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उसमें किसी अर्थ का प्रकाशन नहीं है । अर्थ के साथ सम्बन्ध होने पर ज्ञान अर्थ का प्रकाशक बनता है। इसीके कारण ज्ञान प्रमाण कहा जाता है। विषय का प्रकाशक ज्ञान आने स्वरूप को जानता है, वह किसी अन्य विषय का प्रकाशक नहीं है, इसलिये फल ज्ञान स्व का निश्चय कराता है । ज्ञान मात्र स्वप्रकाशक है। यदि स्व प्रकाशक होने के कारण जान प्रमाण हो तो संदेह और भ्रम ज्ञान भी स्व प्रकाशक होने के कारण प्रमाण हो जाने चाहिये, निश्चित अर्थ का प्रकाशक होने से ज्ञान प्रमाण होता है । इसलिये प्रमाण को पर का निश्चय कराने वाला और फल को स्वरूप का निश्चय कराने वाला मानना चाहिये। इस रीति से प्रमाण को पर का व्यवसायी और फल को स्व का व्यवसायी मानने से प्रमाण का प्रकृत लक्षण उपपन्न नहीं होगा । अब प्रमाण स्व पर दोनों का व्यवसायी नहीं रहा। किन्तु केवल पर व्यवसायी हो गया है। ___ इसके उत्तर में सिद्धान्ती कहता है
मलम्-न, प्रमाण-फलयोः कश्चिदभेदेन तदु. पपत्तेः।
अर्थ-सिद्धान्ती कहता है प्रमाण और फल में किसी अपेक्षा से अभेद है-इसलिये प्रमाग स्व और पर दोनों का निश्चय कर सकता है ।
विवेचना-न्याय आदि के मत में जिस प्रकार प्रमाण और फल का अत्यंत भेद है इस प्रकार जैन मत में नहीं है । स्याद्वाद में एक अपेक्षा से भेद है तो अन्य अपेक्षा से अभेद भी है। स्व का प्रकाशक जो फलरूप ज्ञान है वह पर अर्थ के