________________
मुलम्-१दपेशलम् , उपयोगात्मना करणेन लब्धेः फलं व्यवधानात् ,
अर्थ-उपयोग रूप करण के द्वारा लब्धि के फल में व्यवधान हो जाता है इसलिये लब्धीन्द्रिय का प्रमाणमय स्वरूप युक्त नहीं।
विवेचना-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककार अर्थ ग्रहण को शक्ति को प्रमाण कहते हैं और वह शक्ति जैन मत के अनुसार लब्धीन्द्रिय रूप है । जैन मत में इन्द्रिय दो प्रकार की हैं १-द्रव्येन्द्रिय २-भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं १-निर्वृत्ति इन्द्रिय २-उपकरण इन्द्रिय । इनमें निर्वृत्ति इन्द्रिय चक्षु आदि का गोलक आदि अधिष्ठान रूप है। इस अधिष्ठान का जो शक्ति विशेष है वह उपकरणेन्द्रिय है। भावेन्द्रिय के भी दो भेद हैं १-उपयोगेन्द्रिय २-लब्धीन्द्रिय ।
स्वपर व्यवसायी ज्ञान यह उपयोगेन्द्रिय रूप है। अर्थ का ज्ञान उपयोग के द्वारा होता है, उस उपयोग की अर्थ ग्रहण के लिये जो शक्ति है वह लब्धीन्द्रिय है । जब श्लोकवार्तिककार अर्थ ग्रहण की शक्ति को करण रूप कहते हैं तब वह शक्ति लब्धीन्द्रिय रूप में फलित होती है। यह शक्ति रूप लब्धीन्द्रिय ही वार्तिककार के मत के अनुसार प्रमाण है, अन्य इन्द्रिय प्रमाण रूप नहीं है।
जैन मत के अनुसार प्रमाण का जो स्वरूप है वह लब्धीन्द्रिय का नहीं हो सकता। अर्थ की प्रमा फल है। उसमें जो व्यवधान के बिना करण हो वह प्रमाण है। करण के अव्यवहित उत्तर क्षण में फल होता है । लब्धीन्द्रिय शक्तिरूप है, जब अर्थ का ज्ञान होता है तब अर्थ ज्ञान के अव्यवहित