Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - २०
विशेषार्थ - कर्मभूमिज द्रव्यस्त्रियों के अर्धनाराच, कीलित और सृपाटिका इन तीन संहननों का ही उदय रहता है। वज्रर्षभनाराचसंहनन के अभाव में द्रव्य स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता। '
ताड़पत्रीय मूल गो.क. से उद्धृत सूत्र
arrera पंचविहं किण्ण णील- रुहिर-पीद सुक्किलवण्णणामं चेड़ । गंधणामं दुविहं सुगंध - दुगंधणामं चेदि । रसणामं पंचविहं तिट्ठ-कडु - कसायंविलमहुररसणाम चेइ। फासणामं अट्ठविहं कक्कड़- ड- मउगगुरुलहुग-रुक्ख सणिद्ध-सीदुसुणफासणामं चेदि । आणु-पुत्रिणामं चउविहं णिरथ-तिरक्खगयि पाओग्गाणुपुव्वीणामं, माणुस - देवगयि पाओग्गाणु-पुव्वीणामं चेड़। अगुरुलघुग-उवघाद- परघाद- उस्सास- आदव - उज्जोदणा चेदि । विहाय - गदिणामकम्मं दुविहं पत्थविहायगदिणामं- अप्पसत्थविहायगदिणामं चेदि । तसादर-वज्र- प्रप्तेवसरीरथिर- सुभ-सुभग- सुस्सर-आदेज्ज - जसकित्ति - णिमिणतित्थयरणामं चेदि । थावर - सुहम-अपज्जत्त-साहारणसरीर - अधिर - असुह- दुब्भग- दुस्सरअणादेज्ज- अजसकित्ति - णामं चेदि ।
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सूत्रार्थ - वर्णनामकर्म के पाँच भेद हैं- कृष्ण, नील, रुधिर (लाल), पीला और शुक्ल (श्वेत) | गन्धनामकर्म दो प्रकार का है- सुगन्ध व दुर्गन्ध । रसनामकर्म के पाँचभेद हैं- तिक्त, कटुक, कषायला, अम्ल और मधुररस स्पर्शनामकर्म के आठभेद हैं- कठोर. मृदु, गुरु, लघु, रुक्ष, स्निग्ध, शीत और उष्ण । आनुपूर्वीनामकर्म चार प्रकार का है - नरकगत्यानुपूर्वी तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीमनुष्यगत्यानुपूर्वी -देवगत्यानुपूर्वी । अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योत । विहायोगतिनामकर्म दो प्रकार का है - प्रशस्तविहायोगति व अप्रशस्तविहायोगति । त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर । तथा स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग- दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति ।
अब आप व उद्योतप्रकृति का लक्षण कहते हैं
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मूलुण्हपहा अग्गी, आदावो होदि उण्हसहियपहा । आइच्चे तेरिच्छे, उण्हूणपहा हु उज्जोओ ।। ३३ ।। '
१. तद्देपदीणभादिमसंहदि संठाणमज्जणामजुदा । त्रि. सा. ७९०
अर्थ- वे दम्पती अर्थात् भोगभूमिज प्रत्येक युगल दम्पती अर्थात् स्त्री-पुरुष दोनों के प्रथम (वज्रवृषभ नाराच) संहनन और प्रथम (समचतुरस्र ) संस्थान होता है। वे 'आर्य' इस नाम से युक्त होते हैं। पृ. ६२४ ( श्री महावीरजी प्रकाशन)
२. धवला ८ / २००