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मूलम्-अक्षेभ्योऽक्षादा परतो वर्तत इति परो
क्षम्, अस्पष्टं ज्ञानमित्यर्थः । अर्थ-अक्षों से अथवा अक्ष से पर जो रहता है वह ज्ञान
परोक्ष है, अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है-यह भाव है। __विवेचना-अक्षों से अर्थात् बाह्य इन्द्रियों से दूर देश में जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्ष है। यह प्रथम व्युत्पति है. इस व्युत्पत्ति के अनुसार धूम आदि के द्वारा जो अग्नि आदि का ज्ञान होता है । वह परोक्ष है, अग्नि का ज्ञान चक्षु से नहीं होता। अग्नि के साथ चक्षु का सम्बंध नहीं होताइसलिये धूम से अग्नि का ज्ञान परोक्ष है।
___ अक्ष से अर्थात् जीव से दूर होकर जो ज्ञान उत्पन्न होता है बह परोक्ष है, इस दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष है। बाह्य इन्द्रिय और मन से जो मान उत्पन्न होता है, वह सीधा आत्मा के सम्बंध से नहीं उत्पन्न होता । रूप आदि को जानने के लिए आत्मा जब इद्रिय और मन की अपेक्षा करता है तब आत्मा का रूप आदि के साथ सीधा सम्बंध नहीं रहता। इन्द्रियों के द्वारा जीव का रूप आदि के साथ सम्बंध होता है इस कारण इन्द्रिय और मन के द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान परोक्ष है।
___ इन दोनों व्युत्पत्तियों के अनुसार दो भिन्न प्रकार के ज्ञान परोक्ष हैं । यहाँ पर व्युत्पत्ति के निमित्तों में भेद होने पर भी परोक्षपद की प्रवृत्ति का निमित्त एक है। वह प्रवृत्ति का निमित्त अस्पष्टता है, जिस ज्ञान का स्वरूप अस्पष्ट है वह परोक्ष है। इन्द्रिय और मन के द्वारा रूप आदि का जो ज्ञान उत्पन्न होता है । उस ज्ञान में धूम आदि हेतुओं के