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इसलिये आपण को अर्थ ज्ञान की शक्ति भी प्रत्यक्ष है । इस रीति से शक्ति। रूप में परोक्ष होने पर भी आत्मा के साथ अभेद होने के कारण आत्मा की शक्ति प्रत्यक्ष भी है। प्रभाकर के मत में करण सर्वथा परोक्ष है, पर जैन मत में शक्तिरूप करण सर्वथा परोक्ष नहीं है । इस कारण प्रभाकर के मत में प्रवेश नहीं होता।
अब इसका उत्तर देते हुए कहते हैं
मलम्-न, द्राद्वारा प्रत्यक्षत्वेन सुखादिवत् स्वसंविदितत्वाव्यवस्थितेः,
अर्थ-आपका कथन युक्त नहीं । द्रव्य के द्वारा प्रत्यक्ष होने से सुख आदि के समान स्वसंविदित भाव की व्यवस्था नहीं हो सवती ।
विवेचना-जैन मत में प्रमाणभूतज्ञान जिस प्रकार बाह्य प्रर्थ का निश्चय कराता है इस प्रकार अपने स्वरूप का भी निश्चय कराता है। वह अपने स्वरूप के निश्चय में किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं रखता इस कारण से ही ज्ञान स्वसंविदित कहलाता है। ज्ञान से भिन्न घट आदि स्व. सविदित नहीं है, उनकी प्रतीति ज्ञान के द्वारा होती है, इसलिये बाह्य पदार्थ पर-प्रकाश्य कहे जाते हैं । जो ज्ञान शक्ति रूप में प्रमाण हो, तो वह बाह्य वृक्ष आदि के समान भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, उस दशा में वह दाह आदि को शक्ति के समान परोक्ष हो जायगा । जो वृक्ष आदि के समान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता वह स्वप्रकाश किस प्रकार हो सकता है? जो वस्तु अपने स्वरूप में ही प्रत्यक्ष होती है, वही स्वप्रकाश होती है। सुख आदि स्वप्रकाश है। सुख आदि को