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व्यञ्जनावग्रह न हो तो गीत का सुनना आदि क्रियाएँ मन से नहीं हो सकती।
मूलम्-न,तदा स्वप्नाभिमानिनोऽपि श्रवणाघवग्रहेणैवोपपत्तः।
अर्थ-आपका वचन युक्त नहीं हैं। उस काल में वह स्वप्न को मानता है पर कान आदि इन्द्रियों के अवग्रह से ही गीत आदि का श्रवण होता है।
विवेचना-उस काल में व्यंजनावग्रह होता है पर वह ध्यंजनावग्रह कान, जीभ नासिका और स्वचा इन्द्रियों का होता है । जागता मनुष्य कान से सुनता है और अन्य इन्द्रियों से रस आदि को जानता है । शब्द आदि के इस ज्ञान में मन सहायक है, परन्तु उसका संबंध बाह्य इन्द्रियों के साथ नहीं होता। स्त्यानधि निद्रा कुछ एक अशो में जागरण दशा के साथ मिलती-जुलती है. अतः उस दशा में भी कान आदि इन्द्रियों का ही व्यंजनावग्रह होता है-मन का नहीं, इस कारण मन प्राप्यकारी नहीं है।
मूलम्-ननु च्यवमानो न जानाति' इत्यादि पचनात सवस्यापि छमस्थोपयोगस्यासङ्खयेय. समयमानत्वात्, प्रतिसमयं च मनोद्रव्या ग्रहणात् विषयमसम्प्राप्तस्यापि मनसो देहादनिर्गतस्य तस्य च स्वसन्निहितहृदयादिचिन्त. नवेलायां कथं व्यजनावग्रहो न भवतीति चेत्,