________________
६८
जानता है। केवल हृदय के साथ ही नहीं, जिनका हृदय के साथ संबंध है इस प्रकार के रुधिर आदि के साथ भी मन का संबंध अपरिहार्य है, परन्तु मन रुधिर आदि को नहीं जानता जिस प्रकार रुधिर आदि के साथ मन का संबंध केवल संबंध है वह रुधिर आदि के ज्ञान में कारण नहीं है-इस प्रकार हृदय के साथ मन का संबंध केवल संबंध है, वह हृदय के ज्ञान में कारण नहीं है। मन जिस प्रकार संबन्ध के बिना वृक्ष आदि को जान सकता है इस प्रकार हृदय आदि को भी जानने में समर्थ है । शरीर के अन्दर मन और हृदय दोनों हैं। हृदय आदि मन के संबन्धी हैं। इस कारण अपरिहार्य रूप से हृदय आदि के साथ मन का संबंध है पर वह हृदय आदि के विषय में जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसमें कारण नहीं है। मन के द्वारा ज्ञान में संबंध सहकारी नहीं इसलिये मन अप्राप्यकारी है।
मूलम्-क्षयोपशमपाटवेन मनसः प्रथममर्थानुपलब्धिकालसम्भवादा, श्रोत्रादीन्द्रियव्यापारकालेऽपि मनोव्यापारस्य व्यञ्जनावग्रहोत्तर. मेवाभ्युपगमात्,
अर्थ-तीव्र क्षयोपशम के कारण प्रथम समय में अर्थ की अनुपलब्धि का काल मन के विषय में संभव नहीं है इस कारण भी मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता । श्रोत्र आदि इन्द्रियों का व्यापार जिस काल में होता है उस काल में भी मन का व्यापार व्यंजनावग्रह के अनन्तर स्वीकार किया जाता है।