Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
४७ स्वीकार नहीं करेंगे। पुरोहित अपनी प्रार्थनाओंके द्वारा युद्धमें राजाकी विजय और सुरक्षा की गारन्टी लेता था। वह धान्यके लिये पानी वरसाता था। वह एक 'जाज्वल्यमान अग्नि थी जो राजाकी रक्षा करती थी।
किन्हीं विद्वानोंके मतानुसार आरम्भसे ही पुरोहित यज्ञोंमें ब्राह्मण पुरोहितके रूपमें काम करते थे। अपने इस कथनके प्रमाणमें वे कहते हैं कि बशिष्ठका निर्देश पुरोहितके रूपमें भी है
और ब्राह्मणके रूपमें भी है। शुनःशेपके यज्ञमें उसने ब्राह्मणके रूपमें कार्य किया, किन्तु वह सुदासका पुरोहित था। वृहस्पतिको देवताओंका पुरोहित और ब्राह्मण कहा है। इस तरह स्पष्ट है कि ब्राह्मण प्रायः पुरोहित होता था। यही वजह है जिसके कारण उत्तरकालमें यज्ञोंमें ब्राह्मणका स्थान सबसे प्रमुख हुआ । किन्तु यह कहना कठिन है कि प्रारम्भमें भी ब्राह्मणको वैसा ही प्रमुख स्थान प्राप्त था।
क्षत्रियका ब्राह्मणके साथ घनिष्ट सम्बन्ध होता था। तैत्तिरीय संहिता (५, १-१०-३) आदिमें दोनोंके अभेद्य सम्बन्ध पर ही दोनोंकी अभ्युन्नतिको स्वीकृत किया है। कभी-कभी दोनोंमें कलह होनेके उदाहरण भी ब्राह्मण ग्रन्थोंमें मिलते हैं। किन्तु ब्राह्मण यज्ञका सर्वेसर्वा था, इसलिये ब्राह्मण क्षत्रियको मिटा डालनेकी शक्ति रखता था। __ब्राह्मणोंने देखा कि युद्धोंमें तो अनेक प्रकारके खतरे और कठिनाईयां है जब कि पौरोहित्यमें लाभ ही लाभ है और वह शक्ति प्राप्त करनेका भी अच्छा साधन है, अतः उन्होंने उसे ही हथिया लिया। किन्तु इसके लिये उन्हें अनेक झगड़े उठाने पड़े। . १. एत० ब्रा० ८, २४-२५ । २. वै० इं०, जि० २, पृ०७।
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