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है और शब्दत्वरूप अन्वय धर्म का संबंध होता है । नैश्चयिक अवग्रह सामान्य मात्र का प्रकाशक है । उसके अनन्तर उक्त रीति से ईहा होती है।
"यह शब्द है" इस रीति से विशेष का प्रकाशक बोध व्या. वहारिक अवग्रह है। उसके उत्तर काल में इस शब्द में मधुरता आदि को प्रतीति होती है। मधुरता आदि शङ्ख आदि से उत्पन्न शब्द का असाधारण धर्म है। वह शृङ्ग आदि से उत्पन्न शब्द में नहीं है। इस असाधारण धर्म के द्वारा अशांखत्व रूप व्यतिरेक धम का निषेध और शांखत्व रूप अन्वय धर्म का संबंध होता है । मधुरता आदि के कारण यह शब्द शंख का होना चाहिये इस प्रकार का बोध व्यावहारिक अवग्रह के पीछे होता है । इस रीति से दोनों ईहाओं में भेद है।
मूलम्-न चेयं संशय एव: तस्यैकत्र धर्मिणि विरुडनानार्थज्ञानरूपत्वात् , अस्याश्च निश्चयाभिमुखत्वन विलक्षणत्यत् ।
अर्थ-यह ईहा संशय ही नहीं है । एकधर्मी में परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का ज्ञान संशय है । ईहा निश्चय की दशा में जाती है-इसलिये संशय से भिन्न है।
विवेचना-संशय भाव रूप और अभाव रूप धर्मों में समानरूप से प्रवृत्ति करता है। यह स्थाणु है अथवा पुरुष इस प्रकार का ज्ञान संशय है । इस ज्ञान में एक कोटि स्थाणुभाव की है और दूसरी कोटि अस्थाणुभाव की है। दोनों कोटियों में समान बल है, कोई एक कोटि प्रबल नहीं है। ईहा अभावरूप धर्म का निषेध करती है और भावरूप