे जायमानोपयोगेऽप्यन्वगमुख्यां धारणायां स्मृत्यन्तर्भावा
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दिति चेत् ;
अर्थ - शंका - आप जिस धारणा को मानते हो उसकी सत्ता ही नहीं है इसलिए मतिज्ञान के चार भेदों के साथ विरोध नहीं है। वह इस रीति से उपयोग का नाश हो जाने पर धारणा किस प्रकार हो सकती है ? घट आदि का उपयोग समाप्त हो जाने के अनन्तर संख्येय अथवा असंख्येय काल तक जो वासना मानी जाती है और 'वह ही' इस आकार वाली जो स्मृति होती हैं वह मति का अंश रूप धारणा नहीं हो सकती । कारण, मति का उपयोग पहले ही समाप्त हो चुका है । कालान्तर में फिर जो उपयोग होता है उसमें अन्वयी धर्मों के द्वारा अर्थ का जो निश्चय होता है वह मेरे मंत के अनुसार धारणा है। उसमें स्मृति का अन्तर्भाव होता है। इसलिए मेरे मत में ही चार भेद हो सकते हैं। आपके मत के अनुसार चार भेद उपपन्न नहीं होते ।
विवेचना - व्यतिरेको धर्म के द्वारा निश्चय अपाय है और अन्य धर्म के द्वारा निश्चय धारणा है । मेरे मत के अनुसार अपाय और धारणा का यह भेद है । इसी रीति से अति ज्ञान के अवग्रह आदि चार भेद हो सकते हैं । अन्वय और व्यतिरेक से युक्त दोनों प्रकार के धर्मों के द्वारा जो