________________
११
परमेश्वर का ज्ञान स्वप्रकाशक न हो, तो उसको अप्रकाशित स्वरूप में ही स्थिर मानना पडेगा 1 जीवों को अनेक ज्ञान होते हैं इस लिये प्रथम ज्ञान को द्वितीय ज्ञान प्रकाशित कर सकता है । परन्तु परमेश्वर का ज्ञान नित्य और एक है । उसका कोई दूसरा ज्ञान नहीं है जो प्रथम ज्ञान को प्रकाशित कर सके । इस रीति से परमेश्वर का ज्ञान जीवों के ज्ञान की अपेक्षा भी बहुत हीन हो जायगा । इस आपत्ति को दूर करने के लिये नैयायिक परमेश्वर के ज्ञान को पर और स्व का प्रकाशक मानते हैं । यदि ज्ञान का स्वभाव स्वप्रकाशक न हो तो परमेश्वर का ज्ञान भी स्व प्रकाशक नहीं बन सकता । किसी भी अर्थ का स्वरूप परिमाण आदि में छोटा बडा हो सकता है. परन्तु अपने स्वरूप का त्याग नहीं कर सकता । वृक्ष आदि अर्थ स्व प्रकाशक नहीं है । उनको प्रकाशित करने के लिये सूर्य दीपक आदि की अपेक्षा होती है । वृक्ष आदि छोटे-बडे हो सकते हैं छोटा-बडा होना अर्थों का नियत स्वरूप नहीं हैं । सहकारी निमित्त कारणों से अर्थ छोटे-बडे हो सकते है, पर उनका स्वरूप सदा समान रहता है । वृक्ष आदि छोटे हों या बडे उनको प्रकाशित होने के लिये दीपक आदि के प्रकाश की अपेक्षा अवश्य रहेगी । छोटा वृक्ष आदि दीपक से प्रकाशित हो और बडा वृक्ष दीपक आदि के बिना स्वयं प्रकाशित हो जाय इस प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । जीवों का ज्ञान इन्द्रिय आदि से उत्पन्न होता है इसलिये वह एक अर्थ का अथवा दो-चार अर्थों का प्रकाशक हो सकता है । परमेश्वर का ज्ञान व्यापक है इसलिये समस्त अर्थों का प्रकाशक हो सकता है नहीं है, किन्तु व्यापक होने मात्र से कोई ज्ञान अपने अप्रकाशमय स्वरूप को छोड़ नहीं सकता । नैयायिक परमेश्वर
इतने में किसी प्रमाण का विरोध
C