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दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार मति आदि ज्ञान में प्रत्यक्ष व्यवहार नहीं होना चाहिये । अवधि आदि ज्ञान उत्पत्ति के लिये जीव पर आश्रित हैं. इस लिये वे प्रत्यक्ष कहे जा सकते हैं । परन्तु मति और श्रुतज्ञान, केवल आत्मा के अधीन नहीं हैं। इसके लिये बाह्य इन्द्रियों की अपेक्षा है। इस कारण इस व्युत्पत्ति के अनुसार मति आदिमें प्रत्यक्ष व्यवहार नहीं हो सकता।
___ यद्यपि अवधि आदि ज्ञान केवल आत्मा की अपेक्षा नहीं करता, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम आदि की भी अपेक्षा करता है, परन्तु चक्षु आदि इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं करता, प्रधान रूप से आत्मा की अपेक्षा करता है इसलिये दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार प्रत्यक्ष पद का व्यवहार अवधि आदि प्रत्यक्ष में हो सकता है। परन्तु जो ज्ञान प्रधानरूप से इन्द्रिय जन्य है, आत्मा जिसमें प्रधान रूप से कारण नहीं है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष पद से वाच्य नहीं हो सकता।
कुछ लोग दोनों प्रत्यक्षों में अव्याप्ति को दूर करने के लिये इन्द्रिय और आत्मा इन दोनों का अन्यतर रूप से ग्रहण कर के लक्षण करते हैं । परन्तु इस रीति से दोनों प्रत्यक्षों में पारमार्थिक अनुगत भावात्मक धर्म की प्रतीति नहीं हो सकती।
"इन्द्रियात्मान्यतरजन्यत्वं प्रत्यक्षत्वम्” इस लक्षण के अनुसार जो ज्ञान इन्द्रिय और आत्मा इन दोनों में से किसी एक के द्वारा उत्पन्न हो-वह प्रत्यक्ष है । अब दोनों प्रकार के, मति आदि और अवधि आदि ज्ञान प्रत्यक्ष कहे जा सकते हैं। इन्द्रिय और आत्मा ये दोनों भिन्न हैं, परन्तु दोनों में अन्यतरत्व अनुगत धर्म है।