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अवधारणात्मक ज्ञान होता है वह निश्चय रूप है इस प्रकार जो स्वीकार किया जाय तो अवग्रह, ईहा, और अपाय ये तीन भेद ही हो सकते हैं । उस दशा में धारणा नामक चतुर्थ मेद नहीं हो सकता । आप अपाय के पीछे तीन प्रकार को धारणा को स्वीकार करते हो । उनमें निरन्तर उपयोग रूप जिस अविच्युति को धारणा कहते हो वह अपाय से भिन्न नहीं है । अपाय निश्चय रूप है, वह यदि बार बार हो तो इस कारण उसके स्वरूप में किसी प्रकार का भेद नहीं आ सकता । काल के भेद से एक ही निश्चय अनेक बार होता है। काल का भेद वस्तु के स्वरूप में भेद को नहीं उत्पन्न करता । इस लिए अविच्युति का अपाय में अन्तर्भाव है ।
अपाय से संस्कार उत्पन्न होता है वह अपाय के नष्ट हो जाने पर भी चिर काल तक रहता है । इसी संस्कार को आप वासना नामक धारणा कहते हो । परन्तु यह वासना मतिज्ञान का अंश रूप नहीं हो सकती । मति ज्ञान अनुभवात्मक है पर वासना अनुभव रूप नहीं। जिस काल में मतिज्ञान विद्यमान नहीं है उस काल में भी वासना विद्यमान है । जो वर्तमान है वह अतीत वस्तु का अंश नहीं हो सकता बासना अपने स्वरूप को चिर काल तक धारण करती है इस लिए यह धारणा नामसे कही जा सकती है, परन्तु उसका संबंध मतिज्ञान के साथ नहीं हो सकता । इस कारण वासना मति का भेद नहीं ।
अपाय से संस्कार और संस्कार से कालान्तर में स्मृति होती है यह स्मृति जब मति का नाश होता है उसके अनन्तर बहुत काल के बीत जाने पर भी उत्पन्न होती है इस लिए वह भी मति का अंश नहीं हो सकती। स्मृति उपयोग रूप है अपाय