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इसलिये प्रमाण भौर फल रूप में होनेके कारण ज्ञान स्व और पर का व्यवसायी है। न केवल प्रमाण फल रूप ज्ञान भी प्रमाण से अभिन्न होने के कारण स्व और पर का व्यवसायी है। उपयोग रूप से प्रमाण और फल का अभेद है। फल स्व का निश्चय कराता है, इसलिये उससे अभिन्न होने के कारण प्रमाण भी स्व का निश्चय कराता है। प्रमाण पर का निश्चय कराता है, इसलिये उससे अभिन्न होने के कारण फल भी पर का निश्चय कराता है।
इस प्रकार ज्ञान के प्रमाण सिद्ध होने पर १ प्रमाता २ प्रमाण और ३ प्रमा के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये ग्रन्थकार कहते हैंमूलम्-इत्थं चात्मव्यापाररूपमुपयोगेन्द्रियमेव
प्रमाणमिति स्थितम् । अर्थ-इस रीति से ज्ञान के स्व और पर का व्यवसाय
करानेवाला होने पर आत्मा का व्यापार स्वरूप उपयोग इन्द्रियात्मक प्रमाण है।
विवेचना-इन्द्रिय को प्रमाण रूप कहा जाता है न्याय आदि के मत को मानने वाले जिन इन्द्रियों को प्रमाण कहते हैं वे ज्ञानात्मक नहीं है जड हैं। स्याद्वाद में प्रमाण ज्ञानात्मक होता है। चक्षु आदि इन्द्रिय ज्ञान रूप नहीं हैं इस लिये प्रमाण नहीं हैं। इन्द्र का अर्थ है आत्मा, उसके साधन को इन्द्रिय कहते हैं । अर्थ के प्रकाशन में नेत्रादि इन्द्रिय साधन हैं पर साक्षात् सम्बन्ध से नहीं । नेत्रादि से ज्ञान प्रकट होता है। ज्ञान सीधा अर्थ को प्रकाशित करता है। ज्ञान को अर्थ