________________
भी प्रतीत होता है। अन्यों से भेद को प्रकाशित करने के कारण शुक्ल विशेषण व्यावर्तक है।
प्रकृत प्रमाण के लक्षण में 'स्व पर' यह विशेषण स्वरूप का बोधक विशेषण है इस लक्षण का 'व्यवसायी" पद अप्रमाण ज्ञानों से प्रमाणभूत ज्ञानको भिन्न करता है । 'स्व पर' पदसे तो 'स्व रूप' और पर रुप का प्रकाशक प्रतीत होता है। संदेह आदि अप्रमाण ज्ञान भी स्व रूप और पर रूप के प्रकाशक होते हैं।
मलम्-ननु यद्येवं सम्यग्ज्ञानमेव प्रमाणमिष्यते तदा किमन्यत् तत्फलं वाच्यमिति चेत्
__ अर्थ-यदि इस प्रकार सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है तो उससे भिन्न फल क्या होगा ? विवेचना-शंकाकार कहता है, ज्ञान को यदि प्रमाण कहा जाय तो उसका फल क्या होगा ? प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं। करण से फल भिन्न होता है । कुल्हाडी से लकडी काटो जाती है। कुल्हाडी करण है और लकडी का कटना फल है, दोनों का भेद स्पष्ट है। प्रकृत लक्षण के अनुसार सम्यग्ज्ञान प्रमाण है तो उसका फल उससे भिन्न होना चाहिये । न्याय मत के अनुसार घट आदि के ज्ञान की उत्पत्ति के कारण चक्ष आदि इन्द्रिय हैं, ज्ञान उनका फल है। इन्द्रिय और ज्ञान का भेद स्पष्ट है । जब ज्ञान ही प्रमाण हो तो उसका फल कोई भिन्न होना चाहिए। भिन्न फल के बिना सम्यगज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता।
इसके उत्तर में सिद्धान्तो कहता है