Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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देवता और एक ब्राह्मण देवता । इन दोनो के बीच में यज्ञका विभाग होता है । यज्ञमें दीजानेवाली आहुतियां देवताओंके लिए हैं और दक्षिणा ब्राह्मण देवताके लिये है। यज्ञ में आहुति देकर यजमान देवोंको प्रसन्न करता है, और दक्षिणा देकर ब्राह्मण देवताओं को प्रसन्न करता है । जब ये दोनों प्रकारके देवता सन्तुष्ट हो जाते हैं तो यजमानको स्वर्ग प्रदान करते हैं ।"
यजमान के चार कर्तव्य हैं - उसे ब्राह्मणोंका आदर करना चाहिये, उन्हें दक्षिणा देनी चाहिये, उन्हें सताना नहीं चाहिये, उनकी हत्या नहीं करनी चाहिये । किसी भी परिस्थिति में राजाको ब्राह्मणकी संपतिको नहीं छूना चाहिये । यदि राजा यशकी दक्षिणा के रूपमें ब्राह्मणोंको अपना राज्य प्रदान करता है तो उस राज्य में रहनेवाले ब्राह्मणोंकी संपत्ति उसमें नहीं ली जायेगी । यदि राजा किसी ब्राह्मणको सताता है तो वह पापका भागी है। राजा के राज्यारोहणके अवसरपर पुरोहित कहता है - ऐ मनुष्यो ! यह तुम्हारा राजा है हम ब्राह्मणोंका राजा तो सोम है । शतपथ ब्राह्मण कहता है कि इस कथन के आधारपर वह ब्राह्मणोंके सिवाय समस्त जनताको राजाका भक्ष्य घोषित करता है, अतः राजा ब्राह्मणोंका उपभोग भक्ष्यके तौरपर नहीं कर सकता; क्योंकि ब्राह्मणका राजा तो सोम है ।
शतपथ ब्राह्मणमें और भी लिखा है - ब्राह्मणका घातक ही वास्तव में घातक है । ब्राह्मण और अब्राह्मणका झगड़ा होने पर जजको ब्राह्मणके पक्षमें ही फैसला देना चाहिये। जो वस्तु दूसरोंके लिए निषिद्ध हो उसे ब्राह्मणको दे देना चाहिये, क्योंकि जो दूसरोंके लिये अपच है वह ब्राह्मणोंके लिये सुपच है ।
किन्तु ब्राह्मण देवता अधिक दिनों तक स्वर्गीय देवताओंके समकक्ष नहीं रहे, उन्होंने अपनेको देवताओंसे भी ऊपर ला
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