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के ज्ञान को स्व प्रकाशक मानते हैं इससे सिद्ध होता है, ज्ञान का स्वभाव स्व प्रकाशक है पर परिमित और अपरिमित होने के कारण अल्प और अधिक संख्या में अर्थों का प्रकाश करता है । दीपक छोटा है और सूर्य बडा है । दीपक थोडी दूर तक के अर्थों को प्रकाशित करता है और सूय पृथ्वी भर के अर्थों को प्रकाशित करता है । इतना भेद होने पर भी दीपक और सूर्य के स्व प्रकाशक स्वरूप में भेद नहीं है । प्रकाश के समान ज्ञान भी स्व और पर का प्रकाशक है ।
प्रकृत प्रमाण लक्षण का 'पर' पद ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार के मत का निषेध करता है । योगाचार लोग बौद्ध हैं । उनके अनुसार ज्ञान ही सत्य है । ज्ञान से प्रतीत होने वाला बाह्य अर्थ मिथ्या है। ज्ञान में जो कुछ प्रतीत होता है वह वस्तुतः विद्यमान नहीं है। परमार्थ की अपेक्षा से ज्ञान अपने स्वरूप का प्रकाशक है । ज्ञान से भिन्न पर नहीं है इसलिये पर प्रकाशक नहीं है । इस मत का निराकरण करने के लिये भी 'पर' पद है। ज्ञान के द्वारा प्रकाशित होने वाले अर्थ सभी मिथ्या नहीं हैं । कभी कभी ज्ञान में अविद्यमान अर्थ भी प्रकाशित होने लगते हैं। ग्रीष्म ऋतु में दूर से देखने पर मरुस्थल में भी पानी दिखाई देने लगता है। पर इस कारण पास में जो पानी दिखाई देता है वह मिथ्या नहीं हो जाता । मिथ्या जल से तृप्ति नहीं होती परन्तु सत्य जल से होती है । मिथ्या अर्थ का प्रकाशक ज्ञान प्रमाण नहीं होता । प्रकृत लक्षण प्रमाणभूत ज्ञान का है, वह सत्य अर्थ का प्रकाशक है । इस वस्तु को प्रकट करने के लिये लक्षण में 'पर' पद है । ज्ञान जिस प्रकार सत्य है इस प्रकार सत्य ज्ञान का विषय भी सत्य है ।