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और वह काल व्यञ्जनावग्रह का काल है और अर्थ की प्रतीति से शून्य है । इस कारण यह पक्ष युक्त नहीं ।
विवेचना-रूप आदि से भेद का ज्ञान ईहा बिना असम्भव है और ईहा सामान्य रूप से वस्तु का ज्ञान न हो, तो होती नहीं। यदि आप ईहा से पूर्व सामान्य रूप में ज्ञान को स्वीकार करें तो उस ज्ञान का कोई काल होना चाहिये । यदि वह काल, हमने अर्थावग्रह का जो काल माना है वही होता अर्थावग्रह का जो स्वरूप हम कहते हैं उसको सिद्धि हो जायगी । इसलिये आपके अभिप्राय के अनुसार अर्थावग्रह का जो काल हम मानते हैं उससे पूर्व काल में सामान्य ज्ञान के काल को मानना होगा । उससे पूर्व में व्यंजनावग्रह का काल है। उस काल में सामान्यरूप अथवा विशेषरूप अर्थ को प्रतीति नहीं होती, कारण, उस काल में केवल इन्द्रिय का व्यापार है । मन का व्यापार उस काल में नहीं है । इसलिये हम सामान्यज्ञानरूप जिस अर्थावग्रह को मानते हैं वही उचित है। उसके पोछे अन्वयी और व्यतिरेकी धर्मों की आलोचना रूप ईहा होती है । उसके पीछे 'यह शब्द है' इस प्रकार का निश्चयात्मक अपाय होता है।
मूलम्-नन्वनन्तरम्-'क एष शब्दः' इति शब्दत्वावान्तरधर्मविषयकेहानिर्देशात् 'शब्दोऽयम्' इत्याकार एवावग्रहोऽभ्युपेय इति चेत् , ___ अर्थ-शंका-अर्थावग्रह के पीछे यह कौनसा शब्द है ? इस रीति से शब्दत्व के अवान्तर धर्म के विषय में