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विवेचना-जिस काल में व्यञ्जनावग्रह होता है उस काल में अर्थ की उपलब्धि नहीं होती। इसलिये उत्तरवर्ती काल में अर्थ की प्रतीति होती है। स्वचा प्रादि इन्द्रियों का क्षयोपशम तीव्र नहीं, इसलिये प्रथम समय में उनके द्वारा अर्थ की प्रतीति नहीं होती। मन का क्षयोपशम तीव्र है इसलिये प्रथम काल में ही अर्थावग्रह होता है. व्यंजनावग्रह का अवसर ही नहीं है। तीव्र क्षयोपशम के कारण जिस प्रकार चक्षु प्रथम समय में अर्थ को देखती है इस प्रकार मन प्रथम समय में ही अर्थ को जानता है । इस प्रकार का कोई काल नहीं जिसमें विषय के साथ मन का संबंध हो पर अर्थ की प्रतीति न हो। इस कारण मन का व्यञ्जनावग्रह असंभव है। ___ इतना ही नहीं श्रवण आदि इन्द्रियों के द्वारा जब शब्द आदि का ज्ञान होता है तब भी व्यंजनावग्रह के हो चुकने पर मन का व्यापार होता है । जब शब्द आदि के साथ श्रवण आदि इन्द्रियों का संबंध होता है तब मन का व्यापार नहीं होता। जिस काल में श्रवण आदि इन्द्रियों से अवग्रह होता है उस काल में ही मन व्यापार करता है।
मलम्-'मनुतेऽर्थान् मन्यन्तेऽर्थाः अनेनेति वा मनः' इति मनः शब्दस्यान्वश्वत्वात् , अर्थभाषणं विना भाषाया इछ अर्थमननं विना मनसोऽप्रवृत्तः । तदेवं नयनमनसोर्न व्यञ्जमावग्रह इति स्थितम् ।
अर्थ-'जो पदार्थों का मनन करता है अथवा जिसके झारा पदार्थों का मनन होता है वह मन है । इस रीति