________________
कारी हैं । तीव्र कठोर शब्द सुनने से कान में पीडा होती है और कोमल संगीत के स्वरों से सुख का अनुभव होता है। इसी रीति से प्रतिकूल और अनुकूल स्पर्श आदि के द्वारा स्वचा आदि इन्द्रियों से सुख दुःख का अनुभव होता है । नेत्र और मन की दशा इन इन्द्रियों से भिन्न है। चक्षु और मन विषय के साथ संयोग करके ज्ञान को नहीं उत्पन्न करते। जल देखने से चक्षु गीली और अग्नि देखने से दग्ध नहीं होती । जल और अग्नि की चिन्ता से मन में गीलापन और दाह नहीं होता । इसलिये चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं ।
मूलम्-रवि-चन्द्राद्यवलोकने चक्षुषोऽनुग्रहोपघाती दृष्टावेवेति चेत्,
अर्थ-शंका-सूर्य और चन्द्र के देखने से नेत्र का उप. कार और उपघात देखा जाता है।
विवेचना-अग्नि के साथ संबंध से त्वचा जलती है और जल के संबंध से शीतल होती है। संबंध के बीना त्वचा में पीडा और शान्ति का अनुभव नहीं हो सकता इसलिये त्वचा प्राप्यकारी है। सूर्य और चन्द्र के तेज के साथ संबंध बिना नेत्र में पीडा और शान्ति नहीं हो सकती। इस कारण से स्वचा के समान चक्षु भी प्राप्यकारी है । चक्षु संबध कर के सूर्य और चन्द्र को देखती है।
मूलम्-न, प्रथमावलोकनसमये तददर्श. नात्, अनवरतावलोकने च प्राप्तेन रविकिरणादिनोपघातस्या (स्य), नैसर्गिकसौम्यादिगुणे