________________
तत्त्वाथ श्लोकवार्तिक के कर्ता 'श्री विद्यानन्द' आत्मा को- अर्थ के अनुभव करने की शक्ति को प्रमाण कहते हैं।' उनके मत का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं
मलम्- केचित्त"ततोऽर्थग्रहणाकारा शक्तिर्ज्ञान मिहात्मनः। करणत्वेन निर्दिष्टा न विरूडा कथञ्चन ।।१।।"
[तत्त्वार्थ श्लोक वा० १-१.२२ ] - इति लब्धीन्द्रियमेवार्थग्रहणशक्तिलक्षणं प्रमाणं सङ्गिरन्तेः
अर्थ-कुछ लोग कहते हैं अर्थ के ग्रहण करने में आत्मा की शक्ति प्रमाण है। अर्थ ज्ञान का जो आकार है वही आकार शक्ति का है । इसलिये उसको करण रूप से कहा है और वह किसी प्रकार भी विरुद्ध नहीं है। इस रीति से अर्थ ज्ञान की शक्ति को वे प्रमाण कहते हैं।
विवेचना इस मत के अनुसार अर्थ का ज्ञान प्रमाण नहीं है, किन्तु अर्थ को जानने की शक्ति प्रमाण है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककार कहते हैं यह पक्ष आगम और युक्ति के विरुद्ध नहीं है। अर्थज्ञान की शक्ति का ज्ञान से अत्यन्त भेद नहीं है किन्तु भेद और अभेद है । करणरूप ज्ञान प्रत्यक्ष है इस लिये ज्ञान से अभिन्न शक्ति भी ज्ञान रूप में प्रत्यक्ष है। शक्ति का प्रतिक्षण परिणाम होता है। क्षणों का प्रत्यक्ष नहीं है इस लिये प्रतिक्षण परिणाम प्राप्त करने वाली शक्ति, शक्ति रूप में परोक्ष भी है।
इस मत की परीक्षा करते हुए ग्रन्धकार कहते हैं