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अर्थ-"च्यवमानो न जानाति" इस वाक्य के अनु. सार छद्मस्थ का उपयोग असंख्येय समय में होता है और रहता है और प्रत्येक समय में मन द्रव्य का ग्रहण होता है। विषय के साथ मन का संबंध न हो और देह से बाहर मन न निकले तो भी अपने साथ सम्बद्ध हृदय आदि का चिन्तन जब मन करता है तब व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होता?
विवेचना-आगम के अनुसार जीव को ज्ञान असेख्यात समयों में होता है और प्रत्येक समय में जीव अनन्त मन द्रव्यों का ग्रहण करता है। इन मन द्रव्यों के साथ मन का संबध आवश्यक है। शब्द आदि के साथ कान आदि इन्द्रियों का संबंध जिस प्रकार व्यञ्जनावग्रह है इस प्रकार मन द्रव्यों के साथ मन का संबंध व्यञ्जनावग्रह होना चाहिये। शब्द आदि रूप में परिणत द्रव्य अथवा उसके साथ संबंध व्यंजन है। द्रव्य रूप व्यंजन अथवा संबंध रूप व्यंजनों से जो अवग्रह है-वह व्य. जनावग्रह है। संबंध का संबंधी के साथ सर्वथा भेद नहीं है, अभेद भी है, इस लिये संबंध जिस प्रकार व्यंजनावग्रह है इस प्रकार संबंध से अभिन्न द्रव्य भी व्यंजनावग्रह है । इस रीति से बाह्य विषयों के साथ संबंध न होने पर भी मन जिन द्रव्यों का ग्रहण करता है उनके साथ संबंध होने से मन का व्यञ्जनावग्रह आवश्यक है।
और जब मन हृदय आदि को चिन्ता करता है तब अपने शरीर में रहे हृदय के साथ संबंध अवश्य होता है। यहाँ पर मन का ग्राह्य विषय हृदय है उसके साथ संबंध होने से