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के प्रकाशित करने के लिये किसी अन्य सहायक को अपेक्षा नहीं होती। इसलिये अर्थ के प्रकाशन में इन्द्र का सीधा साधन होने के कारण ज्ञानात्मक उपयोग मुख्य रूप से प्रमाण है। इन्द्र के साधन को इन्द्रिय कहते हैं, इसलिये चक्ष आदि भी इन्द्रिय हैं । जैन मत में इन्द्रिय दो प्रकार की हैं द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैंनिर्वत्ति इन्द्रिय और उपकरण इन्द्रिय । चक्षु आदि इन्द्रियों के जो गोलक आदि अधिष्ठान हैं वे निर्वृत्ति इन्द्रिय हैं। इन अधिष्ठानों की शक्ति उपकरण इन्द्रिय है।
भावइन्द्रिय के भी दो भेद हैं-उपयोगइन्द्रिय और लब्धि इन्द्रिय । स्व और पर का व्यवसायी ज्ञान उपयोग इन्द्रिय है। अर्थ के ग्रहण करने में ज्ञान की जो शक्ति है उसको लब्धि इन्द्रिय कहते हैं । इनमें उपयोग इन्द्रिय प्रमाण रूप है। उपयोग आत्मा का व्यापार रूप है, इस रीति से ज्ञान-व्यापार. प्रमाण और प्रमा के रूप में है। 'अर्थ के सत्य स्वरूप को मैं ज्ञान से जानता हूँ'. इस प्रकार का अनुभव आत्मा को होता है। यह अनुभव ज्ञान को आत्मा के व्यापार रूप में और प्रमाण रूप में सिद्ध करता है। क्रिया के लिये कर्ता और करण जिस प्रकार आवश्यक हैं. इस प्रकार व्यापार भी आवश्यक है। कुल्हाड़ी से जब पुरुष काष्ठ को काटता है तब कुल्हाडी में व्यापार भी होता है। पुरुष कुल्हाडी को उठाता है और लकडी पर गिराता है। उठाने और गिराने के बिना कुल्हाडी लकडी को नहीं काट सकती। उठाना और गिराना व्यापार है। आत्मा रूप आदि का अनुभव करता है। बिना व्यापार के आत्मा अनुभव नहीं कर सकता। कर्ता और करण व्यापार के बिना क्रिया के