Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य शुभचन्द्र स्वामी विरचित श्रेणिक | चरित्र भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् For Priv. Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानदिवाकर, मर्यादा शिष्योत्तम, प्रशांतमूर्ति आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज की स्वर्णजयंती वर्ष के उपलक्ष में : आचार्य शुभचन्द्र विरचित श्रेणिक चरित्र सम्पादक ब्रह्मचारी धर्मचन्द्र शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य अर्थ महयागी शारदाबेन कान्तिलाल दोषी, बम्बई अनेक Subp21H ChDep भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् पुष्प संख्या -६३ आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज की स्वर्णजयंती पुष्प संख्या - २७ आशीर्वाद स्वर्ण जयंती वर्ष निर्देशन आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज आर्यिका स्याद्वादमती माता जी श्रेणिक चरित्र ग्रन्थ प्रणेता आचार्य शुभचन्द्र अनुवाद एवं सम्पादक ब्रह्मचारी धर्मचन्द शास्त्री सर्वाधिकार सुरक्षित भा० अ० वि० परि० द्वितीय वीर नि० सं० २५ २४ सन् १९९८ पुस्तक प्राप्ति-स्थान आचार्य श्री भरतसागर जी महाराज संघ I.S.B.N.81-8583-04-3 मूल्य मुद्रक बाबूलाल जैन फागुल्ल महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी- १० फोन : ३११८४८ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विमल सागर जी तुभ्यं नमः परम धर्म प्रभावकाय, तुभ्यं नमः परम तीर्थ सुवन्दकाय । 'स्याद्वाद' सूक्ति सरणि प्रतिबोधकाय, तुभ्यं नमः विमल सिन्धु गुणार्णवाय ।। ation international आचार्य श्री भरत सागर जी आचार्यश्री भरतसिन्धु नमोस्तु तुभ्यं, हे भक्तिप्राप्त गुरुवर्य नमोस्तु तुभ्यं । हे कीर्तिप्राप्त जगदीश नमोस्तु तुभ्यं, भव्याब्ज सूर्य गुरुवर्य नमोस्तु तुभ्यं ।। s Personal use only , Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (समर्पण) प. पू. वात्सल्य रत्नाकर आचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज के पट्ट शिष्य मर्यादा-शिष्योत्तम ज्ञान-दिवाकर प्रशान्त- मूर्ति वाणीभूषण भुवनभास्कर गुरुदेव आचार्य श्री १०८ भरतसागर जी महाराज __ की स्वर्ण जयन्ती के उपलक्ष में आपके श्री कर-कमलों में ग्रन्थराज सादर-समर्पित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यों तो यह संसार है विविध प्रकार के संसारी प्राणी उपस्थित होकर इसमें जन्म ग्रहण करते हैं। और यथायोग्य अपने जीवन का निर्वाह कर चले जाते हैं परन्तु जन्म उन्हीं मनुष्यों का सार्थक एवं प्रशंसा पात्र गिना जाता है जो कि स्वार्थ व परहितार्थ हो। मनुष्यों की निस्वार्थता एवं परहितार्थता उन्हें अजर-अमर बना देती है। प्राचीन काल में जिन-जिन पुरुषों की प्रवृत्ति निस्वार्थ और परहितार्थ रही है यद्यपि वे पुरुष इस समय नहीं हैं तथापि उनका नाम अब भी बड़े आदर से लिया जाता है और जब तक संसार में अंश मात्र भी गुणग्राहिता रहेगी बराबर उन महापुरुषों का नाम स्थिर रहेगा। यह जो मनोज्ञ ग्रन्थ आपके हाथ में विराजमान है इसका नाम श्री श्रेणिक पुराण है। इस पुराण के स्वामी प्रातः स्मरणीय महाराज श्रेणिक हैं। जैन क्षत्रिय जाति में महाराज श्रेणिक का परम आदर है। जैनियों का बच्चा-बच्चा महाराज श्रेणिक के गुणों से परिचित है। और उनके गुणों के स्मरण से अपनी आत्मा को मानता है यहाँ तक कि जैनियों के बड़े-बड़े आचार्यों का भी यह मत है कि यदि महाराज श्रेणिक इस भारतवर्ष में जन्म न लेते तो इस कलिकाल पंचम काल में जैन धर्म का नामोनिशान भी सुनना दुर्लभ हो जाता; क्योंकि वर्तमान में इस भरतक्षेत्र में कोई सर्वज्ञ रहा नहीं। जितने-भर जैन सिद्धान्त हैं उनके जानने का उपाय केवल आगम रह गये हैं और उनका प्रकाश भगवान महावीर अथवा गणधर गौतम से अनेक विषयों में गूढ-गूढ़ प्रश्न कर महाराज श्रेणिक की कृपा से हुआ है। महाराज श्रेणिक कब हुए इस विषय में सिवाय इनके पुराण को छोड़कर कोई पुष्ट प्रमाण दष्टिगोचर नहीं होता। जैन सिद्धान्त के आधार से भगवान् महावीर को निर्वाण गये २४६१ वर्ष हए हैं और भगवान् महावीर के समय में महाराज श्रेणिक थे। इसलिए इस रीति से भगवान् महावीर और महाराज श्रेणिक समकालीन सिद्ध होते हैं। कहीं-कहीं पर यह किंवदंती सुनने में आती है कि राजा श्रेणिक चन्द्रगुप्त के दादे व परदादे थे। श्रेणिक पुराण यह संस्कृत ग्रन्थ भट्टारक शुभचन्द्राचार्य ने बनाया है। श्रेणिक पुराण की अन्तिम प्रशस्ति में भट्टारक शुभचन्द्राचार्य ने मूल संघ की प्रशंसा की है इसलिए यह विदित होता है कि शुभचन्द्राचार्य मूल संघ के भट्टारक थे एवं इसी प्रशस्ति में इन्होंने प्रथम ही भगवत्कुन्द कुन्दाचार्य को नमस्कार किया है पीछे उन्हीं के वंश में पद्मनंदी, सकलकीर्ति, भुवनकीति, भट्टारक ज्ञानभूषण एवं विजयकीति भट्टारकों का उल्लेख किया है और निम्नलिखित श्लोकों से अपने को विजयकीति भट्टारक का शिष्य बतलाया है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगति विजयकीर्तिर्भव्यमूर्तिः सुकीतिजयतुच यतिराजो भूमिपः स्पृष्टपादः । नयनलिन हिमांशु नभूपस्य पट्टे विविध परविवादे क्षमाधरे वज्रपातः ॥ १ ॥ तच्छिष्येण शुभेन्दुना शुभमनः श्रीज्ञानभावेन वै पूत पुण्य पुराणामानुष्यभवं संसारविध्वंसकं । नो कीाव्यरचि प्रमोहवशतो जैने मते केवलं नाहंकारवशात् कवित्वमदत: श्रीपद्मनाभेरिदम् ॥ २ ॥ अर्थ-नय (प्रमाणांश) रूपी कमलिनियों को प्रकाशित करने में चन्द्र के समान महाराज ज्ञानभूषण के पट्ट पर अनेक पर विवादरूपी पर्वतों पर वज्रपात, अनेक राजाओं से पूजित, उत्तम कीति के धारक भव्य मूर्ति यति राज श्री विजयकीति संसार में जयवंत रहे ।। १ ।। भट्टारक विजयकीति के शिष्य शुभचन्द्र ने शुभ मन और ज्ञान की भावना से पुराण से उद्धत पवित्र एवं संसार का नाश करने वाला यह श्री महापद्मनाथ तीर्थंकर का पुराण रचा है। मेरा जैन मत पर अटूट स्नेह है इसीलिए यह रचना की गई है किन्तु कीर्ति अहंकार और व वित्व के मद से नहीं की गई है। भट्टारक शुभचन्द्र के विषय में जो पट्टावली मिली है उसमें भी यह पाया गया है कि भट्टारक शुभचन्द्र भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य, पद्मनन्दी, सकलकीर्ति आदि के शुद्धाम्नाय में हुए हैं। उसी प्रकार नीचे लिखी पाण्डव पुराण की प्रशस्ति के श्लोकों से भी यह बात जानी गई है कि भट्टारक शुभचन्द्र भट्टारक विजयकीति के ही शिष्य और कुन्दकुन्दादि आचार्यों की ही आम्नाय में थे। श्री मलसंघे जनि पदमा नन्दी तत्पट्टधारी सकलादिकीतिः । कीर्तिः कृतायेन च मर्त्यलोके शास्त्रार्थ कत्री सकला पवित्रा. ।। ६७ ।। भुवनकीतिरभूद्भुवनाद्भुतैर्भुवन भासन चारुमतिः स्तुतः । वरतपश्चरणोद्यत मानसो भवभयाहिखगेट क्षितिवत्क्षमी ।। ६८ ।। चिद्रूपवेत्ता चतुरश्चिरंतनश्चिद्भूषणश्चचित पादपद्भकः । सूरिश्च चन्द्रादिश्चयश्चिनोतु वैचारित्रशुद्धि खलु नः प्रसिद्धिदां।। ६६ ।। विजयकीति यतिर्मुदितात्मकोजितनतान्यमनः सुगतैः स्तुतः । अवतु जैनमतं सुमतोमतोनृपतिभिर्भवतो भवतो विभुः ।। ७० ।। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टे तस्य गुणांवुधिर्व्रतधरो धीमान् गरीयान् वरः । श्रीमछ्री शुभचन्द्र एषविदितो वादीभसिंहो महान् ॥ चाकारि चंचदुचा । तेनेदं चरितं विचार सुकरं पाण्डोः श्री शुभसिद्धि सात जनकं सिद्धयै स्तुतानां सदा ।। ७१ ।। मूल संघ में मुनि पद्मनन्दी हुए और उन्हीं के पट्ट पर अनेक मुनियों के वाद सकलकीर्ति मुनि हुए । भट्टारक सकलकीर्ति ने मर्त्यलोक में शास्त्र के अभिप्राय को भले प्रकार विवेचन करने वाली समस्त कीर्ति का प्रसार किया ।। ६७ ।। भट्टारक सकलकीर्ति के पट्ट पर भट्टारक भुवनकीर्ति हुए । भट्टारक भुवनकीर्ति समस्त लोक को आश्चर्यचकित करनेवाले थे, संसार के स्वरूप प्रकाश करने में चतुरमति थे, उत्कृष्ट तपस्वी थे, संसार भयरूपी सर्प के लिए गरुड़ एवं पृथ्वी के समान क्षमाशील थे । ६८ ॥ आत्मस्वरूप के ज्ञाता चतुर निरंतनचन्द्र आदि से पूजित चरण-कमलों से युक्त आचार्य श्री ज्ञानभूषण कीर्ति-प्रसार करनेवाली चरित्र-शद्धि हमें प्रदान करें ॥ ६६ ॥ अन्य मनुष्यों के चित्तों को जीतने एवं नम्रीभूत करनेवाले बौद्धों से स्तुत पवित्र आत्मा के धारक बुद्धिमान अनेक राजाओं से पूजित एवं प्रभु भट्टारक विजयकीर्ति जैन मत की रक्षा करें एवं संसार से आप लोगों को बचायें ॥ ७० ॥ भट्टारक विजयकीर्ति के पट्ट पर गुणों का समुद्र, व्रती, बुद्धिमान, अतिशय गुरु, उत्कृष्ट, प्रसिद्ध, वादी रूपी हस्तियों के लिए सिंह एवं महान् श्री शुभचन्द्राचार्य हुए। तेजस्वी श्री शुभचन्द्र ने यह सरल सदा भव्यों को सिद्धि प्रदान करनेवाला पाण्डव पुराण रचा ।। ७१ ।। इस प्रकार उक्त तीन प्रमाणों से यह बात निर्विवाद सिद्ध हो चुकी कि भट्टारक शुभचन्द्र आचार्य मूल संघ के भट्टारक हुए हैं और वे विजयकीर्ति के शिष्य और भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य के आम्नाय में हुए हैं। शुभचन्द्राचार्य की प्रशस्तियों में जगह-जगह शाकवाटपुर के उल्लेख से यह बात जानी जाती है कि शुभचन्द्राचार्य सागवाड़ा की गद्दी के भट्टारक थे। यह गद्दी सकलकीर्ति के बाद ईडर गद्दी से जुदी हुई है और तब से उसके जुदे-जुदे भट्टारक होते आये हैं । पाण्डव पुराण की प्रशस्ति में श्रीमद्विक्रमभूपतेद्विक हते स्पष्टाष्ट संख्ये शते रम्येऽष्टाधिक वत्सरे सुखकरे भाद्रे द्वितीया तिथौ श्रीमद्वाग्वर निर्वृतीदमतुले श्री शाकवाटे पुरे श्रीमछ्री पुरुषाभिधे विरचितं स्थेयात्पुराणंचिरम् ।। ८६ ।। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस श्लोक से यह बात बतलाई गई है कि यह पाण्डव पुराण (शाकवाट) सागवाड़ा में विक्रम संवत् सोलह सौ आठ (१६०८) भादों द्वितीया के दिन बनाया गया है। __ इससे यह साफ विदित होता है कि भट्टारक शुभचन्द्राचार्य वित्रम की सत्रहवीं शताब्दी में हुए हैं। पाण्डव पुराण की प्रशस्ति में भट्टारक शुभचन्द्राचार्य ने अपने बनाये ग्रंथों के नाम दिये चन्द्रप्रभ चरित्र, पद्मनाभ (पदमनाथ) चरित्र प्रद्युम्न चरित्र, जीवंधर चरित्र, चन्दना कथा, नन्दीश्वरी कथा, पं० आशाधर कृत आचार शास्त्र की टीका, तीस चौवीसी विधान, सद्वृत्तसिद्ध पूजा, (सिद्ध चक्र पूजा) सारस्वत यंत्र पूजा, चिन्तामणि तन्त्र, कर्मदहन पाठ, गणधरवलय पूजन, पार्श्वनाथ काव्य की पंजिका, पल्यव्रतोद्यापन, चरित्र शुद्धि व्रतोद्यापन, अपशब्द खण्डन, तत्वनिर्णय, तर्क शास्त्र, तर्क शास्त्र की टीका, सर्वतोभद्र पूजा, अध्यात्म पदवृत्ति, चिन्तामणि व्याकरण, अंग प्रज्ञप्ति, जिनेन्द्र स्तोत्र, षड्वाद और पाण्डव पुराण। श्रेणिक पुराण इन्हीं भट्टारक का बनाया हुआ है परंतु उपर्युक्त पाण्डव पराण की सूची में श्रेणिक पुराण का उल्लेख नहीं किया गया है इसलिए मालूम होता है श्रेणिक पुराण पाण्डव पुराण के पीछे अर्थात् विक्रम संवत् १६०८ के पीछे बनाया गया है तथापि कब बनाया गया यह निर्णय नहीं होता। भट्टारक शुभचन्द्राचार्य के बनाये और भी अनेक ग्रंथों के नाम मिलते हैं मालम नहीं वे भी श्रेणिक पुराण के पीछे बने हैं या पहले। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची प्रस्तावना xyxvi प्रथम सर्गः महाराज उपश्रेणिक को राज्य-प्राप्ति का वर्णन करनेवाला विषय १ से १६ द्वितीय सर्गः महाराज उपश्रेणिक के नगर-प्रवेश का वर्णन करनेवाला विषय २७ से ३१ तीसरा सर्गः कुमार श्रेणिक का राजगृह नगर से निष्कासन का वर्णन करनेवाला विषय ३२ से ५७ चौथा सर्गः श्रेणिक का कुमारी नन्दश्री के साथ विवाह-वर्णन करनेवाला विषय ५८ से ७७ पाँचवाँ सर्गः श्रेणिक को राज्य-प्राप्ति का वर्णन करनेवाला विषय ७८ से १३ छठवाँ सर्गः अभय कुमार का राजगृह में आगमन-वर्णन करनेवाला विषय १४ से १२६ सातवाँ सर्गः अभय कुमार की उत्तम बुद्धि का वर्णन करनेवाला विषय १२७ से १४२ आठवाँ सर्गः चेलना के साथ विवाह का वर्णन करनेवाला विषय १४३ से १६१ नवम सर्गः महाराज श्रेणिक को मुनिराज के समागम का वर्णन करनेवाला विषय १६२ से १६६ दसवाँ सर्गः मनोगुप्ति, वचनगुप्ति दोनों गुप्तियों को कथा-वर्णन करनेवाला विषय १६७ से २२७ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ सर्गः काय गुप्ति कथा वर्णन करनेवाला विषय बारहवाँ सर्गः महाराज श्रेणिक को क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का वर्णन कस्नेवाला विषय तेरहवाँ सर्गः देव द्वारा अतिशय प्राप्ति का वर्णन करनेवाला विषय चौदहवाँ सर्गः श्रेणिक चेलना आदि की गति का वर्णन करनेवाला विषय पन्द्रहवाँ सर्गः भविष्यत्काल में होनेवाले भगवान पद्मनाभ के पंच कल्याण का वर्णन करनेवाला विषय २२८ से २०३ २८४ से ३१० ३११ से ३२६ ३२७ से ३४६ ३४७ से ३७१ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नमः सिद्ध भ्यः ॥ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् श्रेणिक पुराणम् प्रथमः सर्गः श्रीवर्द्धमानमानन्दं नौमिनानागुणाकरम् । विशुद्धध्यान दीप्ताचिर्तुतकर्मसमुच्चयम् ।। १ ।। बाल्येऽपि मुनिसन्देह निर्माशाद्यो जिनेश्वरः। सन्मतित्वं समापन्नः सन्मत्याख्या समाश्रुतः ॥ २ ॥ अमराहि फणामर्द्धनाद्महावीर सुनामभाक् । बाल्ययोर्बालत्वः प्राप्तो वीराणां वीरतांगतः ॥ ३ ॥ जरतणमिवाख्यं तं प्राज्यं राज्यं नरेश्वरम् । मत्वा त्यक्त्वाम्भितो दीक्षां यो वीरो विश्ववन्दितः ।। ४ ॥ विकाश्य केवलं लोक्ये चकाशे धर्मसम्पदः ।। तंदधे हृदये देवं कृतलोकसुमंगलम् ॥ ५ ॥ शुक्लध्यान रूपी दैदीप्यमान अग्नि से समस्त कर्मों के समूह को जलाने वाले अनेक गुणों के आकर आनन्द के करनेवाले श्री वर्द्धमान तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ जिस भगवान ने बाल्यावस्था में ही मुनियों का सन्देह दूर करने से श्रेष्ठ विद्वत्ता को पाकर सन्मति नाम को धारण किया ॥२॥ जिस भगवान ने कुमारावस्था में ही मायामयी सर्प के मर्दन करने से महावीर नाम को प्राप्त किया, और जो शिशु अवस्था में ही अत्यन्त बल को पाकर वीरों के वीर कहलाये ॥३॥ जिस भगवान ने मनुष्य लोक सम्बन्धी बड़े भारी राज्य को भी, जीर्ण तृण के समान समझ कर छोड़ दिया एवं जो दैगम्बरीय जिन दीक्षा धारण कर त्रैलोक्य के वन्दनीय हुए ॥४॥ तथा जो महावीर भगवान केवलज्ञान केवलदर्शन को प्रकाश कर धर्म रूपी सम्पत्ति से शोभित हुए। ऐसे समस्त लोक में आनन्द मंगल करनेवाले श्री महावीर भगवान को मैं (ग्रन्थकार) अपने हृदय कमल में धारण करता हूँ॥५॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ज्ञान भूषान् जिनान् धर्मतीर्थ नाथादिवान् परान् । शेषान् स्मरामि संसिद्धेये विशुद्ध ज्ञान सम्पदः ॥ ६ ॥ गणाधीशं पराधीशं वृषभादि सुशेनकम् । योगोद्दीपित देहाढ्यं तोष्टवीमीति हिताप्तये ॥ ७ ॥ तत्पश्चात् ज्ञानरूपी भूषण के धारक, धर्मरूपी तीर्थ के स्वामी श्री वृषभदेव भगवान से लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त तीर्थंकरों को भी मैं अपनी इष्ट सिद्धि के लिए इस ग्रन्थ की आदि में नमस्कार करता हूँ || ६ || इनसे भी भिन्न जो ज्ञान रूपी सम्पत्ति के धारी हैं उनको भी नमस्कार करता हूँ । तथा ध्यान से देदीप्यमान शरीर के धारी, गणों के स्वामी एवं उत्कृष्ट स्वामी (आदि गणधर ) श्री वृषभसेन गुरु को भी मैं अपने हित की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ । तत्पश्चात् मुनि आर्यिका श्रावक और श्राविका इन चारों गणों से सेवित, धीर, समस्त पृथ्वी तल में श्रेष्ठ, जिनसे मिथ्यावादी लोग डरते हैं, और जो तीनों लोक के प्रकाश करनेवाले हैं, ऐसे ( अन्तिम गणधर) श्री गौतम स्वामी को भी मैं नमस्कार करता हूँ ॥७॥ २ ८ ॥ चतुर्गणाश्रितं धारं गौतमं गौतमं स्तुवे । मिथ्यावादीभ पंचास्यं विकाशित जगत्ययम् ॥ वो बुध्यन्ते जनाः सर्वं विष्टपे च हिताहितम् । यस्याः प्रसादतो वाणीं तां स्मरामि जिनोद्भवाम् ॥ ६ ॥ गुरुवो ये हितोद्युक्ताः सूक्ति सम्पद्विराजिताः । ज्ञानभूषाः प्रभा पुंजा: खंजीकृत मदद्विपाः ।। १० ।। इनके पश्चात् जिस भगवती वाणी के प्रसाद से संसार में जीव समस्त हिताहित को जानते हैं, और जो श्री केवली भगवान के मुख से प्रकट हुई है उस वाणी को भी मैं नमस्कार करता 11511 तत्पश्चात् जो गुरु हितकारी, श्रेष्ठ वचनरूपी सम्पत्ति से शोभित ज्ञानरूपी भूषण के धारक, अत्यन्त तेजस्वी अहंकाररूपी हस्ती के मर्दन करनेवाले हैं, ऐसे कामरूपी वैरियों के विजय कीर्ति को प्राप्त करनेवाले, हितैषी और पुण्यरूपी मेरु पर्वत के शिखर पर निवास करनेवाले अर्थात् अत्यन्त पुण्यात्मा गुरुओं को भी मैं नमस्कार करता हूँ ॥६- १० ॥ विजये कीर्ति सम्पन्नाः तांस्तां च हितकांक्षिणः । अनमं पुण्य हेमाद्रिमस्तके स्थिर वासिनः ।। ११ ।। अथात्र भारतेक्षेत्रे भविष्यं तं जिनोत्तमम् । विघ्नौघशान्तये ॥ १२ ॥ पदमनाभं प्रभापंजं वन्दे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् mr गतेकाले कियन्मात्रे उत्सपिण्यामजायत । यः पंचातिशयः प्राप्तः शतेन्द्र सुरपूजितः ॥ १३ ॥ चिर प्ररूढतामस्य वृक्षे वज्रान्यते च यः । लुप्ताखिल जगद्धर्म मार्गे मार्ग मदोत्करे ।। १४ ।। उच्छेद्य तामसं लोके लोकान् धर्मेऽन्योजयेत् ।। यःप्रकाशस्य परं धाम ज्ञानानन्दितविग्रहः ॥ १५॥ यःश्रेणिक भवे पूर्व श्री वीर स्वामिः सन्निधौ। अच्छेद्यत्तरां दीर्घरूढ मिथ्यात्वमञ्जसा ।। १६ ॥ सम्प्राप्त क्षायिक रम्यं निर्मलं दोष निग्रहम् । करणानिच संकृत्त्ययः शुद्ध दृग्विमण्डितः ।। १७ ।। तीर्थनाथस्य सान्निध्ये तीर्थ कृत्वं ववन्धयः । अशेष पुण्य शास्तक्यं त्रैलोक्य क्षोभकारणम् ॥ १८ ॥ श्रेणिक प्रश्नमुद्दिश्य भगवान गदीद्वचः । हरिराम पुराणार्थ गर्भध्वान्त विनाशकम् ॥ १६ ॥ यस्य प्रश्न वशादद्य वर्तन्ते ग्रन्थ राशयः । पुराण व्रतसंख्यान सन्दर्भा दर्प हानयः ॥ २० ॥ महाश्रोता महाज्ञाता वक्ताधर्म परीक्षकः । बभूव श्रेणिको धीमान् भावी तीर्थंकरोऽग्रणीः ॥ २१ ॥ भविष्यत्तीर्थ नाथं तं नत्वा मूर्ध्वा निरन्तरम् । पद्मनाभं प्रवक्ष्येऽहं तत्चरित्रं भवान्वितम् ।। २२ ।। तथा इस भरत क्षेत्र में आगे होनेवाले, समस्त तीर्थंकरों में उत्तम, अत्यन्त तेजस्वी, श्री पद्मनाभ तीर्थंकर को भी मैं समस्त विघ्नों की शान्ति के लिए नमस्कार करता हूँ॥११-१२॥ जो पद्मनाभ भगवान, उत्सर्पिणी काल के कुछ समय के व्यतीत होने पर, इस भरत क्षेत्र में पाँच प्रकार के अतिशयोंकर सहित, सैकड़ों इन्द्र और देवों से पूजित, उत्पन्न होवेंगे, और चिरकाल से विद्यमान पापरूपी वक्ष के लिए वज्र के समान होंगे। तथा चतुर्थ काल की आदि में जब समस्त धर्म-मार्गों का नाश हो जायगा, अहंकार व्याप्त होगा, उस समय जो भगवान समस्त जीवों के अज्ञानांधकार को नाश कर, मोक्ष-मार्ग के प्रकाशनपूर्वक धर्म की ओर उन्मुख करेंगे। और जिस पद्मनाभ भगवान ने पहले अपने श्रेणिक भव में (श्रेणिक अवतार में) श्री महावीर स्वामी भगवान के समीप में, अनादि काल से विद्यमान मिथ्यात्व को शीघ्र ही दूर किया तथा अतिशय मनोहर निर्मल समस्त दोषों से रहित क्षायिक सम्यक्त्व को धारण किया और समस्त इन्द्रियों को संकोच Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कर शुद्ध सम्यग्दर्शन से विभूषित हुए। जिस भगवान ने महावीर स्वामी के सामने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया, और जिस पुण्यात्मा पद्मनाभ भगवान ने समस्त लोक में सर्वथा आश्चर्य करनेवाले आस्तिक्य गुण को प्राप्त किया॥१८॥ तथा जिस पद्मनाभ तीर्थंकर के श्रेणिक अवतार के समय, उनके किये हुए प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर स्वामी ने समस्त पापों के नाश करनेवाले तथा इस श्रेणिक चरित्र के भी प्रकाश करनेवाले वचनों को प्रतिपादन किया, और जिस पदमनाभ भगवान के जीव, श्रेणिक महाराज के, प्रश्न के प्रसाद से. पराण व्रत संख्यान आदिके वर्णन करने वाले, समस्त विवादियों के अभिमान को नाश करनेवाले इस समय भी अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं, जो श्रेणिक महाराज महाश्रोता, महाज्ञाता, महावक्ता, धर्म की वास्तविक परीक्षा करनेवाले, भविष्यत्काल में होनेवाले समस्त तीर्थंकरों में प्रथम व मुख्य तीर्थंकर भगवान होंगे (श्रेणिक महाराज के जीव) श्री पद्मनाभ तीर्थंकर को भी मैं मस्तक झुकाकर नमस्कारपूर्वक उनके संसार सम्बन्धी समस्त चरित्र का वर्णन करता हूँ॥१६-२२॥ क्वचरित्रं क्वमे बुद्धिरनन्त जिनविस्तरम् । असंख्येय भेद सम्भिन्न ज्ञानाच्छादन संग्रहः ।। २३ ॥ सप्तभुमं महोत्तुंग मारु रुक्षोर्ग होत्तमम् । खंजस्येव प्रशंसास्यान्मामकीनां न संशयः ।। २४ ।। वसन्ते कोकिले व्रते काकाश्चापि निरन्तरम् । समयेर्य सूरिश्च सदाहं तत्र कोविस्मयः ॥ २५॥ पुष्पदन्तगते लोके न चकासतित्तारकाः । अल्पे प्रभावयं किं च चकास्मतददुद्धताः ।। २६ ॥ ग्रन्थकार शुभचन्द्राचार्य अपनी लघुता प्रकाश करते हुए कहते हैं कि कहाँ तीर्थंकर का यह चरित्र जिसके विस्तार का अन्त नहीं, और कहाँ अनेक प्रकार के आवरणों से ढकी हुई मेरी बुद्धि तथापि जिस प्रकार सप्त महले उत्तम मकान के ऊपर चढ़ने की इच्छा करनेवाला पंगु पुरुष, प्रशंसा का पात्र होता है, उसी प्रकार इस गम्भीर विस्तृत चरित्र के वर्णन करने से मैं भी प्रशंसा का भाजन होऊँगा इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं। यदि कोई विद्वान मझे वावदूक अर्थात् अधिक बोलनेवाला वाचाल कहे तो भी मुझे किसी प्रकार का भय नहीं क्योंकि जिस प्रकार कोयल वसन्त ऋतु में ही बोलती है और शुक सदा ही बोलता रहता है फिर भी शक का बोलना किसी को आश्चर्य का करनेवाला नहीं होता, उसी प्रकार यद्यपि पूर्वाचार्य परिमित तथा समय पर ही बोलनेवाले थे और मैं सदा बोलनेवाला हूँ तो भी मेरा बोलना आश्चर्यजनक नहीं। जिस प्रकार पूष्पदन्त नक्षत्र के अस्त हो जाने पर अल्प प्रभाववाले तारागण भी चमकने लगते हैं उसी प्रकार यद्यपि पूर्वाचार्यों के सामने मैं कुछ भी जाननेवाला नहीं हूँ तो भी इस चरित्र के कहने के लिए मैं उद्धत होकर उद्योग करता हूँ॥२६॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् मुखराः शब्द शास्त्रज्ञागदन्ति वचनं शुभम् । स्खल जिव्हा न किं तव्दत्पूर्वाचार्या वयं स्मृताः ।। २७ ॥ महायानाः समुद्रेऽस्मिन् यान्तिपारं सुखेच्छया। क्षद्रयानाश्च सर्पन्ति पौर्वाचार्यैर्वयं तथा ।। २८ ॥ नो विषादो विधातव्यो मयावाक्य प्रबन्धने । पूर्व सूरि कृतिं दृष्ट्वा सर्व सूत्रानुसारिणीम् ॥ २६ ॥ महद्धि कालयोद्भूति विभूतिं वीक्ष्यनिर्धनः । यथा न कुर्वतेरोषं सामर्थ्य वृथासहि ।। ३० ।। स्वशब्दं कुरुतेसिंहो भेक: किन्तु करोति न । पूर्वसूरिः स्वशास्त्रं च तनुतेऽहं तथाप्यधा ॥ ३१ ॥ अल्पतर देहोऽहं कुन्थर्देहीति कथ्यते । पर्वत प्राय देहात्मागजोदेही निरूप्यते ॥ ३२ ॥ पुराण तर्क काव्यादि शास्त्रज्ञः कविरुच्ययते । सर्व शास्त्रज्ञ एवाहं कवितां गतवांस्तथा ॥ ३३ ॥ समस्तज्ञानमुक्तोऽपियतेऽहं च तथाप्य हो। विचक्षति न किं मूकः प्रशस्त वचनातिगः ।। ३४ ॥ चरित्र श्रवणात्पुण्यं चरित्र कथनान्नकिम् । जायेत सप्रबुद्धया श्रुत चरित्रं प्रकथ्यते ॥ ३५ ।। तीर्थकृत्व चरित्रस्य श्रवणतीर्थनाथता । इन्द्रत्वं चक्रवतित्वं जायते शुभदेहिनाम् ।। ३६ ।। इतिमत्वा शुभंसारंचरित्रं पावनंपरम् । वक्ष्येऽहं तद्गुणालीनंदृढसंस्कारो भवति ॥ ३७॥ विस्तारादति संक्षिप्तं चरित्रं हरतेमनः । समीचीनं यथापक्वमन्नं धान्य भराच्छुभम् ॥ ३८ ॥ यद्यपि शब्दशास्त्र के जाननेवाले अधिक बोलनेवाले होते हैं तो भी वे वचन शुभ ही बोलते हैं। उसी प्रकार यद्यपि हमारी वाणी स्खलित है तो भी हम शुभ वचन बोलनेवाले हैं इसलिए हम पूर्वाचार्यों के समान ही हैं ॥२७॥ जिस प्रकार बड़े-बड़े जहाजवाले सुखपूर्वक अभीष्ट स्थान को चले जाते हैं और उनके पीछे-पीछे चलनेवाले छोटे जहाजवाले भी सुखपूर्वक अपने इष्ट स्थान को प्राप्त हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार पूर्वाचार्यों के पीछे-पीछे चलनेवाले हमको भी इष्टसिद्धि की प्राप्ति होगी ॥२८॥ तथा जिस प्रकार दरिद्री पुरुष धनिक लोगों के महलों, उनके उदय तथा उनकी अन्य अनेक विभूतियों को देखकर विषाद नहीं करते उसी प्रकार सूत्र Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् के अनुसार पूर्वाचार्यों की कृति को देखकर हमको भी वाक्यों की रचना में कभी भी विषाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि शक्ति के न होने पर ईर्ष्या-द्वेष करना बिना प्रयोजन का है। जिस प्रकार सिंह ही अपने शब्द को कर सकता है परन्तु उस शब्द को मेंढक नहीं कर सकता अर्थात् सिंह के शब्द करने में मेंढक असमर्थ है, उसी प्रकार यद्यपि पूर्वाचार्यों ने ग्रन्थों की रचना की है तो भी मैं वैसे ग्रन्थों की रचना करने में असमर्थ ही हूँ॥३१॥ जिस प्रकार अत्यन्त छोटे देह का धारक कुंथु जीव भी देहधारी कहा जाता है और पर्वत के समान देह का धारण करनेवाला हाथी भी देहधारी कहा जाता है उसी प्रकार पुराण न्याय-काव्य आदि शास्त्रों को भलीभाँति जाननेवाला भी कवि कहा जाता है। और अल्पशास्त्रों का जाननेवाला मैं भी कवि कहा गया हूँ। मूक पुरुष भले ही उत्तम न बोलता हो तो भी वह बोलने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार यद्यपि मैं समस्त शास्त्रों के ज्ञान से रहित हूँ तो भी मैं इस चरित्र के वर्णन करने में प्रयत्न करता हूँ॥३४॥ जिस प्रकार चरित्र के सुनने से पुण्य की प्राप्ति होती है उसी प्रकार चरित्र के कथन करने से भी पुण्य की प्राप्ति होती है। इस प्रकार भली भाँति विचारकर मैंने इस श्रेणिक चरित्र का कथन करना प्रारम्भ किया है ॥३५॥ अथवा चरित्रों के सुनने से भव्य जीवों को संसार में तीर्थंकर इन्द्र चक्रवर्ती आदि पदों की प्राप्ति होती है यह भले प्रकार समझकर और तीर्थंकर आदि के गुणों का लोलुपी होकर, दृढ़ श्रद्धानी हो, मैं शुभचन्द्राचार्य सारभूत उत्कृष्ट, और पवित्र श्रेणिक चरित्र को कहता हूँ । परन्तु जिस प्रकार अधिक विस्तारनेवाले कच्चे धान्यों की अपेक्षा पका हुआ थोड़ा-सा धान्य भी उत्तम होता है उसी प्रकार विस्तृत चरित्र की अपेक्षा संक्षिप्त चरित्र उत्तम तथा मनुष्यों के मन को हरण करनेवाला होता है । इसलिए मैं इस श्रेणिक चरित्र का संक्षिप्त रीति से ही वर्णन करता हूँ ॥३६-३७-३८॥ अथ त्रैलोक्यमध्यस्थो जम्बू द्वीपो मनोहरः । बभाति व्रत संस्थानो लक्षयोजन विस्तृतः ।। ३६ ।। क्षेत्रपत्रं महोत्तुंगं लसद्ज्योतिष्ककेसरम् । मेरू कर्णिकमाभात्यहि मृणाल मनोहरम् ॥ ४० ॥ दीप पद्म जनानेकषद्यदाकुल मण्डितम् । जनाल्हादकरं रम्यं क्षारोदक जलाशये ॥४१ ।। नानामहिधरेः सेव्यः कुलीनः शुभसंस्थितिः । रामालीनो गृहावेशी द्वीपो राजेव राजते ॥ ४२ ॥ नदी जड़संसेव्यो निम्नगास्त्री समाश्रितः । द्विज राजाश्रितश्चित्रमुत्तमत्वं च यः श्रितः ॥ ४३ ॥ क्षेत्रमही धरै रम्यो गम्यः पुण्यवतांच यः । जलाशयमहाकुण्ड: विभातिभुवनत्रये ॥ ४४॥ यद्वत्तत्वंसमालोक्य हीयमाणो भ्रमत्यलम् । चन्द्रक्षीणत्वमापन्नो व्योम्निमन्ये मनोहरः ॥ ४५ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् लोका लोकस्य मध्यं यं मध्ये द्वीपंतथामतम् । त्रिलोकानां तथा मध्यं समाख्यान्ति यतीश्वरः ।। ४६॥ तन्मध्येऽनेक शोभाढयं संतप्तस्वर्ण देहकः । लसत्कान्ति कलाकीर्णः स्वर्णाद्रिः शोभतेस्वयम् ॥ ४७ ॥ गजदन्त चतुर्बाहुरच्युतः श्री समन्वितः । देशाधीशो महाभृत्यो योविष्णु रिवसम्बभौ ॥ ४८ ॥ सुभद्रा भद्र शालाढयो नन्दनो नन्दनांचितः । सुमनोभिः कृतावास: सोमनस्य वनाश्रितः ॥ ४६ ॥ अपाण्डुः पान्डुकाधारी दयष्ट चैत्य जिनालयः । स्वख्यातिव्याप्त सर्वस्वोयोमेरुदाश्रितः ।। ५० ।। निराधारस्य नाकस्य दत्तः स्तम्भ इबाभौ । महापरिधि रुच्चैर्यो रत्नस्वर्ण विराजितः ॥ ५१ ॥ अनादिनिधनातीतो कृतिमो यः स्वभावतः । सिद्धोमहीधराधीशो वाभाति भुवनेस्वयम् ।। ५२ । मुक्ति जिगमिषूणां योदर्शयन्मोक्षवीथिकाम् । स्थितो मध्ये परां शोभांदधल्लोकोत्तरोद्भवाम् ॥ ५३ ॥ जिन गन्धोदकेनैव पवित्रस्तीर्थतां गतः । चारणाषि सदासेव्यो योभूभृत्परमेश्वरः ।। ५४ ॥ इन्द्रः स्वर्गं सदात्यक्त्वा क्रीडायैव शचिसमम् । आयाति यत्र संकल्पा नोकुहैजितसद्दिवि ।। ५५ ।। उच्चैस्तरत्वादुच्चैस्त्वं सिद्धत्वात्सिद्धतांगतः । भूधरत्वाद्वराधीशोयो बभूव निरन्तरम् ।। ५६ ।। यत्रत्यैश्चैत्यगेहैश्च जनानांयाति किल्विषाम् । स्तुत्यैश्चारणयोगिन्द्रैः परात्मध्यान कोबिदैः ।। ५७ ।। किं वर्ण्यं तस्य माहात्म्यं यस्य व्याख्यान विस्तरः । वर्ण्यतेऽनेक ग्रन्थैश्च कोटिसंख्या समाचितैः ॥ ५८ ॥ समस्त लोक का मन हरनेवाला, लाख योजन चौड़ा, गोल और तीन लोक में अत्यन्त शोभायमान जम्बूद्वीप है । यह जम्बूद्वीप कमल के समान मालूम पड़ता है, क्योंकि जिस प्रकार कमल में पत्ते होते हैं, उसी प्रकार भरतादि क्षेत्ररूपी पत्ते इसमें भी मौजूद हैं, जिस प्रकार कमल Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् में पराग होती है, उसी प्रकार नक्षत्ररूपी पराग इसमें भी मौजूद हैं। जिस प्रकार कमल में कली रहती है, उसी प्रकार इस जम्बूद्वीप में मेरुपर्वतरूपी कली मौजूद है। जिस प्रकार कमल में मृणाल (सफेद तन्तु) रहता है, उसी प्रकार इस जम्बू द्वीप में भी शेषनागरूपी मृणाल मौजूद है। तथा जिस प्रकार कमल पर भ्रमर रहते हैं उसी प्रकार इस जम्ब द्वीप में भी अनेक मनुष्यरूपी भ्रमर मौजूद हैं। यह जम्बू द्वीप दूध के समान उत्तम निर्मल जल से भरे हुए तालाबों से जीवों को नाना प्रकार के आनन्द प्रदान करनेवाला है। यह जम्ब द्वीप राजा के समान जान पड़ता है क्योंकि जिस प्रकार राजा अनेक बड़े-बड़े राजाओं से सेवित होता है उसी प्रकार यह द्वीप भी अनेक प्रकार के महीधरों से अर्थात् पर्वतों से सेवित है। जिस प्रकार राजा कुलीन उत्तम वंश का होता है, उसी प्रकार यह जम्बू द्वीप भी कुलीन अर्थात् पृथ्वी में लीन है और जिस प्रकार राजा शुभ स्थितिवाला होता है उसी प्रकार यह भी अच्छी तरह स्थित है, तथा राजा जिस प्रकार रामालीन, अर्थात् स्त्रियों कर संयुक्त होता है, उसी प्रकार यह भी, रामालीन, अनेक वन-उपवनों से शोभित है। जिस प्रकार राजा महादेशी अर्थात् बड़े-बड़े देशों का स्वामी होता है उसी प्रकार यह भी महादेशी अर्थात् विस्तीर्ण है, यद्यपि यह द्वीप नदी 'नजड़संसेव्यः' अर्थात् उत्कट जड़ मनुष्यों से सेवित है तथापि 'नदीनजड़संसेव्यः' अर्थात् समुद्रों के जलों से वेष्टित है इसलिए यह उत्तम है। यद्यपि यह जम्ब द्वीप, 'निन्नगास्त्रीविराजितः' अर्थात् व्यभिचारिणो स्त्रियों कर सहित है तथापि 'अनिम्नगास्त्रीविराजितः' अर्थात् पतिव्रता स्त्रियों कर शोभित है इसलिए यह उत्तम है। तथा यद्यपि यह द्वीप 'द्विजराजाश्रितः' अर्थात् वरुणसंकर राजाओं के आधीन है तो भी उत्तम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों का निवास स्थान होने के कारण यह उत्तम ही है और पर्वतों से मनोहर, पुण्यवान उत्तम पुरुषों का निवास स्थान, यह जम्बू द्वीप अनेक प्रकार के उत्तम लताओं से, तथा बड़े-बड़े कुन्डों से तीन लोक में शोभित है। जिस जम्ब द्वीप की उत्तम गोलाई देखकर लज्जित व दुःखित हआ, यह मनोहर चन्द्रमा रात-दिन आकाश में घूमता फिरता है। तथा जिस प्रकार लोक-अलोक का मध्य भाग है उसी प्रकार यह जम्बू द्वीप भी समस्त द्वीपों में तथा तीन लोक के मध्य भाग में है। ऐसा बड़े-बड़े यतीश्वर कहते हैं ।।३९-४६।। इस जम्बू द्वीप के मध्य में अनेक शोभाओं से शोभित, गले हुए सोने के समान देहवाला, दैदीप्यमान, अनेक कान्तियों से व्याप्त, सुवर्णमय मेरु पर्वत है। यह मेरु साक्षात् विष्णु के समान मालूम पड़ता है। क्योंकि जिस प्रकार विष्णु के चार भुजा हैं, उसी प्रकार इस मेरु पर्वत के भी चार गजदन्तरूपी चार भुजा हैं और जिस प्रकार विष्णु का नाम अच्युत है उसी प्रकार यह भी अच्युत अर्थात् नित्य है ॥४७-४८॥ जिस प्रकार विष्णु श्री समन्वित अर्थात् लक्ष्मी सहित हैं, उसी प्रकार यह मेरु पर्वत भी श्री समन्वित अर्थात् नाना प्रकार की शोभाओं से युक्त है। इस मेरु पर्वत पर सुभद्र, भद्रशाल तथा स्वर्ग के नन्दन वन के समान नन्दन वन, अनेक प्रकार के पुष्पों की सुगन्धि से सुगन्धित करनेवाले सौमनस्य वन हैं। यह मेरु अपांडु अर्थात् सफेद न होकर भी पांडुशिला का धारक सोलह अकृत्रिम चैत्यालयों से युक्त अपनी प्रसिद्धि से सबको व्याप्त करनेवाला अर्थात् अत्यन्त प्रसिद्ध और नाना प्रकार के देवों से युक्त है।।४६-५०॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् बड़े भारी ऊँचे परकोटे को धारण करनेवाला, सुवर्णमय और नाना प्रकार के रत्नों से शोभित, यह मेरु, निराधार स्वर्ग के टिकने के लिए मानो एक ऊँचा खम्भा ही है ऐसा जान पड़ता है॥५१॥ यह मेरु पर्वत तीनों लोक में अनादिनिधन, अकृत्रिम, स्वभाव से ही और अनेक पर्वतों का स्वामी अपने-आप ही सुशोभित है ।।५२।। यह पर्वत अत्युत्तम शोभा को धारण करनेवाले जम्बू द्वीप के मध्य भाग में अनुपम सुख मोक्ष को जाने की इच्छा करनेवाले भव्य जीवों को मोक्ष के मार्ग को दिखाता हुआ, और जिनेन्द्र भगवान के गन्धोदक से पवित्र हुआ, एक महान तीर्थपने को प्राप्त हुआ है। चारण ऋद्धि के धारण करनेवाले मुनियों से सदा सेवनीय है, समस्त पर्वतों का राजा है। श्रेष्ठ कल्पवृक्षों के फलों से स्वर्गलोक को भी जीतनेवाले इस मेरु पर्वत पर स्वर्ग को छोड़कर इन्द्र भी अपनी इन्द्राणियों के साथ क्रीड़ा करने को आते हैं। यह मेरु पर्वत अधिक ऊँचा होने के कारण अत्युच्च कहा गया है, और पृथ्वी का धारण करनेवाला होने के कारण धराधीश, अर्थात् पृथ्वी का स्वामी कहा गया है ॥५३-५६॥ __इस मेरु पर्वत के ऊपर विराजमान चैत्यालयों के और स्तुति करने योग्य परमात्मा के ध्यान करनेवाले योगीन्द्रों के स्मरण से मनुष्यों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ।।५७। इस मेरु पर्वत के माहात्म्य का हम कहाँ तक वर्णन करें इस मेरु पर्वत के माहात्म्य का विस्तार बड़े-बड़े करोड़ों ग्रन्थों में भले प्रकार वर्णन किया गया है ।।५८॥ ततो दक्षिणदिग्भागे प्रसस्यं सस्यमुत्तमम् । भारतं भारतीपूर्ण समस्ति सुखसंश्रितम् ।। ५६ ।। चापाकारं च यद्भाति गंगासिन्धु शराश्रितम् । क्षारोदधि नीरेणैव ताड़ितं क्षार हानये ॥ ६० ॥ यन्मध्ये रूप्यनामायं शिखर्यां सिन्धु विस्तृतः । श्रेणीद्वय समाकीर्णः खचरैः कृतसंस्थितिः ।। ६१ ॥ गंगा सिन्धु द्विकेनैव विजयार्द्धा चलेन च । षट्खण्डतां समानीतं द्योतयेच्छुमालयम् ।। ६२ ।। तत्रार्यखण्डमाभाति दक्षिणे भरते परे । त्रिखण्डषंडसंकीर्णे पूर्णे पुण्यजनेः सदा ॥ ६३ ।। षट्काल चक्रसंतानं वर्तते यत्र भाषिनि । शर्माशर्म समाकीर्ण पुण्य पापकलावहम् ॥ ६४ ॥ प्रथमो वर्तते कालः सुषमाद्विक संज्ञकः । कायाहारादिभिज्ञेयो यत्र देवकुरुपमः ॥ ६५ ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् द्वितीय सुषमः ख्यात: क्रोशद्वय शरीरिभाक । हरि वर्ष समोज्ञेयः स्थित्वाहारादिभिःशुभः ॥ ६६ ॥ द्वि कोटि कोटि संस्थायी क्रोशोत्सेध शरीरभृत् । जघन्यभोग भूद्दक्षस्तृतीयः काल इष्यते ।। ६७ ॥ विदेह कालसादृश्य चतुर्थः समयो मतः । तीर्थकृद्वक्ति रामादि जननोत्सवतांगतः ॥ ६८ ॥ पञ्चम: पुण्य पापाढयस्तुच्छ धर्म सुखाकरः । समयः प्रोच्यतेसद्भिर्डीनायुर्देह धर्मकः ।। ६६ ॥ धर्म होनोति पापात्मा षष्टो दुष्ट जनाश्रितः । कालोऽल्पायुर्जनः कीर्णो ज्ञातव्यः कालकोविदः ।। ७० ॥ इत्थं कालः प्रवर्तेत यत्रार्य पुण्यधामनि । मुक्तिमार्ग पथोद्दीपे शुभकर्म परायणे ।। ७१ ॥ विशेष देश संकीर्ण पुरपत्तन भूषितम् । यतिवृन्द समाश्लिष्टं दिद्युते यच्छुभावहम् ॥ ७२ ॥ तन्मध्ये मगधोदेशो नाभिवद्भाति भूतले । जनता वृन्द संसेव्यो भूरि भव्य विशेसितः ॥ ७३॥ ग्रामाः • कुक्कुटसम्पात्या धनधान्य गुणालयः । रेजुर्यत्र जनाकीर्णा विशीर्णास्सम्पदः शुभाः ॥ ७४ ॥ सुवृक्षा यत्रसम्भेजुः कल्पवृक्षश्रियंपराः । यच्छन्तः फलसंराशी जनानां फल कांक्षिणाम् ॥ ७५॥ शालि क्षेत्राणि राजन्ते सुपक्व फलितानि च । तद्वर्ण शुकसमिश्रं फलानि यत्र सुन्दरे ॥७६ ॥ पक्व शालिवने यत्र पतन्तः शुक पक्षिणः । लक्ष्यन्ते तत्रजैर्लोकः कल्पवृक्ष फलानिवा ॥ ७७ ।। सरांसि यत्र शोभन्ते स्वच्छनीर भृतानि च । नीलद्विपैः श्रितानीवमेघवृन्दैश्च सेवितुम् ॥ ७८ ।। कमलाकर संकीर्णाः सुमनोज सुमण्डितः । सिन्धुदापहाः पद्माकराः कृष्णाइवावभुः ॥ ७९ ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् दृश्यन्ते मुनयो यत्र वने पर्वतमस्तके। ग्रामे देशेपुरे द्रोणे मण्टपे कर्वटेतटे ।। ८० ॥ गणेश गणणातीताः संघेनमहत्तासमम् । धर्मोपदेश संरक्ता दृश्यन्ते यत्र निर्मलाः ।। ८१॥ क्वचित्केवलपूजाया आगच्छन्ति सुरोत्तमाः । नाना विमानसंरूढ़ादृढ़ दिव्यांगणासमम् ।। ८२॥ रमन्ते रम्य रामेषु यत्र देवाः सयोषितः । मुक्त्वा स्वर्गमहींरम्यां सुगम्यां पुण्य शालिनाम् ॥ २३ ॥ गोपालिका महागीतमन्त्रं सयंत्रिता मृगाः । न यान्ति यत्र सन्दत्तचित्ता भय वर्जिताः ॥ ८४ ॥ पद्माकरेषु चायान्ति गजा यत्र पिपासया। दृष्टवा तत्रत्य नारीणांरूपं मुंचन्ति जीवनम् ॥८५ ॥ कि वर्ण्यते च योदेशो नानातीर्थ समाश्रितः । देवविद्या धरैः सेव्यो मुनिवृन्दविराजितः ॥ ८६ ॥ राजगृहं पुरंतत्र राजगृह विराजितम् । समस्ति सर्व शोभाढयं धनाढय जनसंस्कृतम् ॥ ८७॥ न नराज्ञानसंत्यक्ता नाशीलाः कुलयोषितः । निर्धना न जना यत्र वर्तन्ते परमद्धिकाः ।। ८ ।। लोकपाल समालोकाः स्त्रियो दिव्यांगनासमाः । कल्पवृक्ष समाकारा वृक्षायत्र पदे पदे ॥ ८६ ॥ स्वविमानोपमा यत्र गृहास्वर्णश्च वद्धकाः । पापशासन सादृक्षा नरेन्द्रा बुध संस्कृताः ॥ १० ॥ उत्तुंग शालतो याति यत्स्वर्ग जेतुमिच्छया। अधः कृत्यं स्वबीर्येण भुवनं भूरिशो भया ॥६१ ॥ यत्रत्याः परं धाम विशान्तिव्रत भूषिताः । उत्पाद्यके वलं बोधं क्षयंनीत्वाद्यः संचयम् ॥ १२ ॥ केचित्सद्वतंसंसिद्धया ब्रजन्ति व्रत योगतः । सर्वार्थसिद्धि संस्थानं प्राग्दृष्टमिव योगिनः ॥६३॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् केचिदच्युतपर्यन्तं सस्त्रियो व्रतभूषिताः । श्रावकाणां च गच्छन्ति पुण्यस्य फलमीद्दश्यम् ॥ १४ ॥ केचित्रिविधपात्रेभ्यो दत्वादानं सुरवार्थिनः । अटन्ति भोग भूस्थानं यावज्जीव सुखांकिताम् ।। ६५ ।। दानेस्पर्द्धा चिकीर्षन्ति पूजायां च विशेषतः । जनायत्र न बोधेषु ज्ञान भावाश्रितां नराः ॥ ६६ ॥ प्रासादा यत्र शोभन्ते जिनानां भूभजां पुनः । जय कोला हला कीर्णाः ससभ्याः फल दायिनः ॥ ६७ ।। इसी मेरु पर्वत की दक्षिण दिशा में जहाँ उत्तम धान्य उपजाते हैं मनोहर, अनेक प्रकार की विद्याओं से पूर्ण, और सुखों का स्थान भरतक्षेत्र है। यह भरतक्षेत्र साक्षात् धनुष्य के समान है क्योंकि जिस प्रकार धनुष्य में बाण होते हैं उसी प्रकार गंगा सिन्धु दो नदीरूपी बाण हैं। इस भरतक्षेत्र के मध्य भाग में रूपाचल नाम का विशाल पर्वत है जो चारों ओर से सिन्धु नदी से वेष्टित है और जिसकी दोनों श्रेणी सदा रहनेवाले विद्याधरों से भरी हुई हैं। यह भरतक्षेत्र अत्यंत पवित्र है और गंगा सिन्धु नाम की दो नदियों से तथा विजयाद्ध पर्वत से छह खण्डों में विभक्त अतिशय शोभा को धारण करता है ।।५६-६२।। इसी भरतक्षेत्र में तीन खण्डों से व्याप्त, पुण्यात्मा भव्य जीवों से पूर्ण, दक्षिण भाग में आर्य खण्ड शोभित है ।।६३।। इस दैदीप्यमान आर्य खण्ड में सुख तथा दुःख से व्याप्त, पुण्य पापरूपी फल को धारण करनेवाला, सुखमा सुखमादि छह कालों का समूह सदा प्रवर्तमान रहता है।६४।। इन छह प्रकार के कालों में प्रथम काल सुखमा सुखमा हैं, जो कि शरीर आहार आदिक से देवकुरु भोग भूमि के समान है॥६५॥ दूसरा काल सुखमा नाम का है जिसमें मनुष्य के शरीर की ऊँचाई दो कोश के प्रमाण की रहती है, यह काल, स्थिति आहार आदिक से हरि वर्ष क्षेत्र के समान है तथा शुभ है ॥६६॥ तथा तीसरा काल दुखमा सुखमा नामक है, इसमें मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई एक कोश के प्रमाण है। इसकी रचना से जघन्य भोग भूमि के समान होती है । ६७॥ चौथा काल दुखमा सुखमा है जिसकी रचना विदेह क्षेत्र के समान होती है, तीर्थंकर चक्रवर्ती बलभद्र नारायण आदि महापुरुषों की उत्पत्ति भी इसी काल में होती है ॥६८॥ पाँचवाँ काल दुखमा है जिसमें पुण्य तथा पाप से शुभाशुभ गति की प्राप्ति होती है, यह दुःखों का भंडार है तथा इस पंचम काल में मनुष्यों की आयु, शरीर, धर्म सब कम हो जाते हैं ।।६९।। इसके पश्चात् धर्म कर रहित, पापस्वरूप, दुष्ट मनुष्यों से व्याप्त, और थोड़ी आयुवाले जीवों सहित, छठवाँ दुखम दुखम काल आता है.॥७०॥ इस प्रकार मोक्ष मार्ग साधन करने के लिए दीपक के समान, नाना प्रकार की शुभ क्रियाओं सहित, और पुण्य के स्थान, इस आर्य खण्ड में उक्त प्रकार के काल सदा प्रवर्तमान रहते हैं ॥७१॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ऐसा यह आर्यखण्ड नाना प्रकार के बड़े-बड़े देशों से व्याप्त, पुर और ग्रामों से सुशोभित, बहुत-से मुनियों से पूर्ण, और पुण्य की उत्पत्ति स्थान, अत्यन्त शोभायमान है ।।७२।। इस आर्यखण्ड के मध्य में जिस प्रकार शरीर के मध्य भाग में नाभि होती है उसी प्रकार इस पृथ्वीतल के मध्य भाग में मगध नामक एक देश है जो अनेक जनों से सेवित, और विशेषतया भव्यजनों से सेवित है।।७। इस मगध देश में धन-धान्य और गुणों के स्थान मनुष्यों से व्याप्त, प्रकट रीति से सम्पत्ति के धारी, अनेक ग्राम पास-पास बसे हुए हैं।७४॥ इस मगध देश में, फल की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को उत्तमोत्तम फलों को देनेवाले उत्कृष्ट वृक्ष, कल्पवृक्षों की शोभा को धारण करते हैं ॥७५।। उस देश में वहाँ के मनुष्य, पके हुए धान्यों के खेतों में गिरते हुए सूवों को कल्पवृक्ष के फलों के समान जानते हैं ॥७६।। वहाँ अत्यन्त निर्मल जल से भरे हुए, काले-काले हाथियों से व्याप्त, सरोवर ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो स्वयं मेघ ही आकर उनकी सेवा कर रहे हैं ।।७७॥ वहाँ के तालाब साक्षात् कृष्ण के समान मालूम पड़ते हैं क्योंकि जिस प्रकार श्रीकृष्ण कमलाकर अर्थात् लक्ष्मी के (कर) हाथ सहित है, उसी प्रकार तालाब भी कमलाकर अर्थात् कमलों से भरे हुए हैं ॥७॥ जिस प्रकार श्रीकृष्ण सुमनसों (देवों) से मण्डित हैं, उसी प्रकार तालाब भी (सुमनस) अर्थात् नाना प्रकार के फूलों से पूर्ण हैं ॥७६|| जिस प्रकार श्रीकृष्ण हस्तियों के मद को चकनाचूर करनेवाले हैं अर्थात् इनके पास आते ही हस्ती शान्त हो जाते हैं ।।८०। और जिस देश में, वन में, पर्वत के मस्तकों पर, ग्राम में, देश में, पुर में, खोलारों में, नदियों के तटों पर, सदा मुनिगण देखने में आते हैं और धर्म के उपदेश में तत्पर, निर्मल, असंख्याते गणधर बड़े-बड़े संघों के साथ दृष्टिगोचर होते हैं उस देश में कहीं पर अनेक प्रकार के विमानों में बैठे हुए उत्तम देव, अपनी-अपनी अत्यन्त सुन्दरी देवांगनाओं के साथ केवली भगवान की पूजा करने के लिए आते हैं और कहीं पर मनोहर वाग में पुण्यात्मा पुरुषों द्वारा प्राप्त करने योग्य, अपनी मनोहर स्वर्गपुरी को छोड़ देवतागण अपनी देवांगनाओं के साथ क्रीड़ा करते हैं ।।८१-८३।। वहाँ गोपालों की रमणियों द्वारा गाये हुए मनोहर गीतरूपी मन्त्रों से मन्त्रित तथा उनके गीतों में दत्तचित्त और भयरहित हिरणों का समूह निश्चल खड़ा रहता है, और भगाने पर भी नहीं भागता है॥४॥ ___ और वहाँ जब तलाबों से प्यास से अत्यन्त व्याकुल हो अनेक हाथी पानी पीने आते हैं तब हथिनियों को देखकर उनके विरह से पीड़ित होकर अपना जीवन छोड़ देते हैं ॥८५॥ यह मगध देश नाना प्रकार के उत्तमोत्तम तीर्थंकरों सहित, नाना प्रकार के देव विद्याधरों से सेवित, और विशेष रीति से अनेक मुनिगणोंकर शोभित है इसका कहाँ तक वर्णन करें।॥६॥ इसी मगध देश में राजघरों से शोभित, अनेक प्रकार की शोभाओं से मण्डित, धन से पूर्ण तथा अनेक जनों से व्याप्त, राजगृह नामक एक नगर है। राजगृह नगर में न तो अज्ञानी मनुष्य Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् हैं, और न शील रहित स्त्रियाँ हैं, और न निर्धन पुरुष बसते हैं ।। ६७-६८ ।। वहाँ के पुरुष उत्तम कुबेर के समान ऋद्धि के धारण करनेवाले और स्त्रियाँ देवांगनाओं के समान हैं ॥ ८१ ॥ जगहजगह पर कल्पवृक्षों के समान वृक्ष हैं। और स्वर्गों के विमानों के समान सुवर्ण से घर बने हुए हैं वहाँ राजा इन्द्र के समान अत्यन्त बुद्धिमान हैं, वहाँ ऊँचे-ऊँचे धान्यों के खेत और वृक्ष, ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो वे मूर्तिमान अत्यन्त शोभा है और अपने पराक्रम से इस लोक को भलीभाँति जीत कर स्वर्गलोक के जीतने की इच्छा से स्वर्गलोक को जा रहे हैं ।।६०-६१।। १४ उस नगर के रहनेवाले भव्य जीव मनुष्य नाना प्रकार के व्रतों से भूषित होकर केवलज्ञान को प्राप्त कर तथा समस्त कर्मों को निर्मूलन कर परम धाम मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥१२॥ और वहाँ की स्त्रियों के प्रेमी अनेक पुरुष भी व्रतों के सम्बन्ध से श्रेष्ठ चरित्र को प्राप्त कर स्वर्ग को प्राप्त होते हैं क्योंकि पुण्य का ऐसा ही फल है ।। ६३ ।। वहाँ के कितने एक सुख के अर्थी भव्य जीव, उत्तम, मध्यम, जघन्य, तीन प्रकार के पात्रों को दान देकर भोग भूमि नामक स्थान को प्राप्त होते हैं और जीवनपर्यन्त सुख से निवास करते हैं ।। ६४-६५।। राजगृह नगर के मनुष्य ज्ञानवान हैं. इसलिए वे विशेष रीति से दान तथा पूजा में ही ईर्ष्या-द्वेष करना चाहते हैं और ज्ञान में (कला-कौशलों में) कोई किसी के साथ ईर्ष्या तथा द्वेष नहीं करता ॥ ६६ ॥ उसमें जिन - मन्दिर तथा राज- मन्दिर सदा जय-जय शब्दों से पूर्ण, उत्तम सभ्य मनुष्यों से आकीर्ण, याचकों को नाना प्रकार के फल देनेवाले शोभित होते हैं ।। ६७॥ शास्ता भूतस्य पुण्येन लक्षणांकित विग्रहः । उपश्रेणिक इत्याख्यांदधद्दीप्तयशः शुभः ॥ ६८ ॥ ज्ञानेन कल्पवृक्षत्वं ज्ञानेन गुरुतांगतः । तेजसा चन्द्ररूपत्वं प्रतापेनाकतांचयः ॥ εε॥ ऐश्वर्येणेन्द्रतां यातो धनेनराजराजताम् । गाम्भीर्येण समुद्रत्वमित्यनेक गुणाश्रितः ॥ १००॥ त्यागी भोगी सुखी धर्मी दाता वक्ता विचक्षणः । शूरो भीरुः परोमानी ज्ञानि यो दिद्युतेभुवि ।। १०१ ।। वलेन चतुरंगेणाभूत्साध्यं स्वबलेन किम् । किं तस्य महाराजस्य से वितस्य महीधरैः ॥ १०२॥ महिषीतस्य संजाता रूपलावण्य भूषिता । इन्द्राणी पुरु दूतस्येन्द्राणीव च महाप्रिया ॥ १०३ ॥ तनूदरी गुणैः स्थूलारजयद्भूपतिं पतिम् । गत्या विभ्रमदृस्या च भूविकारेण सन्ततम् ॥ १०४॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् सुधाकुम्भसमौ पीनौ मदनोज्जीवनौ परौ। दधौसा कुचकुम्भौ च हारनाग समाश्रितौ ॥१०॥ कुचसंसर्गस्तस्य नाभून्मदनज्वरः । तस्यारसासनादेव यथावर विनिग्रहः ॥१०६॥ स्त्री भवंदेशसम्भूतं लक्ष्मीजंसातमातनोत् । स पुण्यफलमाभुञ्जन् स्त्रियासाकं निरन्तरम् ॥१०७॥ अन्योन्य प्रेमबद्धौ विशदसुखसरोमग्न कायौमहांतौ । राज्यते दम्पती तौ निखिल नरपतिश्लिष्टपादौ पबित्रौ ॥१०८।। व्यापकीर्ति विशीर्णसुख समयपरौ पुण्यमूर्ति प्रशस्यौ । भञ्जानौ भोगलक्ष्मी त्रिदशपतिसमांपुण्य सारां समस्ताम् ॥१०॥ सराज्यमासांद्यचिरं प्रभुज्यमहीकृतां शेष विनाश मुक्ताम् । तयासमंतिष्ठतिराज्यभारे निराकृताशेषविपक्ष वारे ॥११०॥ धर्मादाज्यस्य सम्पद्भवति तनुभृतां धर्मतः शर्मसारम् । धर्मात् स्त्रीणां च वृन्दंनिखिलसुरपतिस्त्रीसमानं विमानम् ॥१११।। धर्मात्पुत्रस्य भूतिर्जगति सुकृतीनांचाक्रि पुण्यानुलक्ष्मी । धर्मात्स्वर्गादिसातंकुरूत जिनपतेर्धर्मेकंसारम् ॥११२।। इति भेणिक भावानुवद्ध भविष्यत्श्रीपद्मनाभतीथंकर चरित्र भट्टारक श्री शुभचनाचार्य विरचिते श्रेणिकराज्य वर्णनं नाम प्रथमः सर्गः॥ राजगृह नगर का स्वामी नाना प्रकार के शुभ लक्षणों से युक्त शरीर और दैदीप्यमान यश का धारण करनेवाला, उपश्रेणिक नाम का राजा था ||६|| वह उपश्रेणिक राजा अत्यन्त ज्ञानवान, कल्पवृक्ष के समान दानी, चन्द्रमा के समान तेजस्वी, सूर्य के समान प्रतापी, इन्द्र के समान परम ऐश्वर्यशाली, कुबेर के समान धनी तथा समुद्र के समान गम्भीर था ॥६६॥ इनके अतिरिक्त उसमें और भी अनेक प्रकार के गुण थे, त्यागी था, भोगी था, सुखी था, धर्मात्मा था, दानी था, वक्ता था, चतुर था, शूर था, निर्भय था, उत्कृष्ट था, धर्मादि उत्तम कार्यों में मान करनेवाला ज्ञानवान और पवित्र था, इसलिए अनेक राजाओं से सेवित उपश्रेणिक महाराज को न तो चतुरंग सेना से ही कुछ काम था और न अपने बल से ही कुछ प्रयोजन था॥१००-१०२॥ महाराज उपश्रेणिक के साक्षात् इन्द्र की इन्द्राणी के समान, जो उत्तम रूप तथा लावण्य से युक्त थी, इन्द्राणी नाम की पटरानी थी।।१०३।। वह तनूदरी इन्द्राणी, अनेक प्रकार के गुणों से युक्त होने के कारण अपने पति को प्रसन्न रखती रहती थी॥१०४।। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् उसके स्तन, अमृतकुम्भ के समान मोटे, कामदेव को जिलानेवाले, उत्तम हाररूपी सर्प से शोभित, दो कलशों के समान जान पड़ते थे ॥१०॥ और उसके उत्तम स्तनों के सम्बन्ध से मदन ज्वर तो कभी होता ही नहीं था ॥१०६॥ जैसे रसायन के खाने से ज्वर दूर हो जाता है वैसे ही उसके स्तनों के रसायन से मदन ज्वर भी नष्ट हो जाता था ।।१०७॥ तह इन्द्राणी अत्यन्त पवित्र, और नाना प्रकार की शोभाओं कर सहित, उपश्रेणिक राजा को आनन्द देती थी तथा वह राजा भी इस पटरानी के साथ सदा भोगविलासों को भोगता हुआ इस प्रकार परस्पर अतिशय प्रेमयुक्त, अत्यन्त निर्मल सुखरूपी सरोवर में मग्न, अत्यन्त पवित्र और महान, जिनके चरणों की वन्दना बड़े-बड़े राजा आकर करते थे, चारों ओर जिनकी कीति फैल रही थी, और समस्त प्रकार के दुःखों से रहित तथा पुण्य मूर्ति वे दोनों राजारानी इन्द्र के समान पुण्य के फलस्वरूप राज्य-लक्ष्मी को भोगते थे॥१०८-१०६॥ राजा उपश्रेणिक ने राज्य को पाकर उसे चिरकालपर्यंत भोग किया और समस्त पृथ्वी को उपद्रवों से रहित कर दिया, और उसके राज्य में किसी प्रकार के बैरी नहीं रह गये। उनके लिए ऐसे राज्य में महारानी इन्द्राणी के साथ स्थित होना ठीक ही था क्योंकि भव्य जीवों को धर्म की कृपा से ही राज्य सम्पदा की प्राप्ति होती है, धर्म से ही अनेक प्रकार के कल्याणों की प्राप्ति होती है, धर्म से उत्तमोत्तम स्त्रियाँ तथा चक्रवर्ती लक्ष्मी मिलती है और धर्म से ही स्वर्ग के विमानों के समान उत्तमोत्तम घर, आज्ञाकारी उत्तम पुन भी मिलते हैं, इसलिए भव्य जीवों को श्री जिनेन्द्र भगवान के सारभूत उत्कृष्ट धर्म की अवश्य ही आराधना करनी चाहिए ॥१११-११२॥ इस प्रकार भविष्यत्काल में होनेवाले श्री पद्मनाभ तीर्थंकर के पूर्वभव के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित उपश्रेणिक को राज्य-प्राप्ति का वर्णन करनेवाला प्रथम सर्ग समाप्त हुआ। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः नौमि पद्मश्रियं देवं पद्मनाभं जिनेश्वरम् । भावितीर्थं विशिष्टार्थं प्रतिपादकमीश्वरम् ॥ १ ॥ पद्म की शोभा को धारण करनेवाले जिनेश्वर तथा भविष्य में तीर्थों की प्रवृत्ति करनेवाले ईश्वर श्री महापद्मनाथ भगवान को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ॥१॥ तयोरथ महापुण्याच्छेणिकः सुखसन्ततिः । तनुजो जनितानेक सन्तोषः परमद्धिकः ॥ २ ॥ गुणायस्मिन् शुभं रूपं यस्मिन्नर्मल्यमुत्तमम् । यस्मिन् वर्तेत सौभाग्यं यस्मिल्लक्ष्मी परिग्रहः ।। ३ ।। यस्य मूनि कचारेजुः कामिनी मोहकारकाः । मुखपंकज सौगन्ध्यान्नागा इव समागताः ॥ ४ ॥ विस्तीर्णं सुन्दराकारं ललाटं तिलकाकुलम् । दिद्युते पट्टकं दत्त वेधसालिखनाय च ॥ ५ ॥ नेत्रविस्फारि राजेत नीलोत्पल दलायतम् । सीमंकृते घृतानाशा सुगंधाति सुलोलुपा ॥ ६ ॥ अनन्तर इसके उन दोनों राजा-रानी के महान पुण्य के उदय से, अनेक सुखों का स्थान, भले प्रकार माता-पिता को सन्तुष्ट करनेवाला, परम ऋद्धिधारक, श्रेणिक नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ॥२॥ कुमार श्रेणिक में सर्वोत्तम गुण थे, उसका रूप शुभ और अतिशय निर्मल था। वह अत्यंत भाग्यवान और लक्ष्मीवान था ॥३॥ कुमार श्रेणिक के कामिनी स्त्रियों के मन को लुभानेवाले काले-काले केश ऐसे जान पड़ते थे मानो उसके मुख-कमल की सुगन्धी से सर्प ही आकर इकट्ठे हए हैं॥४॥ उसका विस्तीर्ण सुन्दर और अतिशय मनोहर तिलक से शोभित ललाट ऐसा मालम पड़ता था मानो ब्रह्मा ने तीनों लोक के आधिपत्य का पट्टक हो रचा है ॥५॥ बालक के दोनों नेत्र नीलकमल के समान विशाल अतिशय शोभित थे। दोनों नेत्रों की सीमा बाँधने के लिए उनके मध्य में अतिशय मधुर सुगन्धि को ग्रहण करनेवाली नासिका शोभित थी॥६॥ मुखचंद्रं स्फुरद्दीपं दोषाकर समन्वितम् । निर्दोषं च सदोद्योतं मुक्तं कलंक संपदा ॥ ७ ॥ तार हारकराकीर्णं विस्तीर्ण भार धारणात् ।। बभौ वक्ष स्थलं तस्य नाना शोभा समन्वितं ।। ८ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् बाहुयुग्मं रराजास्य कामिनी मोहपाशकं । । कम्र शाखायुगं कल्पवृक्षस्येव बहुप्रदम् ॥ ६ ॥ कटितटसुवृक्षेऽस्य वसते मदनान्वितः । कांचीदाममहानागो रणक्ति किण शब्दकः ॥ १० ॥ पादद्वयं शुभाकारं नानालक्षणलक्षितम् । श्रेणिकस्य वभौ रम्यं जितानेकमहाद्विषः ॥ ११ ॥ स्फुरायमान दीप्तिधारी बालक श्रेणिक का मुख यद्यपि चन्द्रमा के समान दैदीप्यमान था तथापि निर्दोष सदा प्रकाशमान और समस्त प्रकार के कलंकों से रहित ही था॥७॥ विशाल एवं अतिशय मनोहर हारों से भूषित उसका वक्षःस्थल राज्य-भार के धारण करने के लिए विस्तीर्ण था और अनेक प्रकार की शोभाओं से अत्यन्त सुशोभित था ।।८॥ कामिनी स्त्रियों के फंसाने के लिए जाल के समान उसकी दोनों भुजाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो याचकों को अभीष्ट दान की देनेवाली दो मनोहर कल्पवृक्ष की शाखा ही हैं । उसके कटिरूपी वृक्ष पर, करधनी में लगी हुई छोटी-छोटी घण्टियों के व्याज-से शब्द करता हुआ, कामदेव सहित, करधनी रूपी महासर्प निवास करता था श्रेणिक के शुभ आकृति के धारक, अनेक प्रकार के ॥१०॥ उत्तमोत्तम लक्षणों से युक्त और अतिशय कान्ति के धारण करनेवाले, दोनों चरण अत्यंत शोभित थे॥११॥ विवेकः सह संपत्या वर्द्धते देह सद्मनि । ज्ञानं च कलया साकं तस्य पुण्य सुभागिनः ।। १२ ।। बुद्धया बाल्येऽपि वृद्धोभूत्सतां मान्यो विचक्षणः । असाधारण सौभाग्य बुद्धयादिगुण लिंगितः ॥ १३ ॥ तीर्णः शास्त्रार्णवो येन प्रयासेन विना चिरात् । शस्त्रविद्यासमालेभे क्षात्रधर्मस्य कारणम् ॥ १४ ॥ गुणेन लिंगितो देहो मेधया ज्ञानमुत्तमं । दानेनालंकृतो हस्तोऽभवत्तस्य शुभागिनः ।। १५ ॥ तथा उस पुण्यात्मा एवं भाग्यवान कुमार श्रेणिक के अतिशय मनोहर शरीररूपी महल में सम्पत्ति के साथ विवेक बढ़ता था, और अनेक प्रकार की राजसम्बन्धी कलाओं के साथ ज्ञान वृद्धि को प्राप्त होता था ।।१२।। यद्यपि कुमार श्रेणिक बाल-कथा तथापि बुद्धि की चतुराई से वह वड़ा ही था और सज्जनों को मान्य था वह हरेक कार्य में चतुर, और सौभाग्य बुद्धि आदि असाधारण गुणों का भी आकर था ॥१३॥ इसने बिना परिश्रम के शीघ्र ही शास्त्ररूपी समुद्र को पार कर लिया था और क्षत्रिय धर्म की प्रधानता के कारण अनेक प्रकार की शस्त्रविद्याएँ भी सोख ली थीं॥१४॥ तथा भाग्यशाली जिस बालक श्रेणिक के अनेक प्रकार के गुणों से मण्डित उत्तम ज्ञान, बुद्धि से भूषित था, उसके हाथ दान से शोभित थे ॥१५॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १९ ततान परमं तोषं पित्रोः परम संपदा । संसिद्धयौवनारूढो व्यूढशक्तिसमन्वितः ।। १६ ॥ अन्ये पुत्राः शुभास्तस्य शतपंचप्रभाः पराः । बभूवुः पुण्यमाहात्म्यादृष्टपुण्य फलोत्तमाः ॥ १७ ॥ इस प्रकार योवन अवस्था को प्राप्त, अत्यंत बलवान श्रेणिक सुन्दरता आदि सम्पदाओं से सम्पन्न था जिसे देख उसके माता-पिता अत्यन्त सन्तुष्ट रहते थे ।।१६।। श्रेणिक के अतिरिक्त महाराज उपश्रेणिक के पाँच सौ पुत्र और भी थे जो अत्यन्त पुण्यात्मा और उत्तमोत्तम शुभ लक्षणों से भूषित थे।॥१७॥ अथ चंद्रपुराधीशः सोमशर्मा महाबली । प्रत्यंत देश संवाक्षी धृतबैरो वलोद्धतः ॥ १८ ॥ मगधेशेन सोपायं साधितश्चन्द्रनायकः । सेवकत्वं समापन्न: स्थितो राज्ये खलाशयः ॥ १६॥ मगधेश्वर संनाशं चितयन् दुष्टमानसः । लब्धोपायस्तदाचक्रे विनाशे मतिमुन्नतां ।। २० ॥ सुवर्णं धनधान्यं च वस्त्रालंकरणं तथा । उपायनकृते चान्यद्रत्नमुक्ताफलादिकं ॥ २१ ॥ अशिक्षितमनौपम्यं दुष्टांश्च वंचनोद्यतम् । प्राहिणोत्सोमशर्मा तं मागधं विद्यया कृतम् ।। २२ ।। महाराज उपश्रेणिक के देश के पास ही उसका शत्रु चन्द्रपुर का राजा सोम शर्मा रहता था जो अपने पराक्रम के सामने समस्त जगत को तुच्छ समझता था ॥१८॥ जिस समय महाराज उपश्रेणिक को यह पता लगा कि चन्द्रपुर का स्वामी सोम शर्मा अपने सामने किसी को पराक्रमी नहीं समझता, तो उन्होंने शीघ्र ही उसे अपने अधीन करने का विचार कर अनेक उपायों से उसे अपने अधीन तो कर लिया पर उसे पुनः ज्यों-का-त्यों राज्याधिकार दे दिया ।।१६।। सोम शर्मा जब महाराज उपश्रेणिक से हार गया तो उसको बहुत दुःख हुआ और उसने मन में यह बात ठान ली कि महाराज उपश्रेणिक से इस अपमान का बदला किसी-न-किसी समय पर अवश्य लूंगा ॥२०॥ तदनुसार उसने एक दिन यह चाल की कि सुवर्ण धन-धान्य मनोहर वस्त्र और उत्तमोत्तम आभूषण की भेंट महाराज उपश्रेणिक की सेवा में भेजी उसके साथ एक वीत नाम का घोड़ा भी भेजा। यह घोड़ा देखने में सीधा पर सर्वथा अशिक्षित अतिशय दुष्ट एवं अत्यंत ही धोखेबाज था॥२१-२२।। दृष्टवा राजगृहाधीशो लेखं सोपायनं पुनः । शंसां चक्र च सोमस्याजानं स्तस्य मनोगतं ।। २३ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Po श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् पुनर्विलोक्य वोततं दृष्टमात्रप्रियं परं । सामग्री सकलं तुंगं तुतोष नरनायकः ॥ २४ ॥ अश्वरत्नमिदं सारं सर्वाश्वाधीशतां गतं । मद्गृहे नास्तिचेदृक्षं बभाणेति वचोनृपः ॥ २५ ॥ जिस समय महाराज उपश्रेणिक ने चन्द्रपुर के राजा सोम शर्मा की भेजी हुई भेंट को देखा तो वे सोम शर्मा के मन की भीतरी अभिप्राय को न समझ उसके विनयभाव पर अतिशय मुग्ध होकर उसकी बारम्बार प्रशंसा करने लगे और भेंट से अपने को धन्य भी मानने लगे॥२३-२४।। ऊपर से ही मनोहर घोड़े को देख वे मुक्तकण्ठ से यह कहने लगे कि अहा यह राजा सोम शर्मा का भेजा हुआ घोड़ा सामान्य घोड़ा नहीं है किन्तु समस्त घोड़ों का शिरोमणि अश्वरत्न है मेरी घुड़साल में ऐसा मनोहर घोड़ा कोई है ही नहीं ॥२५॥ तत्परीक्षाकृते राजा-चटित्वा स स्वयं वनं । गतः क्रीड़ा परां प्राप्तः पश्यन् वनसुवेदिकाम् ॥ २६ ॥ कशाघातः कृतो यावत्तावदुष्ट तुरंगमः । अगमद्राज्यसंघातं मुक्त्वा भीते वने घने । २७ ।। न तिष्ठति तदा दुष्टो वीतो विश्व विवंचकः । महाटव्यां प्रविष्ट: स न वेत्त्यमुखजालकं ॥ २८ ।। क्रोशंति जंबुका यत्र फूत्कुर्वंति फणीश्वराः । रटंति वनभल्लूका निनदंतिमहागजाः ।। २६ ।। पतंति मर्कटा वृक्षा-चीत्कुर्वन्ति च वंशकाः । पक्षिणः पानसंतुष्टाः कृत रावा नदंत्यहो ।। ३० ॥ निक्षिप्तस्तत्र राजेंद्रस्तेन वातेन पापिना । गर्तेऽत्यंतमहारौद्रे नारके बा परे तदा ।। ३१ ।। ऐसा कहते-कहते उस घोड़े की परीक्षा करने के लिए वे अपने-आप उस पर सवार हो गये, और चढ़कर मार्ग में अनेक प्रकार की शोभाओं को देखते हुए एक वन की ओर रवाना हुए॥२६॥ जिस समय महाराज उपश्रेणिक वन के मध्य भाग में पहुँचे आनन्द में आकर घोड़े को कोड़ा लगाया फिर क्या था ? कोड़ा लगते ही वह अशिक्षित एवं दुष्ट घोड़ा उछलकर बात-की-बात में ऐसे भयंकर वन में निर्भयता से प्रवेश कर गया जहाँ अजगरों के फुत्कार हो रहे थे, रीछ भी भयंकर शब्द कर रहे थे, बड़े-बड़े हाथी भी चिंघाड़ रहे थे और बन्दर वृक्षों से गिर पड़ने पर भयंकर चीत्कार कर रहे थे एवं जहाँ-तहाँ भाँति-भाँति के पक्षियों के भी शब्द सुनाई पड़ते थे। घोड़े ने उस वन में प्रवेश कर, महाराज उपश्रेणिक को ऐसे अन्धकारमय भयंकर गड्ढे में, जहाँ सूर्य की किरण प्रवेश नहीं कर सकती थी, पटक दिया और बात-की-बात में दृष्टि से लुप्त हो गया ॥२७-३१॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अहो वैरं न कर्तव्यं दुर्बलेऽपि मदोद्धतः । प्रांते दुःखप्रदंज्ञेयमहो व्यसनसंततिः ॥ ३२॥ अतिशय बलवान पुरुषों को भी दुर्बल मनुष्यों के साथ कदापि बैर नहीं करना चाहिए क्योंकि दुर्बल के साथ भी किया हुआ बैर मनुष्यों को इस संसार में अनेक प्रकार का अचिंतनीय कष्ट देता है ॥३२॥ क्व राजा मगधाधीश: क्वाटवी दु:खदायिका । क्व गर्त्तः क्व पुरं रम्यं वरस्य फलमीदृशं ॥ ३३ ॥ इति मत्त्वा जनस्त्याज्यं वैरं दुःखप्रदं परं । इहामुत्र भवे पापा प्रीतिदं श्वभ्रदायकं ॥ ३४ ॥ अहा ! दुःखों का समूह कैसा आश्चर्य का करनेवाला है। देखो? कहाँ तो मगध देश का स्वामी राजा उपश्रेणिक ? और कहाँ अनेक प्रकार के भयंकर दुःखों का देनेवाला महान वन ? तथा कहाँ अतिशय मनोहर राजगृह नगर? कहाँ अन्धकारमय भयंकर गड्ढा? क्या किया जाय बैर का फल ही ऐसा है, इसलिए उत्तम पुरुषों को चाहिए कि वे उभय लोक में दुःख देनेवाले इस परम बैरी बैर-विरोध को अपने पास कदापि न फटकने दे ॥३३-३४॥ सेनायामथ देशेऽपि नगरे सज्जने जने । हाहारवस्तदा जात: शोकचितालिलि गित: ॥ ३५॥ श्रुत्वांतःपुरनार्योऽपि व्यधुर्दुःखं विमानसाः । केश हारस्वशृंगार त्रोटनं च पुनः पुनः ।। ३६ ॥ चतुरंग बलेनापि सपुत्रेण पुनः पुनः । यत्नतः प्रेक्ष्यमाणोऽपि नो दृष्टो नरनायकः ॥ ३७॥ अथ स्मरन्महामंत्रमपराजितनामकं । स्थितोऽतः खिद्यमानोऽसौ सार्ने गर्ते व्यथाश्रितः ॥ ३८ ॥ जब लोगों ने महाराज उपश्रेणिक के लापता होने का समाचार सुना तो सेना में, देश में, अनेक जनों से सर्वथा पूर्ण राजगृह नगर में एवं अन्यान्य नगरों में भी शोक और चिन्ता छा गई -हाकार मच गया। रनिवास की समस्त रानियाँ य समाचार सुनते ही मच्छित हो गई और महाराज के वियोग में एकदम करुणाजनक रुदन करने लगीं। जितने केशविन्यास हार आदिक शृंगार थे उन सबको उन्होंने तोड़कर अलग फेंक दिया। चतुरंगिनी सेना ने और महाराज उपश्रेणिक के पुत्रों ने महाराज के ढूंढ़ने के लिए अनेक प्रयत्न किये किंतु कहीं पर भी उनका पता Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् न लगा। किन्तु णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं' इत्यादि महामन्त्र को ध्यान करते हुए महाराज उपश्रेणिक अंधकारमय एवं दुःखों के देनेवाले उसी गड्ढे में पड़े हुए अनेक प्रकार के कष्टों को भोगते रहे ।।३५-३८॥ तत्र पल्ली शुभा-चास्ति तुच्छवासा मनोहरा। तत्पतिर्यमदंडाख्यः क्षत्रियो भिल्लनायकः ॥ ३६॥ बिद्युन्मती शुभा राज्ञी रूप सौभाग्य संश्रिता । तिलकादिवती पुत्री तयोश्चंद्राननाऽपरा ॥ ४० ॥ जिस वन के भीतर भयंकर गड्ढे में महाराज उपश्रेणिक पड़े थे उसी वन में एक अत्यन्त मनोहर भीलों की पल्ली थी। उस पल्ली का स्वामी, समस्त भीलों का अधिपति क्षत्रिय यमदंड नाम का राजा था। उसकी विद्युन्मती पटरानी अतिशय मनोहर और रूप एवं सौभाग्य की खानि थी। इन दोनों राजा-रानी के चन्द्रमा के समान उत्तम मुखवाली तिलकवती नाम की एक कन्या थी॥३६-४०॥ यावन्मागधनाथोऽसौ स्थितोशर्मप्रपूरितः । पल्लीपतिः समायातस्तावत्क्रीड़ा कृतेऽथ च ।। ४१ ॥ दृष्टवा तत्र स्थितं राजगृहनाथं सविस्मितः । कोऽयं कथं दशां दुष्टामिमां प्राप्तः प्रभुः परः ।। ४२ ।। चितयन्निति स दूरादागत्योत्तीर्य घोटकात् । अनमत्यादयोयुग्म मतिष्ठत्तस्य संनिधौ ॥ ४३ ॥ पप्रच्छेति प्रभो केनानीतस्त्वं दुष्टवैरिणा। अवस्थामीदृशीं प्राप्तः कथं मगधनायक ॥ ४४ ।। तत: प्राख्यत्स भूपालो यमदंड प्रति प्रियं । वचः शृणु-च भो मित्र वृत्तांतं विस्मयप्रदम् ।। ४५ ।। क्रोड़ा करने का अत्यन्त प्रेमी राजा यमदंड इधर-उधर अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं को करता हुआ उसी गड्ढे के पास आया जिस गड्ढे में महाराज उपश्रेणिक पड़े नाना प्रकार के कष्टों को भोग रहे थे। गड्ढे के अत्यन्त समीप आकर जब महाराज उपश्रेणिक को उसने भयंकर गड्ढे में पड़ा देखा तो वह आश्चर्य से अपने मन में यह विचार करने लगा कि यह कौन है ? वह कैसे इस दशा को प्राप्त हुआ? और इसे किसने इस प्रकार का भयंकर कष्ट दिया है ? कुछ समय इसी प्रकार विचार करते-करते जब उसको यह बात मालूम हो गई कि ये राजगृह नगर के स्वामी महाराज उपश्रेणिक हैं तो झट वह अपने घोड़े पर से उतर पड़ा और अत्यन्त विनय से उसने महाराज उपश्रेणिक के दोनों चरणों को नमस्कार किया और विनयपूर्वक उनके पास बैठकर यह पूछने लगा कि हे प्रभो किस दूष्ट बैरी ने आपको इस भयंकर गडढे में लाकर गिरा दिया? और हे मगधेश ऐसी भयंकर दशा को आप किस कारण से प्राप्त हुए? कृपा कर यह समस्त Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् समाचार सुनाकर मुझे अनुगृहीत करें। आपकी इस प्रकार दुःखमय अवस्था को देखकर मुझे अत्यन्त दुःख है। जिस समय महाराज उपश्रेणिक ने भीलों के स्वामी यमदंड का इस प्रकार भक्तिभरा वचन सुना तो उनका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उन्होंने प्रिय वचनों में राजा यमदंड के प्रश्न का इस प्रकार उत्तर दिया और कहा-मित्र, यदि तुमको अत्यन्त आश्चर्य करनेवाले मेरे वृत्तान्त के सुनने की अभिलाषा है तो ध्यानपूर्वक सुनो मैं कहता हूं॥४१-४५॥ प्रत्यंतवासिना तेन वैरिणा सोमशर्मणा । विद्यामयः खलोवीतः प्रेषितः प्रीतिदायकः ॥ ४६॥ विद्यामयं तुरंगं तं समारुह्यागमं वनम् । दुष्टेन तेन नीतोऽहमत्र क्वापि गतः सहि ॥ ४७ ।। इति वृत्तान्त सर्वस्वं प्रजल्प्य पुनरादिशत् । कस्त्वं किमर्थमायातः को जानाति स्तवकथ्यतां ।। ४८ ।। मेरे देश के समीप देश में रहनेवाला सोम शर्मा नाम का एक चन्द्रपुर का स्वामी है। बह अपने पराक्रम के सामने किसी को भी पराक्रमी नहीं समझता था और बड़े अभिमान से राज्य करता था। जिस समय मुझे उसके इस प्रकार के अभिमान का पता लगा तो मैंने अपने पराक्रम से बात-की-बात में उसका अभिमान ध्वंस कर दिया और उसे अपना सेवक बनाकर पुनः मैंने ज्यों-का-त्यों उसे चन्द्रपुर का स्वामी बना दिया। यद्यपि उसने मेरी अधीनता स्वीकार तो कर ली पर उसने अपने कुटिल भावों को नहीं छोड़ा इसलिए एक दिन उस दुष्ट ने नाना प्रकार के आभूषण, उत्तम वस्त्र एवं धनधान्य, सुवर्ण आदिक पदार्थ मेरी भेंट के लिए भेजे, और इन पदार्थों के साथ एक घोड़ा भी भेजा। यद्यपि वह घोड़ा ऊपर से मनोहर था पर अशिक्षित एवं अतिशय दुष्ट था। जिस समय उसकी भेजी हुई भेंट मैंने देखी तो मैं उसके कुटिल भाव को तो समझ नहीं सका किन्तु बिना विचारे ही मैं उसके इस प्रकार के व्यवहार को उत्तम व्यवहार समझकर प्रसन्न हो गया। भेंट में भेजे हुए उन समस्त पदार्थों में मुझे घोड़ा बहुत ही उत्तम मालूम पड़ा, इसलिए विना विचारे ही उस घोड़े की परीक्षा करने के लिए मैं उस पर सवार होकर वन की ओर चल पड़ा। जिस समय मैं वन में आया तो मैंने आनन्द में आकर उसके कोड़ा मारा किन्तु वह घोड़ा कोड़े के इशारे को न समझकर एकदम ऊपर उछला और मुझे इस भयंकर गड्ढे में पटककर न जाने कहाँ चला गया। इसी कारण मैं इस गड्ढ़े में पड़ा हुआ इस प्रकार के कष्टों को भोग रहा हूँ ॥४६-४८॥ स ब्रूतेशृणु राजेन्द्र क्षत्रियोऽहं यमाह्वयः । भ्रष्ट राज्यत्वतः पल्यां तिष्ठामि नरनायक ॥ ४६॥ कृपां कुरु महाभागागच्छ मे मंदिरं द्रुतम् । पवित्रय स्वपादेन सफलीकुरुमज्जनिं ॥ ५० ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् जब महाराज उपश्रेणिक ने अपना समस्त वृत्तान्त सुना दिया तो उन्होंने राजा यमदंड से भी पूछा कि हे भाई तुम कौन हो? और कैसे आपका यहाँ आना हुआ ! और आपकी क्या जाति है ? महाराज उपश्रेणिक के समस्त वृत्तान्त को जानकर और भले प्रकार उनके प्रश्नों को भी सुनकर राजा यमदंड ने विनय भाव से उत्तर दिया कि हे प्रभो समस्त भीलों का स्वामी मैं राजा यमदंड हैं और क्रीड़ा करता-करता मैं इस स्थान पर आ पहुँचा हूँ। मेरी जाति क्षत्रिय है और अपने राज्य से भ्रष्ट होकर मैं इस पल्ली में रहता हूँ, इसलिए हे महाभाग कृपा कर आप मेरे घर पधारिए और अपने चरण-कमलों से मेरे घर को पवित्र कर मुझे अनुगृहीत कीजिए ।।४६-५०।। इति वाक्यात्समाकृष्टोभपो मगधनायकः । अयात्तन्मंदिरं रम्यं शरीराशर्महायने ।। ५१ ॥ दृष्टवा स तद्ग्रहाचारमगदीद्वचनं परम् । भिल्लसादृश्यतां प्राप्तं चित्तक्षोभनकारकम् ।। ५२ ।। महाराज उपश्रेणिक तो अपने दुःख को दूर करने के लिए ऐसा अवसर देख ही रहे थे इसलिए जिस समय राजा यमदंड ने महाराज उपश्रेणिक से अपने घर चलने के लिए प्रार्थना की तो महाराज उपश्रेणिक ने उसे विनीत समझकर शीघ्र ही उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और उसके साथ-साथ उसकी ओर चल दिया॥५१॥ यद्यपि राजा यमदंड क्षत्रिय वंशी राजा था और उसका आचार-विचार उत्तम गृहस्थों के समान होना चाहिए था किन्तु उसका सम्बन्ध अधिक दिनों से भीलों के साथ हो गया था इसलिए उसकी क्रिया गृहस्थों की क्रियाओं के समान नहीं रही थीं, भीलों की क्रियाओं के समान हो गई थीं ॥५२॥ भो दंड मे कथं पथ्यं पवित्रोऽहं विशद्ध धीः । अत्र भोक्तुं न योग्यं मे शुभाचारविजिते ।। ५३ ।। महाराज उपश्रेणिक ने जब उसके घर जाकर उसके गृहस्थाचार को देखा तो वे एकदम दंग रह गये और राजा यमदंड से कहा कि हे यमदंड यद्यपि तुम क्षत्रिय राजा हो तथापि अब तुम्हारा गृहस्थाचार क्षत्रियों के समान नहीं रहा है ? और मैं शुद्ध गृहस्थाचारपूर्वक बने हुए ही भोजन को कर सकता हूँ, पवित्र एवं विशुद्ध ज्ञानी होकर मैं आपके घर में भोजन नहीं कर सकता ॥५३॥ आकर्ण्य . यमदंडोप्यगदीद्वचनमुत्तमं । राजन्न रोचते तुल्यमुपायं-चेत्करोम्यहं ।। ५४ ।। तिलकादिवती पुत्री ममास्ति शुभलक्षणा । जानाति सत्कुलाचारं कुलाचारपरायणा ॥ ५५ ॥ सा करिष्यति ते सेबां पथ्यपानादिजां परा । श्रुत्वेति वचनं राजा तुतोष मगधाधिपः ॥ ५६ ।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अनंतरं स्वजनकादेशात्सापि तथाकरोत् । भेषज जनैः पानैः शरीरस्वास्थ्यहेतवे ॥ ५७ ॥ ततो बभूव सत्स्वास्थ्यं तस्य पुण्यानुभागिनः । दिनैः कतिपयैस्तस्याः करभेदाद्विशेषतः ।। ५८ ।। जिस समय राजा यमदंड ने महाराज उपश्रेणिक के इस प्रकार के वचनों को सुना तो उसने तत्क्षण इस भाँति विनयपूर्वक कहा कि हे प्रभो यदि आप ऐसे गृहस्थाचार संयुक्त मेरे घर में भोजन करना नहीं चाहते हैं तो आप घबरायें नहीं गृहस्थाचारपूर्वक भोजन के लिए मेरे यहाँ दूसरा उपाय भी मौजूद है। वह उपाय यही है कि मेरे अत्यंत शुभ लक्षणों को धारण करनेवाली, भली प्रकार गृहस्थाचार में प्रवीण, एक तिलकवती नाम की कन्या है वह कन्या शुद्ध क्रियापूर्वक भोजन पानी आदि से आपकी सेवा करेगी ।।५४-५५।। भिल्लों के स्वामी यमदंड के इस प्रकार के विनम्र वचनों को सुनकर मगधदेशाधिप महाराज उपश्रेणिक अत्यंत प्रसन्न हुए॥५६॥ और उसी दिन से अपने पिता की आज्ञा से कन्या तिलकवती ने भी महाराज उपश्रेणिक की सेवा करनी प्रारम्भ कर दी ।।५७।। कभी वह कन्या एक प्रकार का और कभी दूसरे प्रकार का मिष्ट भोजन बनाकर महाराज को प्रसन्न करने लगी॥५॥ स्वास्थ्ये जातेऽथ सद्राज्ञो महास्नेहविवर्द्धनात् । तस्या उपरि स राजा मोहं प्राप्तो महामतिः । ५६ ।। कभी महाराज के रोग को भलीभाँति पहचान वह उत्तम औषधियुक्त उनको भोजन कराती और कभी-कभी अतिशय मधुर शीतल जल से महाराज के मन को सन्तुष्ट करती इस प्रकार कुछ दिनों के बाद औषधि संयुक्त भोजनों से विशेषतया उस कन्या के हाथ से भोजन करने से महाराज उपश्रेणिक का स्वास्थ्य ठीक हो गया तथा महाराज उपश्रेणिक पूर्व की तरह ज्यों-केत्यों निरोग हो गये ॥५६॥ अहोरूपमहोध्वानश्चाहोयानं शुभामतिः । हरिणी नेत्र सादृश्यं यस्यानेत्रयुगं परं ॥ ६० ॥ ललाटं खंडचंद्राभं वक्त्रं चन्द्रसमप्रभम् । दधाति कोकिलध्वानं या सौभाग्यखनिः परा ।। ६१ ॥ निधिकुंभाविवोत्तगौ मार सर्पकलंकितौ। पीनौ पयोधरौ यस्या राजेते प्राणिदुर्लभौ । ६२ ।। ययोर्मध्ये सदा याति कामज्वरसुशातये । नदीभोगिमगाकीर्णास्तनोपांतविराजिता ॥६३ ॥ ईदृशी भुवने नारी न दृष्टा नापि दृश्यते । सुन्दराकार सर्वांगा कटाक्षक्षेपविभ्रमा ।। ६४ ।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् जब तक महाराज सरोग रहे तब तक तो मैं किस प्रकार निरोग होऊँगा? मेरा यह रोग किस रीति से नष्ट होगा? इत्यादि चिन्ता के सिवाय महाराज के चित्त में किसी विचार ने स्थान नहीं पाया, किन्तु निरोग होते ही निरोगता के साथ-साथ उस कन्या के स्नेह, सेवा, रूपएवं सौंदर्य पर अतिशय मुग्ध होकर वे विचार करने लगे कि इस कन्या का रूप आश्चर्यकारक है, और इसके मनोहर वचन भी आश्चर्य करनेवाले ही हैं। तथा इसकी यह मन्द-मन्द गति भी आश्चर्य ही करनेवाली है, इसकी बुद्धि अतिशय शुभ है। इसके दोनों नेत्र चकित हरिणी के समान चंचल एवं विशाल हैं। अर्ध चन्द्र के समान मनोहर इसका ललाट है। और इसका मुख चन्द्रमा को कान्ति के समान कान्ति का धारण करनेवाला है। यह कोकिला के समान अतिशय मनोहर शब्दों को बोलनेवाली है, रूप एवं सौभाग्य की खानि है, अतिशय मनोहर इस कन्या के ये दोनों स्तन, खजाने के दो सुवर्णमय कलशों के समान उन्नत, कामदेवरूपी सर्प से कलंकित, अतिशय स्थूल हैं, और हरएक मनुष्य को सर्वथा दुर्लभ हैं। और इसके दोनों स्तनों के मध्य में अत्यंत मनोहर, कामदेवरूपी ज्वर को दमन करनेवाली नदी है। इसके समस्त अंगों की ओर दृष्टि डालने से यही बात अनुभव में आती है कि इस प्रकार सुन्दराकारवाली रमणीरत्न न तो कभी देखने में आई और न कभी सुनने में आई और न आवेगी ॥६०-६४॥ इति स्वरूपसौभाग्यं वितळ निजमानसे । यमदंडं प्रति प्राह वचनं स महीधरः ॥ ६५ ॥ देहि ते पुत्रिकां मह्य गुणभूमि सुखाकराम् । मन्येत्वतः सुखं जातं यतो मम महामते ॥६६ ॥ महाराज उपश्रेणिक इस प्रकार कन्या के स्वरूप की उधेड़-बुन में लगे थे कि इतने में ही राजा यमदंड उनके पास आये और उनसे महाराज उपश्रेणिक ने कहा कि हे भिल्लों के स्वामी यमदंड यह तुम्हारी तिलकवती नाम की कन्या नाना प्रकार के गुणों की खानी एवं अनेक प्रकार के सुखों को देनेवाली है आप इस कन्या को मुझे प्रदान कीजिए क्योंकि मेरा विश्वास है कि मुझे इसी से संसार में सुख मिल सकता है ॥६५-६६।। इति वाक्यं समाकर्ण्य प्राख्यद्यमनराधिपः । मागधं प्रति संप्रीत्या कृतमौलिनमस्क्रियः ।। ६७ ।। क्व मे सुता क्व राजात्वमनेकस्त्री समाश्रितः । वर्तते बहवो नार्यस्तवदिव्यांगना समाः ॥ ६८ ॥ पुत्राश्च बहवो राजंस्तव श्रेणिकमुख्यकः । महाबलः समाकीर्णाः संति धीरा महीभृतः ॥ ६६ ॥ लघीयसी सुतेयं मे तुभ्यं दत्ता मयाऽधुना । पराभवभवां पीडां सहेत किमु योषितः ॥ ७० ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २७ न जाने तनुजो राजन् भवितास्यां न वा शुभः । कदाचिज्जातवान्पूर्व पुत्रपादप्रघर्षणात् ॥ ७१ ॥ दुःखभाग् जायते नूनं सुतदुःखेन दुःखिनी।। सुता मम भवेन्नूनं पराभववशंगता ।। ७२ ।। न दास्यामि महाराजन्नतः पुत्रींमम प्रियां । विधास्यसि व्रतंचेत्थं यदितुभ्यं ददाम्यहं ॥ ७३ ॥ कदाचिन्मम पुत्र्याश्च तनुजो यदि जायते । तस्मै राज्यं प्रदातव्यमिति नियमो विधीयतां ॥ ७४ ॥ तहि दास्यामि पुत्रीं मे नान्यथेतिवचो मम । तत्रथेति प्रपद्यासौ मागधः परिणीतवान् ।। ७५ ॥ महाराज उपश्रेणिक के इस प्रकार के वचनों को सुनकर राजा यमदंड ने इस विनयभाव से कहा कि हे प्रभो कहाँ तो आप समस्त मगध देश के प्रतिपालक ? और कहाँ मेरी अत्यंत तुच्छ यह कन्या? हे महाराज देवांगनाओं के समान अतिशय रूप और सौभाग्य की खानि आपके अनेक रानियाँ हैं। तथा कुमार श्रेणिक को आदिले आपके ही पुत्र हैं जो अतिशय बलवान, धीर और समस्त पृथ्वी-तल की भली प्रकार रक्षा करनेवाले हैं। इसलिए अत्यंत तुच्छ यह मेरी प्यारी पुत्री प्रथम तो आपके किसी काम की नहीं यदि दैवयोग से इसका सम्बन्ध आपसे हो भी जाय? तो हे प्रभो, क्या यह अन्य रानियों द्वारा घृणा की दृष्टि से देखी जाने पर उस अपमान से उत्पन्न हुई पीड़ा को सहन कर सकेगी? और हे प्रजापालक! प्रथम तो मुझे विश्वास नहीं कि इसके कोई पुत्र होगा? कदाचित दैवयोग से इसके कोई पुत्र भी उत्पन्न हो जाय और श्रेणिक आदि कुमारों का वह सदा दास बना रहे, तो भी उसको अवश्य दुःख ही होगा, और पुत्र के दुःख से दुःखित यह मेरी प्राणस्वरूप पुत्री अन्य रानियों द्वारा अवश्य ही अपमानित रहेगी? इसलिए उपरोक्त दुःखों के भय से मैं अपनी इस प्यारी पुत्री का आपके साथ विवाह करना उचित नहीं समझता। हाँ, यदि आप मुझे इस प्रकार का वचन देवें कि जो इससे पुत्र उत्पन्न होगा वही राज्य का उत्तराधिकारी बनेगा तो मैं हर्षपूर्वक आपकी सेवा में अपनी पुत्री को समर्पण कर सकता हूँ। आप जो उचित न्याय एवं अन्याय समझें सो करें आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका सेवक हूँ॥६७-७५॥ ततो राजगृहं गंतुंचचाल सह संपदा । तया समं परां क्रीडां कुर्बन्नाना सुखोद्यतः ॥ ७६ ।। नागराः सेवकाः सर्वे तदा पुत्राः समुत्सुकाः । आगच्छतं परिज्ञाय बभूवुः सोद्यमाः शुभाः ।। ७७ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रौशुभचन्द्रांचायवर्येण विचितम् सन्मुखाः सकलाः लोकाश्चेलुश्चंचलमानसाः । समीक्ष्य तं प्रभुंनेमुः सर्वे तत्पादपंकजम् ॥ ७८ ।। राजा यमदंड के इस प्रकार के वचन सुनकर महाराज उपश्रेणिक ने उसकी समस्त प्रतिज्ञाओं को स्वीकार किया और प्रसन्नतापूर्वक उसकी तिलकवती पुत्री के साथ विवाह कर उसके साथ भाँति-भांति की क्रीड़ा करते हुए महाराज उपश्रेणिक विशाल सम्पत्ति के साथ राजगृह नगर को रवाना हुए और मार्ग में अनेक प्रकार वन-उपवनों को शोभाओं को देखते राजगृह नगर के समीप आकर पहुंचे। महाराज उपश्रेणिक के आने का समाचार सारे नगर में फैल गया महाराज उपश्रेणिक के शुभागमन सुनते ही समस्त नगर-निवासी मनुष्य, राजसेवक एवं महाराज के समस्त पुत्र, अपने को धन्य और पुण्यात्मा समझकर, उनके दर्शन के लिए अतिशय लालायित होकर शीघ्र ही उनके सामने स्वागत के लिए आये और आकर विनयपूर्वक महाराज के चरणों को नमस्कार किया ॥७६-७८॥ चिर वासर संरूढ विप्रलंभादवाप्य तं । निनिमेषत्वमत्यंतं सर्वे संतोषपूरिताः ॥ ७९ ॥ संभाष्य वचनं रम्यमन्योन्यं प्रीत्यवंचिताः । स्थित्वा क्षणं क्षणैः सार्द्ध केलुः सर्वे पुरं प्रति ॥ ८० ।। चिरकाल से महाराज के वियोग से दुःखित उनके दर्शन से संतुष्ट हो समस्तजन उपश्रेणिक महाराज की और प्रेमपूर्वक वार्तालाप करते हुए उन लोगों ने कुछ समय तक वहीं ठहरकर पीछे महाराज से नगर में प्रवेश करने के लिए प्रार्थना की। तथा महाराज के चलने पर समस्त नगर निवासी जनों ने महाराज के पीछे-पीछे राजगृह नगर की ओर प्रस्थान किया ॥७६-८०॥ आनकानां महाध्वानाः शंखकाहलनिस्वनाः । गंभीरदुंदुभिध्वाना बभूबुरटनोत्सवे ।। ८१ ॥ नटंति लयसंरूढा हावभावावलंबिताः । नर्तक्यस्तर्जयंत्यश्व सुराणां वामलोचनाः ।। ८२ ।। सतोरणं पुरं प्रापत्केतुमालाविराजितम् । नानाशोभान्वितं पश्यंश्चतुः पथ शतोत्तमं ॥ ८३ ॥ महाराज उपश्रेणिक के नगर में प्रवेश करते ही उनके शुभागमन के उपलक्ष्य में अतिशय उत्सव मनाया गया। पटह, शंख, काहल, दुन्दुभि आदि मनोहर बाजे बजने लगे तथा उत्तमोत्तम हाव-भावों के दिखाने में प्रवीण, नृत्य-कला में अति चतुर देवांगनाओं के मद को चूर करनेवाली, और अति सुन्दर वेश्याएँ अधिक आनन्द-नृत्य करने लगीं। महाराजा उपश्रेणिक बहुत दिनों के बाद नगर के देखने से अति आनन्दित हुए और सर्वांग सुन्दरी महारानी तिलकवती के साथ-साथ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अनेक प्रकार के तोरणों से शोभित, नीली-पीलो आदि ध्वजाओं से सुशोभित, चित्त को हरण करनेवाले नाना प्रकार के चौकों से मण्डित, राजगृह नगर में प्रवेश किया ॥८१-८३॥ अहोपुण्यमहोपुण्यं पश्यतोत्तमतां गतं । क्व भूपतिर्महाधीरोऽटव्यां नि: सारणं क्वच ॥ ८४ ॥ क्वेयं कन्या शुभाकारा पूर्णचंद्राननाब्जिका । मृगाक्षी कमलारूपा पीनोन्नतपयोधरा ॥ ८५ ।। एतया सह संयोगः क्व प्राप्तोऽनेन पुण्यतः । भूपनिः सारणं मन्येऽहमेतत्कृत एव च ॥८६॥ विपदो यांति संपत्त्वं दुःखं सौख्यायते पुनः । पुण्यान्नृणां न संदेहोऽतः कार्य सुकृतं बुधैः ॥ ८७ ॥ राजगृह नगर के राजमार्ग में जाते हुए महाराज उपश्रेणिक को देखकर अनेक नगर निवासी अपने मन में इस प्रकार कल्पना करते कहते थे कि अहा पुण्य का माहात्म्य विचित्र है देखो कहाँ तो अत्यंत धीर-वीर महाराज उपश्रेणिक ? और कहाँ उत्तमांगी चन्द्रमुखी, मृगाक्षी, लक्ष्मी के समान अति मनोहर, स्थूल उन्नत, स्तनों से मण्डित, कन्या तिलकवती? कहाँ महाराज उपश्रेणिक का विशाल वन में गड्ढे में गिरना और निकलना? और कहाँ पीछे इस कन्या के साथ-साथ विवाह ? जान पड़ता है इस कन्या की प्राप्ति के लिए महाराज उपश्रेणिक को समस्त पुण्य मिलकर वहाँ ले गये थे? इसमें सन्देह नहीं जो मनुष्य पुण्यवान हैं उनके लिए विपत्ति भी सम्पत्तिस्वरूप और दुःख भी सुखस्वरूप हो जाता है। बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि वे सदा पुण्य का ही संचय करें ।।८४-८७।। इत्यादि शुभशंसीनी जनानां वचनानि च । शृण्वन् स मंदिरं प्राप्तः सजानिः सह संपदा ।। ८८ ॥ तस्यै मनोहरं रम्यं सप्तभूमं गृहं ददौ । उपश्रेणिकभूपालस्तद्गुणग्रामरंजितः ॥८६॥ नवोढया तया साकं रेमे रंजितमानसः ।। तद्वक्त्रपंकजेऽसौ भूत्षट्पदोरसचुम्बकः ॥ १० ॥ नेत्रानुलीलया रेजे तस्या भूयो दृढांगकः । चंदनद्रुमवल्लयेव नागोऽनंग समुत्सुकः ॥ ११ ॥ वक्षः स्थलवने तस्या मोहोत्तेन मृगायितं । स्तनद्वंद्व महारम्यं क्रीड़ागिरि विराजते ॥ ६२॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० पयोधरमहाकुंभ निधौ सर्पायते पुनः । यस्य हस्तद्वयं कुर्वन्कुच वस्त्रापसारणं ॥ ६३॥ हंसायते तरां धीमान् यस्याज घनसारसे । रतिपानीय सुस्वादे मदनोत्कर पंकजे ।। ६४ ।। क्रीड़येत्थं च भूपालो व्याकुली कुरुते च तां । क्रीडाब्जताड़नेनैव चुंबनेन घनेन च ।। ६५ ।। इस प्रकार नगरवासियों के कथा- कौतुहलों को सुनते महाराज उपश्रेणिक ने रानी तिलकवती के साथ-साथ अनेक प्रकार की शोभाओं से सुशोभित राजमंदिर में प्रवेश किया। राजमंदिर में प्रवेश करने पर महाराज उपश्रेणिक ने तिलकवती के उत्तमोत्तम गुणों से मुग्ध हो उसे अतिशय मनोहर क्रीड़ा योग्य मकान में ठहराया और नवोढ़ा तिलकवती के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ा करने लगे। कभी-कभी तो महाराज कमल के रस-लोलुप भँवरे के समान रानी तिलकवती के मुख-कमल के रस का आस्वादन करते, और कभी-कभी चन्दन लता पर गन्ध-लोलुप भ्रमर के तुल्य उसके साथ उत्तान क्रीड़ा करते । जान पड़ता था कि स्तनरूपी दो मनोहर क्रीड़ा पर्वतों से युक्त महारानी तिलकवती का वक्षःस्थल वन है और महाराज उपश्रेणिक उस वन में विहार करनेवाले मनोहर हिरण है। जब उपश्रेणिक अपने हाथों से महारानी तिलकवती के स्तनों पर से अति मनोहर वस्त्र को खींचते थे तब जान पड़ता था कि उसके स्तनरूपी खजाने के कलशों पर उनकी रक्षार्थ दो सर्प ही बैठे थे । महारानी तिलकवती के, मैथुनरूपी जल से युक्त कामदेवरूपी मनोहर कमल के आधारभूत, दोनों जंघारूपी सरोवर के बीच महाराज उपश्रेणिक ऐसे मालूम पड़ते थे मानो सरोवर में हंस ही क्रीड़ा कर रहा है। रानी तिलकवती के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ा कर महाराज उपश्रेणिक ने उसे केवल क्रीड़ा के ताड़नों से व्याकुल ही नहीं किया था किन्तु निर्दयता के साथ वे उसे चुम्बनों से भी व्याकुल करते थे ।। ८८-६५ ।। ततस्तस्यां सुतो जातश्चिलातीनामभाक् शुभः । अचिरेणैव कालेन वृद्धि पत् इति सुकृतविपाकात् पाकरम्यां रमयति वरकांतां कांतिदीप्रां समाजोद्भूतरूपांकलां सुरनारी इस प्रकार प्रेमपूर्वक चिरकाल क्रीड़ा करने से रानी तिलकवती के चलाती (चलातकी) नाम का उत्तम पुत्र उत्पन्न हुआ और अत्यंत भाग्यशाली वह चलातकी थोड़े ही काल में बड़ा हो गया इस रीति से पुण्य के महात्म्य से अत्यंत मनोहर, नवीन स्त्रियों में उत्तम, अत्यंत उज्ज्वल, हरेक कला में प्रवीण, समस्त पुण्यफलों से उत्पन्न, उत्तम रूप वाली, और समस्त देवांगनाओं के समान श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् सुकृत सनिखिल फल शुभायतः ।। ६६ ॥ नवीनां । प्रवीणाम् ।। ६७ ।। कां । रूपसंपत्सभानां ॥ ६८ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अत्यंत उत्कृष्ट, भाग्यवती तिलकवती को महाराज उपश्रेणिक नाना प्रकार की क्रीड़ाओं से सन्तुष्ट करते थे। तथा मोह से नाना प्रकार की काम पैदा करनेवाली चेष्टाओं को करनेवाली,, अत्यंत मनोहर, अपने शरीर को दिखानेवाली अत्यंत प्रौढ़ा, देदीप्यमान वस्त्रों से शोभित, मुकुटजड़ित मणियों की किरणों से अधिक शोभायमान, अत्यंत निर्मल रूपवाली और पुण्य की मूर्ति, तिलकवती भी अपने हाव-भावों से, नाना प्रकार के भोग-विलासों से महाराज उपश्रेणिक के साथ क्रीड़ा कर उन्हें तृप्त करती थी॥९६-९८॥ हावैर्भावविलासैविरमयति नृपम् सापि मोहानुभावात्......... कुर्वती कामचेष्टां सुभग निजतनुं दर्शयंती प्रगल्भां चंचद्वस्त्रासभूषा मुकुटमणिकरालंकृता तार हारा स्वर्गाधीशं शचीवा विशदगुणगणालंकृतापुण्यरूपा ॥ ६६ ॥ धर्माज्जन्मकुले सतां भवति वै धर्माद्वरं मंदिर, धर्माद्रपवती सती शुभलता सीमंतिनी जायते । धर्माद्भतिरनाकुला शिवसुखं धर्मान्महानंदता, मत्त्वा धर्मफलं कुरुध्वमखिलं राज्यादिनाकाप्तिकं ॥१००॥ इति श्रेणिक भवानुबद्ध भविष्यत्पत्मनाभ तीर्थकर-चरित्रे भट्टारक श्रीशुभचंद्राचार्य विरचिते उपधेणिक नगरप्रवेशनं नाम द्वितीयः सर्गः ।।२।। सच है धर्मात्मा प्राणियों को धर्म की कृपा से ही उत्तम कुल में जन्म मिलता है धर्म की कृपा से ही उत्तमोत्तम राजमंदिर मिलते हैं धर्म के माहात्म्य से ही मनोहर रूपवाली भाग्यवती सती सर्वोत्तम स्त्री-रत्न की प्राप्ति होती है, धर्म से ही समस्त प्रकार की आकुलता रहित विभूति प्राप्त होती है, एवं अत्यंत आनंद को देनेवाले धर्म से ही मोक्ष-सुख भी मिलता है। इसलिए उत्तम मनुष्यों को उचित है कि वे उत्तमोत्तम राज्य, स्वर्ग, मोक्ष इत्यादि सुखों के प्राप्त करानेवाले धर्म के फलों को भलीभाँति जानकर धर्म में अपनी बुद्धि को स्थिर कर धर्म को धारण करें॥६९-१००॥ इस प्रकार महाराज श्रेणिक के जीव भविष्यतकाल में होनेवाले श्री पद्मनाभ तीर्थंकर के चरित्र में भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित महाराज उपश्रेणिक के नगर-प्रवेश को कहनेवाला द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः मंगलाचरणम्- नौमि वृषभनामानं जिनं संजितकल्मषं । पुराणपुरुषं रम्यं केवलज्ञान भास्करं ॥ १ ॥ नृपचिंता- अर्थकदा निजे चित्ते चितयन्निति मागधः । एतेषां बहुपुत्राणां कस्मै राज्यंददाम्यहं ॥ २ ॥ वचनबद्धता- इति चित्ते चिरं राजा वितळ चिरचिंतकः । स्मरंश्चिलातकी पुत्र राज्यं पूर्वप्रदत्तकं ॥ ३ ॥ नैमित्तिकं समाहूय पप्रच्छेति नराधिपः । तदैकांते कलाकीर्णो राज्यदत्तिविचितकः ॥ ४ ॥ वार्तालाप प्रश्न-निमितशास्त्रवेत्तस्त्वं विज्ञातार्थमहामते । ज्ञातज्योतिष्कशास्त्रार्थ कथयस्व मनोगतं ॥ ५ ॥ एतेषां मम पुत्राणां राज्यभोक्ता भविष्यति । को मध्ये वद शीघ्रत्वं विचार्य विधिवत्पुनः ॥ ६ ॥ संविचार्य चिरं चित्ते निमित्तज्ञान कोविदः । अष्टांगनिनिमित्तैश्च मत्वा प्रोवाच सगिरा ॥ ७ ॥ भो भूप ! शृणु राज्यस्य योग्यं पुत्रं वदाम्यहं । मत्त्वा समस्तवृत्तांतं सर्वशास्त्रपरायणः ॥ ८ ॥ समस्त कर्मों से रहित, प्राचीन, मनोहर, अखण्ड केवलज्ञानरूपी सूर्य के धारक, प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभदेव भगवान को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ। अनन्तर इसके महाराज मगधेश्वर उपश्रेणिक के मन में इस प्रकार की चिन्ता हुई कि मेरे बहुत-से पुत्र हैं इनमें से मैं किस पुत्र को राज्य का भार दूं? इस प्रकार अतिशय दूरदर्शी महाराज उपश्रेणिक ने इस बात को चिरकाल तक विचार कर, और इस बात को भी भलीभाँति स्मरण कर कि तिलकवती के पुत्र चलातकी को मैंने राज्य दे दिया है। किसी ज्योतिषी को एकान्त में बुलाकर पूछा हे नैमित्तिक ! तू ज्योतिष शास्त्र का जाननेवाला है इस बात को शीघ्र विचार कर कह कि मेरे बहुत-से पुत्रों में राज्य का भोगनेवाला कौन पुत्र होगा? ___ महाराज की इस बात को सुनकर ज्योतिविद नैमित्तिक अष्टांग निमित्तों से भलीभाँति महाराज के प्रश्न को विचारकर बोला महाराज मैं ज्योतिषशास्त्र के बल से "आपके पुत्रों में से राज्य का भोगनेवाला कौन-सा पुत्र होवेगा" कहता हूँ आप ध्यान लगाकर सुनिये ॥१-८॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३३ (१) मिष्ठान्न भक्षणम् : कुमारेभ्यश्च सर्वेभ्यः शर्कराघटवन्दके । दत्ते योन्येनकुंभं तं धारयित्त्वा स्वलीलया ॥ ६ ॥ आगमिष्यति सिंहस्य द्वारं संविश्य सद्गृहं । स भविष्यति राजस्य भोक्ता नात्रविचारणा ॥ १० ॥ उसके जानने का पहला निमित्त तो यह है कि-आपके जितने पुत्र हैं सब पुत्रों को आप एक-एक घड़े में शक्कर भर के दीजिए उनमें जो पुन किसी दूसरे मनुष्य पर उस घड़े को रखकर निर्भय सिंह के द्वार में प्रवेश कर अपने घर में खेलता हुआ चला आवे तो जानिये कि वही पुत्र राज्य का अधिकारी होगा ॥६-१०॥ (२) ओस-जल से घटपूति : पुननिमित्तमाज्ञेय यः प्रपूरयति स्फुटं । कुंभं तृणजलेनैव नूतनं राज्यभाक् स हि ॥ ११॥ दूसरा निमित्त यह है कि आप अपने सब कुमारों को एक-एक नवीन घड़ा दीजिये और उनसे कहिये कि हरएक ओस के जल से उस घड़े को भरकर ले आवे जो पुत्र ओस से घड़े को भर कर ले आवेगा अवश्य वही पुत्र राजा होगा ।।११॥ पुनरस्ति महाभाग निमित्तं निश्चयात्मकं । सर्वेषु च कुमारेषु भोजनार्थं स्थितेषु च ॥ १२॥ एकपंक्तौ प्रभुक्तेषु पायसेषु शुभेषु च । शर्कराघृतपूपादि भोजनेषु वरेषु च ॥ १३ ॥ नानाव्यंजनयुक्तेषु माषान्नमंडकादिषु । करंबकेषु रम्येषु नानास्वादु सुभाविषु ॥ १४ ॥ (३) कुत्तों से भोजन की रक्षा : भुज्यमानेषु भो भूप ! मोक्तव्या मृगदंशकाः । दीर्घदंष्ट्रा महाक रा व्याघ्रा इव मदोद्धताः ॥ १५॥ तान्निवार्य स्वबुद्धया यो भुनक्ति वरभोजनं ।। मगधेशं विजानीहि त्वत्समं नात्रसंशयः ॥ १६ ॥ तीसरा निमित्त यह भी है कि आप अपने सब पुत्रों को एकसाथ भोजन करने के लिए बैठा दीजिये और आप उन पुत्रों को खीर, शक्कर, पूए और दाल-भात आदि सर्वोत्तम स्वादिष्ट पदार्थों को एकसाथ बैठाकर खिलाइये जिस समय वे भोजन के स्वाद में अत्यंत लीन हो जावें उस समय भयंकर दाढ़ीवाले अत्यंत क्रूर तथा बाघों के समान मत्त कुत्तों को धीरे से छुड़वा दीजिए उस समय जो पुत्र उन भयंकर कुत्तों को हटाकर आनन्दपूर्वक निर्भयता से भोजन करेगा वही पुत्र आपके समान इस मगधेश का निःसंदेह राजा हो सकेगा ॥१२-१६॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् (४) सिंहासन-रक्षा: चतुर्थमिगितं विद्धि दह्यमाने पुरे वरे। सिंहासनमहाछत्रचामरादि परिग्रहं ।। १७ ॥ परिगृह्य विनिर्गत्य पुराद्यः स्वयमस्तके । नियमात्तं विजानीहि महामुकुटबद्धकं ॥ १८ ॥ चौथा निमित्त यह समझिये-जिस समय नगर में आग लगे उस समय जो पुन सिंहासन छत्र, चंवर भादि पदार्थों को अपने सिर पर रखकर नगर से बाहर निकले, समझ लीजिए कि मुकुट का धारण करनेवाला वही राज्य का भोगनेवाला होगा ॥१७-१८।। तथान्यच्च परिज्ञानं शृणु मागधनायक । मोदकैः खज्जकैश्चान्यः करंडकसमूहकं ॥ १६ ॥ पूरयित्वा मुखे मुद्रां कृत्वा बद्धवा तथा घटाः । जलैर्नवीनाः संपूर्य बद्धवक्त्रा मनोहराः ।। २० ।। भिन्ने भिन्ने गृहे रम्ये करंडकघटाः पुनः । स्थापनीयाः कुमारकः स्थापनीयो गृहे गृहे ।। २१ ॥ अनुद्घाट्य घटं रम्यं करंडकमनुत्तरं । पानीयं पीयते येनभुज्यतेऽन्नं स राज्यभाग् ॥ २२ ॥ हे महाराज! राज्य की प्राप्ति का पांचवाँ निमित्त यह भी है कि-थोड़े-से पिटारों को उत्तमोत्तम लड्डू तथा खाजे आदि मिष्ठान्नों से भरवाकर, उनके मुंह को अच्छी तरह से बंद कराकर और मुहर लगवाकर हरेक के घर में रखवा दीजिये तथा उन पिटारों के साथ शुद्ध निर्मल मधुर जल से पूर्ण एक-एक उत्तम घड़े को भी मुंह बंद कर उसी तरह प्रत्येक के घर में रखवा दीजिये फिर प्रत्येक कुमार को एक-एक घड़े में से पानी तथा एक-एक पिटारे में से लडड आदि के खाने की आज्ञा दीजिये । उनमें से जो कुमार जल से भरे हुए घड़े के मुख को खोले बिना ही पानी पी लेवे तथा पिटारे से बिना खोले ही लड्ड आदि पदार्थों को खा लेवे समझ लीजिये कि वही पुन राज्य का भोगनेवाला होगा ।।१६-२२॥ निमित्तपंचकं राजन् वर्त्ततेऽत्र विचारणा । विधातव्या त्वया धीमन् राज्यज्ञानस्यसिद्धये ।। २३ ।। इति श्रुत्वा महीपालो विससर्ज विशालधीः । नैमित्तिकं परीक्षाय चिंतयन्निति मानसे ॥ २४ ॥ अहो ! राज्यं मया दत्तंचिलातीसूनवे पुरा । निमित्तात्कस्य पुत्रस्य भविष्यति न वेम्यहं ॥ २५ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३५ इस प्रकार नैमित्तिक के बताये हुए पांच निमित्तों को सुनकर महाराज ने उस नैमित्तिक को विदा किया और ज्योतिषी के बतलाये हुए उन निमित्तों से कुमारों की परीक्षा करने के लिए स्वयं ऐसा विचार करने लगे कि आश्चर्य की बात है कि राज्य तो मैंने चलातकी को देने के लिए दृढ़ संकल्प कर लिया है लेकिन अब नहीं जान सकता कि इन निमित्तों से परीक्षा करने पर राज्य का कोन भोगनेवाला ठहरेगा? ॥२३-२५।। अन्यदा च समाहूता: सभामध्ये शुभाशयाः । सर्वे सुता: समागत्य स्थिताः प्रणतमौलयः ॥ २६ ॥ राज्ञोक्तं भो सुताः सर्वेगृहीध्वं शर्कराघटं । एकैकमिति वाक्यं हि श्रुत्वा तत्करणोत्सुकाः ।। २७ ।। कुछ समय बीत जाने पर महाराज ने एक समय अपने समस्त पुत्रों को सभा में बुलाया और सरल स्वभाव से वे लोग महाराज की आज्ञा के अनुसार सभा में आकर अपने-अपने स्थानों पर बैठ गये। उनको भलीभाँति बैठे हुए देखकर महाराज ने कहा-हे पुत्रो ! मैं जो कहता हूँ सुनो-आप लोग एक-एक शक्कर का घड़ा लेकर सिंह-द्वार की ओर जाइये ॥२६-२७॥ राजाज्ञया ततः सर्वे गृहीत्वा स्वकरे घटं । सिंहद्वारे क्षणं स्थित्वा गताः स्वं स्वं गृहं प्रति ॥ २८ ॥ श्रेणिकोन्येन संग्राह्य सेवकेन घटं. शुभं । सिंहद्वारेऽगमद्धीमांल्लीलया स्वगृहं प्रति ।। २६ ।। श्रेणिकोऽयं शुभायतो राज्ययोग्यो भविष्यति ।। कथं दास्यामि राज्यं मे श्री चलातीस्वसूनवे ॥ ३०॥ महाराज के इस वचन को सुनकर महाराज की आज्ञा के पालन करनेवाले सब कुमार महाराज की आज्ञा से एक-एक शक्कर के घड़े को स्वयं लेकर सिंह-द्वार की ओर गये तथा थोड़ी देर वहाँ पर ठहरकर अपने अपने घरों को चले आये पर चतुर कुमार श्रेणिक किसी अन्य सेवक के सिर पर घड़े को रखवाकर सिंह-द्वार में गया तथा पीछे खेलता हुआ अपने घर को चला गया जब महाराज उपश्रेणिक ने यह बात सुनी तब वे चकित होकर रह गये और अपने मन में विचार करने लगे निःसंदेह भाग्यशाली श्रेणिक कुमार ही राज्य का अधिकारी होगा अब मैं अपने राज्य को चलाती कुमार के लिए कैसे दे सकूँगा? ॥२८-३०॥ अन्यदाहूय स सूनून वरप्रीतिकरान् परान् । बभाषे नृपतिः पुत्राः शृणुध्वं वचनं मम ॥ ३१॥ ततः प्रातर्गताः सर्वे भिन्ना भिन्नास्तृणाकुले । प्रदेशे घटमादाय सोत्सुकास्ते जलकृते ॥ ३२ ॥ ८.३०॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् सार्द्रतृणं च संप्राप्य संतुष्टास्ते कृतोद्यमाः । तृणोत्थं जलमादातुं स्थिता भिन्ने प्रदेशके ।। ३३ ।। पानीयं स्वकरेणैव तृणोत्थं नूतने घटे । क्षिपंत्यादाय शीघ्र ते तच्छुष्यति घटोदरे ।। ३४ ॥ आघणं ते जलेनापि व्याकुलीभूतमानसाः । तत्र स्थिता न संपूत्तिमेकस्यापि घटोऽभजत् ।। ३५ ॥ राज्ञो निरूप्य सर्वस्वं चलातीपुत्रकादयः । अधोवक्त्रा गृहं जग्मुरसिद्धोक्तस्वकार्यकाः ।। ३६ ।। श्रेणिकोऽपि स्वयं बुद्धयागमत्सार्द्रतृणाकुलं ।। तत्र सासुचेलेन गृहीत्वातॄणजं जलम् ॥ ३७ ।। क्षणात्संभृत्य कुंभं तं तृणजेन जलेन च । आगत्य नृपतेः कुंभं ददर्श जलसंभृतम् ॥ ३८ ॥ महांतं तं परिज्ञाय राजा चितापरोऽभवत् । राज्यभोक्ताऽयमेवात्र मम वाक्यस्य का गतिः ।। ३६ ।। इस प्रकार कुछ समय तक विचार करते-करते महाराज ने दूसरे निमित्त की परीक्षा करने के लिए अपने पुत्रों को बुलाया और कहा-हे पुत्रो ! तुम सब आज फिर मेरी बात को सुनो, सब लोग एक-एक नवीन घड़ा लो और उसको अपनी चतुरता से ओस के जल से मुंह तक भरकर लाओ। महाराज का वचन सुनते ही वे समस्त राजकुमार सवेरा होते ही बड़े उत्साह के साथ ओस के जल से घड़ों को भरने के लिए अनेक प्रकार के तृणयुक्त जगहों पर गये और वहाँ पर ओस के जल से भीगे तृणों को देखकर अत्यंत प्रसन्न हो बड़े प्रयत्न से तृणों के जल को ग्रहण करने के लिए अलग-अलग बैठ गये। जिस समय वे उस ओस के पानी को नवीन घड़े में भरते थे घड़े के भीतर जाते ही क्षणभर में वह ओस का पानी सूख जाता था। इस तरह ओस के जल से घड़ा भरने के लिए उन्होंने यथाशक्ति बहुत परिश्रम किया और भाँति-भाँति के प्रयत्न किये किन्तु उनमें से एक भी कुमार घड़ा को भर न सका किन्तु एकदम घबराकर सब-के-सब कुमार अपनेअपने स्थानों में चुपचाप बैठ गये। बहुत समय बैठने पर जब उन्होंने यह बात निश्चय समझ ली कि घड़े नहीं भरे जा सकते तब चलाती आदि सब राजकुमार महाराज की इस परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो लज्जा के मारे मुख नीचे किये हुए अपने-अपने घरों को चले गये। परन्तु अत्यन्त बुद्धिमान कुमार श्रेणिक महाराज की आज्ञा पालन करने के लिए जिस प्रदेश में ओस के जल से भीगे हुए बहुत तृण थे, गया और उन तृणों पर उसने एक कपड़ा डाल दिया। जिस समय वह कपड़ा ओस के जल से भीग गया तब उस भीगे कपड़े को निचोड़-निचोड़कर उस जल से घड़े को अच्छी तरह भरकर वह अपने घर ले आया और ओस के जल से भरे हुए उस घड़े को महाराज उपश्रेणिक के सामने रख दिया। महाराज ने जिस समय कुमार श्रेणिक द्वारा लाये ओस के जल Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३७ से भरे हुए घड़े को देखा तो श्रेणिक को अत्यंत बुद्धिमान समझकर चिन्ता से व्याकुल हो गये और मन में विचार करने लगे कि अवश्य यह श्रेणिक ही राज्य का भोगनेवाला होगा, किन्तु मैंने जो यह वचन दे दिया है कि राज्य चलाती कुमार को ही दिया जायेगा, न जाने इस वचन की क्या गति होगी?॥३१-३६।। एकदा तेन सर्वे ते भोजनार्थं च स्वगृहे । आकारिता महीप्रीत्या राजकार्यपरीक्षया ॥ ४० ॥ भोजनार्थं निविष्टेषु तेषु सर्वेषु सादरं । अमत्राणि शुभान्येव मुक्तानि स्वर्णजानि च ॥ ४१ ॥ तेभ्यश्च खज्जकव्यूहामोदकालायनश्रियः । पायसं शर्करापूर्ण मंड़का घृतमंड़काः ॥ ४२ ॥ मुद्गचूर्णानि रम्याणि वरं घृतवरं तथा । वरं दधिवरं सारं नानापक्वान्नराशयः ॥ ४३ ।। पूयव्यूहाः सछिद्राणि माषान्नानि मनोहरं । सुगंधमाज्यवं दं च नानाव्यंजन राशयः ॥४४॥ ओदनं द्विदलैः पूर्ण तक्रोत्थव्यंजनान्वितं । करंबं लवणैराढ्यं पिच्छलादिदधीद्वतं ॥ ४५ ॥ सर्वं भक्तं च ते जिह्वालां पद्यवशगैः पुनः । भुज्यते यावदानंदं भोजनं स्वादुद्धितं ॥ ४६॥ तावद्भपाज्ञया मुक्ताः कुक्कुराः बद्धमंडलाः । तत्रागता महाक्रू रा: प्रेरिता राजसेवकः ।। ४७ ॥ दृष्ट्वा तद्भोजन सारं सुगंधीकृतदिक्चयं । ते दधावुर्यमाकाराः प्राणिनां भीतिदायकाः ॥४८॥ तेषां भोजनपात्राणि तदा तैः परिवविरे। बद्धकर्महा रैर्भासमानर्भयावहैः ॥४६॥ भाजनावेष्टनं दृष्ट्वा चकिताः सूनवोऽखिलाः । पलायनं व्यधुः सर्वे भयावेषित विग्रहाः ॥ ५० ॥ मुक्तभोजनसंपात्रा गताः सर्वे निजं गृहं । विदीर्णास्या दृष्टपूर्वभयाास्य कृतः स्वयं ॥५१॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् श्रेणिकेन तदा सर्वे शुनका हंतुकामुकाः । दृष्ट्वा गता महाबुद्धया वारिता भोजनार्थिना ।। ५२ ॥ कुमारोच्छिष्टपात्राणि निक्षिप्य स महामनाः । तान् भुनक्ति स्म दीप्रांगः संप्राप्तानेकपात्रकान् ॥ ५३ ।। इस प्रकार कुमार को उपश्रेणिक दोनों परीक्षा में उत्तीर्ण देखकर पुनः राज्य-कार्य की परीक्षा के लिए महाराज उपश्रेणिक ने श्रेणिक आदि समस्त पुत्रों को भोजन के लिए अपने घर में बुलाया। जिस समय समस्त कुमार एकसाथ भोजन करने के लिए बैठ गये तब बड़े आदर के साथ उनके सामने सुवर्णों के बड़े-बड़े थाल रख दिये गये और उन थालों में उनके लिए खाजे घेवर, मोदक, खीर, मोठा माड़, घी, मूंगकामिष्ट, स्वादिष्ट चूरा, उत्तम दही और अनेक प्रकार के पके हए अन्न तथा मीठा भात और भी अनेक प्रकार के भोजन तथा पूआ, मगोड़े आदिक अनेक मनोहर मिष्ठान्न परोसे गये। जिस समय क्षुधा से पीड़ित तथा स्वाद के लोलुप सब कुमार भोजन करने लगे और भोजन के स्वाद के आनन्द में मग्न हुए, तब महाराज उपश्रेणिक की आज्ञा से राज-सेवकों ने भयंकर कुत्तों को छोड़ दिया फिर क्या था ? वे भयंकर कुत्ते सुगन्धित उत्तम भोजन को देखकर उसी ओर झुके और भौंकते हुए समस्त कुत्ते राजकुमारों के भोजन-पात्रों पर बात-की-बात में टूट पड़े। भोजन-पात्रों के ऊपर उन कुत्तों को टूटते हुए देखकर मारे भय के काँपते हुए राजकुमार अपने-अपने भोजन के पात्रों को छोड़कर एकदम वहाँ से भगे और आपस में हँसी करते हुए तितर-बितर होकर अपने-अपने घरों को चले गये। बुद्धिमान कुमार श्रेणिक ने जब यह दृश्य देखा कि ये कुत्ते आगे ही बढ़े चले आ रहे हैं और काटने के लिए उद्यत हैं तब उसने अपनी बुद्धि से उन सब कुत्तों को दूर हटाया और दूसरे-दूसरे कुमारों की पत्तरों को उन कुत्तों के सामने फेंककर उन्हें बहुत दूर भगा दिया और आनन्द से भोजन करने लग गया।॥४०-५३।। श्रुत्वैवं भूपतिर्भूरि चिताव्याकुलमानसः । कथं क्षिपामि राज्यं वै चिलातीसूनवे शुभम् ॥ ५४ ॥ अन्यदा दह्यमानेऽपि नगरे श्रेणिकोमहान् । सिंहासनातपत्रादि गृहीत्वा वनमाट च ॥ ५५ ॥ केचित्कुतान् समादाय खङ्गवान्ये स्वघोटकान् । केचिद्वौदिसंघातं राजपुत्राः वनं गताः ॥ ५६ ।। आकर्पोत्थं महीपालस्तथाभूद्वयाकुलांतरः । अन्यदा स्वसुतास्तेनाहूय नैमित्तसिद्धये ।। ५७ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् इस बात को सुनकर महाराज उपश्रेणिक फिर भी अत्यंत चिन्ता-सागर में निमग्न हो गये और विचारने लगे कि मैं अब इस उत्तम राज्य को चलाती कुमार को किस रीति से प्रदान करूँ? ॥५४॥ एक समय जब नगर में भयंकर आग लगी तथा ज्वाला से समस्त नगर जलने लगा और नगर के लोग जहाँ-तहाँ भागने लगे तब कुमार श्रेणिक तो झट सिंहासन, छत्र आदि सामान को लेकर वन को चला गया शेष राजकुमार कोई हाथ में भाला लेकर वन को गया और कोई खंग लेकर, कोई घोड़ा आदि लेकर वन को गये। इस बात को सुनकर फिर भी महाराज उपश्रेणिक मन में अत्यंत दुःखित हुए तथा सोचने लगे कि चलाती पुन किस रीति से इस राज्य का भोगनेवाला बने ॥५५-५७॥ भिन्न-भिन्ने गृहे सर्वे निक्षिप्ता मोदकान्वितैः । करंडकर्घटेर्नव्य बद्धवक्त्रैर्जलान्वितैः ॥ ५८ ॥ गृहाणांद्वारमापूर्य स्थापितास्ते क्षुधातुराः । तैर्गतेषु च सर्वेषु तैर्ग हीताः करंडकाः ॥ ५६ ।। उद्घाट्य मुखवस्त्राणि भुक्तं सर्वं यथायथं । तेषांपीतं घटानां च वारि क्षुत् तृविहानये ॥ ६ ॥ चित्ताकूतं परिज्ञाय भूभृतः श्रेणिक: स्वयं । अनुद्घाट्य मुखं तस्य गृहीत्वा स्वकरंडकं ॥ ६१ ॥ आंदोल्येतस्ततस्तं सोऽपातयच्चूर्णमुत्तमं । भुनक्ति स्म च तच्चूर्णमाकंठं तृप्तिदायकं ॥ ६२॥ घटाब्दहिर्गतं नीरं पिवति स्म कुमारकः । घस्रत्रयं स्थितस्तत्र निर्णाशित क्षुधाभयः ॥ ६३ ॥ निष्कासिताः पुनः सर्वे दृष्टं तादृग्विधं कृतं ।। तस्यैव राज्यचिन्हानि बभूवुः सकलानि च ॥ ६४ ॥ राज्याहमुत्तमं धीरं विशिष्टवृषमंडितं । श्रेणिकं तं परिज्ञाय ह्रदीत्यचितयत्तरां ॥६५॥ कथंदास्यामि राज्यं मे चलातीसूनवे वरं। निमित्ताद्राज्ययोग्योयं भविता सुकृतत्वतः ॥ ६६ ॥ कथं रक्ष्यं मया वाक्यं पूर्वदत्तं स्वसूनवे । यस्य पुण्यं भवेदग्प्यं तस्य राज्यं न संशयः ॥ ६७ ॥ नरेण चित्यतेचान्यद्देवेन क्रियतेऽन्यथा । दैवाधीनेषु कार्येषु को हर्षः क्व विषादता ॥ ६८ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् इति चिंताप्रपन्नेन सुमतिर्मतिसागरः । मंत्रिणोऽन्ये तदा राज्ञा कारिताः कार्यसिद्धये ॥ ६६ ॥ भो ! धीमंतो महामात्याश्चितास्ति मम मानसे । कथं निवर्त्यतेऽस्माभिः परासर्वांगशोषिका ॥ ७० ॥ ज्योतिषी के बतलाये हुए इतनी परीक्षाओं में कुमार श्रेणिक को उत्तीर्ण देख महाराज उपश्रेणिक को संतोष न हुआ अतएव उन्होंने ज्योतिषी के बतलाये हुए अन्तिम निमित्त की परीक्षा के लिए फिर भी किसी समय अपने राजकुमारों को बुलाया तथा प्रत्येक घर में महाराज उपश्रेणिक ने अत्यंत मधुर लड्डू ओंस से भरे हुए एक-एक पिटारे का मुख बंद कर रखवा दिया और उसके साथ में अत्यंत निर्मल जल से भरा हुआ एक-एक नवीन घड़ा भी रखवा दिया। इन सब बातों के पीछे लड्डुओं के खाने के लिए और पानी पीने के लिए समस्त राजकुमारों को महाराज उपश्रेणिक ने आज्ञा भी दी। कुमार श्रेणिक के अतिरिक्त जितने राजकुमार थे सबने उन लड्डुओं से भरे हुए पिटारे को एकदम हाथ में लेकर बिना विचारेही शीघ्र खोल डाला और अपनी भूख की शान्ति के लिए लड्ड खाना प्रारम्भ कर दिया तथा प्यास लगने पर घड़ों के मुंह खोलकर उनसे पानी पिया। परन्तु कुमार श्रेणिक जो उन सब कुमारों में अत्यंत बुद्धिमान था चट महाराज के मन का तात्पर्य समझ पिटारे के मुख को बिना उघाड़े ही उसको लेकर इधरउधर हिलाने लगा और इस प्रकार उस पिटारे से निकले हुए चूर्ण को खाकर उसने अपनी क्षुधा की शान्ति की तथा जहाँ पर घड़ा रखा था वहाँ जो जल घड़े से बाहर इकट्ठा हुआ था उसी से अपनी प्यास बुझाई किंतु घड़े के मुख को खोलकर पानी नहीं पिया। अनंतर महाराज उपश्रेणिक ने समस्त राजकुमारों को अपने-अपने घर जाने के लिए आज्ञा दी। परीक्षा से राज्य की प्राप्ति के सब चिन्ह धीर-वीर भाग्यशाली कुमार श्रेणिक में देखकर महाराज उपश्रेणिक अपने मन में इस प्रकार चिंता करने लगे कि ज्योतिषी के बतलाये निमित्तों से कुमार श्रेणिक सर्वथा राज्य के योग्य सिद्ध हो चुका अब मैं किस रीति से चलाती पुत्र को राज्य दूं ? मैं पहले यह वचन दे चुका हूँ कि यदि राज्य दूंगा तो चलाती को ही दूंगा, किंतु ज्योतिषी द्वारा बतलाये हुए निमित्तों से राजकुमार श्रेणिक ही उपयुक्त ठहरता है अब मैं पहले दिये हुए अपने वचन की कैसे रक्षा करूँ ? हां, यह बात बिलकुल ठीक है कि जिसका भाग्य बलवान होता है उसको राज्य मिलता है इसमें जरा भी सन्देह नहीं। इस प्रकार भयंकर चिन्ता-सागर में गोता लगाते हुए महाराज उपश्रेणिक ने अत्यन्त बुद्धिमान सुमति तथा मतिसागर नाम के मंत्रियों को तथा इनसे अतिरिक्त अन्य मंत्रियों को भी बुलाया और उनसे इस प्रकार अपने मन का भाव कहा हे मंत्रियो! आप सब लोग अत्यंत बुद्धिमान तथा श्रेष्ठ हैं। मेरे मन में एक बड़ी भारी चिता है जिससे मेरा सारा शरीर सूखा जाता है उस चिंता की निवृत्ति किस रीति से होगी इस पर विचार करो॥५८-७०॥ , Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् सुमतिर्मतिमान् प्राह श्रुत्वा वाक्यं प्रभोः परम् । भो राजन् भो महीनाथ नमिताखिलभूपते ॥ ७१ ॥ घोटका : संति राजेन्द्र दारयंतः खुरैर्भूमि बहवः दंतिनो दंतखंगेन दारयंतः जितेंद्रसुतुरंगमाः । प्रभुभक्तिकाः ॥ ७२ ॥ स्ववैरिणाः । अंजनाभा महाकाया वर्त्तते भूपमंदिरे ॥ ७३ ॥ पदातयः परं प्रीता रथालिंगितदीप्तिकाः । आसते बहवः स्वामिस्त्वद्गृहे स्वामिभक्तिकाः ॥ ७४ ॥ न देशे वैरिणः केऽपि दायादान ह्यनाज्ञकाः । पुत्रा अवशिनो नोन राज्ञ्यः कौटिल्यसंयुताः ।। ७५ ।। कुतश्चिता प्रभोश्चिते कथनीयं प्रभो लघु । तत्कारणं च निःशेषं तच्चिताहानये नृप ।। ७६ ।। राज्ञि चिंताकुले सर्वे लोका: पौराश्च मंत्रिणः । बोभूयंते सचिता हि यथा राजा तथा प्रजाः ।। ७७ ।। इत्यादीद्राजा वचनं स्वमनोगतं । भो मंत्रिन् सुमते नास्ति चिंता देशादि संभवा ॥ ७८ ॥ किंतु राज्यकृते चिंता कस्मिन्राज्यं क्षिपाम्यहं । मंत्री प्राह प्रदातव्यं श्रेणिकाय शुभाय च ॥ ७६ ॥ महाराज की इस विचित्र बात को सुनकर अन्य मंत्रियों ने तो कुछ भी उत्तर न दिया पर अत्यंत बुद्धिमान सुमति नाम के मंत्री ने कहा । हे प्रभो ! हे राजन् ! हे समस्त पृथ्वी के स्वामी ! हे समस्त वैरियों के मस्तकों को नीचे करनेवाले ! महाभाग ! आप सरीखे नरेन्द्रों को किस बात चिन्ता हो सकती है । हे प्रभो, देवों के घोड़ों को भी अपने कला-कौशल से जीतनेवाले अनेक ૪૨ आप यहाँ मौजूद हैं, जो कि अपने खुरों के बल से तमाम पृथ्वी का चूर्ण कर सकते हैं, और आपकी भक्ति में सदा तत्पर रहते हैं। अपने दाँत रूपी खंगों से तमाम पृथ्वी को विदारण करनेवाले अंजन पर्वत के समान लम्बे-चौड़े आपके यहाँ अनेक हाथी मौजूद हैं । हे राजेन्द्र ! आपके मन्दिर भाँति आपकी आज्ञा के पालन करनेवाले अनेक पदाति सेना भी मौजूद है। और रथी शूरवीर भी आपके यहाँ बहुत हैं जो कि संग्राम में भलीभाँति आपकी आज्ञा के पालन करनेवाले हैं । आपको किसी वैरी की भी चिन्ता नहीं है क्योंकि आपके देश में आपका कोई वैरी भी नजर नहीं आता आपके धन तथा राज्य का कोई बाँटनेवाला (दयाद) भी नहीं है और आपके पुत्र भी आपकी आज्ञा के पालन करनेवाले हैं । आपके राज्य में कोई आपको विरोधी कुटिल भी दृष्टिगोचर नहीं होता, फिर हे प्रभो, आपके मन में किस बात की चिंता है ? आप उसे शीघ्र प्रकाशित Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् करें उसके दूर करने के लिए अनेक उपाय मौजूद हैं उसकी शीघ्र ही निवृत्ति हो सकती है। यदि आप इस समय उसको नहीं बतलायेंगे तो ठीक नहीं, क्योंकि राजा के चिन्ताग्रस्त होने से पुरवासी मंत्री आदिक सब ही चिन्ताग्रस्त हो जाते हैं उनको भी दुःख उठाना पड़ता है क्योंकि 'यथा राजा तथा प्रजा' अर्थात् जिस प्रकार का राजा हुआ करता है उसकी प्रजा भी उसी प्रकार की हआ करती है। इस प्रकार अत्यंत बुद्धिमान सुमति नामक मंत्री की इस बात को सुन महाराज उपश्रेणिक बोले कि हे सुमते! मुझे देश आदि अथवा पुत्र आदि की ओर से कुछ भी चिंता नहीं है, किंतु चिंता मुझे इस बात की है कि मैं इस राज्य को किस पुत्र को प्रदान करूँ। मंत्री ने उत्तर दिया॥७१ ७६॥ राजाऽगदीद्वचो धीमन् मया पूर्वं वनांतरे। तिलकादिवती राश्या दत्तं राज्यं च सूनवे ॥ ८०॥ नैमित्तिको मया पृष्टस्तेनाऽभाषि निमित्ततः । श्रेणिकस्य महाराज्यं कि करोम्यधुना वद ।। ८१॥ यदि मे वचनं याति धिग् धिग् मे जीवितंवरं । कृतं सुकृतमाप्नोति निष्फलत्वं न संशयः ॥ ८२ ॥ सप्तधातुमयो देहो निस्सार: शुभवर्जितः । तत्रास्ति वचनं सारं जीवितादस्थिरात्पुनः ॥ ८३ ।। सारं वचनमेवात्र वदंत्यार्या न संशयः । वचो न रक्षितं येन सुकृतं तेन हारितम् ॥८४ ॥ शरीरं नश्वरं विद्धि जीवितं क्षणचंचलम् । अस्थिराः संपदो लोके स्थिरमेकं वचो मतम् ॥ ८५॥ इति मत्वा त्वया मंत्रिन् मम वाक्यं प्रमाणताम् । नेतव्यं येन मे जन्म सार्थकत्वं समाश्रयेत् ।। ८६ ॥ मतिसागर इत्याख्यदाकर्ण्य वचनं प्रभोः । विषादः कोऽत्र राजेंद्र का चिंताल्यविचारणे ॥ ८७ ॥ चितयामि यदा राजन् स्वर्गराज्यस्य विक्रियां। करोमि धरणस्यापि को विचारोऽब्र स्वल्पके ॥ ८८ ।। देशाद्बहिर्गतं राजन् करोमि श्रेणिकं सुतम् । त्याज्या चिंता त्वया धीमन्ननया चिंतया किमु ॥ ८६ ॥ श्रुत्वेति वचनं भूपस्तुतोष शुभवादतः । कुरु कार्यमिदं मंत्रिन्नो विलंबो विधीयतां ॥ १० ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रणिक पुराणम् ४३ कूमा हे अत्यंत बुद्धिमान महाराज आपका सुयोग्य पुत्र कुमार श्रेणिक है उसी को बेधड़क राज्य दे दीजिए। मंत्री की इस बात को सुनकर महाराज उपश्रेणिक ने कहा-हे मंत्रिन्, जिस समय मेरे शत्रु द्वारा भेजे हुए घोड़े ने मुझे वन में गड्ढ़े में पटक दिया था उस समय यमदंड नामक भिल्ल राजा ने वन में मेरी सेवा की थी तथा उसकी पुत्री तिलकवती ने अपनी अतुलनीय सेवा से एक तरह मुझे पुनः जीवित किया था। अकस्मात उसी पुत्री के साथ मेरा विवाह हो गया। विवाह के समय तिलकवती के पिता ने यह मुझसे कौल करा लिया था कि यदि आप इस पुत्री के साथ अपना विवाह करना चाहते हैं तो मुझे यह वचन दे दीजिए कि इससे जो पुत्र होगा वही राज्य का अधिकारी होगा, नहीं तो मैं अपनी इस पुत्री का विवाह आपके साथ नहीं करूंगा। मैंने उस तिलकवती के सौंदर्य एवं गुणों पर मुग्ध होकर उसके पिता को उस प्रकार का वचन दे दिया था कि इसी के पुत्र को राज्य दूंगा। किन्तु मैंने राज्य किसको देना चाहिए, यह बात जिस समय ज्योतिषी से पूछी तो उसने अपनी ज्योतिष विद्या से यही कहा कि इस महाराज्य का अधिकारी णिक ही है। अब बताइये, ऐसी दशा में मैं क्या करूँ और राज्य किसको दं। यदि मैं चलाती पुत्र को राज्य न देकर कुमार श्रेणिक को राज्य प्रदान करूँ और अपने वचन का खयाल न रखू तो संसार में मेरा जीवन सर्वथा निष्फल है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि यदि मैं अपने वचन का पालन न कर सकूँगा तो मेरा पहले कमाया हुआ सब पुण्य भी बिना प्रयोजन का है क्योंकि मल-मूत्र आदि सात धातुओं से बना हुआ यह शरीर पुण्य रहित निस्सार है अर्थात किसी काम का नहीं। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि चंचल जीवन की अपेक्षा इस शरीर में सत्य वचन ही सार है, अर्थात् जो कहकर वचन का पालन करता है वही मनुष्य आर्य है, और उत्तम है किन्तु जो अपने वचन को पालन नहीं करता है वह उत्तम नहीं क्योंकि जिस मनुष्य ने संसार में अपने वचन की रक्षा नहीं की उसने उपार्जन किये हुए पुण्य का सर्वथा नाश कर दिया। और यह बात भी है कि संसार में शरीर सर्वथा विनाशीक है जीवन बिजली के समान चंचल है और सब प्रकार को सम्पदाएँ भी पलभर में नष्ट होनेवाली हैं, यदि स्थिर है तो एक वचन ही है ऐसा सब स्वीकार करते हैं । ऐसा समझकर हे मंत्रिन् सुमते मैंने जो वचन कहा है उस वचन पर तुम्हें भलीभाँति विचार करना चाहिए जिससे कि संसार में मेरा जीवन सार्थक समझा जावे निरर्थक नहीं। इस प्रकार जब महाराज उपश्रेणिक ने कहा तब मतिसागर नामक मन्त्री बोला कि हे महाराज, इस थोड़ी-सी बात के विचारने में आप क्यों चिन्ता करते हैं ? क्योंकि चिन्ता स्वर्ग-राज्य की लक्ष्मी को विकारयुक्त बना सकती है फिर इस थोड़ी-सी बात के लिए चिन्ता करना क्या बड़ी बात है ? मैं अभी कुमार श्रेणिक को देश से बाहर निकाले देता हूँ आप चिन्ता छोड़िए इस चिन्ता में क्या रखा है। मतिसागर मन्त्री को अपने अनुकूल इस बात को सुनकर महाराज उपश्रेणिक मन में अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उस मन्त्री से यह बात भी कहते हुए कि ।।५०-६०॥ इत्यादेशान्महामंत्री विचार्य निजमानसे । चिरंजगाम सामीप्ये श्रेणिकस्य महामनाः ।। ६१ ॥ दृष्ट्वा तं श्रेणिको धीमान् ददौ मानंमदा तदा । तौ पप्रच्छतुरन्योन्यं कुशलं स्नेहपूर्वकम् ।। ६२ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् क्षणमास्थाय मंत्री स प्रणम्य वचनं जगौ । कुमारं तं महास्नेहगिरा मंत्रादिकार्यवित् ॥ ९३॥ भो कुमार ! हितं वाक्यं शृणुत्वं मे हितावहम् । कोपोऽभूदपराधः किं करिष्यसि भूपतेः ।। ६४ ।। राज्ञः कोपे च भो पुत्र ! न स्थातव्यं त्वया क्षणं । आकर्ण्ये कृपांमे पुत्रः कोऽपराधो मया कृतः ।। ६५ ।। मन्त्रिन् ! इस कार्य को तुम शीघ्र करो इसमें देरी करना ठीक नहीं है इस प्रकार महाराज उपश्रेणिक की आज्ञा को सिर पर धारण कर वह मतिसागर नाम का मन्त्री कुमार श्रेणिक के समीप में गया । जिस समय वह कुमार के पास गया तो अपने पास बुद्धिमान मतिसागर मन्त्री को आते देखकर अत्यन्त चतुर कुमार श्रेणिक ने उसका बड़ा भारी सम्मान किया और परस्पर बड़े स्नेह से उन दोनों ने कुशल भी पूछा थोड़ी देर तक कुमार श्रेणिक के पास बैठकर तथा कुमार भलीभाँति प्रणाम कर मन्त्री मतिसागर ने यह वचन कहा कि : हे कुमार आप मेरे मनोहर तथा हितकारी वचन को सुनिए आपके अपराध से महाराज उपश्रेणिक को बड़ा भारी क्रोध उत्पन्न हुआ है वे आप पर सख्त नाराज हैं न जाने वे आपको क्या दंड देवेंगे ? और क्या अहित न कर दें क्योंकि राजा के कुपित होने पर आपको यहाँ पर नहीं रहना चाहिए मन्त्री मतिसागर के इस प्रकार अश्रुतपूर्व वचन सुनकर कुमार श्रेणिक ने उत्तर दिया कि ।।६१-६५॥ मंत्रयुबाच महाभाग भुक्ते कुक्कुरवंद । अन्ये पुत्राः गताः सर्वे त्वया भुक्तं कथं वद ।। ६६ ।। दोषोऽयं दृश्यते पुत्र राज्ञः कोपोपदीपनः । समीचीनः स किं भुंक्ते श्वास्पर्शान्नीचहेतुकान् ॥ ६७ ॥ कृपाकर आप बतावें, मेरा क्या अपराध हुआ है ? इस प्रकार कुमार के बोलने पर मन्त्री मतिसागर ने उत्तर दिया कि जिस समय तुम सब कुमारों के भोजन करते कुत्ते छोड़े गये थे और जिस समय समस्त पात्रों को झूठा कर दिया था उस समय तुमसे भिन्न सब कुमार तो भोजन छोड़कर चले गये थे और यह कहो तुम अकेले क्यों भोजन करते रह गये थे ? इसलिए ऐसा मालूम होता है कि महाराज की नाराजी का यही कारण है और यह बात ठीक भी है क्योंकि नीचता का कारण कुत्तों से छुआ हुआ भोजन अपवित्र भोजन ही कहलाता है मन्त्री मतिसागर की इस बात को सुनकर और कुछ हँसकर कुमार ने मनोहर शब्दों में उत्तर दिया कि ।। ६६-६७।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् श्रुत्वा वाक्यं प्रहस्येत्थं जगाद शुभया गिरा । यत्नतो रक्षितं भोज्यं मया बुद्धयाश्वावंचनात् ॥ ६८ ॥ ये रक्षितुं न शक्या वै भोज्यपात्रं कथं च ते । रक्षति राज्यसंतानमहो ! मंत्रिन्नते मतिः ॥ ६६ ॥ केतनं । कथं कुप्यति भूमीशो योन रक्षति स बली रक्षणीयः स निष्कास्योन्यः कथंनयः ॥ १०० ॥ मन्त्र ! कुत्तों को बुद्धिपूर्वक हटाकर मुझे यत्न से भली प्रकार रक्षित भोजन करना ही योग्य था इसीलिए मैंने ऐसा किया था क्योंकि जो कुमार अपने भोजन पात्रों की, न कुछ बलवान से भी रक्षा नहीं कर सकते वे कुमार राज सन्तान अर्थात् राज्य की क्या रक्षा कर सकते हैं । इसलिए जो आपने यह बात कही है कि तुमने कुत्तों का छुआ हुआ भोजन किया इसलिए महाराज तुम पर नाराज हैं यह बात तुम्हें बुद्धिमान नहीं सूचित करती । कुमार के इस प्रकार न्याययुक्त वचन सुनकर समस्त दुष्कार्यों को भली प्रकार जानकर भी वह मंत्री फिर अतिशय बुद्धिमान श्रेणिक कुमार से बोला ।। ६६ - १०० ।। ४५ न्यायोपेतं वचः प्राप्य जानन्नपि पुनर्जगो । सचिवः सर्वकार्याणि कुमारं तं शुभावहं ॥ १०१ ॥ न्यायान्याय विचारं त्वं मा विधेहि विचक्षणः । राज्ञः कोपाद्भुतं याहि देशान्मा तिष्ठ मंदिरे ॥ १०२ ॥ कुलजः कुलहीनः स्यान्न्यायाढ्योन्यायवर्जितः । पंडितोऽपंडितो जीवो राज्ञः कोपाद्भवेल्लघु ॥ १०३॥ भो श्रेणिक विचारोऽत्र न कर्त्तव्यो विभावनं । नो विधेयं, प्रगंतव्यं त्वया देशात्शुभावहात् ॥ १०४॥ दिनानि कतिचित्स्थित्वान्यत्र राजसुत त्वया । आगन्तव्यं पुनः राज्यकृते राज्यं तव प्रभो ॥ १०५ ॥ बुद्धिमान कुमार! तुम्हें इस समय न्याय एवं अन्याय के विचारने की कोई आवश्यकता नहीं । महाराज का क्रोध इस समय अनिवार्य और आश्चर्यकारी है अब तुम यही काम करो कि थोड़े दिन के लिए इस देश से चले जाओ और राजमन्दिर में न रहो क्योंकि यह नियम है कि संसार में राजा के क्रोध के सामने कुलीन भी नीच कुल में उत्पन्न हुआ कहलाता है । नीतियुक्त अतियुक्त कहा जाता है । और पंडित भी वज्रमूर्ख कहा जाता है । प्यारे कुमार श्रेणिक यदि तुम राज्य ही प्राप्त करना चाहते हो तो न तो तुम्हें देश से अलग होने में किसी बात का विचार करना चाहिए और न किसी प्रकार की भावना ही करनी चाहिए किन्तु जैसे बने वैसे इस समय Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् शीघ्र ही इस देश से तुम्हें चला जाना चाहिए। हे कुमार परदेश में कुछ दिन रहकर फिर तुम इसी देश में आ जाना पीछे राज्य आपको जरूर ही मिलेगा क्योंकि राज्य आपका ही है॥१०१ १०५॥ दुरंतं राजकोपं च विज्ञायाशर्मपीडितः । मात्रादिकं च न विज्ञाप्य निर्गतो राजपत्तनात् ।। १०६ ॥ गूढवेषधरैः पंच सहस्रसुभटैः स्वयं । मागधप्रेषितैः सोऽगादजानंस्तद्भटादिकं ॥१०७॥ मंत्री मतिसागर के ऐसे कपटभरे वचन सुनकर राजा का क्रोध परिणाम में दुःख देनेवाला है इस बात को जानकर और अपनी माता आदि को भी न पूछकर, अत्यंत दुःखित हो कुमार श्रेणिक राजगृह नगर से निकल पड़े। तथा महाराज उपश्रेणिक द्वारा भेजे हुए रक्षा के बहाने से गूढ़ वेष धारण करनेवाले पाँच हजार जासूस योद्धाओं के साथ-साथ एकदम नगर से बाहर हो गये॥१०६-१०७॥ तदेंद्राणी महामाता विललाप चिरं हृदि । हा पुत्र! हा महाभाग ! हा पद्मदलनेत्रभृत् ॥१०८।। हा कामपाश हा दीर्घपुण्य हा शुभलक्षण । हा गजेंद्रकरायत्तकर हा कोकिलध्वने ॥१०॥ हा पद्मवक्त्र हा रम्य ललाटतट पट्टक । हा कंदर्पसमानांग हा मारसमविभ्रम ॥११०॥ हा सुंदरशुभाकार ! हा नेत्रप्रिय तृप्तिद । हा शुभंकर हा राज्यभारोद्धरण हा प्रिय ॥१११॥ हा हा मां दुःखिनीमुक्त्वा क्व गतः सुंदराकृते । क्व तिष्ठसि महापुत्र ! वने व्याघ्राहिसंकुले ॥११२।। ईदृशेण सुपुत्रेण वियोगः केन हेतुना । ममाभूतिक मया पूर्वभवे दुष्कृतमाकृतं ।।११३॥ अमुत्र किं मया मात्रा साकं पुत्रो वियोजितः । जिनाज्ञालंघिता किंवा कि शीलं मदितं मया ॥११४॥ सरः सेतुविनाशो वा किं कृतः पूर्वजन्मनि । अगालितेन तोयेन वस्त्रप्रक्षालनं कृतम् ।।११।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् मया किम ॥ ११६ ॥ किम् । सखि ॥११७॥ किं वा दावानलेनैव संदग्धं व्रतभंगः कृतः किंवा रात्रौ भुक्तं मुनिनिंदा कृता किंवा परद्रोहः कृतः परमर्मान्वितं वाक्यमुक्तं किंवा मया इहाकारि मया पापं किं वा परभवे महत् । न वेद्मीति कृतालापा रोदितिस्म मुहुर्मुहुः ॥ ११८ ॥ नागराश्च तदा सर्वे हाहाकारं व्यधुः शुचा । अज्ञानेनैव राज्ञायं देशान्निर्घाटितः शुभः ॥ ११६॥ सौभागी राज्ययोग्योऽयं दाता भोक्ता गुणाग्रणीः । निर्द्धाट्यते कथं राज्ञा बुद्धित्यक्तसुचेतसा ॥१२०॥ इतिशोकाकुलं जातं पुरं सांतः पुरं वरम् । निर्गमे श्रेणिकस्यैव तत्किं नाजनि दुष्कृतं ॥१२१॥ वनमद्भुतं । कुमार की माता महारानी इन्द्राणी के कान तक यह बात पहुँची कि कुमार श्रेणिक को देशनिकाला हुआ है, सुनते ही वह इस प्रकार भयंकर रुदन करने लगी, हा पुत्र ! हा महाभाग ! हे कमल के समान नेत्रों को धारण करनेवाले ! हा कामदेव के समान ! हा अत्यंत पुण्यात्मा हा अत्यंत शुभ लक्षणों को धारण करनेवाले ! हा गजेन्द्र की सूंड के समान लम्बे-लम्बे हाथों के धारक ! हा कोकिल के समान प्यारी बोली के बोलनेवाले ! हा कमल के समान उत्तम मुख के धारक ! हा उत्तम एवं ऊँचे ललाट से शोभित ! हा कामदेव के समान मनोहर शरीर के धारक ! हा कामदेव के समान विलासी ! हा सुन्दर ! हा शुभाकर ! हा नेत्रप्रिय ! हा सन्तोष के देनेवाले ! हा शुभ ! हा राज्य के धारण करने में शूरवीर ! हा प्रिय ! हा सुन्दर आकृति के धारण करनेवाले ! कुमार, मुझ दुःखिनी माँ को छोड़कर तू कहाँ चला गया ! जो वन अनेक प्रकार के भयंकर सिंह- व्याघ्रों से भरा हुआ है उस वन में तू कहाँ पर होगा ? हाय पूर्वभव में मैंने ऐसा कौन-सा घोर पाप किया था ! जिससे इस भव में मुझे ऐसे उत्तम पुत्ररूपी रत्न का वियोग सहना पड़ा । हाय क्या पूर्व भव में मैंने किसी माता से पुत्र का वियोग कर दिया था अथवा श्री जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का मैंने उल्लंघन किया था ! वा मैंने अपने शील का मर्दन किया था व्यभिचार का आश्रय किया था ! अथवा मैंने किसी तालाब का पुल नष्ट किया था ! वा मलिन जल से मैंने वस्त्र धोये थे ? किंवा अग्नि से मैंने किसी उत्तम वन को भस्म किया था ! वा मैंने व्रत का भंग कर दिया था ! अथवा मैंने रात में भोजन किया था ! अथवा मुझसे किसी दिगम्बर मुनि की निन्दा हो गई थी ! किंवा मैंने किसी से द्रोह किया था ! वा पर-वचन की मैंने अवज्ञा कर दी थी ? अथवा मैंने इस भव में पाप किया है ? जिससे मुझे ऐसे उत्तम पुत्ररत्न से जुदा होना पड़ा । 1 ४७ इस प्रकार बारम्बार कुमार श्रेणिक की माता इन्द्राणी का करुणाजनक भयंकर रुदन सुनकर समस्त नगर में हा-हाकार मच गया । समस्त पुरवासी लोग करुणाजनक स्वर से कुमार श्रेणिक के लिए रोने लगे और परस्पर कहने लगे कि : Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् राजा ने जो कुमार को नगर से निकाल दिया है तो अज्ञान से ही निकाला है क्योंकि बड़े खेद की बात है कि कुमार श्रेणिक तो अद्वितीय भाग्यवान सर्वथा राज्य के योग्य, अद्वितीय दाता और भोक्ताथा बिना विचारे महाराज उपश्रेणिक ने उसे कसे नगर से निकाल दिया! इस प्रकार कुमार श्रेणिक के नगर से चले जाने पर अत्यंत उन्नत कोलाहलयुक्त नगर भी शान्त हो गया। कुमार के शोक से समस्त पुरवासी दुःख-सागर में गोता लगाने लगे। वह कौन-सा दुःख न था जो कुमार के वियोग में पुरवासियों को न सहना पड़ा हो॥१०८-१२१॥ अथ श्रेणिकभूपालो गच्छन्मार्गे विषण्णधीः । दुःखपूराढ्यवक्त्राब्जश्चितयामास मातरम् ।।१२२।। एकाकी स शनैर्मागं गमयन्मति मे दुरः । निर्जनामटवीं पश्यत्केकिकेकाविराजितां ॥१२३॥ दूराद्ददर्शशालाढ्यं नंदिग्राम मनोहरम् । केतुमालासमालीढ गृहराजी विराजितम् ॥१२४।। शनैः शनै महाधीरः प्राप्य तस्य प्रतोलिकां। तस्थौ तत्र क्षणं पश्यन् द्वारशोभामपूर्विकां ।।१२।। ततः प्रविश्य तं ग्रामं संप्रापद्राजमंडपम् । स्रग्घंटातोरणोद्भासि विकासितसुसंपदम् ।।१२६।। वयो ज्येष्ठं गणाकीर्णमिंद्रदत्तं मनोहरम् । अपश्यच्छष्ठिनं तत्र महाप्रीतिकरं परम् ॥१२७।। ___ इधर पुर तो कुमार के शोक-सागर में मग्न रहा उधर कुमार श्रेणिक मार्ग में जाते-जाते कुछ दूर चलकर अत्यंत दुःखित एवं अपमानजन्य दुःख के प्रवाह से जिनका मुख फीका हो गया है, माँ को स्मरण करने लगे। तथा और भी आगे कुछ धीरे-धीरे चलकर बुद्धिमान कुमार श्रेणिक मयर शब्दों से शोभित किसी निर्जन अटवी में जा पहुँचे। वहाँ से अनेक प्रकार के धान्यों से शोभित कोई मनोहर नंदिग्राम उन्हें दीख पड़ा। महाधीर-वीर कुमार धीरे-धीरे उसी नगर की ओर रवाना होकर उस नगर के द्वार पर आ पहुँचे। द्वार की अपूर्व शोभा निरखते हुए वहाँ पर ठहर गये पीछे उस नगर में प्रवेश कर कुमार श्रेणिक अनेक प्रकार के माला, घण्टा, तोरण आदिकर शोभित. अत्यंत मनोहर, श्रेष्ठ सम्पत्ति के धारक राजमन्दिर के पास पहुँचे और वहाँ उन्होंने अत्यंत वृद्ध नाना प्रकार के गुणोंकर मण्डित, मनोहर, अतिशय प्रीति करनेवाले, उत्कृष्ट, किसी इन्द्रदत्त नाम के सेठी को देखा और उससे कहा ॥१२२-१२७।। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् सोsवादीन्माम भो श्रेष्ठिन्मे हि साकं मयाद्रुतं । नंदिग्रामाधिपो विप्रो यत्रास्ते तत्र निश्चितं ।। १२८ || अटावो भुक्तिसंसिद्धया इत्युदीर्य गिरा शुभा । श्रेणिकेंद्रादिदत्ततो गतौ विप्रस्य सन्निधिं ॥ १२६ ॥ भो विप्र ! नंदिनाथ त्वमावाभ्यां देहि वल्लभं । त्वमसि राजसे वाढ्य उपश्रेणिकमानभृत् ।। १३०॥ भोजनार्थं सुधान्यं चा यच्छ विप्र वरं द्रुतम् । आवां राजनरौ ज्ञेयौ राजकार्य विचक्षणौ ॥ १३१ ॥ राजकार्यस्य संसिद्धयै वदंतावत्र चागतौ । त्वमसि राज्यकार्यार्थी राजदत्तपुरोपभुग् ।। १३२॥ आकर्ण्य वचनं विप्रः अवादीदिति कोपाढ्यः कोपारुणितलोचनः । परवंचनलालसः ॥ १३३॥ श्रेष्ठिन् ! आप यहाँ न बैठिये, मेरे साथ आइये, यहाँ पर कोई नन्दिग्राम का स्वामी ब्राह्मण निश्चय से रहता है। हम दोनों भोजन की प्राप्ति के लिए भ्रमण कर रहे हैं आइये उसके पास चलें वह हमें अवश्य भोजनादि देगा । ऐसा कहकर कुमार श्रेणिक और सेठी इन्द्रदत्त दोनों उस ब्राह्मण के पास गये और उससे कहा कि हे विप्र नन्दिनाथ तू महाराज उपश्रेणिक के सम्मान का पात्र राज्य सेवा के योग्य है और तू राज्य कार्य के लिए महाराज द्वारा दिये हुए माल का मालिक है इसलिए हम दोनों को पीने के लिए कुछ जल और भोजन के लिए कुछ धान्य दे क्योंकि राज्य के कार्य में चतुर हम दोनों राजदूत हैं और भ्रमण करते-करते यहाँ पर आ पहुँचे हैं। कुमार श्रेणिक के इस प्रकार वचन सुनकर क्रोध से नेत्रों को लाल करता हुआ एवं सदा पर के ठगने में तत्पर उस ब्राह्मण ने क्रोध से उत्तर दिया ।।१२५-१३३।। को राजा कौ युवामत्रागतौ केन च हेतुना । जलादिकं न दास्यामि राज्ञोऽन्यस्य च का कथा ॥ १३४॥ ४८ गच्छतं गच्छतंक्षिप्रं युवा मम मंदिरात् । न स्थातव्यं क्षणं राजपुरुषौ चेत्तर्हि मे किमु ॥ १३५ ॥ कोपकम्पितगात्रः स श्रेणिको वचनं जगौ । भो भिक्षुक दयाहीन पश्चाद्बुद्धे शुभातिग ॥ १३६॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् वचनस्य विचारं ते करिष्यामि न संशयः । किमत्र बहनोक्तेन यत्किचित्ते भविष्यति ॥१३७॥ इत्युदीर्य गतस्तेन साकं बौद्धमठं प्रति । तत्रापश्यन्महाबौद्धान् रक्ताम्बर धरान्वरान् ॥१३८॥ प्रबुद्धय राजपुत्रं तं तैर्जगुर्लक्षणानि च । राज्यारेनिविलोक्याशु ज्ञात्वा राज्याहमंजसा ॥१३६।। कहाँ के राजसेवक ! कौन ? किस कारण से कहाँ से यहां आ गये? मैं तुम्हें पीने के लिए पानी तक न दूंगा भोजनादिक की तो बात ही क्या है जाओ-जाओ शीघ्र ही तुम मेरे घर से चले जाओ जरा भी तुम यहाँ पर मत ठहरो यदि तुम राजसेवक हो तो भी मुझे कोई परवा नहीं। ब्राह्मण के इस प्रकार मूर्खता-भरे वचन सुनकर कोप से जिनका गाव काँप रहा है कुमार श्रेणिक ने कहा ___ अरे दयाहीन भिक्षुक हम कौन हैं ? तुझे इस समय कुछ भी मालूम नहीं तुझे पीछे मालूम होगा। तेरे ऐसे दयारहित वचनों पर मैं पीछे विचार करूँगा जो कुछ तुझे उस समय दण्ड दिया जायगा इस समय उसके कहने की विशेष आवश्यकता नहीं। ऐसा कहकर कुमार श्रेणिक और सेठी इन्द्रदत्त जहाँ बौद्ध संन्यासी रहते थे वहाँ गये और वहाँ पर उन्होंने रक्त-वस्त्रों को धारण करनेवाले अनेक बौद्ध संन्यासियों को देखा। कुमार श्रेणिक के लक्षणों को राजा के योग्य देखकर, यह राजकुमार है इस बात को जानकर और यह शीघ्र ही राजा होगा यह भी समझकर उनमें से एक संन्यासी ने राजकुमार श्रेणिक से पूछा ॥१३४.१३६।। भो पुत्र ! मगधाधीश ! क्व यासि वदतांवर । किमर्थमागतस्त्वं भो एकाकी वद मां प्रति ॥१४०॥ राजकोपादिकं सर्वदेशान्निःसरणं तथा । आख्यत् स श्रेणिकस्तान् वैवृत्तांतं पूर्वसंभवं ॥१४१।। बौद्धाचार्यस्ततोऽवोचद्गृहाण वरभोजनम् । पुनरस्मद्वचो राजन् शृणु त्वद्धितकारणम् ॥१४२।। नीवृत्तो मगधस्य त्वं राज्यभागी भविष्यसि । संदेहो नात्रकर्त्तव्यो मद्वाक्ये निश्चयं कुरु ॥१४३।। बौद्ध धर्ममतो राजन् गृहाण सुखसिद्धये । यतो राज्यस्य संसिद्धिर्भविष्यति तव स्फुटं ॥१४४।। व्रतेन चोपवासेन नोकार्यं सिद्धयति स्फुटं । बौद्धो धर्मो विधातव्यस्त्वया राज्यस्य सिद्धये ॥१४५॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् भगवान्वचनं जगौ । विश्वविज्ञानपारगः ॥ १४६ ॥ को धर्म इति संप्रश्ने सुगतोऽति महादेवो चतुरार्यसत्यरूपस्य तत्वस्य कथकः स्वयं । स एव सेव्यो नान्यस्तु क्षणक्षयविवेदकः । । १४७ ।। विज्ञानं वेदना राजन् संस्कारो रूपनाम भाक् । संक्षेति पंचधा दुःखं विद्धि लोकत्रयात्मकं ॥ १४८ ॥ क्षणक्षयात्मको लोको नश्वरो न स्थिरा मतिः । यद्भाति शाश्वतं चित्ते स्वप्नप्रख्यं च तन्मतं ॥ १४६ ॥ तत्वं गद्गदितं सत्यं शौद्धोदनिमतो वृषः । अंगीकार्यस्त्वया शीघ्र पितृराज्यप्रलब्धये ॥ १५०॥ राज्यवांछा भवेच्चित्ते तर्हि धर्मं च सौगतं । गृहाण मित्र ! विद्धि त्वं मित्रधर्मान्नचापरं ।। १५१ । इतिवाक्य प्रबंधेनाग्रही द्ध स सौगतं । प्रणम्य तत्पदद्वंद्वं साक्षात्सौगतधर्मभाग् ।।१५२।। ततः स्नानान्नपानाद्यैरध्वदुःखं च मानसम् । अत्यजत् तेन साकं स श्रेणिकः शुद्धमानसः ॥ १५३॥ दिनानि कतिचित्तत्र तेनामा श्रेणिकः स्वयं । स्थित्वा चचाल संदुष्टचेता बौद्धवृषोद्यतः ॥ १५४॥ मगध देश के स्वामी महाराज उपश्रेणिक के पुत्र बुद्धिमान कुमार श्रेणिक तुम कहाँ जा रहे हो ? अकेले यहाँ पर आप कैसे आये ? कुमार ने उत्तर दिया- राजा ने कोप कर हमें देश से निकाल दिया है । फिर बौद्ध संन्यासियों के आचार्य ने कहा- हे कुमार ! अब आप भोजनादि कीजिए फिर मेरे हितकर वचनों को सुनिये । कुमार ! आप कुछ दिन बाद नियम से मगध देश के राजा होवेंगे इसमें आप जरा भी सन्देह न करें। मेरे वचनों पर आप विश्वास कीजिए और आप सुख की प्राप्ति के लिए शीघ्र ही बौद्ध धर्म को ग्रहण कीजिए। इस बौद्ध धर्म की कृपा से ही आप - को निस्सन्देह राज्य की प्राप्ति होगी । विश्वास कीजिए व्रतों के करने से तथा उपवासों के आचरण करने से हमारे समस्त कार्यों की सिद्धि होती है हमारा यह उपदेश है कि आप राज्य की प्राप्ति के लिए निश्चल रीति से बौद्ध धर्म को धारण करें । ५१ हे कुमार ! किसी समय जब संसार में यह प्रश्न उठाया था कि धर्म क्या है ? उस समय समस्त विज्ञान के पारगामी महादेव भगवान बुद्ध ने यह वचन कहा था कि हे चतुरार्य, जो धर्म वास्तविक रीति से सच्चे आत्म के स्वरूप को बतलानेवाला है, और समस्त पदार्थों के क्षणिकत्व Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् को समझानेवाला है वही धर्म वास्तविक धर्म है एवं वही सेवन करने योग्य है उससे भिन्न कोई भी धर्म सेवने योग्य नहीं। हे राजकुमार ! विज्ञान, वेदना, संस्कार, रूप, नाम--ये पाँच प्रकार की संज्ञाएँ ही तीनों लोक में दु:ख स्वरूप हैं पाँच प्रकार के विज्ञान आदिक मार्ग समुदाय और मोक्ष ये तत्त्व हैं अष्टांग मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन्हीं तत्त्वों को समझना चाहिए। यह समस्त लोक क्षणभंगुर नाशवान है कोई पदार्थ स्थिर नहीं। चित्त में जो पदार्थ सदा काल रहनेवाला नित्य मालूम पड़ता है वह स्वप्न के समान भ्रम स्वरूप है। तथा जो ज्ञान समस्त प्रकार की कल्पनाओं से रहित निर्धान्त अर्थात् भ्रम भिन्न और निर्विकल्प हो, वही प्रमाण है किन्तु सविकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है वह मृगतृष्णा के समान भ्रमजनक ही है। जिन तत्त्वों का वर्णन बौद्ध धर्म में किया है वे ही वास्तविक तत्त्व हैं। इसलिए यदि तुम अपने पिता के राज्य की प्राप्ति के लिए उत्सुक हो मगध देश के राजा बनना चाहते हो तो आप समस्त इष्ट पदार्थों का सिद्ध करनेवाला बौद्ध धर्म शीघ्र ही ग्रहण करें। यदि आपको राजा बनने की इच्छा है तो आप बौद्ध धर्म को ही अपना मित्र बनायें क्योंकि इस धर्म से बढ़कर दुनिया में दूसरा कोई भी मित्र नहीं है। बौद्धाचार्य के इन वचनों ने कुमार श्रेणिक के पवित्र हृदय पर पूरा प्रभाव जमा दिया, कुमार श्रेणिक ने बौद्धाचार्य के कथनानुसार बौद्ध धर्म धारण किया एवं उस बौद्धाचार्य के चरणों को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर बौद्ध धर्म के पक्के अनुयायी बन गये। अतिशय निर्मल चित्त के धारक कुमार श्रेणिक ने उसी बौद्धाश्रम में इन्द्रदत्त सेठी के साथ-साथ स्नान, अन्न, पानादि से मार्ग की थकावट दूर की। तथा राज्य की ओर से जो उनका अपमान हुआ था और उस अपमान से जो उनके चित्त पर आघात हुआ था उस आघात को भी वे भूलने लगे और उस बौद्धाचार्य के साथ कुछ दिन पर्यन्त वहीं पर रहे ॥१४०-१५४।। श्रुतवृत्तांतकेनैव श्रींद्रदत्तेन श्रेष्ठिना । ज्ञात्वायं पुण्यवान्नित्यं चेले तेन विराजितः ।।१५५।। पश्यंतौ वनवीथीं तौ कदाचिगिरिकंदरं । कदाचित्केकिनां नृत्यं चेलतुः परमोत्सवौ ।।१५६।। मार्गातिक्रमणात्तौद्वौ श्रमाक्रांतौ बभूवतुः । श्रमाक्रांतस्तदा प्राह श्रेणिको वरया गिरा ।।१५७।। अनन्तर इसके अब यहाँ पर अधिक रहना ठीक नहीं यह विचार कर, अतिशय हर्षित चित्त, बौद्ध धर्म के सच्चे अनुयायी कुमार श्रेणिक उस स्थान से चले । यह समाचार सेठी इन्द्रदत्त ने भी सुना सेठी इन्द्रदत्त भी यह जानकर कि कुमार श्रेणिक अत्यंत पुण्यात्मा है कुमार के पीछेपीछे चल दिये। इस प्रकार वन-मार्गों को देखते हुए, अनेक प्रकार की पर्वत-गुफाओं को निहारते हुए, मत्त मयूरों के नृत्य को आनन्दपूर्वक देखते हुए, वे दोनों महोदय जब कुछ दूर तक गये तब कुमार श्रेणिक ने अति मधुर वाणी से सेठी इन्द्रदत्त से कहा ॥१५५-१५७।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ५३ हे मातुल ! श्रमाक्रांता वावां जातौ च सत्पथि । जिह्वारथं च तद्धान्य याव आरुह्य सत्वरं ॥१५८।। स श्रुत्वा विस्मयीभूत्त्वाचितयच्चेति मानसे । न दृष्टो न श्रुतो लोके रसज्ञारथ उन्नतः ।।१५६।। आरोहणं कथं तत्र ग्रथिलोऽयं नरः स्फुटं । वितक्येति निजे चित्ते तूष्णीत्वेन स्थितोवणिक् ॥१६०।। हे श्रेष्ठिन् (मातुल) चलते-चलते इस मार्ग में मैं और आप थक गये हैं इसलिए चलिये जिह्वारूपी रथ पर चढ़कर चलें। कुमार की इस आकस्मिक बात को सुनकर अचम्भे में पड़कर सेठी इन्द्रदत्त ने विचारा कि संसार में कोई जिह्वारथ है यह बात न तो हमने आज तक सुनी और न साक्षात् जिह्वारूपी रथ ही देखा । मालूम होता है यह कुमार कोई पागल मनुष्य है ऐसा थोड़ी देर तक विचार कर सेठी इन्द्रदत्त चुप हो गये उन्होंने कुमार श्रेणिक से बातचीत करना भी बन्द कर दिया एवं दोनों चुपचाप ही आगे को चलने लगे॥१५८-१६०॥ गच्छंतावग्रतो मार्ग शुभचिंतनतत्परौ । दवशतुर्नदी रम्यां जलाकीर्णां च तृप्तिदां ॥१६१॥ उपानही पदे कृत्वा नद्यां स श्रेणिकोऽविशत् । अंहितस्ते वणिग् नद्यां निष्कास्य विशतिस्म च ॥१६२।। पादत्राणसमायुक्तं जले दृष्ट्वा स मागधं । ग्रथिलं तं निजे चित्ते निश्चिनोतिस्मभूमिस्पृक् ।।१६३।। अन्येऽहो पुरुषा नीरे समुत्तार्याहिरक्षणम् । प्रविशंति महामूर्योऽयं सोपानत् कथंविशेत् ॥१६४।। थोड़ी दूर आगे जाकर, अपने निर्मल जल से पथिकों के मन तृप्त करनेवाली अत्यंत निर्मल जल से भरी हुई एक उत्तम नदी उन दोनों ने देखी, नदी को देखते ही कुमार श्रेणिक ने तो अपने जूते पहनकर नदी में प्रवेश किया। और सेठी इन्द्रदत्त ने पैरों से दोनों जूतों को पहले उतारकर हाथ में ले लिया बाद में नदी में घुसे। मगध देश के कुमार श्रेणिक को जूते पहनकर जब उन्होंने नदी में प्रवेश करते हुए देखा तो सेठी इन्द्रदत्त और भी अचम्भा करने लगे और उनको इस बात का पक्का निश्चय हो गया कि कुमार श्रेणिक जरूर कोई पागल पुरुष है। तथा कुमार श्रेणिक के काम से उन्होंने अपने मन में यह विचार किया कि अन्य बुद्धिमान पुरुष तो यह काम करते हैं कि जल में जूता उतारकर घुसते हैं किन्तु कुमार श्रेणिक ने जूता पहने ही नदी में प्रवेश किया मालूम होता है कि यह साधारण मूर्ख नहीं बड़ा भारी मूर्ख है ॥१६१-१६४।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् मार्गेऽन्यदा च गच्छंतौ श्रमहान्यस्थितौ वरौ । वृक्षाधः श्रेणिकस्तावत् पाणं छत्रमकल्पयत् ॥१६॥ मस्तकोपरि तच्छत्रं कृत्वा तस्थौ महामनाः । संवीक्ष्य चिंतयामासोरुव्याश्चति स्वमानसे ॥१६६।। दधते तापशांत्यर्थं छत्रमन्ये विचक्षणाः । आतपत्रं वितापेऽयं धत्त किं नहि मूर्खता ॥१६७।। इस प्रकार विचार करते-करते सेठी इन्द्रदत्त फिर कुमार श्रेणिक के पीछे-पीछे चले। कुछ दूर चलकर उन्होंने अत्यंत शीतल छायायुक्त एक वृक्ष देखा मार्ग में धूप आदि से अतिशय श्रान्त कुमार श्रेणिक और सेठी इन्द्रदत्त दोनों ही उस वृक्ष के पास पहुँचे। कुमार श्रेणिक तो उस वृक्ष की छाया में अपने सिर पर छत्री तानकर बैठे और सेठी इन्द्रदत्त छत्री बंद कर। कुमार गहरा विचार करने लगे कि संसार में और और मनुष्य तो छत्री को धूप से बचने के लिए सिर पर लगाते हैं किन्तु यह कुमार अत्यंत शीतल वृक्ष की छाया में भी छत्री लगाये बैठा है यह तो बड़ा मूर्ख मालूम पड़ता है ॥१६५-१६७॥ अन्यदा नगरं रम्यं नानाजनसमाश्रितम् । दंतिघोटकपश्वाढ्यं दृष्ट्वा पप्रच्छ मागधः ॥१६८।। भो मामाऽयं शुभोग्रामो वसते चोद्वसोऽथवा । स्वकौशल्यं प्रकाश्येत्थं निर्जग्मतुस्ततोऽग्रतः ।।१६६।। एकं नरं शुभाकारं ताडयंतं स्वयोषितं । विलोक्य प्राह भो श्रेष्ठिन् श्रेणिको ज्ञानकोविद ॥१७०॥ ताड्यतेऽनेन बद्धावा मुक्तावा कथ्यतां द्रुतम् । ग्रथिलत्वेऽस्य च श्रेष्ठी श्रु त्वेति निश्चिकाय तत् ॥१७॥ इस प्रकार विचार करते-करते फिर भी सेठी इन्द्रदत्त कुमार के साथ आगे-आगे चले। आगे चलकर उन्होंने अनेक प्रकार के उत्तमाधम मनुष्यों से व्याप्त, अनेक प्रकार के हाथी, घोड़े आदि पशुओं से भरा हुआ अतिशय मनोहर, एक नगर देखा। नगर को देखकर कुमार श्रेणिक ने सेठी इन्द्रदत्त से पूछा कि हे मामा कृपा कर कहें कि यह उत्तम नगर बसा हुआ है कि उजड़ा हुआ? कुमार के इन वचनों को सुनकर सेठी इन्द्रदत्त ने उत्तर नहीं दिया किन्तु अतिशय चतुर कुमार श्रेणिक और इन्द्रदत्त फिर भी आगे को चल दिये आगे कहीं कुछ ही दूर जाकर उन्होंने एक अत्यंत सुन्दर पुरवासी मनुष्य को अपनी स्त्री को मारते हुए देखा, देखकर फिर कुमार श्रेणिक ने सेठी इन्द्रदत्त से प्रश्न किया कि हे श्रेष्ठिन् बताइये कि जिस स्त्री को यह सुन्दर मनुष्य मार रहा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ श्रेणिक पुराणम् है वह स्त्री बँधी हुई है अथवा खुली हुई कुमार के इस प्रकार के वचन सुनकर इन्द्रदत्त ने विचारा कि यह कुमार अवश्य पागल है इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं ॥१६८-१७१॥ अन्यदा मृतमावीक्ष्य नीयमानं जनैर्नरम् । दहनार्थं स पप्रच्छ वणिज विनयान्वितः ॥१७२॥ पंचत्वं प्राप्तवानद्य पूर्वं वा वद मां प्रति । द्वापरो वर्त्तते चित्ते मामकीने च मातुल ॥१७३।। इस प्रकार अपने मन में कुमार के पागलपने का दृढ़ विश्वास कर फिर भी दोनों आगे को बढ़े आगे चलते-चलते उन्होंने जिसको मनुष्य जलाने के लिए ले जा रहे थे एक मरे हुए मनुष्य को देखा। मृत मनुष्य को देखकर फिर भी कुमार श्रेणिक को शंका हुई और शीघ्र ही उन्होंने सेठ इन्द्रदत्त से धर पूछा कि हे माम ! मुझे शीघ्र बतावें कि यह मुर्दा और मरा है कि पहले का मरा हुआ है॥१७२-१७३॥ सुपक्वं फलितं रम्यं गंधाकृष्टमध्रुवतं । जला फलनम्रांगं शालिवप्रं विलोक्य सः ॥१७४।। उक्तवानिति हे श्रेष्ठिन् स्वामिना फलमस्य वै । क्षेत्रस्य भोक्ष्यतेऽभोजि ब्रूहि मां मे मनोगतं ।।१७।। आगे बढ़कर कुमार श्रेणिक ने भली प्रकार पके हुए फलों से रम्य, फलों की उत्तम सुगन्धि से जिसके ऊपर भौंरा गुंजार कर रहे हैं। जो जल से भीगे हुए फलों से नीचे को नम रहा है एक उत्तम शालिक्षेत्र देखकर कुमार ने फिर सेठी इन्द्रदत्त से प्रश्न किया कि हे माम ! शीघ्र बताइए इस क्षेत्र का मालिक इस क्षेत्र के फलों को खावेगा कि खा चुका है।।१७४-१७५।। बाह्यमानं नरैर्वप्रेहलं प्रेक्ष्य नराधिपः । कतिडालानि वर्त्तते हले मां वद सत्वरं ॥१७६।। आगे चलकर किसी एक नवीन क्षेत्र में हल चलाता हुआ एक किसान मिला उसको देखकर फिर कुमार श्रेणिक ने प्रश्न किया कि हे श्रेष्ठिन् ! जल्दी बताइये इस हल पर हल के स्वामी कितने हैं ॥१७॥ बदरीवृक्षमावीक्ष्य पृष्टवानिति पुंगवः । वर्त्तते कंटका वृक्षे कियंतो मातुल ।।१७७॥ तथा आगे बढ़कर एक बदरी वृक्ष, दृष्टिगोचर हुआ उसे देखकर फिर भी कुमार ने सेठी इन्द्रदत्त से पूछा कि हे मातुल ! कृपा कर मुझे बताइये कि इस बेरिया के पेड़ में कितने कांटे हैं ॥१७॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्यण विरचितम् जिह्वारथः पादसुरक्षणं च छत्रं तथा ग्रामविनिश्चयश्च । नारीशवंशालिवनं च डालं कांटक्यवार्तेति च कल्पते स्म ॥१७८॥ इति सुकृतविपाकाद्बुद्धिसारं वचो वै वदति विशदचेताः श्रेणिक: श्रेष्ठिनं तं । वचननिहित वाच्या गर्भसारानभिज्ञं प्रणयजनकवाक्यं प्रीणितं श्रोत्रपद्मम् ॥१७६।। नानाशास्त्रकथा प्रवीण हृदयश्चंद्रांगसंगिद्युतिः सश्री मागधसंभवो वरकराकोर्णः प्रमालिगितः । तेनामा पुरमुन्नतं वर सरो वेणादि पद्म शुभम् प्रापत् पुण्यवशोदयाद्वशिवशं कुर्वन्महामेदुरः ॥१८०॥ क्व पत्तनं राजगृहं क्व मागधः, नंदिवासः क्व च बौद्धसेवनम् । क्व चंद्रदत्तेन सहांगमित्रता, न लक्ष्य मेवात्र हि कर्मपाचनम् ॥१८॥ धर्मतो ह्यशुभकर्मनाशनं धर्मतो हिशुभकर्मसंगमः । धर्मतः प्रियसमागमो मतो धर्ममेव कुरुतां भवान् जनः ॥१८२॥ क्व इस प्रकार कुमार श्रेणिक तथा सेठी इन्द्रदत्त दोनों जनों की जिह्वा रथ, जूता, छत्री, ग्राम का निश्चय, स्त्री, मुर्दा, शालिक्षेत्र, हल, काँटे के विषय में बातचीत हुई। पुण्य के फल से अत्यंत विशद बुद्धि के धारक कुमार श्रेणिक ने अपने स्नेहयुक्त वचनों से शब्दों के अर्थ को भलीभांति नहीं समझनेवाले भी सेठी इन्द्रदत्त के कानों को तृप्त कर दिया। और उत्तम बुद्धि को प्रकट करने वाले वचन कहे। तथा नाना प्रकार की शास्त्रकथाओं में प्रवीण, चंद्रमा के समान शोभा को धारण करनेवाला, तेजस्वी, लक्ष्मीवान, अपने पुण्य से जितेन्द्रिय पुरुषों को भी अपने अधीन करनेवाला, पृथ्वी पर सुन्दर, कुमार श्रेणिक ने सेठी इन्द्रदत्त के साथ उत्तमोत्तम तालाबों से शोभित वेण पद्मनगर में प्रवेश किया। देखो, कर्म का फल कहाँ तो मगधदेश ? कहाँ राजगृह नगर? और नंदिग्राम कहाँ ? तथा कहाँ बौद्धमत का सेवन ? और कहाँ सेठी इन्द्रदत्त के साथ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् मित्रता? संसार में कर्मों का फल विचित्र और अलक्ष्य है, किन्तु यह नियम है कि जीवों के समस्त अशुभ कार्यों का नाश धर्म से ही होता है, धर्म से ही शुभ कर्मों की प्राप्ति होती है। संसार में धर्म से प्रिय वस्तुओं का समागम होता है इसलिए जिन मनुष्यों की उपर्युक्त वस्तुओं के पाने की अभिलाषा है उन्हें चाहिए कि वे सदा अपनी बुद्धि को धर्म में ही लगावें ॥१७८-१८२॥ इति श्रेणिक भवानुबद्धभविष्यत्पद्मनाभ पुराणे (भट्टारक श्रीशुभचंद्राचार्य विरचिते) श्रेणिकराजगृहान्निर्गमनं नाम तृतीयः सर्गः ।।३।। इस प्रकार भविष्यतकाल में होनेवाले श्री पदमनाभ तीर्थंकर के जीव श्री महाराज श्रेणिक के चरित्र में भद्रारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित कुमार श्रेणिक का राजगृह से निष्कासन कहनेवाला तीसरा सर्ग समाप्त हुआ। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः इंद्रदत्तस्ततो वेणा तड़ागं प्राप्य पत्तनम् । जहर्ष सौधमालाढ्यं कामिनीमुखचंद्रितम् ।। १ ॥ यत्कामिनीमुखं वीक्ष्य संभिन्नक्षणदातमः । ह्रिया भ्रमति चंद्रोऽयं तदाप्रभृति खे निशि ॥ २ ॥ यत्रात्याश्च जनाः सर्वे पुण्यकर्मरता भृशम् ।। दानिनो भोगिनो धीरा जिन पूजापरायणाः ॥ ३ ॥ ततो दृष्ट्वा बभाणैष पुरं भो राज संभव । किं करिष्यसि मां ब्रूहि कुत्र स्यास्यति निश्चितं ॥ ४ ॥ अनंतर जिस समय सेठी इन्द्रदत्त वेणपद्मनगर के तालाब के पास पहुंचे तो वहीं से उन्होंने वेणपदमनगर को देखा। तथा जिस वेणपद्मनगर की स्त्रियों के मुख चन्द्रमा मनोहर, कामी जनों के मन तृप्त करनेवाले थे, उनको मनोहरता के सामने चन्द्रमा अपने को कुछ भी मनोहर नहीं मानता था और लज्जित हो रात-दिन जहाँ-तहाँ घूमता फिरता था। तथा जिस नगर के निवासी मनुष्य सदा पुण्य कर्म में तत्पर, दानी, भोगी, धीर-वीर, और श्री जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के भलीभाँति पालन करनेवाले थे, ऐसे उस सर्वोत्तम नगर की शोभा देखकर वे अति प्रसन्न हुए। कुमार श्रेणिक से कहने लगे हे कुमार ! इस नगर में आप क्या करेंगे? कहाँ पर निवास करेंगे? मुझे कहें ॥१४॥ स्थास्यामि वणिजां नाथ तड़ागे पद्मराजिते । त्वं याहि पत्तने गेहे स्वकीये रंगराजिते ॥ ५ ॥ मदाज्ञया विना राजन्न गंतव्यं त्वया क्वचित् । इति तं तत्र संस्थाप्य विशेष नगरं निजं ॥ ६ ॥ इन्द्रदत्त की यह बात सुनकर कुमार श्रेणिक ने उत्तर दिया कि हे वणिक स्वामी इन्द्रदत्त ! मैं भांति-भांति के कमलों से शोभित इसी तालाब के किनारे रहूँगा आप अपने मनोहरपुर में जाकर निवास करें॥५॥ कुमार के मुख से ऐसे उत्तम वचन सुनकर सेठी इन्द्रदत्त ने फिर कहा कि हे राजकुमार! यदि आप यहाँ रहना चाहते हैं तो मेरा एक निवेदन है, वह यही है कि जब तक मेरी आज्ञा न होवे आप इस तालाब को छोड़कर कहीं न जायें ॥५-६।। क्रमान्निजगृहं प्रापदिंद्रदत्तो वणिग्धरः । प्रफुल्लसर्वनेत्रांगो विकसन्मुखपंकजः ॥ ७ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् कांता पुत्रांगजाभिः स लोक्यमानो मुहुर्मुहुः । सार्थकं सफलं जन्म मेने पूर्ववृषोदयात् ॥ ८ ॥ इन्द्रदत्त के उस प्रकार के वचनों को सुनकर कुमार श्रेणिक तो तालाब के किनारे पर बैठ गये और सेठी इन्द्रदत्त ने अपने नगर की ओर गमन किया। ज्योंही इन्द्रदत्त अपने घर में पहुंचे और जिस समय वे अपने कुटुम्बियों से मिले तो उनको अति आनन्द हुआ, मारे आनन्द के उनके दोनों नेत्र फूल गये, अंग रोमांचित हो गया और मुख भी कांतिमान हो गया। तथा जिस समय स्त्री, पुत्र और पुत्रियों ने उनका सम्मान किया और प्रेम की दृष्टि से देखा तो उन्होंने पूर्वोपार्जित धर्म के प्रभाव से अपना जन्म सार्थक जाना और अपने को कृतकृत्य समझा ॥७-८॥ तस्यास्ति तनुजा रम्या पीनोन्नतपयोधरा । शशांकवदना सारा नंदश्रीः कोकिलस्वना ॥ ६ ॥ कंठेन कोकिलध्वानं वक्त्रेण चंद्रदीधिति । नेत्रण पद्मपत्रं च करेण पद्मपल्लवम् ।। १०॥ पुनर्भावन ताराभां कचेन नीलसन्मणिम् । गत्या मरालसंरंभास्तनेन हेमकुंभकं ॥ ११॥ नितंबन शिलां सारां रूपेण रतिकामिनीं । क्रीडया वर पद्मा च या जिगाय तनुश्रिया ॥ १२ ।। सा प्रेक्ष्य जनकं कांतं प्रणम्य विनयांकिता । कुशलप्रश्नपूर्वं चावादीद्गंभीर सगिरा ॥ १३ ॥ पितः केन जनेनामाऽऽटितस्त्वं किमुच्चकैककः । सहगामी न वीक्ष्येत यतः कश्चिन्नरोत्तमः ॥ १४ ॥ अवगम्य वचः पुत्र्याः प्रहसद्वदनाब्जकः । बभाष तनुजे चैक: सहगामी समस्तिवै ॥ १५ ॥ रूपी युवा गुणाक्रांतः कांतिमंडितविग्रहः । बुद्धया जीव समानत्वं यस्ततान महामनाः ॥ १६ ॥ मागधाधिपपुत्रोऽसौ पुत्रिसाकं समाटितः । तवयोग्यवरः किंतु ग्रथिलो मूर्खतांकितः ॥ १७ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् महोदय सेठी इन्द्रदत्त के पीन एवं उन्नत स्तनों से शोभित, चन्द्रमुखी कोकिला के समान मधुर बोलनेवाली पिकवैनी नन्दश्री नाम की कन्या थी। उस कन्या ने अपने मनोहर कण्ठ से कोकिला को जीत लिया था। वह मुख से चन्द्रमा को, नेत्रों से कमल-पत्र को और हाथ से कमल पल्लव को जीतनेवाली थी। उसके केशों के सामने मनोहर नीलमणि भी तुच्छ मालूम पड़ती थी गति से वह हंसिनी की चाल नीची करनेवाली थी एवं स्तनों से उसने सुवर्ण कलशों को नितम्बों से उत्तमोशिला को, रूप से कामदेव की स्त्री रति को तिरस्कृत कर दिया था। जिस समय इस कन्या ने अपने पिता इन्द्रदत्त को देखा तो शीघ्र ही उसने प्रणामपूर्वक कुशलक्षेम पूछी। तथा कुशलक्षेम पूछने के बाद अपनी मनोहर वाणी से यह कहा कि हे पूज्य पिता! आपके साथ कोई भी उत्तम बद्धिमान मनुष्य आया हआ नहीं दीखता। परदेश से आप किसी मनुष्य के साथ-साथ आये हैं अथवा अकेले ? पुत्री के ऐसे वचन सुनकर उन वचनों के तात्पर्य को भी भलीभाँति समझकर सेठी इन्द्रदत्त ने हर्षपूर्वक उत्तर दिया कि हे पुत्री ! मेरे साथ एक मनुष्य अवश्य आया है और वह अत्यन्त रूपवान, युवा, गुणी, मनोहर, तेजस्वी और बुद्धिमान है। तथा वह भनुष्य अपने को मगध देश के स्वामी महाराज उपश्रेणिक का पुत्र कुमार श्रेणिक बतलाता है । यद्यपि वह तेरे लिए सर्वथा वर के योग्य है तथापि उसमें एक महाभारी दोष है कि वह विचार रहित वचन बोलने के कारण मूर्ख मालूम पड़ता है ॥६-१७॥ इत्याकाह कम्रांगी दंतदीप्पितिदीपिता । कठिनस्तननम्रांगा जनकस्य वचः स का ।। १८ ।। ताताद्येहितमस्य त्वं वदत्वत्सार्द्धगामिनः । क्व स्थितस्य च यः किं स यातः कस्मात् सविस्तरं ।। १६ ॥ रराणचेंद्रदत्ताख्यस्तनुजे तस्य वृत्तकम् । विद्धि सर्वं मयाद्यत्वमानंदिग्नामृतः स्फुटं ॥ २० ॥ मध्ये सभां समायातो नंदिग्रामस्य मां जगौ । मातुलेति वचश्चोक्त्वा को हंसः कः कथं मयि ।। २१ ।। मामभूयं च वर्तेत रसज्ञारथरोहणम् । कथं भवति भो पुत्र्याऽऽजन्मादृष्टं मृषोद्भवं ।। २२ ॥ पादत्राणं जले छत्रं महीरुहमहीतले । पुनरुन्नत शालाढ्यं दृष्ट्वा पप्रच्छमुग्धहृत् ॥ २३ ॥ वसते चोद्वसंवाहो नगरं नरसंश्रितं । श्रेयस्कारी कथं प्रश्नश्चित्तालादकरः सुते ।। २४ ।। ताड्यमानां वधूं वीक्ष्य बद्धा मुक्तेति संजगौ । मृतकं वीक्ष्य चाद्यैव प्राणत्यक्तं पुराथवा ॥ २५ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् भोक्ष्यते च पुराभुक्तं शालिवप्रं च पृष्टवान् । हलशाखा च कौलक्य कंटका इति मा वदत् ॥ २६ ॥ अनीदृशा शुभप्रश्नवशात्संक्षितो मया । ग्रथिलोऽयं न संदेहस्तदा पुत्री वचो जगौ ।। २७ ।। ध्यानपूर्वक पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर मनोहरांगी दाँतों की दीप्ति से सर्वत्र प्रकाश करनेवाली, कठिन स्तनी नतांगी कुमारी नन्दश्री ने कहा कि हे पिता ! कृपाकर आप मुझसे कहें जो मनुष्य आपके साथ आया है उसकी आपने क्या चेष्टा देखी है ? उसकी उम्र क्या है ? और किसलिए वह यहाँ पर आया है ? पुत्री के इस प्रकार वचन सुनकर सेठी इन्द्रदत्त ने कहा कि हे पुत्री ! यदि तेरी लालसा उसके विषय में कुछ जानने की है तो मैं उस मनुष्य के सब वृत्तांत को कहता हूँ, तू ध्यानपूर्वक सुन, मैं लौटकर घर आ रहा था बीच मार्ग में नन्दिग्राम के समीप मेरी उससे भेंट हुई उसी समय से उसने मुझे मामा बना लिया और मार्ग में भी मामा कहकर ही मुझे पुकारा सो यह बता कि कौन ? और कहाँ का रहनेवाला तो वह और मैं कहाँ का रहनेवाला? फिर उसने मुझे मामा कहकर क्यों पुकारा? दूसरे कुछ चलकर फिर उसने कहा कि हम दोनों थक गये हैं इसलिए चलो अब जिह्वारूपी रथ पर सवार होकर गमन करें हे पुत्री यह बात बिलकुल उसने मिथ्या कही थी क्योंकि जिह्वारथ संसार में कोई है यह बात आज तक न सुनी न देखी। पुनः कुछ चलकर एक नदी पड़ी उसमें इसने जूते पहनकर प्रवेश किया। तथा अत्यंत शीतल वृक्ष की छाया के नीचे यह छत्री तानकर बैठा। तथा आगे चलकर एक अनेक प्रकार के मनोहर घरों से शोभित, मनुष्य एवं हाथी, घोड़ा आदि पशुओं से व्याप्त, एक नगर पड़ा उस नगर को देखकर इसने मुझसे पूछा कि हे मातुल ! यह नगर उजड़ा हुआ है कि बसा हुआ? हे पुत्री ! यह प्रश्न भी उसका मन को आनंद देनेवाला नहीं हो सकता। आगे चलकर मार्ग में कोई एक मनुष्य किसी स्त्री को मार रहा था उस स्त्री को देखकर फिर उसने मुझसे पूछा कि हे मामा ! यह स्त्री बँधी हुई है कि खुली हुई ? उसी प्रकार आगे चलकर एक मरा हुआ मनुष्य मिला उसे देखकर फिर उसने पूछा कि यह आज मरा है अथवा पहले का ही मरा हुआ है? आगे चलकर अतिशय पके हुए उत्तम धान्यों से व्याप्त एक क्षेत्र पड़ा उसे देखकर उसने यह कहा कि हे मामा ! इस खेत का मालिक उसके फलों को खावेगा या खा चुका ? इसी प्रकार हल चलाते हुए किसी एक किसान को देखकर उसने पूछा कि इस हल पर हल के चलानेवाले कितने मनुष्य हैं ? तथा आगे चलकर एक बेरी का वृक्ष पड़ा उसको देखकर उसने यह कहा कि हे मातुल ! इसमें कितने काँटे हैं इत्यादि उसके द्वारा किये हुए अयोग्य, पूर्वापर विचार रहित प्रश्नों से मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह कुमार अवश्य पागल है॥१८-२७॥ दक्षः स निपुणो ज्ञेयो विज्ञाता ग्रथिलो नहि । यदुक्तं माम इत्येवं त्वां च तद्रम्य मिष्यते ॥ २८ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् भागिनेयो महामान्यो भवेल्लोके पुनः शृणु। जिह्वारथः प्रकथ्येत कथाकुतूहलादिकम् ।। २६ ।। अध्वश्रमापनोदार्थ कथा कथ्येत सज्जनः । श्रमहानेस्तदा तेन प्रोक्तो जिह्वारथः शुभः ॥ ३० ।। उपानही धृते पादे जले तद्दक्षताकृतां । कंटकोपलसर्पादि न दृश्येत जलेयतः ॥ ३१ ।। शाखिमूले तथा तेनातपत्रं धृतमुन्नतम् । काकादिगूथरक्षार्थं तदक्षत्वं न संशयः ।। ३२॥ यदुक्तं नगरं रम्यं वसते चोद्वसं तथा। साधार्मिकजनैश्चैत्य चैत्यालययतीश्वरः ॥ ३३ ॥ पूर्ण स्वजनसंपूर्ण तत्संवासिमतं पुनः । अन्यदुद्वसमाविद्धि विकल्पस्तस्य मानसः ॥ ३४ ॥ नारीप्रश्न विचारोऽयं कथ्यते तन्मनोगतः । विवाहिता प्रताड्येत बद्धा सा प्रोच्यते जनैः ॥ ३५ ॥ मुक्तान्यथा मतान्यच्च मतप्रश्न विचारणम् । पंचत्वं प्राप्तवान्यस्तु नरो लोके विचक्षणः ।। ३६ ॥ धर्मी दयागुणोपेतो ज्ञानवान् विनयान्वितः । यच्छन् पात्राय संदानं कुर्वन्कीत्तिमयं जगत् ॥ ३७॥ तदानीं स मृतो ज्ञेयः यस्तु दानादिवर्जितः । कदर्यः पापकर्माढ्यो मृतः पूर्वं स भूतले ॥ ३८ ॥ भुक्तं च भोक्ष्यते वप्र धान्यंतस्य वितर्कणा । ऋणं पूर्व विधायोच्चैर्यत्क्षेत्रं क्रियते जनः ।। ३६ ॥ तद्भुक्तं प्रोच्यते सद्भिरन्यथा भोक्ष्यते पुनः । भो इंद्रदत्त वर्तेतेवे डाले लांगलस्य च ॥ ४० ।। ककंधुकंटकौ द्वौ च वर्तेत ऋजुबक्रगी। भो तांत तव वाक्यानीमानि वै न भवंत्यहो ॥४१॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् स एष निपुणो ज्ञेयो विद्वज्जनमनोहरः । नानाक्रिया कलापूर्णो नानाशास्त्रपरायणः ॥ ४२ ॥ करिष्याम्यथ भो तात परीक्षां तच्छरीरजां। क्वास्ते वद विचारज्ञः सोऽसाधारणसद्गुणः ॥ ४३ ॥ आस्ते बहिस्तडागस्य तटे रूपी युवा स हि । प्रोवाचेति वचः श्रेष्ठी तच्चित्ताकर्षणक्षमम् ॥ ४४ ॥ पिता के मुख से कुमार श्रेणिक द्वारा की हुई चेष्टाओं को सुनकर बुद्धिमती नंदश्री ने जवाब दिया कि हे पिता! उस कुमार को जो उपर्युक्त चेष्टाओं से आपने पागल समझ रखा है सो वह कुमार पागल नहीं है, किंतु वह अत्यंत चतुर एवं अनेक कलाओं में निपुण है ऐसा निःसंशय समझिए क्योंकि जो उस कुमार ने आपको मामा कहकर पुकारा था उसका मतलब यह था कि संसार में भानजा अत्यंत माननीय एवं प्रिय होता है इसलिए मामा कहने से तो उस कुमार ने आपके प्रेम की आकांक्षा की थी। जिह्वारथ का अर्थ कथा कौतूहल है। कुमार ने जो जिह्वारथ कहा था वह भी उसका कहना बहुत ही उत्तम था क्योंकि जिस समय सज्जन पुरुष मार्ग में थक जाते हैं उस समय वे उस थकावट को अनेक प्रकार के कथा-कौतूहलों से दूर करते हैं। कुमार का लक्ष्य भी उस समय थकावट के दूर करने के लिए ही था। तथा जो कुमार नदी के जल में जूते पहनकर घुसा था वह काम भी उसका एक बड़ी भारी बुद्धिमानी काथा क्योंकि जल के भीतर बहुत से कंटक एवं पत्थरों के टुकड़े पड़े रहते हैं, सर्प आदिक भी रहते हैं। यदि जल में जूता पहनकर प्रवेश न किया जाए तो कंटक एवं पत्थरों के टुकड़ों के लग जाने का भय रहता है। सर्प आदि जीवों के काटने का भी भय रहता है । इसलिए कुमार का जल में जूता पहनकर घुसना सर्वथा योग्य ही था। तथा हे पिता! कुमार वृक्ष की छाया में जो छत्री लगाकर बैठा था उसका वह कार्य भी एक बड़ी भारीबुद्धिमानी को प्रकट करनेवाला था क्योंकि वृक्ष की छाया में जो छत्री लगाकर न बैठे जाने पर पक्षी आदि जीवों की बीट गिरने की सम्भावना रहती है इसलिए वृक्ष की छाया में छत्री लगाकर बैठना भी कुमार का सर्वथा योग्य था। तथा अति मनोहर नगर को देखकर कुमार ने जो आपसे यह प्रश्न किया था कि हे मातुल ! यह नगर उजड़ा हुआ है कि बसा हुआ ? उसका आशय भी बहुत दूर तक था क्योंकि भली प्रकार बसा हुआ नगर वही कहा जाता है, जो नगर उत्तम धर्मात्मा मनुष्यों से जिन प्रतिबिम्ब, जिन चैत्यालय एवं उत्तम यतीश्वरों से अच्छी तरह परिपूर्ण हो। किन्तु उससे भिन्न नगर उजड़ा हुआ कहा जाता है। इसलिए यह नगर बसा हुआ है अथवा उजड़ा हुआ? यह प्रश्न भी कुमार का विचार परिपूर्ण था। तथा हे पिता ! स्त्री को मारते हुए किसी पुरुष को देखकर जो कुमार ने यह स्त्री बँधी हुई है अथवा खुली हुई है ? आपसे यह प्रश्न किया था वह प्रश्न भी उसका अत्युत्तम प्रश्न था क्योंकि बँधी हुई स्त्री विवाहिता कही जाती है और छूटी हुई का नाम अविवाहिता है। कुमार का प्रश्न भी इसी आशय को लेकर था कि यह स्त्री इस पुरुष की विवाहिता है अथवा अविवाहिता है ? Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अतः कुमार का यह प्रश्न भी उसकी चतुरता को जाहिर करता है। तथा मरे मनुष्य को देखकर जो कुमार ने यह प्रश्न किया था कि “यह मरा हुआ मनुष्य आज का मरा हुआ अथवा पहले का मरा हुआ है?" यह प्रश्न भी उसका बड़ी चतुरता परिपूर्ण था। क्योंकि हे पूज्य पिता! जो मनुष्य धर्मात्मा, दयावान, ज्ञानवान, विनय से पात्रों को दान देनेवाला एवं समस्त जगत में यशस्वी होता है और वह मर जाता है उसको तो हाल का मरा हुआ कहते हैं। और इससे भिन्न जो मनुष्य दानरहित कामी-पापी होता है उसको संसार में पहले से ही मरा हुआ कहते हैं। कुमार का यह जो प्रश्न था कि “यह मरा हुआ मनुष्य हाल का मरा हुआ है अथवा पहले का?" यह प्रश्न कुमार को अत्यंत बुद्धिमान एवं चतुर बतलाता है तथा हे पिता! कुमार ने धान्य परिपूर्ण खेत को देखकर आपसे जो यह पूछा था कि इस क्षेत्र के स्वामी ने इस क्षेत्र के धान्य का उपभोग कर लिया है अथवा करेगा? वह प्रश्न भी कुमार का बड़ी बुद्धिमानी का था क्योंकि कर्ज लेकर जो खेत बोया जाता है। उसके धान्य का तो पहले ही उपभोग कर लिया जाता है। इसलिए वह भुक्त कहा जाता है। और जो खेत बिना कर्ज के बोया जाता है उस खेत के धान्य को उस खेत का स्वामी भोगेगा ऐसा कहा जाता है। कुमार के प्रश्न का भी यही आशय था कि यह खेत कर्ज लेकर बोया गया है अथवा बिना कर्ज के ? इसलिए इस प्रश्न से भी कुमार की बुद्धिमानी वचनागोचर जान पड़ती है। तथा हे तात! कुमार श्रेणिक ने जो यह प्रश्न किया था कि हे मातुल! इस बेरी के वृक्ष के ऊपर कितने काँटे हैं? सो उसका आशय यह है कि काँटे दो प्रकार के होते हैं एक सीधे दूसरे टेढ़े। उसी प्रकार दुर्जनों के भी वचन होते हैं इसलिए यह प्रश्न भी कुमार श्रेणिक का सर्वथा सार्थक ही था इसलिए उक्त प्रश्नों से कुमार श्रेणिक अत्यंत निपुण, विद्वानों के मनों को हरण करनेवाला, समस्त कलाओं में प्रवीण और अनेक प्रकार के शास्त्रों में चतुर हैं, ऐसा समझना चाहिए। हे तात! आप धैर्य रखें कुमार श्रेणिक की बुद्धि की परीक्षा में और भी कर लेती हूँ किन्तु कृपाकर आप मुझे यह बतावें अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम विचारों से परिपूर्ण, सर्वोत्तम गुणों के मन्दिर, वह कुमार ठहरा कहाँ है? ॥२८-४४॥ मत्वा स्थिति कुमारस्य निपुणादिमती सखीं। पराभिप्रायसंवेत्री साजगौ निपुणां प्रति ॥ ४५ ।। वयस्ये याहि यत्रास्ते हेदीर्घनखितत्र सः । आकारणार्थमानंदान्मा विलंबय मत्सखि ॥ ४६ ॥ लब्धानुज्ञा वयस्या कृतनेपथ्यमंडना । स्वदीर्घनखरे तैलं चालादायसुंदरी ॥ ४७ ।। साऽगमद्यत्र स धीमानास्ते तत्र मनोहरः । अपूर्व तं नरं दृष्ट्वा प्राख्यन्मधुरया गिरा ॥ ४८ ।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् भो कुमार ! महारूपिन्निद्रदत्तेन त्वं समम् । आयातोऽसि शुभ: पूर्णः चंद्रवक्त्रो विचक्षणः ।। ४६ ।। अबलेशशिवक्त्रेऽहं तेन साकं समागतः । अस्मि कार्यं च यत्तेऽस्ति ब्रूहि नात्रविचारणा ॥ ५० ॥ नन्दश्री के इस प्रकार संतोष भरे वचन सुनकर इन्द्रदत्त ने उत्तर दिया-हे सुते ! जिस कुमार के विषय में तूने मुझे पूछा है अतिशय रूपवान एवं युवा वह कुमार इस नगर के तालाब के किनारे पर ठहरा हुआ है। पिता के मुख से ऐसे वचन सुनते ही कुमार को तालाब के किनारे ठहरा हुआ जानकर नन्दश्री शीघ्र ही भगती-भगती जो पर मनुष्य के मन के अभिप्रायों के जानने में अतिशय प्रवीण थी अपनी प्यारी सखी निपुणमती के पास गई। और निपुणमती के पास पहुँच कर यह कहा कि हे लम्बे-लम्बे नखों को धारण करनेवाली प्रिय सखी निपुणमती! जहाँ पर अत्यंत रूपवान कुमार श्रेणिक बैठे हैं वहाँ पर तू शीघ्र जा। और उनको आनंदपूर्वक यहाँ लिवा ले आ। प्रियतमा सखी ! इस बात में जरा विलम्ब न हो। कुपारी नन्दश्री की यह बात सुनकर प्रथम तो निपुणमती सखी ने खूब अपना शृंगार किया। पश्चात् वह नख में तेल भरकर कुमारी की आज्ञानुसार जिस स्थान पर कुमार श्रेणिक विराजमान थे वहाँ पर गई । वहाँ कुमार को बैठे हुए देखकर एवं उनके शरीर की अपूर्व शोभा को निहारकर उसने अति मधुर वाणी में कुमार से कहा-हे कुमार ! आप प्रसन्न तो हैं? क्या पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख को धारण करनेवाले आप ही सेठी इन्द्रदत्त के साथ आये हैं ? ॥४५-५०॥ सा जगाद नराधीश तस्यास्तिशुभपुत्रिका । नंदश्रीः कामकांतेव रूपपानीयनिम्नगा ॥ ५१ ॥ निपुणमती के इस प्रकार चित्ताकर्षक वचन सुन कुमार चुप न रह सके। उन्होंने शीघ्र ही उत्तर दिया कि हे चन्द्रवदनी ! अबले ! मैं ही सेठी इन्द्रदत्त के साथ आया हूँ जो कुछ काम होवे बेरोक-टोक आप कहें और किसी बात का विचार न करें॥५१॥ यत्पयोधरभारेण कृशत्वमगमत्कटि: । तद्रक्षाय नितंबोऽभूत्स्थूलः स्थगितसत्कटि: ॥ ५२ ॥ निर्माय विविधां नारी वेधाविविधकौशलैः । नापश्यत्तत्समानां चान्यां रूपादिसुसंपदा ।। ५३ ।। मुखाद्यंशवितान- भिनत्ति सकलं तमः । पूर्णचंद्रकरप्रख्यः कामिचेतोब्ज का शकः ॥ ५४॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૬ यद्दीप्रनखनक्षत्र नानाचिताप्रविस्तीर्णं श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् मनोव्योम विकासितम् । कामिनां मदगामिनां ।। ५५ ।। तयेदं प्रेषितं तैलमभ्यंगाय सुगंधाकृष्टषट्पादं नखपूरं स्नात्वा सुखं त्वया राजन्नागंतव्यं गृहे वरे । इंद्रदत्तस्य चाढ्यस्य नानाशोभापरायणे ॥ ५७ ॥ शुभावहम् । सुखाप्तये ।। ५६ ।। नखपूरं ततः प्रेक्ष्य तैलं चित्ते व्यचितयत् । किमिदं किमिदं तैलं स्वल्पं स्नानानियोगकं ॥ ५८ ॥ कुमार के इस प्रकार आनन्दप्रद एवं मनोहर वचन सुन निपुणमती ने उत्तर दिया है कुमार! जिस सेठी इन्द्रदत्त के साथ आप आये हैं उसी सेठी की अपने रूप से रति को भी तिरस्कार करनेवाली सर्वोत्तम नन्दश्री नाम की पुत्री है । उस पुत्री का कटिभाग, दोनों स्तनों के भार से अत्यंत कृश है | अतिशय कृश कटिभाग की रक्षार्थ उसके दो स्थूल नितम्ब हैं, जो कि अत्यंत मनोहर हैं । भाँति-भाँति के कौशलों से अनेक स्त्रियों का विधाता ब्रह्मा भी इस नन्दश्री की रूप आदि सम्पदा देखकर इसके समान दूसरी किसी भी स्त्री को उत्तम नहीं मानता है । उसका मुख कामी जनों के चित्तरूपी रात्रि विकासी कमलों को विकार करनेवाला एवं समस्त अन्धकार के नाश करनेवाला पूर्ण चन्द्रमा है । और वह अतिशय देदीप्यमान नखों से शोभित है। हे कुमार ! उसी समस्त कामी जनों के चित्त को हरण करनेवाली कुमारी नन्दश्री ने, अपनी सुगंधि से भ्रमरों को लुभानेवाला सर्वोत्तम एवं आनन्द का देनेवाला यह नखभर तेल मेरे द्वारा आपके लगाने के लिए भेजा है। हे महाभाग ! जितनी जल्दी हो सके इसको लगाकर आप सुखपूर्वक स्नान करें तथा मेरे साथ अनेक प्रकार की शोभाओं से व्याप्त सेठी इन्द्रदत्त के घर शीघ्र चलें ॥। ५२-५८ ॥ लक्ष्येतेदं सुदाक्षिण्यकृतेन निश्चितं मया । प्रेक्ष्यतं तैलमाशक्तं षट्पदैः स्वल्पमास्वनैः ।। ५६॥ पदांगुष्टेन जंबाले चकार विवरं शुभम् । सलिलैः पूरयामास विज्ञानांबुधिपारगः ॥ ६० ॥ ततो दीर्घनखीं प्राह सीमंतिनि ! जले शुभम् । तैलं निक्षिप शीघ्रण कठिनोन्नतचूचके ॥ ६१॥ तया तदाज्ञया तत्र क्षिप्तं तत्स्नानसिद्धये । हसंत्या मानसे चित्रं पश्यंता स्नेहसंभवं ॥ ६२ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् जिस समय कुमार ने निपुणमती के वचन सुने और जब नखभर तेल देखा तो उनके मन में गहरी चिन्ता हो गई। वे मन-ही-मन यह कहने लगे कि यह न कुछ तेल है इसको सर्वांग में लगा कर स्नान कैसे किया जा सकता है ? मालूम होता है सुगन्ध के लोभी भ्रमरों से चुम्बित, एवं उत्तम, यह थोड़ा तेल मेरी बुद्धि की परीक्षा के लिए कुमारी नन्दश्री ने भेजा है। तथा ऐसा क्षणेक भली प्रकार विचारकर गुरुओं के भी गुरु कुमार ने अपने पाँव के अंगूठे से जमीन में एक उत्तम गड्ढा खोदा। और मुंह तक उसको जल से भरकर दीर्घ नख धारण करनेवाली सखी निपुणमती से कहा कि हे उन्नत स्तनी सुभगे! तू इस जल के भरे हुए गड्ढे में नख में भरे हुए तेल को डाल दे ॥५६-६२।। गम्यमानां तगः प्रेक्ष्य बभाण वचनं नृपः । क्वास्ते तन्मंदिरं बाले बद विज्ञानकोविदे ॥ ६३ ॥ सबालाभरणं काणं प्रदर्श्य विनयोन्नता । सागता मंदिरे रम्ये विकसन्नयनोत्पला ॥ ६४ ॥ अचीकथत्कृतः सर्वं तज्जंनंदश्रियं च सा। आकर्ण्यति जगौ तन्वीजनकं विस्मिताशयं ॥ ६५ ।। कुमार श्रेणिक की इस प्रकार आज्ञा पाते ही अति स्नेह की दृष्टि से कुमार की ओर देखकर और मन-ही-मन में अति प्रसन्न होकर निपुणमती ने जल से भरे हुए उस गड्ढे में तेल छोड़ दिया। और अनेक प्रकार की कलाओं में प्रवीण वह चुपचाप अपने घर की ओर चल दी। निपुणमती को इस प्रकार जाते हुए देखकर कुमार ने पूछा कि हे अबले ! सेठी इन्द्रदत्त का घर कहाँ और किस जगह पर है? किन्तु कुमार के इस प्रकार के उत्तम प्रश्न को सुनकर भी निपुणमती ने कुछ भी जवाब नहीं दिया और विनययुक्त वह निपुणमती के कान में स्थित ताल-वृक्ष के पत्ते का भूषण दिखाकर चुपचाप चली गई ॥६३-६५॥ धीरोऽयं तात विज्ञेयो गुणी विज्ञानपारगः । यच्चेतसि जगत्सर्वं प्रफुल्येत न संशयः ।। ६६ ॥ कोविदत्वं कलावित्वं समस्ति न च संशयः । आकारणीय एवात्र त्वया तूर्णं सपुण्यधीः ॥ ६७ ॥ जिह्वारथादि वाक्यः स चिक्रीड महता त्वया । प्रकटीकृतमेवात्र दाक्षिण्यं तेन वा त्वयि ॥ ६८ ॥ प्रथिलत्वं न मूर्खत्वं न तस्मिन् शुभशंकिनः । गुणाः किंतु च वर्तते स्वभावोत्था; मनोहराः ॥ ६६ ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अथ स श्रेणिको धीमांस्तैलाभ्यंगं चकार बै । स्नात्वा जलाशये बुद्धया स्निग्धतैलावमिश्रितान् ॥ ७० ॥ कुमार के चातुर्य के देखने से प्रफुल्लित कमलों के समान नेत्रों से शोभित सखी निपुणमती ने शीघ्र ही अत्यंत मनोहर सेठी इन्द्रदत्त के घर में प्रवेश किया और कुमारी नन्दश्री के पास जाकर जो-जो कुमार श्रेणिक का चातुर्य उसने देखाथा सब कह सुनाया। कुमारी नन्दश्री निपुणमती से कुमार के चातुर्य की प्रशंसा सुनकर शीघ्र ही अपने पिता के पास गई और जो कुमार श्रेणिक का चातुर्य उसके पिता का आश्चर्य का करनेवाला था उसे सेठी इन्द्रदत्त को जा सुनाया। और यह कहा कि हे तात! कुमार श्रेणिक अत्यंत गुणी हैं, ज्ञानवान हैं, समस्त जगत के चातुर्यों में प्रवीण हैं, कोकशास्त्र के भी ज्ञाता हैं, और अनेक प्रकार की कलाओं को भी जाननेवाले हैं इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं। इसलिए आप कुमार के पास जायें और शीघ्र ही यहाँ पर उनको लेकर आवें। आप उन्हें पागल न समझें क्योंकि जिस समय आप कुमार के साथ-साथ आये थे उस समय जिह्वारथ आदि वाक्यों से कुमार कोड़ा करते हुए आपके साथ में आये थे। और उन वाक्यों से कुमार ने अपना चातुर्य आपको बतलाया था। उनमें स्वाभाविक, मनोहर एवं अनेक प्रकार के कल्याणों को करनेवाले अनेक गुण विद्यमान हैं ॥६६-७०॥ कचानजनतामस्यषट्पदाभांश्च सज्जलान् । चकार विधिवत्पूर्णस्नानो निर्जितमन्मथः ।। ७१ ॥ निर्जगाम ततः स्वरं पुरं नाकपुरप्रभम् । क्वास्ते तन्मंदिरं रम्यं न बेमीति व्यतर्कयत् ।। ७२ ॥ इतस्ततो गृहान् सर्वान्प्रेक्ष्यमाणश्चवीथिकाम् ।। अटन् स स्मारसंकेतं निपुणादिमतीकृतम् ।। ७३ ।। तया मे दर्शिकर्णश्व तालद्रुमदलान्वितः । मेने तालद्रुमाकीर्णं गृहं तस्य न संशयः ॥ ७४ ॥ इति चिंतयता तेनादशि तालद्रुमांकितं । वेश्माऽबोधिततस्तस्येदं च सप्तसुभूमकं ॥ ७५ ।। तावन्नदश्रिया तस्य परीक्षाकृत एव च । जंबालो वि च कल्ये वै जानुदघ्नोऽतिदूरतः ॥ ७६ ॥ इधर कुमार के विषय में नन्दश्री तो यह कह रही थी उधर कुमार ने निपुणमती के चले जाने पर पहले तो उस तेल से अपने शरीर का अच्छी तरह मर्दन किया। अंजन के समान काले Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् बालों में उसे अच्छी तरह लगाया। और इच्छापूर्वक उस तालाब में स्नान किया पीछे वहाँ से नगर की ओर चल दिये । स्वर्गपुर के समान उत्तम शोभा धारण करनेवाले उस पुर में घुसकर वे यह विचारने लगे कि सेठी इन्द्रदत्त का घर कहाँ ? और किस ओर है ? मुझे किस मार्ग से सेठी इन्द्रदत्त के घर जाना चाहिए। इसी विचार में वे इधर-उधर बहुत घूमे। अनेक घर देखे। बहुतसी गलियों में भ्रमण किया। किन्तु इन्द्रदत्त के घर का उन्हें पता न लगा अंत में घूमते-घूमते जब वे श्रांत हो गये और ज्योंही उन्होंने श्रम दूर करने के लिए किसी स्थान पर बैठना चाहा त्योंही उन्हें निपूणमती के इशारे का स्मरण आया। वे अपने मन में विचार करने लगे कि जिस समय निपुणमती तालाब से गई थी उस समय मैंने उसे पूछा था कि सेठी इन्द्रदत्त का घर कहाँ है ? उस समय उसने कुछ भी जवाब नहीं दिया था। किंतु ताल-वृक्ष के पत्ते से बने हुए भूषण से मंडित वह अपना कान दिखाकर ही चली गई थी। इसलिए जान पड़ता है कि जिस घर में ताल का वृक्ष हो निःसंशय वही सेठी इन्द्रदत्त का घर है। अब कुमार ताल-वृक्ष सहित घर का पता लगाने लगे। लगाते-लगाते उन्हें एक ताल-वृक्ष से मंडित सतरखना महल नजर पड़ा। तथा लालसापूर्वक वे उसी की ओर झुक पड़े॥७१-७६॥ पंकस्योपरि पाषाणाः क्षुद्राः अंह्रिस्थितिकृते । मोचयांचक्रिरे सिद्ध कौतुकाच्च तया स्थिराः ।। ७७ ॥ ग्रावोपरि निजौ पादौ धरिष्यति यदा तदा । भविष्यति वयस्येवै पतनं तस्य धीमतः ॥ ७८ ॥ पश्यामि तस्य कौशल्यं निजनेत्रेण भो सखि । हसिष्यामि सुपातेन कुमारं तं शुभावहम् ॥ ७९ ॥ कुतूहलमयांतस्थायावदास्तेति सुंदरी। वावबुद्धया च गंभीर आजगाम कुतूहली ॥२०॥ द्वारे विलोकयामास जंबालं जानुमात्रकम् । ' अस्थिरक्षुद्रपाषाणस्थगितं बहुलं परम् ॥ ८१॥ अहो न दश्यते क्वापि जंबालः पत्तनेऽखिले।। अत्र कस्मात्समायातस्तत्कालादिविना पुनः ।। ८२॥ कौशल्येन कृतं वेद्भि पंकनंदिश्रिया तया । पाषाणमोचनं चापि मम पाताय केवलम् ।। ८३ ।। यदि गच्छामि पाषाणमार्गे स्यात्पतनं मम । हसिष्यंति तथा लोका अहो ! दुःखंहि हास्यजम् ।। ८४ ।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अत एमि सुजं वालेवां ह्रः पंकावलेपने । को दोषो मम जायेत वितर्येति चिरं हृदि ।। ८५ ।। पंकेऽगमत्तदा धीमान् बुद्धिभारसमर्थितः । तादृशंतं पुनर्वीक्ष्य विस्मिताभूत्सुकामिनी ॥ ८६ ॥ प्रागमत्प्रांगणेततः । पंकावलिप्तपादोऽसौ जलमंजलिदध्नं सा प्रेषयामास तं प्रति ।। ८७ ।। 1 इधर कुमार के आने का समय जानकर कुमार की और भी बुद्धि की परीक्षा के लिए कुमारी नन्दश्री ने द्वार के सामने घोंटूपर्यंत कीचड़ डलवा रखी थी । और उसमें एक-एक पैर के फासले से एक-एक ईंट भी रखवा दी थी तथा अपनी प्रिय सखी से वह यों अपना विचार प्रकट कर रही थी कि हे आलि ! अब मैं कुमार की बुद्धि की परीक्षा जब स्वयं अपने नेत्रों से कर लूंगी तब मैं उस कुमार के साथ अपने विवाह की प्रतिज्ञा करूँगी । नन्दश्री की यह बात सुनकर कुमार के बुद्धि-चातुर्य को देखने के लिए वह निपुणमती सुन्दरी भी उसके पास बैठ गई । इस प्रकार अनेक कथा - कौतूहलों को करती हुईं वे दोनों कुमार के आगमन का इंतजार कर रही थीं कि इतने में कुमार श्रेणिक भी दरवाजे के पास आ पहुँचे । आते ही जब उन्होंने द्वार पर घोंटूपर्यंत भरी हुई कीचड़ देखी और उस कीचड़ के ऊपर एक-एक पैर के फासले से रखी हुई ईंटें भी जब उनकी नजर पड़ीं तो यह विचित्र दृश्य देखकर वे एकदम दंग रह गये । और अपने मन में विचार करने लगे कि बड़े आश्चर्य की बात है कि नगर-भर में और कहीं पर भी कीचड़ देखने में नहीं आई । कीचड़ वर्षाकाल में होती है। वर्षा का मौसम भी इस समय नहीं । फिर इस द्वार के सामने कीचड़ कहाँ से आई ? मालूम होता है कि नन्दश्री ने मेरी बुद्धि की परीक्षा के लिए यह द्वार पर कीचड़ भरवाई है | और कीचड़ के मध्य में ईंट रखवाई हैं । दूसरा कोई भी प्रयोजन नजर नहीं आता । मुझे अब इस घर के भीतर जाना आवश्यकोय है यदि मैं इन ईंटों पर पाँव रखकर भीतर जाता हूँ तो अवश्य गिरता हूँ। और कीचड़ में गिरने पर मेरी हँसी होती है । हँसी संसार में अत्यंत दुःख की देनेवाली है । इसलिए मुझे कीचड़ में होकर ही जाना चाहिए यदि मेरे पाँव कीचड़ में जाने से लिथड़ भी जायें तो भी मेरा कोई नुकसान नहीं। ऐसा क्षणेक अपने मन में पक्का निश्चय कर अतिशय बुद्धिमान, भली प्रकार लोक- चातुर्य में पंडित, कुमार श्रेणिक ने, उस कीचड़ में होकर ही महल में प्रवेश किया ।।७७- ८७।। पादप्रक्षालनायैव दृष्ट्वा नीरं सविस्मितः । क्वेदं नीरं क्व पादस्य कर्दमः क्व विनाशनं ॥ ८८ ॥ वेणुवीरणमादाय न्यवारयत्स करस्पर्शनयोगतः । जंबालं समस्तं बुद्धितोनृपः ॥ ८६ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ७१ कुमार के इस उत्तम चातुर्य को देख कर कुमारी नन्दश्री दंग रह गई। किन्तु कुमार की बुद्धि की परीक्षा का कौतूहल अभी तक उसका समाप्त नहीं हुआ। इसलिए जिस समय कुमार उस कीचड़ को लाँघकर महल में घुसे। और जिस समय नन्दश्री ने उनके पाँव कीचड़ से भरे हुए देखे। तो फिर भी उसने किसी सखी द्वारा कीचड़ धोने के लिए एक चुल्ल पानी कुमार के पास भेजा।।८८-८६॥ निवार्येति स जंबालं साद्रौं कृत्वा निजी क्रमौ । प्रक्षाल्य स्तोकनीरेण शुद्धौ चक्रे शुभौ क्रमौ ।। ६०॥ प्रेषितार्द्ध जलं तेन पुनरावर्त्य सद्धिया। तस्य दत्तं महाचित्र करं प्रणयकारणम् ।। ६१ ॥ अहो चित्रमहो चित्रमहो कौशल्यमुत्तमं । अहो दाक्षिण्यमत्रास्ते यत्तन्न भुवनत्रये ॥ १२ ॥ कुमार ने जिस समय कुमारी नन्दश्री द्वारा भेजा हुआ थोड़ा-सा पानी देखा तो देखकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे अपने मन में पुनः विचारने लगे कि कहाँ तो इतना अधिक कीचड? और यह न कुछ जल ? इससे कैसे कीचड़ धुल सकती है ? तथा क्षणेक ऐसा विचार कर । और एक बांस की फच्चट लेकर पहले तो उससे उन्होंने पैर में लगे हुए कीचड़ को खुरचकर दूर किया बाद में उस नन्दश्री द्वारा भेजे हुए पानी के कुछ हिस्से में एक कपड़ा भिगोकर उस थोड़े से जल से ही उन्होंने अपने पाँव धो लिये और अपने महनीय बुद्धिबल से अनेक आश्चर्य करानेवाले कुमारने उसमें से भी कुछ जल बचाकर कुमारी के पास भेज दिया ॥६०-६२।। अत्यासक्ततया रूपं हृतमानसपद्मया। निवेशितोऽतर्भवनं तया सोऽनंगसत्प्रभः ।। ६३ ।। तयाऽभाणि शुभाधीश भोक्तव्यं मम मंदिरे । प्राधूर्णो भव सत्कांत प्रसीदैतत्कृते प्रभो ॥ १४ ॥ अस्मद्देवप्रसादाद्यै प्रेषितोऽसित्वं महामनाः । प्राधूर्णीभव सत्कुत्य कृपां मे वांछितार्थदः ।। ६५ ।। दिष्टया स्वजनसंयोगो जायते भुवनत्रये । प्राधूर्णयति तं प्राप्य यो न देवेन वंचितः ।। ६६ ।। अतः प्रसीद भोज्याय करोमीत्याग्रहं शुभ । इत्यादर सुवाक्यानि श्रुत्वाऽवोचन्नृपात्मजः ।। १७॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कोविदे चारुलक्षणे । निपुणाश्रूयसे लोके बाले व्रतं मया च द्येत्थं शृणु शुभांगिके ॥ ६८ ॥ कुमार के इस चातुर्य को अपनी आँखों से देख कुमारी नन्दश्री से चुप न रहा गया वह एकदम कहने लगी- अहा जैसाकि कौशल एवं उच्च दर्जे का पांडित्य कुमार श्रेणिक में है वैसाकि कौशल पांडित्य अन्यत्र नहीं । तथा ऐसा कहती - कहती अपने रूप से लक्ष्मी को भी नीचे करनेवाली, कुमार के गुणों पर अतिशय मुग्ध, कुमारी नन्दश्री ने कामदेव से भी अति मनोहर, कुमार श्रेणिक को भीतर घर में जाकर ठहरा दिया और विनयपूर्वक यह निवेदन भी किया कि हे महाभाग ! कृपाकर आज आप मेरे मंदिर में ही भोजन करें । हे उत्तम कांति को धारण करनेवाले प्रभो ! आज आप मेरे ही अतिथि बनें। मुझ पर प्रसन्न होइये । आर्यं प्राज्ञवर हमारे अत्यंत शुभ भाग्य के उदय से आपका यहाँ पधारना हुआ है । हे मेरी समस्त अभिलाषाओं के कल्पद्रुम ! आप मेरे अतिथि बनकर मुझ पर शीघ्र कृपा करें। संसार में बड़े भाग्य के उदय से इष्टजनों का संयोग होता है । जो मनुष्य अत्यंत दुर्लभ इष्टजन को पाकर भी उनकी भली प्रकार सेवा सत्कार नहीं करते उन्हें भाग्यहीन समझना चाहिए इसलिए हे पुण्यात्मन् ! भोजन के लिए मेरे ऊपर आप प्रसन्न होवें मैं आपसे भोजन के लिए आदरपूर्वक आग्रह कर रही हूँ ।। ६३-६८ ।। मद्धस्ते तंडुला रम्या वर्त्तते तैः कृत्वा भोजनं रम्यं दधिदुग्ध हविः पूर्ण सरसं स्वादु संपूर्ण यो मे दत्ते मया बाले भुज्यते नान्यथा पुनः । ततः सा विस्मिता प्राह देहि मे तंडुलान्वरान् ॥१०१॥ द्विकषोडश । नानापक्वान्नसंयुतं ॥ ६६ ॥ नानाव्यंजनमुत्कटं । पूपादिपरिमंडितम् ॥ १०० ॥ ततश्चूर्णं विधायोच्चैश्चक्र साऽदायपूपकान् । निपुणादिमती हस्ते ददौ विक्रयहेतवे ।।१०२।। कुमारी के ऐसे अतिशय आदरपूर्ण वचन सुन कुमार श्रेणिक ने अपनी मधुर वाणी से कहा, सुभगे ! संसार में तू अति चतुर सुनी जाती है। हे उत्तम लक्षणों को धारण करनेवाली पंडिते ! हेब ! तथा हे मनोहारांगी ! मैं भोजन जब करूँगा जब मेरी प्रतिज्ञानुसार भोजन बनेगा । वह मेरी प्रतिज्ञा यही है मेरे हाथ में ये बत्तीस चावल हैं इन बत्तीस चावलों से भाँति-भाँति के पके हुए अन्न से मनोहर भोजन बनाकर, दूध, दही, हवि आदि से परिपूर्ण, और भी अनेक प्रकार के व्यंजनोंकरयुक्त, सरस, स्वादिष्ट, पूआ आदि पदार्थ सहित, उत्तम भोजन जो मुझे खिलावेगा उसी के यहाँ मैं भोजन करूंगा दूसरी जगह नहीं ॥६९ - १०२ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ७३ गहीत्वा सा सखी पानगमद्विटसन्निधि । द्यूतक्रीड़ा प्रदेशे च श्वेतवस्त्राभिमंडिता ॥१०३।। तदग्रे सा बभाणवं यूपवृन्दं परोन्नतम् । देवताधिष्ठितं यस्तु गृह्राति वरभावतः ॥१०४॥ तस्य लाभादिसिद्धिः स्याद्विजयश्च विशेषतः । देवताधिष्ठितं मत्वा श्रुत्वा सर्वे समुद्यताः ॥१०॥ आदातुं च तदैकस्तु कैतवी बहुवित्ततः ।। आददे विजयायेदं सापि द्रव्यं समाददे ॥१०६॥ कुमार के ऐसे प्रतिज्ञा परिपूर्ण एवं अपनी परीक्षा करनेवाले वचन सुनकर कुमारी प्रथम तो एकदम विस्मित हो गई। बाद में उसने बड़े विनय से कहा कि लाइये, अपने चावलों को कृपा कर मुझे दीजिये । कुमारी के आग्रह से कुमार को चावल देने पड़े। तथा कुमार से बत्तीस चावल लेकर उनको कूट-पीसकर कुमारी ने उनके पूए बनाये। उन पूओं को बेचने के लिए अपनी प्रिय सखी निपुणमती को देकर बाजार भेज दिया। कुमारी की आज्ञानुसार सखी उन पूओं को लेकर सफेद वस्त्र पहनकर बाजार की ओर गई। और जहाँ पर जुआ खेला जाता था वहाँ पहुँचकर और किसी जुआरी के पास जाकर उन पूओं की उसने इस प्रकार तारीफ करना प्रारम्भ किया कि ये पूए अति पवित्र देवमयी हैं जो भाग्यवान मनुष्य इनको खरीदेगा उसे अवश्य अनेक लाभ होंगे। सर्व खिलाड़ियों में ये पूए खानेवाला ही विशेष रीति से जीतेगा इसमें संदेह नहीं॥१०३१०६॥ प्रचुरं रित्थमादा य सादान्नंदश्रिय पुनः । सापि नानाविधं चक्र तेन द्रव्येण वल्लनं ॥१०७॥ ततः स वल्लयांचक्रे ज्ञात्वा वल्लनवृत्तक । विकचन्दक्षतां स्वस्य पश्यंस्तद्रूपसंपदं ॥१०८॥ निपूणमती के इस प्रकार आश्चर्य-भरे वचनों पर विश्वास कर एवं उन पूओं को सब ही देवमयी जानकर जुआरियों के मन में उनके खरीदने की इच्छा हुई और खेल में विजय एवं अधिक धन की आशा से उनमें से एक जुआरी ने मुंहमांगी कीमत देकर पूओं को तत्काल खरीद लिया। और कीमत अदा कर दी, कीमत का रुपया लेकर, और कुमार की प्रतिज्ञानुसार भोजन के लिए उसे पर्याप्त जानकर निपुणमती ने उसी समय नन्दश्री को जाकर चुपचाप दे दिया ॥१०७-१०८॥ नागपत्राणि सा तस्मै खदिरादिसुसारकैः । प्रचुरेण च चूर्णेन ददौ युक्तानि संमुदा ॥१०॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् घोंटाफल सुखंडानि प्रचुराणि दग्धचूर्णकः । अंगुल्या चित्रयन्भूमि वाचयन्कृतकौतुकं ॥११०॥ चर्बयन् संत्यजन् धीमान् कषायं दग्धचूर्णकैः । अंगुल्या चित्रयन्भूमि वाचयन्कृतकौतुकम् ॥११॥ सर्वं योग्यं यदाजातं नागवल्लीदलानि सः। तदा चखाद प्रागल्भाद्दर्शयन् वक्त्ररागतां ॥११२॥ ततोऽतिहृष्टा संसक्ता पश्यंती कृतकौतुकं । तस्मिन् बभूव नंदश्री राजहंसीव हंसके ।।११३।। अथो तदनु सा बाला प्रवालं वक्रछिद्रितं । तस्मै ददौ गुणं चैकं प्रवेशाय विनिश्चितं ॥११४॥ जिस समय नन्दश्री ने पूओं की कीमत को देखा तो उसको बड़ी प्रसन्नता हुई। और उसने भांति-भांति के मधुर भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया। जिस समय वह भोजन बना चुकी उसने भोजन के लिए कुमार को वुला भी लिया। भोजन का बुलावा सुन नन्दश्री का रूप देखने के अति लोलुपी, अपने मन में अति प्रसन्न, कुमार पाकशाला में चट जा धमके। कुमारी ने कुमार को देखते ही आदरपूर्वक आसन दिया। और प्रेमपूर्वक भोजन कराना आरम्भ कर दिया। कभी तो वह कुमारी भोजन में मग्न कुमार को खैरि आदि पदार्थों के उत्तम रसों से परिपूर्ण, अनेक मसालों से युक्त, अति मधुर बेरों के टुकड़ों को खिलाती हुई। और कभी अपनी चतुरता से भाँति-भांति के फलों का उसने भोजन कराया। तथा कभी-कभी उसने दूध, दही मिश्रित नाना प्रकार के व्यंजन बनाकर कुमार को खिलाये। एवं कुमार भी उसके चातुर्य पर विचार करते-करते भोजन करते रहे। तथा जिस समय कुमार भोजन कर चुके उस समय कुमार ने पान खाया। इस प्रकार कुमार के चातुर्य से अति प्रसन्न, उनके गुणों में अतिशय आसक्त, कुमारी नन्दश्री जिस प्रकार राजकुमार के पास बैठी हुई राजहंसी शोभित होती है कुमार के समीप में बैठी हुई अत्यंत शोभित होने लगी॥१०६-११४।। विलोक्य दुर्घटं कार्य वितर्य हृदि तत्क्षणम् । चकार तत्प्रवेशायोद्यमं संसक्त मानसः ॥११५॥ गुडं डवरकाग्रे स विलिप्य तत्र छिद्रके । यावद्याति स्वशक्त्या च प्रविविश्य च सद्गुणं ॥११॥ मुक्तं प्रवालमापूर्ण रम्यं पिपीलिकागृहे । सगुणं स तदा ताभिराकृष्टो गुडबुद्धितः ॥११७॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ततस्तस्या अदाद्धीमान् प्रवालं च गुणान्वितं । विलोक्य हृष्टचेतस्काऽभून्नदश्री परोन्नता ॥११८॥ शरेण कामजेनैव विद्धाऽभून्मदनाकुला। तद्गुणेन च तद्बुध्या तद्रूपाखिलसंपदा ॥११६॥ तदंगजं तदाज्ञाय जनको भूतसंपदः । विवाहार्यं कृतोद्योगो बभूव वणिजां पतिः ॥१२०॥ इन समस्त बातों के बाद कुमारी के मन में फिर कुमार की बुद्धि की परीक्षा का कौतूहल उठा उसने शीघ्र एक अति टेढ़े छेद का मूंगा कुमार को दिया और उसमें डोरा पोने के लिए निवेदन किया, कुमारी द्वारा दिये हुए इस कार्य को कठिन कार्य जान क्षण-भर तो कुमार उसके पोने के लिए विचार करते रहे पीछे भली प्रकार सोच-विचारकर उस डोरे के मुख पर थोडा गुड लपेट दिया और अपनी शक्ति के अनुसार मंगा के छेद में उसको प्रविष्ट कर चींटियों के बिल पर उसे जाकर रख दिया। गुड़ की आशा से जब चींटियों ने डोरे को खींचकर पार कर दिया तब डोरा पार हुआ जानकर कुमार श्रेणिक ने मूंगे को लाकर नन्दश्री को दे दिया। कुमारी नन्दश्री कुमार श्रेणिक का यह अपूर्व चातुर्य देख अति प्रसन्न हुई उसका मन कुमार में आसक्त हो गया। यहाँ तक कि कुमार के श्रेष्ठ गुणों से, उनकी रूप-सम्पदा से कामदेव भी बुरी रोति से उसे सताने लग गया॥११५-१२०॥ विवाहाय महान्यासो मंडपस्य महोन्नतेः । बभूव घटिकाध्वान बधिरीकृत दिक्चयः ॥१२१॥ सेठी इन्द्रदत्त को यह पता लगा कि कुमारी नन्दश्री कुमार श्रेणिक पर आसक्त है। कुमार श्रेणिक को वह अपना वल्लभ बना चुकी। शीघ्र ही राजा के समान सम्पत्ति के धारक इन्द्रदत्त ने कुमारी के विवाहार्थ बड़े आनंद से उद्योग किया ॥१२१॥ केतुमाला समाकीर्णः शुभतोरणराजितः । चंद्रोपककलाकीर्णः शुभंयुः शुभनिस्वनः ॥१२२॥ भेरीणां च महानादाः शंखकाहल निस्वनाः । आनकानां शुभानादा बभूवुदुंदुभिस्वनाः ।।१२३॥ नानाजनसमक्षं वै विवाहवरमंगलम् । तयोरजनि संप्रीत्या परया संपदा सह ॥१२४॥ मांगल्यसंशिनः सर्वे मागधा मगधेशिनः । ऐश्वर्यशांसि संप्राप्त भूमंडलानि सत्वरं ॥१२५॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ इति विवाह विशेष विमोहितो ऽजनि जनोवररूपज संपदा | गुणगणाऽहतमानस कस्तयोः प्रकटिताखिल तद्गुणमंडनः ।। १२६॥ निरूप्य रूपं वरजं विशालकं वदंति लोका इति पुण्यसत्फलं । अहोगतिः सुंदर रूप संगति श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् रहो ध्वनिः पुण्यनृणां च शासनः ॥ १२७ ॥ अहो मुखं चंद्र समानदीधिति तन्नेत्रयुग्मं नलिनायतं परम् । ललाटपट्टं क्व च दीर्घतां गतम् वरस्य पुण्यं प्रबलं भुवि स्मृतम् ।। १२८ ।। नंदश्रिया किं कृतमद्यजन्मनि तपोव्रतं शीलभरः शुभावहः । परेऽथवा दानसमूहकः कृतो, यतोऽनया वीरवरोऽवलंभितः ।। १२ । इति कृतवृषपाकाल्लोकशंसां समाप्तौ जनयत इति मोदं दंपती प्रौढरंगौ । उरूजयुगलकस्याऽनंदभारांगपूर्ते र्जननसुखसमुद्रे मग्नदेही सुरगहौ ॥ १३०॥ कुमार कुमारी के विवाह का उत्सव नगर में बड़े जोर-शोर से प्रारम्भ हुआ समस्त दिशाओं को सबधिर करनेवाले घंटे बजने लगे। नगर अनेक प्रकार की ध्वजाओं से व्याप्त, मनोहर तोरणों से शोभित, कल्याण को सूचन करनेवाले शुभ शब्दों से युक्त काहल आदि बाजे बजने लगे । नगाड़ों के शब्द भी उस समय खूब जोर-शोर से होने लगे । समस्त जनों के सामने भाँति-भाँति की शोभाओं से मंडित कुमार-कुमारी का विवाह मंडप प्रीतिपूर्वक बनाया गया । बंदीगण कुमार श्रेणिक के यश को मनोहर पद्यों से रचना कर गान करने लगे । कुमार श्रेणिक और कुमारी नन्दश्री के विवाह के देखने से दर्शकजनों को वचनागोचर आनंद हुआ। उन दोनों के रूप देखने से दोनों के गुणों पर मुग्ध दोनों की सब लोग मुक्त कण्ठ से Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ७७ तारीफ करने लगे। दंपती का रूप देख समस्त लोग इस भाँति कहने लगे कि आश्चर्यकारी इनकी गति है तथा आश्चर्यकारी इनका रूप और मधुर वचन हैं ये सब बात पूर्व पुण्य से प्राप्त हुई हैं। नन्दश्री को देखकर अनेक मनुष्य यह कहने लगे कि चन्द्र के समान कांति को धारण करनेवाला तो यह नन्दश्री का मुख है। फूले कमल के समान इसके दोनों नेत्र हैं। और अत्यंत विस्तीर्ण इसका ललाट है। कुमार श्रेणिक का संसार में अद्भुत पुण्य मालूम पड़ता है जिससे कि इस कुमार को ऐसे स्त्री-रत्न की प्राप्ति हुई है। तथा कुमार को देखकर लोग यह कहने लगे कि इस नन्दश्री ने पूर्वजन्म में क्या कोई उत्तम तप किया था ? अथवा किसी उत्तम व्रत को धारण किया था ? वा इष्ट पदार्थों के देनेवाले पात्रों में पवित्र दान किया था? जिससे इसको ऐसे उत्तम रूपवान, गुणवान पति की प्राप्ति हुई। इस प्रकार धर्म के प्रभाव से समस्त लोक द्वारा प्रशंसित, अतिशय हर्षित चित्त अत्यंत दीप्तियुक्त देह के धारक, वे दोनों स्त्री-पुरुष भली-भांति सुख का अनुभव करने लगे।।१२२-१३०॥ इति भेगिकभवानुबड भविष्यत् पद्मनाभ पुराणे भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचिते श्रेणिक नन्दश्री विवाहवर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः ॥ इस प्रकार होनेवाले श्री पदमनाभ भगवान के जीव महाराज श्रेणिक का भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित कुमारी नन्दश्री के साथ विवाह-वर्णन करनेवाला चौथा सर्ग समाप्त हुआ। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमः सर्गः सुधर्मात्सुखमापन्नौ तौ यस्माद्धर्ममुत्तमं । तं स्तुवे भूतिसंसिद्धयै शुभपाकविधायिनं ॥ १ ॥ अथ स श्रेणिको धीमान् कांतया रमते सुखं । पक्व मालूर संपीन पयोधर शुभश्रिया ॥ २ ॥ कदाचिन्निम्नगातटे । कदाचिद्वन देशेषु सौधोत्संगे कदाचिच्च ह्यनया रेमे स पुण्यतः ॥ ३ ॥ तद्रम्यदेहसंस्पर्शादवाप स रसमुल्वणम् । यथानिधिसंसर्गात्कदर्यो विकचेक्षणः ॥ ४ ॥ तत्करसंस्पर्शादाजन्माप्राप्तमुल्वणं । साऽपि लेभे शर्मा तनुप्रौढं पद्मिनीवार्कसंकरात् ॥ ५ ॥ रूपवीक्षणजं कदा । शर्मस्तनस्पर्शन संभवं ॥ ६ ॥ चुंबनोत्थं सुभावोत्थं रतिजं हास्यजं क्रीडोद्भवं कदाचित्स कथाकौतुक संभवं । तस्याः प्रापन्मनोऽभीष्टं करणोत्थं च मानसं ॥ ७ ॥ इति शर्माब्धिमध्यस्थौ वित्तः कालं गतं न हि । दंपती रूढ संक्रीडौ व्रीडाभूषौ प्रियस्मरौ ॥ ८ ॥ जिस उत्तम धर्म की कृपा से संसार में उन दोनों दंपती को अतिशय सुख मिला। धर्मात्मा पुरुषों को अनेक विभूति देनेवाले उस परम पवित्र धर्म को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता इस प्रकार विवाह के अनन्तर कुमार श्रेणिक ने पके हुए ताल फल के समान उत्तम स्तनों से मण्डित, मन को भली प्रकार सन्तुष्ट करनेवाली, कान्ता नन्दश्री के साथ क्रीड़ा करना प्रारम्भ कर दी। कभी तो कुमार उसके साथ मनोहर उद्यानों के लता-मण्डपों में रमने लगे। कभी उन्होंने नदियों के तट अपने क्रीड़ा स्थल बनाये । तथा कभी-कभी वे उत्तम स्तनों से विभूषित नन्दश्री के साथ महल की अटारियों में कोड़ा करने लगे । जिस प्रकार दरिद्री पुरुष खजाना पाकर अति मुदित हो जाता है और उसे अपने तन-बदन का भी होशोहवास नहीं रहता। उसी प्रकार कुमार उस नन्दश्री के देह-स्पर्श से अतिशय आनन्द-रस का अनुभव करने लगे । मनोहारांगी नन्दश्री भी सूर्य की किरण-स्पर्श से जैसे कमलिनी आनन्दित होती है उसी प्रकार कुमार के हाथ के कोमल Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ७६ स्पर्श से अनन्य प्राप्त सुख का आस्वादन करने लगी। कभी तो वे दोनों दंपती चुम्बनजन्य सुख का अनुभव करने लगे। और कभी स्वाभाविक रस का आस्वादन करने लगे। तथा कभी-कभी दोनों ने परस्पर रूप-दर्शन एवं रति से उत्पन्न आनन्द का अनुभव किया। और कभी हास्योत्पन्न रस पिया। कभी-कभी स्तन-स्पर्श से उत्पन्न एवं कथा-कौतूहल से जनित सुख का भी उन्होंने भोग किया। इस प्रकार मानसिक, कायिक, वाचनिक अभीष्ट सुखको अनुभव करनेवाले, भांतिभांति की क्रीड़ाओं में मग्न, सुख-सागर में गोते मारनेवाले, कुमार श्रेणिक और नन्दश्री को जाते हुए काल का पता भी न लगा ॥१-८॥ तस्या वृषविपाकेन भ्र णोऽभूत्सुंदराकृतेः । ततो वृद्धि समापन्न उदरस्थः शुभान्वितः ॥ ६ ॥ तत्प्रभावात्तदंगेऽभूत्पांडुत्वं सर्गसुंदरे । चूचकाग्रे च कृष्णत्वं पयोधरमुखस्थिते ॥ १०॥ भूषणानि न रोचंते तस्यै गर्भप्रभावतः । विनक्षत्रा निशांते द्यौः शुशुभे च विभूषणा ॥११॥ गतेमंदत्वमुद्भूतं तुच्छान्नरुचिसंगता। निनिमित्ताज्जुगुप्सा च तस्याअंगे बभूव च ॥ १२ ॥ इत्यभूवन् सुचिह्नानि गर्भजानि तदंगके । दंतिनो गतिमापन्ने वक्त्रचंद्रविराजते ॥ १३ ॥ पुनर्दोहलको जातस्तस्याश्चेतसि सद्गतेः । सप्ताऽहो रात्रपर्यंताऽभयरूपावसूचकः ॥ १४ ॥ तमप्राप्ता स्वचित्तेऽभूद्वयाकुला क्षीणविग्रहा । विभूषा च सुवल्ली वा प्राप्तनीरा विपत्रिका ॥ १५॥ बाद कुछ दिन के उत्तम गुणयुक्त कुमार के साथ क्रीड़ा करते-करते रानी नन्दश्री के धर्म के प्रभाव से गर्भ रह गया। तथा सुन्दर आकार काधारक शुभ लक्षणोंकरयुक्त वह उदर में स्थित जीव दिनोंदिन बढ़ने लगा। गर्भ के प्रभाव से रानी नन्दश्री के अतिशय मनोहर अंग पर कुछ सफेदी छा गई। स्तनों के अग्रभाग (चूचुक) काले पड़ गये। उसे किसी प्रकार के भूषण भी नहीं रुचने लगे। तथा भूषण रहित वह ऐसी शोभित होने लगी जैसा नक्षत्रों के अस्त हो जाने पर प्रभात शोभित होता है। एवं गर्भ के भार से नन्दश्री की गति भी अधिक मंद हो गई। भोजन भी बहुत कम रुचने लगा। और उसको अपने अंग में ग्लानि भी होने लगी। एवं मतवाले हाथी के समान गमन करनेवाली, मुखरूपी चन्द्रमा से शोभित, मनोहारांगी नन्दनी के अंग में गर्भ से होने Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् वाले मनोहर चिह्न भी प्रगटित होने लगे। कदाचित् नन्दश्री को सात दिन पर्यंत अभयदान का सूचक उत्तम दोहला हुआ। अपनी घर की स्थिति देख उस दोहला की पूर्ति अति कठिन जानकर वह भारी चिंता करने लगी। और जैसे पानी के अभाव से उत्तम लता कुम्हला जाती है उसी प्रकार उसके अंग भी चिंता से सर्वथा कुम्हलाने लगे॥६-१५।। तादृशां तां विलोक्याशु श्रेणिको व्याकुलोऽभवत् । कुत: शर्मसमत्पन्नमस्या अंगेस्फुरत्प्रभे ।। १६ ।। अपृच्छत्स ततो रम्यां तां खिन्नादिसुकारणम् । कांते ! केनेदृशाजाता विच्छाया क्षीणविग्रहा ॥ १७ ॥ किसी समय कुमार श्रेणिक की दृष्टि नन्दश्री पर पड़ी, उदास एवं कान्ति रहित रानी नन्दश्री को देख उन्हें अति दुःख हुआ। वे अपने मन में विचार करने लगे अतिशय मनोहर एवं दैदीप्यमान सुन्दरी नन्दश्री के शरीर में अति वाधा देनेवाला यह दुःख कहाँ से टूट पड़ा। इसकी यह दशा क्यों और कैसे हो गई ? ऐसा विचारकर उन्होंने पास जाकर नन्दश्री से पूछा-हे प्रिये ! जिस कारण से आपका शरीर सर्वथा खिन्न, कृश और फीका पड़ गया है वह कौन-सा कारण है मुझे कहो ? ॥१६-१७॥ दुर्घटं दोहदं मत्त्वा सान वक्ति यदा तदा । वाचिता कथमप्येषःऽगदीद्वाक्यं मनोगतं ।। १८ ।। कथं करोमि भो कांत ! कृपां सप्तदिनावधिम् । दोहलकोद्भवां लज्जामंतः खिन्नास्मि भूपते ॥ १६॥ कुमार के ऐसे हितकारी एवं मधुर वचन सुनकर और दोहले की पूर्ति सर्वथा कठिन समझ कर पहले तो नन्दश्री ने कुछ भी उत्तर न दिया। किन्तु जब उसने कुमार का आग्रह विशेष देखा तो वह कहने लगी-हे कांत ! मैं क्या करूँ मुझे सात दिन पर्यंत अभय नामक दान का सूचक दोहला हुआ है। इस कार्य की पूर्ति अति कठिन जान मैं खिन्न हूँ। मेरी खिन्नता का दूसरा कोई भी कारण नहीं। प्रियतमा नन्दश्री के ऐसे वचन सुन कुमार ने गम्भीरतापूर्वक कहा ॥१८-१९॥ आकर्ण्य वचनं तस्या जगौ गंभीरवाचया । खेदं मा कुरु भोकांतेऽभव मा क्षीणविग्रहा ॥ २० ॥ पूरयिष्यामि चित्तस्थं मा कृथास्तं तवाऽधुना । दुःखं यथा कथंचिद्वै वृथा विज्ञानकोविदे ॥ २१॥ प्रिये ! इस बात के लिए तुम जरा भी खेद न करो। मत व्यर्थ खेद कर अपने शरीर को सुखाओ। सुव्रते ! मैं शीघ्र ही तुम्हारी इस अभिलाषा को पूर्ण करूँगा। चतुरे ! जो तुम इस कार्य Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् को कठिन समझ दुःखित हो रही हो। एवं अपने शरीर को बिना प्रयोजन सुखा रही हो सो सर्वथा व्यर्थ है। तथा मधुर भाषिणी एवं शुभांगी नन्दश्री को ऐसा आश्वासन देकर भली प्रकार समझाबुझाकर कुमार श्रेणिक किसी वन की ओर चल पड़े। और वहाँ पर किसी नदी के किनारे बैठी नन्दश्री की इच्छा पूर्ण करने के लिए विचार करने लगे ॥२०-२१॥ आश्वास्येति जगामैष तां शुभां कलभाषिणीं । नदीतटे स्थितो यावत्तदुपायं विचितयन् ।। २२ ॥ तावत्तन्नगरे शस्य वसुपालस्य भूपतेः । । निर्गतः स्तंभमुन्मूल्य दंतीतुंगः सुदंतुरः ॥ २३ ॥ भंजयन् गृहद्वाराणि खंडयन् स्तंभसंतति । छिदयन् जनमग्रस्थं भिंदयन्वृक्षमालिकां ।। २४ ।। उन्मीलयल्लतागेहमुत्क्षिपन् पांशुनिर्भरं । अंकुशादीन् समुल्लंघ्य वार्यमाणोऽपिसज्जनः ॥ २५ ॥ चीत्कारेणैव बधिरीकुर्वश्च सकलं जगत् । आकारयन् दिशां नाथान्करोत्क्षेपेण वो मदात् ।। २६ ॥ व्याकुलीकृत्य सर्वं च पुरं हा हारवाकुलम् । निर्जगाम पुरान्नद्यां यत्रास्ते श्रेणिको नृपः ।। ।। २७ ॥ आगच्छन्तं नृपो वीक्ष्य दंतिनं पर्वतप्रभं । महामद समालीढ मुत्तस्थे युद्धसिद्धये ॥ २८ ॥ सनह्य सन्मुखीभूत्बा कार्यवाक्यप्रबंधतः ।। युद्धं चकार भूपालस्तेनामा जनवीक्षितः ॥ २६ ॥ करमुष्टयादि घातेन संकृत्य व्याकुलात्मकं । द्विरदं विमदं राजाऽचिरेण वशमानयत् ।। ३० ।। उस समय उसी नगर के राजा वसुपाल का ऊँचे-ऊँचे दाँत को धारण करनेवाला एक मतवाला हाथी नगर से बड़े झपाटे से बाहर निकला । तथा प्रत्येक घर के द्वार को तोड़ता हुआ, बहुत से नगर के खम्भों को उखाड़ता हुआ, अनेक प्रकार के वृक्षों को नीचे गिराता हुआ, उत्तमोत्तम लता-मण्डपों को निर्मल करता हआ, अनेक सज्जन वीरों द्वारा रोकने पर भी नहीं रुकता हुआ, अनेक चीत्कार से समस्त दिशाओं को बधिर करता हुआ, एवं अपनी सूंड को ऊपर उठा दिग्गजों को भी मानो युद्ध करने के लिए ललकारता हुआ और समस्त नगर को Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् व्याकुल करता हुआ वह मत्त हाथी उसी नदी की ओर झपटा जहाँ कुमार बैठे थे। जिस समय पर्वत के समान विशाल, अति मत्त, अपनी ओर आता हुआ, वह भयंकर हाथी कुमार की नजर पड़ा तो कुमार शीघ्र ही उसके साथ युद्ध करने के लिए तैयार हो गये। तथा उस मतवाले हाथी के सम्मुख जाकर अनेक प्रकार से उसके साथ युद्ध कर, मुक्कों से मार-मारकर उसे मद रहित कर दिया। और निर्भयतापूर्वक क्रीड़ार्थ उसकी पीठ पर चट सवार हो राजद्वार की ओर चल दिये॥२२-३०॥ वशीभूतं गजं मत्वा रुरोह नृपनंदनः । जयारवस्तदा चक्रे लोक: कंपितविग्रहैः ॥ ३१॥ अहोवीर्यमहोवीर्यं रूपं च नवयौवनं । इंद्रदत्तस्य जामातुः शक्तिर्लोकोत्तरा मता ।। ३२॥ जनिर्जेतुमशक्योऽयं द्विरदो मदमेदुरः । वशीकृतो महाबुद्धयाऽनेन पुण्यप्रभावतः ।। ३३ ।। इति पुण्यजनारावैः स्तूयमानो गजोद्धृतः । संभ्रमेण नृपागारं प्राविशत्केतुराजितं ।। ३४ ।। दंत्यारूढं महाकारमसाधारणसद्गुणम् । नृपस्तं श्रेणिकं वीक्ष्य तुतोष निजमानसे ॥ ३५ ॥ मतवाले हाथी पर बैठे हुए कुमार को देखकर हाथी के कर्मों से भयभीत, कुमार का हाथी के साथ युद्ध देखनेवाले, कुमार की वीरता से चकित, अनेक मनुष्य जय-जय करने लगे। एवं परस्पर एक-दूसरे से यह भी कहने लगे सेठी इन्द्रदत्त के जमाई का पराक्रम आश्चर्यकारक है। रूप और नवयौवन भी बड़ा भारी प्रशंसनीय है। शक्ति भी लोकोत्तर मालूम पड़ती है। देखो जिस मत्त हाथी को बलवान से बलवान भी कोई मनुष्य नहीं जीत सकता था उस हाथी को इस कुमार ने अपने बुद्धि, बल और पुण्य के प्रभाव से बात-की-बात में जीत लिया। तथा इधर मनुष्य तो इस भाँति पवित्र शब्दों से कुमार की स्तुति करने लगे उधर गज से भी अतिशय पराक्रमी कुमार ने अनेक प्रकार की नीली-पीली ध्वजाओं से शोभित क्रीडापूर्वक नगर में प्रवेश किया ॥३१-३॥ अवादीन्नपतिः प्रीत्या मुदा तं नृपनंदनं । भो वीराणां महावीर नानापुण्यफलोपभुक् ।। ३६ ॥ याचय स्वमनोऽभीष्टं वरं सत्फलमंडितं ।। ददामि तेऽद्यसद्रूप गुणमालामनोहर ।। ३७ ।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अहंकारवशादेष तथापि न च याचते । किंचित्संवाह्यमानोऽपि जनविस्मितचित्तकः ।। ३८ ।। सुन्दर आकार के धारक असाधारण उत्तम गुणों से मण्डित कुमार श्रेणिक को हाथी पर चढ़े हुए देखकर महाराज वसुपाल मन में अति हर्षित हुए। और बड़ी प्रीति एवं हर्ष से उन्होंने कुमार से कहा। हे वीरों के सिरताज ! हे अनेक पुण्यफलों के भोगनेवाले ! कुमार जिस बात की तुम्हें इच्छा हो शीघ्र ही मुझे कहो। हे उत्तमोत्तम गुणों के भंडार कुमार! शक्त्यनुसार मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा। किन्तु महाराज के सन्तोषभरे वचन सुनकर अन्य मनुष्यों द्वारा कुछ मांगने के लिए प्रेरित भी कुमार ने लज्जा एवं अहंकार से कुछ भी जवाब नहीं दिया, महाराज के सामने वे चुपचाप ही खड़े रहे ॥३६-३८॥ इंद्रदत्तस्तदा ज्ञात्वा तच्चित्तस्थं पुनर्जगौ । भो भूप ! वरमस्मै त्वं यदि दित्ससि निश्चितं ।। ३६ ॥ सप्तघस्र महादानमभयाख्यं पुरे वरे । देशे सर्वत्र देहित्वं घोषणापूर्वकं वरं ॥ ४० ॥ संतुष्टमनसा तेन तत्तथा प्रतिपद्य च। चक्रे सर्वत्र तद्धोषो दान सूचक उन्नतः ।। ४१ ।। सेठी इन्द्रदत्त भी ये सब बातें देख रहे थे। उन्होंने शीघ्र ही कुमार के मन के भाव को समझ लिया और इस भाँति महाराज से निवेदन किया महाराज! यदि आप कुमार के काम को देखकर प्रसन्न हुए हैं। और उनकी अभिलाषा पूर्ण करना चाहते हैं तो एक काम करें सात दिन तक इस नगर और देश में सब जगह पर आप अभयदान की ड़योंडी पिटवा दें। सेठी इन्द्रदत्त के .ऐसे कुमार के अनुकूल वचन सुन राजा वसुपाल अति संतुष्ट हुए और उन्होंने बेधड़क कह दिया। आपने जो कुमार के अनुकूल कहा है वह मुझे मंजूर है। मैं सात दिन तक नगर एवं देश में सब जगह अभयदान के लिए तैयार हैं। तथा ऐसा कहकर उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अभयदान के लिए नगर एवं देश में सर्वत्र डंका भी पिटवा दिया ।।३६-४१॥ तदा सदोहदा राज्ञी परिपूर्णमनोरथा । रेजे नवीनसंकाया वल्लीव नवपर्णिका ॥ ४२ ॥ सानंदा सा ततो नंदा पूर्णमासा मृगेक्षणा।। शुभे लग्ने शुभे वारे सुनक्षत्रे सुवासरे ॥ ४३ ॥ शुभयोगे सुतं जज्ञे विकसत्कुमुदेक्षणं । नंदश्री नंदरोमांचा संत्रस्त सुमृगीदृशा ॥४४॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् रानी नन्दी ने यह बात सुनी कि कुमार की वीरता पर मोहित होकर महाराज वसुपाल ने सात दिन तक अभयदान देना स्वीकार किया है । सुनते ही वह अपने मनोरथ को पूर्ण हुआ समझ, बहुत प्रसन्न हुई । और जैसी नवीन लता दिनोंदिन प्रफुल्लित होती जाती है वैसी वह भी दिनोंदिन प्रफुल्लित होने लगी। शुभ लग्न, शुभ वार, शुभ नक्षत्र, शुभ दिन एवं शुभोपयोग में किसी समय रानी नन्दश्री ने अतिशय आनंदित पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुख का धारक, कमल के समान मनोहर नेत्रों से युक्त, उत्तम पुत्र को जन्म दिया । पुत्र की उत्पत्ति व आनंद के कारण रानी नन्दश्री का शरीर रोमांचित हो गया और वह सुखसागर में गोता लगाने लगी ॥ ४२-४४ ॥ ६४ कामिनी कलगीतानि वं दिवृदश्रुतिस्वनाः । पंचशब्दमहानादा बभूवुस्तद्गृहांगणे ।। ४५ ॥ दीनानाथजनेभ्यश्च ददौ दानं स्वहर्षतः । स्वजनेभ्यश्च संतोषादिद्रदत्तस्य मागधः || ४६ ॥ स्वजनैश्च ततः सर्वैस्तस्य चक्रे अभयादिकुमाराख्या महता सुदानतः । संभ्रमेण च ।। ४७ ।। पयः एधते कलया घस्र े घस्र े मंडितदीधितिः । रम्यो दोषाकरश्चंद्रो यथा कुमुदकारकः ।। ४८ ॥ पानादिभिर्बालो लाल्यमानो निजैर्जनैः । तन्वन् पित्रोर्मुदंस्फीतं ववृधे बुद्धिभूषितः ॥ ४६ ॥ कुमारत्वं समासाद्य पठत्शास्त्राण्यनेकशः । लीलया स महातेजाः स्वल्पकालेन बुद्धिमान् ॥ ५० ॥ तनुजेनेति संशर्मश्रिया नंदश्रिया समम् । बभुजेऽतनु स श्रीमान् गतं कालं न वेत्ति च ॥ ५१ ॥ सेठी इन्द्रदत्त के घर नन्दश्री से धेवता हुआ है यह समाचार सारे नगर में फैल गया । सेठी इन्द्रदत्त के घर कामिनी मनोहर गीत गाने लगी । बन्दीजन पुत्र की स्तुति करने लगे । पुत्र के आनंद में मनोहर शब्द करनेवाले अनेक बाजे भी बजने लगे । बालक के गर्भस्थ होने पर नन्दश्री को अभयदान का दोहला हुआ था । इसलिए उस दिन को लक्ष्य कर सेठी इन्द्रदत्त के कुटुम्बी मनुष्यों ने बालक का नाम अभयकुमार रख दिया। एवं जैसा रात्रि-विकासी कमलों को आनन्द देनेवाला चन्द्रमा दिनोंदिन बढ़ता चला जाता है वैसा ही अतिशय दैदीप्यमान शरीर का धारक समस्त भूमण्डल को हर्षायमान करनेवाला वह कुमार भी दिनोंदिन बढ़ने लगा। कुटुम्बीजन दूध - पान आदि से बालक की सेवा करने लगे। आनन्द से खिलाने लगे । इसलिए उस बालक से उसके Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् माता-पिता को और भी विशेष हर्ष होने लगा । कुछ दिन बाद अभयकुमार ने अपनी बालक अवस्था छोड़ कुमार अवस्था में पदार्पण किया । और उस समय तेजस्वी कुमार अभय ने थोड़े ही काल में अपने बुद्धिबल से बात- ही बात में समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। वह असाधारण विद्वान हो गया । इस प्रकार कुमार श्रेणिक के साथ रानी नन्दश्री नाना प्रकार के भोग-विलास करने लगी । एवं कुमार भी कान्ता नन्दश्री के साथ भाँति-भाँति के भोग भोगने लगे तथा भोगविलासों में मस्त, वे दोनों दंपती जाते हुए काल की भी परवा नहीं करने लगे ।।४५-५१।। राजगृहे रम्ये पत्तने उपश्रेणिकभूपालो मत्वास्यायुः चलाती सूनवे परया संपदा साकं राज्यं ददौ अथ धृतसत्तमे । क्षयं कुतः ॥ ५२ ॥ सामंतसेवितः । चक्रवत्तिसमश्रिया ॥ ५३ ॥ इधर कुमार श्रेणिक तो सेठी इन्द्रदत्त के घर नन्दश्री के साथ नाना प्रकार के भोग भोगते हुए सुखपूर्वक रहने लगे। उधर महाराज उपश्रेणिक अतिशय मनोहर, अनेक प्रकार की उत्तमोत्तम शोभा से शोभित राजगृह नगर में आनन्दपूर्वक अपना राज्य कर रहे थे। अचानक ही जब उनको यह पता लगा कि अब मेरी आयु में बहुत ही कम दिन बाकी हैं— मेरा मरण अब जल्दी होनेवाला है। शीघ्र ही उन्होंने चक्रवर्ती के समान उत्कृष्ट, बड़े-बड़े सामंतों से सेवित, विशाल राज्य को चलाती पुत्र को दे दिया । तथा राज्य कार्य से सर्वथा ममता रहित होकर पारमार्थिक कर्मों में वे चित्त लगाने लगे ।। ५२-५३ ।। ततः कतिपयैर्घत्र : तदा लोकाः शुचं तीव्रं इंद्राणी प्रमुखा राज्ञ्यो अकुर्वन् विविलापं च पंचत्वमगमन्नृपः । चक्रिरे रावपूरिताः ॥ ५४ ॥ वक्त्रफूत्कारपूरिताः । दीर्घकंठोत्थरोदनाः ।। ५५ ।। कुछ दिनों के बाद आयु-कर्म के समाप्त होने पर महाराज उपश्रेणिक का शरीरांत हो गया। उनके मर जाने से सारे नगर में हा-हाकार मच गया। पुरवासी लोग शोक-सागर में गोता लगाने लगे । रनिवास की रानियाँ भी महाराज का मरण- समाचार सुन करुणाजनक रुदन करने लगीं। जितने भी सौभाग्य चिह्न हार आदिक थे सब उन्होंने तोड़कर फेंक दिये। और महाराज के मरण से सारा जगत उन्हें अन्धकारमय सूझने लगा ।। ५४-५५।। ८५ अथ राज्यं शुभप्राज्यं पालयामास तत्सुतः । सामंतामात्य पौरैश्च सेव्यमानोऽति दुष्टधीः ॥ ५६ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अन्यायेन विना वित्तं परकीयं समाहरत् । सेवकानां नृपो वृत्ती विलुलोप स लोभयुक् ॥ ५७ ॥ नरं यथाकथंचिच्च दृष्ट्वा हंति च पापधीः । आचारानैक्यसंत्यक्तोऽनभिज्ञः क्षितिपालने ॥ ५८ ।। अन्यायवर्त्मवृत्तित्वं तस्य मत्वा च मंत्रिणः । इत्यालोचं व्यधुश्चित्ते राज्यरक्षणसिद्धये ॥ ५६ ।। अहो ! न वेत्त्ययं राज्यस्थिति लोभाकुलात्मकः । प्रतापत्यक्तसद्देहो वृषांशपरिवर्जितः ।। ६० ॥ कथं रक्षति सद्राज्यं लोपयन्भटवृत्तिकं । श्रेणिकोऽतः समाकार्यों मगधस्थितिहेतवे ॥ ६१ ।। महाराज उपश्रेणिक के बाद रहा-सहा भी अधिकार राजा चलाती को मिल गया। महाराज उपश्रेणिक के समान वह भी मगध देश का महाराज कहा जाने लगा। किंतु राजनीति से सर्वथा अनभिज्ञ राजा चलाती ने सामंत मंत्री पुरवासी जनों से भली प्रकार सेवित होने पर भी राज्य में अनेक प्रकार के उपद्रव करने प्रारंभ कर दिये। कभी तो वह बिना ही अपराध के धनिकों के धन जब्त करने लगा। और कभी प्रजा को अन्य प्रकार के भयंकर कष्ट पहुँचाने लगा। जिनके आधार पर राज्य चल रहा था उन राजसेवकों की आजीविका भी उसने बंद कर दी। राज्य में इस प्रकार भयंकर अन्याय देख पुरवासी एवं देशवासी मनुष्य त्रस्त होने लगे। और खुले मैदान उनके मुख से ये ही शब्द सुनने में आने लगे-राजा चलाती बड़ा भारी पापी है। अन्यायी है, और राज्य-पालन करने में सर्वथा असमर्थ है। राजा का इस प्रकार नीच बर्ताव देख राजमंत्री भी दाँतों में उंगली दबाने लगे। राज्य को सँभालने के लिए उन्होंने अनेक उपाय सोचे कितु कोई भी उपाय कार्यकारी नजर न पड़े। अंत में विचार करते-करते उन्हें कुमार श्रेणिक की याद आई । याद आते ही चट उन्होंने सलाह की-राजा चलाती पापी, दुष्ट एवं राजनीति से सर्वथा अनभिज्ञ है। यह इतने विशाल राज्य को चला नहीं सकता। इसलिए कुमार श्रेणिक को यहाँ बुलाना चाहिए और किस रीति से उन्हें मगध देश का राजा बनाना चाहिए ।।५६-६१।। इति चित्ते विचित्याशु मंत्रिणो दूतमुत्तमं । प्रेषयामासुराकार्य पत्रं दत्वातिगूढत: ।। ६२ ।। वेणातटं स वेगेन संप्राप्य वरलेखक । तस्मै ददौ त्वया शीघ्रमेतव्यमिति सूचनं ।। ६३ ।। __ समस्त पुरवासी एवं मंत्री आदिक कुमार के गुणों से भलीभाँति परिचित थे इसलिए यह उपाय सबको उत्तम मालूम हुआ। एवं तदनुसार एक दूत जो कि राज्य-कार्य में अति चतुर था, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रणिक पुराणम् शीघ्र ही कुमार के पास भेज दिया और ब्योरेवार एक पत्र भी उसे लिखकर दे दिया। जहाँ कुमार श्रेणिक रहते थे, दूत उसी देश की ओर चल दिया। और कुछ दिनपर्यंत मंजिल-दर-मंजिल चलकर कुमार के पास जा पहुँचा। कुमार को देखकर दूत ने विनय से नमस्कार किया। और उनके हाथ में पत्र देकर जबानी भी यह कह दिया कि हे कुमार ! अब तुम्हें शीघ्र मेरे साथ राजगृह नगर चलना चाहिए ॥६२-६३॥ उदंतं दूततो मत्वा तज्जं लेखाद्विशेषतः । जहर्ष श्रेणिकश्चित्ते को न तुष्यतिलाभतः ॥ ६४ ॥ इंद्रदत्तं ततः प्राप्य स्वसुरं प्रीतिपूर्वकम् । अनमल्लब्धसंतोषः क्षणं स्थित्वा व्यजिज्ञयत् ॥ ६५ ॥ आगतं राज्यसंसिद्धय पत्रं संदर्य सगिरा। जगावटन संसिद्धया । इति स विनयान्वितः ।। ६६ ॥ दूत के मुख से ऐसे वचन सुनकर एवं पत्र पढ़कर उसके वचनों पर सर्वथा विश्वास कर, कुमार श्रेणिक अपने मन में अति प्रसन्न हुए। मारे हर्ष के उनका शरीर रोमांचित हो गया। तथा पत्र हाथ में लेकर वे सीधे सेठी इन्द्रदत्त के समीप चल दिये। वहाँ जाकर उन्होंने सेठी इन्द्रदत्त को नमस्कार किया और यह समाचार सुनाया कि हे महनीय ! राजगृहपुर से एक दूत आया है उसने यह पन मुझे दिया है इस समय वहाँ जाना अधिक आवश्यक जान पड़ता है कृपाकर आप मुझे वहाँ जाने के लिए शीघ्र आज्ञा दें। बिना आपकी आज्ञा के मैं वहाँ जाना ठीक नहीं समझता ॥६४-६६।। स्वसुराद्य मया रम्ये पुरे गम्यं तवाज्ञया । संतोष्य वाक् प्रबंधेन स्वसुरं शुद्धचेतसं ।। ६७ ॥ गत्वा ततोऽतिरम्यां तां द्वितीयप्राणसन्निभां । रम्यप्रणयसंकोपां स जगाविती पत्र ॥ ६८ ॥ भो प्रिये ! वल्लभे ! कांते ! रम्ये चंद्रानने शुभे ! गजगामिनि माराढ्ये मन्मनः पद्मवासिनि ।। ६६ ।। मद्राज्यं मत्क्रमायातं मज्जनकक्षितिहेतुतः । मद्भात्ररक्षणीयं च दुःखी भवति सत्प्रभं ।। ७० ॥ तस्य रक्षण संसिद्धया एषितव्यं मयाधुना। यावद्राज्यस्य संसिद्धिर्न भवेन्मम सुंदरि ।। ७१॥ स्थातव्यं सहपुत्रेण त्वया तावत्पितृगृहे। आकारणं करिष्यामि राज्यसिद्धौ तव स्फुटं ॥ ७२ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् एकाएक कुमार के मुख से ऐसे वचन सन सेठी इन्द्रदत्त आश्चर्य-सागर में निमग्न हो गये। अब कुमार यहाँ से चले जायेंगे, यह जान उन्हें बहुत दुःख हुआ। किंतु कुमार ने उन्हें अनेक प्रकार से आश्वासन दे दिया। इसलिए वे शांत हो गये। और उन्हें जबरन कुमार को जाने के लिए आज्ञा देनी पड़ी। सेठी इन्द्रदत्त से आज्ञा लेकर कुमार प्रियतमा नन्दश्री के पास गये। उससे भी उन्होंने इस प्रकार अपनी आत्मकहानी प्रारम्भ कर दी। हे प्रिये ! हे वल्लभे ! हे मनोहरे ! हे चन्द्रमुखी! हे गजगामिनी ! मेरे परम्परा से आया हुआ राज्य है अचानक मेरे पिता के शरीरांत हो जाने से मेरा भाई उस राज्य की रक्षा कर रहा है। किंतु प्रजा उसके शासन से संतुष्ट नहीं है। इसलिए अब मुझे राजगृह जाना जरूर है । हे सुंदरी जब तक मैं वहाँ न पहुँचूंगा, राज्य की रक्षा भली प्रकार नहीं हो सकेगी। इस समय मैं तुझसे यह कहे जाता हूँ जब तक मैं तुझे न बुलाऊँ अभयकुमार के साथ तू अपने पिता के घर ही रहना । राज्य की प्राप्ति होने पर तुझे मैं नियम से बुलाऊँगा इसमें सन्देह नहीं ॥६७-१२॥ इति कांतां सवाष्यांतां पूर्णचंद्राननां परां । आश्वास्य गमनौत्सक्यं धत्तेयावन्महामनाः ॥ ७३ ॥ पंचाशच्छतसंख्याढ्याः स्थायिनो गुप्तिरूपतः । प्रेषितास्तेन साकं च राज्ञा पूर्वं तदाखिलाः ।। ७४ ।। बभूवः सेवकाः सर्वे प्रकटाश्चापरे पुनः । अंगीकृताः प्रभुत्वेन राजांते तत्समीपगाः ॥ ७५ ।। जायां वस सुतां तत्रा स्थाप्याश्वास्य पुनः पुनः । सुभटै निर्जगामाशु स श्रेणिकमहीश्वरः ।। ७६ ॥ परया संपदा सत्रं वर्द्धमानश्च सेवकः । चचाल शकुनैः सारैः सूचित्तोदर्कसत्फलः ।। ७७ ।। मगधनीवृतं प्राप्तं घस्रः कतिपयः पुनः । राज्यद्धि समभूताढ्यः श्रेणिको धरणीधरः ॥ ७८ ।। अचानक ही कुमार के ऐसे वचन सुनकर रानी नन्दश्री की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। मारे दु:ख के, कमल के समान फूला हुआ भी उसका मुख कुम्हला गया। और कुमार को कुछ भी जवाब न देकर वह निश्चल काष्ठ की पुतली के समान खड़ी रह गई। किंतु उसकी ऐसी दशा देख कुमार ने उसको बहुत-कुछ समझा दिया। और संतोष देनेवाले प्रिय वचन कहकर शांत कर दिया। इस प्रकार प्रियतमा नन्दश्री से मिलकर कुमार वहां से चल दिये। और राजगृह जाने के लिए तैयार हो गये। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ८६ कुमार जा रहे हैं सेठी इन्द्रदत्त को यह पता लगा तो उन्होंने कुमार को न मालूम पड़े इस रोति से पाँच हजार बलवान योद्धा कुमार के साथ भेज दिये। एवं पाँच हजार सुभटों के साथ कुमार श्रेणिक ने राजगृह नगर की ओर प्रस्थान कर दिया। जिस समय वे मार्ग में जाने लगे उस समय उत्तमोत्तम फलों के सूचक उन्हें अनेक शकुन हुए। और मार्ग में अनेक वन-उपवनों को निहारते हुए कुमार श्रेणिक मगध देश के पास जा पहुँचे ।।७३-७८।। आगतं ते परिज्ञाया जग्मुः सन्मुखमुन्नताः । सर्वे सामंतमंत्राद्या मुक्त्वा तं न्यायवर्जितं ॥ ७६ ।। वीताश्च दंतिनो रम्या वीतसंख्याः स्फुरत्प्रभाः । रथाः पदातयो संख्याः परिचेलुस्तदा नृपं ॥ ८० ।। तदानकमहाध्वानः स्थाययामासुरुत्तमं । राज्ये ते श्रेणिकं धीरं नमुस्तत्पदपंकजं ॥ ८१ ॥ ततः क्रमेण संप्रापद्राजगृहसमीपतां । नृपोऽमात्य सुसामंतपरिचर्य सुशासनः ॥ ८२॥ कमार श्रेणिक मगध देश में आ गये यह समाचार सारे देश में फैल गया। समस्त सामन्त मन्त्री एवं अन्यान्य देशवासी मनुष्य बड़े विनय भाव से कुमार श्रेणिक के पास आये और भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। कुछ समय वहाँ ठहरकर प्रेमपूर्वक वार्तालाप कर कुमार फिर आगे को चल दिये। मेरु पर्वत के समान लम्बे-चौडे हाथी, अनेक बडे-बडे रथ और पयादेकमार केपीलेपीछे चलने लगे। कुमार के आगमन के उत्सव में सारा देश बाजों की आवाज से गूंज उठा, एवं कुछ दिन और चलकर कुमार राजगृह नगर के निकट पहुँच गये ॥७९-८२॥ सेनां तस्य दुरंतां च चलातीतुच्छसेनकः । अशक्यां जेतुमालोक्य विररामाजितस्तदा ।। ८३ ॥ ततः श्रेणिक वाक्येन गृहीत्वाऽखिलसंपदां । भयात्पल्लीं समासेदे दुर्गा सः पुण्यतः क्षयात् ।। ८४ ॥ शुभ्रातपत्र संछिन्न मित्र मंडल उन्नतः । ततः करि वरारूढः स चचालेद्ध पत्तनम् ॥ ८५॥ कामिनी कर संक्रांत सशब्दस्वर्णदंडकः । चलच्चामरवृदेश्च क्षीरोदधिजलप्रभैः ॥८६॥ वीज्यमानोऽतिपुण्यांक: प्रतापाहस्करः प्रभः । सामंतराजमुकुटमणिघृष्टपदाब्जक: ॥ ८७॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् वंदिवृदमुखोद्गीत यशाः स्फीत शुभायुतः । वाद्यवादकवृदेन विकासितसमागमः ॥ ८८ ॥ तदानकादि सध्वाना कारितास्तत्पुरांगनाः । चेलुर्वीच्य इवाब्धेश्च विलोकनकृतेमुदा ॥८६॥ भोजनस्थं पति मुक्त्वा काचिद्धावति वीचिवत् । मंथनोज्झित कर्मान्या तद्गुणा हतमानसा ॥६० ॥ काचिद्दधाति तिलकं भाले सज्जलकज्जलैः । तिलकद्रव्यमाशेषं नयने तूणिता सतो ॥११॥ चडामणि च कंठेऽधान्मद्धि न वेयकं तथा । काचिद्हारं कटिदेशे मेखलां कंठमंडले ॥ १२ ॥ सखीभिः प्रेरिता काचिद्विदधाति विपर्ययम् । कंचुकं कोकिलध्वाना काचित्पतति सस्पृहा ।। ६३ ॥ रुदंतं स्वसुतं हित्वा गृह्वाति परजं सुतम् । काचिच्च मुखतांबूलं निक्षिपंती हि गच्छति ॥ १४ ॥ स्तनाच्छादन वस्त्रेण जघनं संदधाति च । अवस्त्रप्रकटोद्भूत स्तनद्वंद्वा सुसुंदरी ॥६५॥ काचिद्रूपं समावीक्ष्य स्वागत्य वरमंदिरे । स्थूलत्वेन पदं गंतुमशक्ता वृद्धतो जगौ ॥ ६६ ॥ अनीदृशं महारूपं भूपतेरस्ति भो सखि । अनीदृशा विभूतिश्च वृद्धा वादीत्तदाशुभं ॥ ६७ ।। दर्शयस्व नृपं मेऽद्य गृहीत्वा याहि मां सखि । अन्यथा निष्फलं जन्म मामकीनं जगत्त्रये ।। ६८ ॥ श्रुत्वेति तां गृहीत्वा सा वृद्धा हस्ते विनिर्गता । स्थूलत्वतः पदं यातुमक्षमा पतिता भुवि । ६६ ।। सापि वृद्धां विमुच्याशु पुनरीक्षणहेतवे । निर्जगाम स्वबाहुभ्यां पातयंती पुरःस्थितां ॥१०॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् गहमागत्य काचिच्च पुनर्याति गुणाकुला। अस्थिरांह्रिः करोत्क्षेपात्काचिद्वावत्यनुप्रभुं ॥१०१॥ विलपंती विमुच्याशु स्थूलां च शकटावहाम् । तरुण्यश्चंचला यांति स्तनभारोद्धरा अपि ॥१०२॥ तद्विभूति समावीक्ष्य वदंति वरयोषितः । धन्यास्य जननी लोके ययायं जठरे धृतः ॥१०३॥ यस्याः स्तन्यं पपौ सोऽयं सा धन्या भुवने सखि । अन्यच्च श्रूयते मित्रे पुरे वेणातटे वरे ॥१०४॥ इंद्रदत्तस्य संजातां नंदश्रीं परिणीतवान् । अयं पुण्यफलालीढः सा धन्या योषितां गणे ॥१०॥ ययास्यांगेन संयोगो भोगोद्दीपनतत्परः । लेभे हस्तावलेपश्च सा योषिद्धन्यतां गता ॥१०६॥ अन्यच्च श्रूयते मित्रेऽस्ययोगाच्चतया पुनः । तनुजो जनितानंदो लब्धो रूपविशारदः ॥१०७।। इत्यादि शुभशंसां स लेभे नारीनराच्छुभात् । जयारवादिकान्नादान्नंदिताऽखिल सज्जनाः ॥१०८॥ ततः क्रमात्पुरं सर्वं केतुबद्धं सतोरणम् । समीक्ष्य प्राप्तवान् रम्यं सुंदरं राजमंदिरं ॥१०६।। इधर राजा चलाती को यह पता लगा कि अब श्रेणिक यहाँ आ गये हैं। उनके साथ विशाल सेना है, समस्त देशवासी और नगरवासी मनुष्य भी कुमार श्रेणिक के ही अनुयायी हो गये हैं। मारे भय के वह तो काँपने लगा तथा अब मैं लड़कर कुमार श्रेणिक से विजय नहीं पा सकता यह भली प्रकार सोच-विचार अपनी कुछ संपत्ति लेकर किसी किले में जा छिपा। उधर सूर्य के समान प्रतापी, बड़े-बड़े सामंतों से सेवित पुण्यात्मा जिनके ऊपर क्षीर समुद्र के समान सफेद चमर ढुल रहे हैं, जिनका यश चारों ओर बंदीजन गान कर रहे हैं, कुमार श्रेणिक ने बड़े ठाट-बाट से नगर में प्रवेश किया। नगर में घुसते ही बाजों के गंभीर शब्द होने लगे। बाजों की आवाज सुन जैसे समुद्र से तरंग बाहर निकलती हैं, नगर की स्त्रियाँ महाराज के देखने के लिए घरों से निकलकर भागीं। कोई स्त्री अपने स्वामी को चौके में ही बैठा छोड़ उसे बिना भोजन परोसे ही कुमार को देखने के लिए घर से भागी। कोई स्त्री मट्ठा विलोड़ रही थी, कुमार के दर्शन की लालसा से उसने मट्ठा बिलोड़ना छोड़ दिया। कोई-कोई तो कुमार को देखने में इतनी लालायित हो गई कि शृंगारकरते समय उसने ललाट का तिलक आँखों में लगा लिया और आँखों का काजल ललाट Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् पर आँज लिया, एवं बिना देखे-भाले ही घर से भागी, तथा किसी स्त्री ने सिर के भूषण को गले में पहनकर, गले के भूषण को सिर में पहनकर ही कुमार को देखने के लिए दौड़ना शुरू कर दिया। और कोई स्त्री हार को कमर में पहनकर और करधनी को गले में डालकर ही दौड़ी। कोई स्त्री अपने काम में लग रही थी जिस समय सखियों ने उससे कुमार को देखने के लिए आग्रह किया तो वह एकदम भागी, जल्दी में उसे चोली के उल्टे-सीधे का भी ज्ञान नहीं रहा। वह उल्टी चोली पहनकर ही कुमार को देखने लगी। तथा कोई स्त्री तो कुमार को देखने के लिए इतनी बेसुध हो गई कि अपने बालक को रोता हुआ छोड़कर दूसरे बालक को ही गोद में लेकर भागी। तथा कोई स्त्री जो कि नितम्ब के भार से सर्वथा चलने के लिए असमर्थ थी दूसरी स्त्रियों के मुख से ही कुमार की तारीफ सुन अपने को धन्य समझा। कोई वृद्धा जो कि चलने के लिए सर्वथा असमर्थ थी, दूसरी स्त्रियों को कहने लगी कि ऐ बेटा! किसी रीति से मुझे भी कुमार के दर्शन करा दे मैं तेरा यह उपकार कदापि नहीं भूलंगी। तथा कोई-कोई स्त्री तो कुमार को देख ऐसी मत्त हो गई कि कुमार के दर्शन की फूल में दूसरी स्त्रियों पर गिरने लगी और जिस ओर कुमार की सवारी जा रही थी, बेसुध हो उसी ओर दौड़ने लगी। तथा किसी-किसी स्त्री की तो ऐसी दशा हो गई कि एक समय कमार को देख घर आकर भी वह कमार को देखने के लिए भागी। अनेक उत्तम स्त्रियाँ तो कुमार को देख ऐसा कहने लगी कि संसार में वह स्त्री धन्य है जिसने इस कुमार को जना है, और अपने स्तनों का दूध पिलाया है। तथा कोई-कोई ऐसा कहने लगी हे आले ! यह बात सुनने में आई है कि इन कुमार का विवाह वेणुतट नगर के सेठी इन्द्रदत्त की पुत्री नन्दश्री के साथ हो गया है। संसार में वह नन्दश्री धन्य है। तथा कोई-कोई यह भी कहने लगी कि कुमार श्रेणिक के संबंध से रानी नन्दश्री के अभय कुमार नाम का उत्तम पुत्र भी उत्पन्न हो गया है इत्यादि पुरवासी स्त्रियों के शब्द सुनते हुए कुमार श्रेणिक नीली-पीली ध्वजाओं तोरणों से शोभित राजमंदिर के पास जा पहुँचे ॥८३-१०६॥ मात्रादिकं प्रणम्याशु रेजे राजालिमंडितः । राजा राजितधामाऽसौ विनष्टप्रभुशात्रवः ॥११०॥ इतिवृषपरिपाकात् प्राप्त राज्यादिभूति, निखिलजन सुमान्यो मानितानेकवृद्धा। अहितहतविलासो वासितानेकवासो । विशदनयविलासी भासितांगः स भाति ॥११॥ राजमंदिर में प्रवेश कर कुमार ने अपनी पूज्य माता आदि को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। तथा अन्य जो परिचित मनुष्य थे, उनको भी यथायोग्य मिले। कुछ दिन बाद मंत्रियों की अनुमतिपूर्वक कुमार का राज्याभिषेक किया गया। कुमार श्रेणिक अब महाराज श्रेणिक कहे जाने लगे। तथा अनेक राजाओं से पूजित, अतिशय प्रतापी, समस्त शत्रुओं से रहित, महाराज श्रेणिक, मगध देश का नीतिपूर्वक राज्य करने लग गये। इस प्रकार अपने पूर्वोपार्जित धर्म के माहात्म्य से राज्य-विभूति को पाकर समस्त जनों से मान्य अनेक उत्तमोत्तम गुणों से भूषित, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् नीतिपूर्वक राज्य चलानेवाले, अतिशय दैदीप्यमान शरीर के धारक, महाराज श्रेणिक अति आनंद को प्राप्त हुए ॥११०-१११।। समस्ति पूर्वं वणिजां गृहोदरे स्थितिः प्रणष्टाखिल दुःखविधौ । तथा वराज्यं क्व च तस्य भूपते रहो विलासः सुकृतस्य दृश्यतां ।।११२।। धर्माद्धीधन संगमोनर भुवां धर्मात्कुले च, धर्माद्भ तिरनाद्यनंत सहिता धर्मात्सुराज्ये स्थितिः । धर्मान्नाकमहेंद्रता शुभगता धर्मात्सुखं शाश्वतम् धर्मात्सुंदर पुत्रसंतति रहो मत्वा कुरुध्वं वृषम् ॥११३॥ जीवों का संसार में यदि परम मित्र है तो धर्म है। देखो कहाँ तो महाराज श्रेणिक को राजगृह नगर छोड़कर सेठी इन्द्रदत्त के यहाँ रहना पड़ा था और कहाँ फिर उसी मगध देश के राजा बन गये । इसलिए उत्तम पुरुषों को चाहिए कि वे किसी अवस्था में धर्म को न छोड़ें क्योंकि संसार में मनुष्यों को धर्म से उत्तम बुद्धि की प्राप्ति होती है। धर्म से ही अविनाशी सुख मिलता है। देवेन्द्र आदि उत्तम पदों की प्राप्ति भी धर्म से ही होती है और धर्म की कृपा से ही उत्तम कुल में जन्म मिलता है ।।११२-११३।। इति भेणिक भवानुबद्ध भविष्यत्पन्मनाभ तीर्थकरपुराणे भट्टारक श्रीशुभचंद्राचार्य विरचिते क्षेणिकराज्यलाभवर्णनं नाम पंचमः सर्गः ॥५॥ इस प्रकार भविष्यकाल में होनेवाले भगवान श्री पदमनाभ के जीव महाराज श्रेणिक को राज्य की प्राप्ति बतलानेवाला भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित पांचवा सर्ग समाप्त हुआ। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः बोधिबोधित सत्तत्वं सत्वानुग्राहकं स्तुवे । अंतिम तीर्थकर्तारं राज्ञे तत्वार्थदायकम् ।। १ ।। अथ संप्राप्तराज्योऽसौ प्रतिपक्षविवर्जितः । महद्भिर्महितां महीं पाति षाड्गुण्य मंडितः ॥ २ ॥ उक्तंच-संधिश्च विग्रहो यानमासनं संभ्रमस्तथा । द्वेधीभावश्च संप्रोक्ताः षड्गुणाः क्षितिपाश्रिताः ॥ तस्मिन्राज्यं शुभप्राज्यं पातितानीतयोऽभवन् । भयं नानारिसंभूतं नो बभूव खलु भृशं ॥ ३ ॥ क्षणिकोद्दीपनं तत्त्वं दधच्चित्ते च दुर्दमं । सर्वज्ञं सुगतं देवं चतुरार्यप्ररूपकम् ॥ ४ ॥ केवल ज्ञान की कृपा से समस्त जीवों को यथार्थ उपदेश देनेवाले, परम दयालु, भली प्रकार पदार्थों के स्वरूप को प्रकाश करनेवाले, अंतिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार। अनन्तर समस्त शत्रुओं से रहित, प्रजा के प्रेमपात्र, अनेक उत्तमोत्तम गुणों से मंडित, वे महाराज श्रेणिक अच्छी प्रकार नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। उनके राज्य करते समय न तो राज्य में किसी प्रकार की अनीति थी। और न किसी प्रकार का भय ही था। किन्त प्रजा अच्छी तरह सुखानुभव करती थी। पहले महाराज बौद्धमत के सच्चे भक्त हो चके थे। इसलिए वे उस समय भी बुद्धदेव का बराबर ध्यान करते रहते थे। और बुद्धदेव की कृपा से ही अपने को राजा हुआ समझते थे॥१-५॥ अथैकदा समायातः खेचरो द्योतयन् दिशं । समितौ भूभुजं नत्वा वचोऽवादीन्नभस्तलात् ॥ ५ ॥ किसी समय महाराज राजसिंहासन पर विराजमान होकर अपना राज्य-कार्य कर रहे थे। अचानक ही एक विद्याधर जो कि अपने तेज से समस्त भूमण्डल को प्रकाशमान करता था सभा में आया और महाराज श्रेणिक को विनयपूर्वक नमस्कार कर यह कहने लगा ॥१॥ शृणु देवेहरूप्याद्रौ दक्षिणश्रेणि संस्थिता । केरला नगरी तत्र मृगांकोऽस्ति खगाधिपः ॥ ६ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् रूपादिगुणसंपूर्णा जायास्य मालती लता। स्वसा मे स्वगते रद्रिसहस्रशृंगवासिनः ॥ ७ ॥ तयोविलासवत्याख्या सुतास्ति शुभलक्षणा। सयौवना नृपो वीक्ष्य तां मुनि पृष्टवान्मुदा ॥ ८ ॥ हे देव ! इसी जम्बद्वीप की दक्षिण दिशा में एक केरला नाम की प्रसिद्ध नगरी है। उस नगरी का स्वामी विद्याधरों का अधिपति राजा मृगांक है। राजा मृगांक की रानी का नाम मालती लता है जो कि समस्त रानियों में शिरोमणि एवं रूपादि उत्तमोत्तम गुणों की खानि है। और महारानी मालती लता से उत्पन्न अनेक शुभ लक्षणों से युक्त विलासवती नाम की उसके एक पुत्री है। किसी समय पुत्री विलासवती को यौवनावस्था में देख राजा मृगांक को उसके लिए योग्यवर की चिन्ता हुई वे शीघ्र ही किसी दिगम्बर मुनी के पास गये और उनसे इस प्रकार विनय-भाव से पूछा ॥६-८।। अस्याः कोऽत्रवरो भावी मुनिः श्रुत्वेति संजगी। मह्यां राजगृहे भूपः श्रेणिको भविता वरः ॥ ६ ॥ हे प्रभो ! मुने ! आप भूत, भविष्य, वर्तमान त्रिकालवर्ती पदार्थों के भली प्रकार जानकार हैं । संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो आपकी दृष्टि से बाह्य हो। कृपाकर मुझे यह बतावें पुत्री विलासवती का वर कौन होगा? राजा मृगांक के ऐसे विनय-भरे वचन सुन मुनिराज ने कहा-राजन् ! इसी द्वीप में अतिशय उत्तम एक राजगृह नाम का नगर है ! राजगृह नगर के स्वामी, नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करनेवाले, महाराज श्रेणिक हैं। नियम से उन्हीं के साथ यह पुत्री विवाही जायेगी॥६॥ श्रुत्वेति भवते दातुमीहते यावदुन्नतः । तां हंसद्वीपतस्तावद्याचते स्म महाबलः ।। १०॥ नायं दत्ते मुनेर्वाक्यात्तावदागत्य वेष्टिता।। सा पुरी रत्नचूड़ेन वर्त्तते बलशालिना ॥ ११॥ विद्यावचनतश्चेत्थं ज्ञात्वा संगच्छता मया । वीक्ष्यास्थानं तवायातः कथनाय यथाकुरु ॥ १२ ॥ मुनिराज के ऐसे पवित्र वचन सुन, एवं उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर, राजा मृगांक अपने घर लौट आये। और हे महाराज श्रेणिक ! तब से राजा मृगांक ने आपको देने के लिए ही Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् उस पुत्री का दृढ़ संकल्प कर लिया। अनेक बार मनाही करने पर भी हंसद्वीप का स्वामी राजा रत्नचूल यद्यपि उस पुत्री के साथ जबरन विवाह करना चाहता है। राजा मृगांक से जबरन विलासवती को छीन लेने के लिए रत्नचूल ने अपनी सेना के द्वारा चारों ओर से नगरी को भी घेर लिया है । तथापि राजा मृगांक उसे पुत्री देना नहीं चाहता। मैंने ये बातें प्रत्यक्ष देखी हैं ! मैं यह समाचार आपको सुनने आया हूँ, अधिक समय तक मैं यहाँ ठहर भी नहीं सकता। अब आप जो उचित समझें, सो करें॥१०-१२।। श्रुत्वेति गंतुमुधुक्तं भूपं वीक्ष्य खगो जगौ । क्व भवान् पूः क्व मार्गः क्वागम्यो भूचारिणां सदा ॥ १३ ॥ तदा जंबूकुमाराख्यो जिनमत्याः सुतो नृपात् । गृहीत्वा देशममुना गतस्तत्र नभोद्धतः ॥ १४ ॥ विद्याधर जम्बूकुमार के वचन सुनते ही महाराज चुपचाप न बैठ सके। उन्होंने केरला नगरी को जाने के लिए शीघ्र ही तैयारी कर दी। एवं सेनापति को बुला उसे सेना तैयार करने के लिए आज्ञा भी दे दी। जम्बू कुमार का उद्देश्य यह न था कि महाराज श्रेणिक केरला नगरी चलें। और न वह महाराज को लेने के लिए राजगृह ही आया था। किन्तु उसका उद्देश्य केवल महाराज की विवाह-स्वीकारता का था। जिस समय उसने महाराज को सर्वथा चलने के लिए तैयार देखा तो वह इस रीति से विनय से कहने लगा। हे महाराज! कहाँ तो आप? और कहाँ केरला नगरी? आप भूमिगोचरी हैं। वहाँ आपका जाना कठिन है। आप यहीं रहें। मुझे जल्दी जाने की आज्ञा दें। तथा ऐसा कहकर वह शीघ्र ही आकाश-मार्ग से चल दिया । और शीघ्र केरला नगरी में पहुँच गया॥१३-१४॥ श्रेणिकोऽपि बलेनामागतो विध्याटवीं यदा। कुरलाचलमासाद्य स्थितो विश्राममाश्रितः ।। १५ ॥ रत्नचूलं बलं वीक्ष्य जंबूस्तदा भुवं श्रितः ।। द्वाः स्थं निवेद्य संप्रापत् किंचित्कार्यकृतेखगं ॥ १६ ॥ इधर महाराज श्रेणिक ने भी केरला नगरी जाने के लिए प्रस्थान कर दिया। एवं ये तो कुछ दिन मंजिल-दर-मंजिल कर विंध्याचल की अटवी में पहुँच कूरलाचल के पास ठहर गये। उधर विद्याधर जम्बू कुमार ने केरला नगरी में पहुँचकर रत्नचूल की सेना को ज्यों-की-त्यों नगरी घेरे हुए देखा और किसी कार्य के बहाने से रत्नचूल के पास जा उसने यह प्रतिपादन किया ॥१५-१६॥ श्रेणिकाय प्रदत्ता सा पुरा संयाच्यते कथं । खग न्याय वता सोऽपि तत्रेति वचनं जगौ ॥ १७ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् तदा तस्याभवद्रोषो युद्धं जातं तयोः पुनः । सहस्राष्टकमाहत्य रत्नचूलं बबंध सः ।। १८ ।। मृगांक कथयामास श्रेणिकागमनादिजाम् । वार्त्ता पुनर्विमुच्याशु बद्धं रत्नशिखं मुदा ।। १६ ।। हे राजन् रत्नचूल ! यह विलासवती तो मगधेश्वर महाराज श्रेणिक को दी जा चुकी है। आप न्यायवान् होकर क्यों राजा मृगांक से विलासवती के लिए जोरावरी कर रहे हैं। आप सरीखे नरेशों का ऐसा बर्ताव शोभाजनक नहीं । रत्नचूल का काल तो सिर पर मँडरा रहा था । भला वह नीति एवं अनीति पर विचार करने कब चला। उसने जम्बू कुमार के वचनों पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया । और उल्टा नाराज होकर जम्बू कुमार से लड़ने के लिए तैयार हो गया। जम्बू कुमार भी किसी कदर कम न था वह भी शीघ्र युद्धार्थ तैयार हो गया । और कुछ समय पर्यंत युद्ध कर जम्बू कुमार ने रत्नचल को बाँध लिया । उसकी आठ हजार सेना को काट-पीटकर नष्ट कर दिया एवं उसे राजा मृगांक के चरणों में डालकर जो कुछ वृत्तांत हुआ था सारा कह सुनाया । तथा यह भी कहा कि महाराज श्रेणिक भी केरला नगरी की ओर आ रहे हैं ।। १७-१६ ।। विमान: शतपंचभिः । समादायागमद्गगन मार्गतः ॥ २० ॥ कुरलाचलसंरूढं नृपं ते वीक्ष्य सस्मिताः । समुत्तीर्य प्रणेमुस्ते वाचालाः कुशलादिभिः ॥ २१ ॥ महोत्सवैः समं कन्या मुपयेमे अन्यां नृपकुलोद्भ ूतां वधूंच नृपाधिपः । वरपुण्यतः ॥ २२ ॥ ६७ मृगांकरत्न चूलाभ्यां कन्यां तां स जम्बू कुमार का यह असाधारण कृत्य देख राजा मृगांक अति प्रसन्न हुए । उन्होंने जम्ब कुमार की बारम्बार प्रशंसा की एवं जम्बू कुमार की अनुमतिपूर्वक राजा मृगांक ने राजा रत्नचूल एवं पाँच सौ विमानों के साथ कन्या विलासवती को लेकर राजगृह की ओर प्रस्थान कर दिया । महाराज श्रेणिक तो कुरलाचल की तलहटी में ठहरे ही थे। जिस समय राजा मृगांक के विमान कुरलाचल की तलहटी में पहुँचे जम्बू कुमार की दृष्टि राजा श्रेणिक पर पड़ गई । महाराज को देख राजा मृगांक सबके साथ शीघ्र ही वहाँ उतर पड़े । उन सबने भक्तिभाव से महाराज श्रेणिक को नमस्कार किया। और परस्पर कुशल पूछने लगे । तथा कुशल पूछने के बाद शुभ मुहूर्त में कन्या विलासवती का महाराज श्रेणिक के साथ विवाह भी हो गया ॥ २०-२२॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तयोः प्रीतिं विधायासौ सर्वान्संप्रेष्यमानितान् । उत्पताकं पुरं प्रापत्सहजंबूकुमारकः ॥ २३ ॥ तया विलासवत्या सोऽन्याभिर्भोगं बुभुंज च । कुमारं मानयन् जंबूं विशिष्टं चरमांगकं ॥ २४ ॥ विवाह के बाद राजा मृगांक ने केरला नगरी की ओर लौटने के लिए आज्ञा मांगी। एवं चलने के लिए तैयार भी हो गये महाराज श्रेणिक ने उन्हें सम्मानपूर्वक विदा कर दिया। तथा स्वयं भी विद्याधर जम्बू कुमार के साथ राजगृह आ गये। राजगृह आकर महाराज श्रेणिक ने विद्याधर जम्बू कुमार का बड़ा भारी सम्मान किया। और नवोढ़ा विलासवती के साथ अनेक भोग भोगते हुए वे सुखपूर्वक रहने लगे॥२३-२४॥ अथैकदा महीनाथः सस्मार द्विजनायकं । नंदिग्राम परारामं पराभवमनुत्तरम् ।। २५ ।। अहो ! विप्रस्य दुष्टत्वं खलत्वं खलचेष्टितम् । लोभित्त्वं निर्दयत्त्वं च पश्य पश्य विशर्मदं ॥ २६ ॥ परेषां सगृहं धान्यं धनं चेलं चतुष्पदम् । उपानहं च दासेयं दासी गृह्णन्ति लंपटाः ॥ २७ ॥ किसी समय महाराज आनंद से बैठे हुए थे। अकस्मात उन्हें नन्दिग्राम के निवासी विप्र नन्दिनाथ का स्मरण आया। महाराज श्रेणिक का जो कुछ पराभव उसने किया था, वह सारा पराभव उन्हें साक्षात्सरीखा दीखने लगा। वे मन में ऐसा विचार करने लगे देखो नन्दिनाथ की दुष्टता, नीचता एवं निर्दयपना राजगृह से निकलते समय जब मैं नन्दिग्राम में जा पहुंचा था उस समय विनय से मांगने पर भी उसने मुझे भोजन का सामान नहीं दिया था। यदि मैं चाहता तो उससे जबरन खाने-पीने के लिए सामान ले सकता था। किन्तु मैंने अपनी शिष्टता से वैसा नहीं किया था। और दीनवचन बोलता रहा था। मुझे जान पड़ता है जब उसने मेरे साथ ऐसा क्रूरता का बर्ताव किया है, तब वह दूसरों की आबरू उतारने में कब चुकता होगा? राज्य की ओर से जो उसे दानार्थ द्रव्य दिया जाता है। नियम से उसे वहीं गटक जाता है। किसी को पाई-भर भी दान नहीं देता। अब राज्य की ओर से जो उसे सदावर्त देने का अधिकार दे रखा है उसे छीन लेना चाहिए। और नन्दिग्राम के ब्राह्मणों को जो नन्दिग्राम दे रखा उसे वापस ले लेना चाहिए। मैं अब अपना बदला बिना लिये नहीं मनंगा। नन्दिग्राम में एक भी ब्राह्मण को नहीं रहने दूंगा। तथा क्षणेक ऐसा विचार कर शीघ्र ही महाराज श्रेणिक ने एक राजसेवक बुलाया। और उसे यह कह दिया जाओ अभी तुम नन्दिग्राम चले जाओ और वहाँ के ब्राह्मणों से कह दो शीघ्र ही नन्दिग्राम खाली कर दें॥२५-२७॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अब्धिवन्नवसंतोषो विप्राणां दुष्टचेतसाम् । गृह्णतां गृह्णतां वित्तं परकीयं सुवर्तते ॥ २८ ॥ आदत्ते ताम्रपत्रेण परोत्थं पापमुन्नतम् । हिंसापरांगनाजातं दुष्टं वा विप्रचेष्टितम् ॥ २६ ॥ विप्रतारण वाक्येन वेदेन नंति वाड़वाः । जंतूनिति पठंतश्च विचारा तत्पराः खलाः ।। ३० ।। ब्रह्मणे ब्राह्मणं हन्यादिंद्राय क्षत्रियं तथा । मरुद्भयो वणिज हन्यात्तमसं शूद्रमालभेत् ॥ ३१ ॥ चौरमुत्तमसं दद्यात्सूर्याय भ्र णसंयुता। अलभेत स्त्रियं रम्यामिति वाक्यानि कः पठेत् ॥ ३२॥ मद्यमांसाशनं वेदवाक्यात्कुर्वति वाडवाः । तैलाभ्यंगित गात्रं च भुंजते परयोषितं ।। ३३ ।। इति युक्त्यक्षमं येषां ' शासनं वर्त्तते भुवि । कथं भुंजंति मे ग्राम खलास्ते पापपंडिताः ।। ३४ ॥ सामवेद, यजुर्वेद, ऋग्वेद और अथर्ववेद ऐसे चार प्रकार के वेद हैं उनसे ऐसा कहा गया है कि लोभ के वजह से ब्राह्मणो! दूसरों के ऐश्वर्य तुम ग्रहण करो क्योंकि दुष्ट अभिप्रायवाले ब्राह्मणों को कदापि परसम्पत्ति ग्रहण किये बिना उनको संतोष नहीं होता जैसे अनेक तरंगों से क्षोभित समुद्र को कभी भी शांति नहीं मिलती तद्वत् परस्त्री संयोग से उत्पन्न होनेवाला जो पाप साक्षात् हिंसाजनक होने से वह पाप जीव को नरक में पटक देता है ऐसा जैनागम कहता है। ऐसा मिथ्या दुष्ट ब्राह्मणों का कथन सुना जाता है। और उन दुर्जनों के वेद-वाक्य से ही सिद्ध होता है कि होमादिक में पशुओं को बलि देना चाहिए इससे बलि देनेवालों को स्वर्ग मिलेगा इत्यादि और ब्राह्मणों से ब्राह्मण को मारा जाता है तथा इन्द्र से क्षत्रिय को मारा जाता है। ऐसा वेदवाक्य दुष्ट ब्राह्मणों से पठन-पाठन किया जाता है। तथा पवन कुमार से वैश्य को मारना चाहिए और सूर्य को अर्घ्य चढ़ाना नमस्कार करना इत्यादि ऐशा अश्लील वाक्यों का प्रयोग वेद में देखा जाता है। और वेद-वाक्य से शराब-पान तथा मांस-सेवन, परस्त्री का संग तथा तैल मर्दनादि प्रयोग किये जाते हैं इस प्रकार ब्राह्मणों का शासन युक्तियों से रहित होने से नहीं माना जाता है। इस दुनिया में बरतनेवाले ऐसे पापाचारी नन्दिग्राम के ब्राह्मण मेरे नन्दिग्राम को कैसे सेवन कर सकते हैं ? इस प्रकार महाराज श्रेणिक मन्त्रियों को कह रहे हैं।२८-३४।। निष्काशयामि तान् विप्रानिदानी पापकोविदान् । इत्यातयं चिरं चित्ते आदिदेश नृपो भटान् ॥ ३५ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ग्रहार्थं नंदिपुर्याश्च विप्र तदाशुश्राव तन्मंत्री अभ्येत्य नृपनाथं तं प्रणम्येति वचो जगौ । विधीयते च किं राजन्नित्याकर्ण्य नृपो जगौ ॥ ३७ ॥ नंदिनामा च वाडवैः । चित्तशल्यविधायिना ॥ ३८ ॥ निष्काशनाय च । सर्वं भटविसर्जनम् ।। ३६ ॥ विनाश्येत मया ग्रामो रक्षितः पूर्ववैरेण इत्यमात्यो वचः श्रुत्वा बभाष धरणीपतिम् । राजन्न्याये प्रवर्त्तव्यं मार्गे दैवाधितिष्ठति ॥ ३६ ॥ न्याये मार्गे प्रवर्त्तन्ते भूभृतो भुवने सदा । ते वर्द्धते धनैः साकं देशैश्च नगरादिभिः ॥ ४० ॥ अन्यायेन धनी लोके तदा चौरः सुखी भवेत् । अन्यायाद्देशनाशश्च लोकानां प्रभयस्तथा ।। ४१ ॥ यथा सस्यानि पाल्यानि वृत्त्यादिभिः कृषीवलैः । तथा नृपैः प्रजाः सर्वां भयात्पाल्याः प्रयत्नतः ॥ ४२ ॥ न्यायवान् भूपतिर्लोके तदा लोकाश्चन्यायिनः । अन्यायवर्ति भूपाले न्यायत्यक्ता जनाः स्मृताः ॥ ४३ ॥ इधर महाराज ने तो नन्दिग्राम के वित्रों को निकालने के लिए आज्ञा दी। उधर मंत्रियों के कान तक भी यह समाचार जा पहुँचा । वे दौड़ते-दौड़ते तत्काल ही महाराज के पास आये । और विनय से कहने लगे । ' राजन् आप यह क्या अनुचित काम करना चाहते हैं? इससे बड़ी भारी हानि होगी । पीछे आपको पछताना पड़ेगा। आप भली प्रकार सोच-विचार कर काम करें। मंत्रियों के ऐसे वचन सुन महाराज के नेत्र और भी लाल हो गये । मारे क्रोध के उनके नेत्रों से रक्त की धारा-सी बहने लगी । और गुस्से में भरकर वे यह कहने लगे । हे राजमंत्रियो, सुनो ! नन्दिग्राम के विप्रों ने मेरा बड़ा पराभव किया है। जिस समय मैं राजगृह से निकल गया था उस समय मैं नन्दिग्राम में जा पहुँचा था । नन्दिग्राम में पहुँचते ही भूख ने मुझे बुरी तरह सताया। मुझे और तो वहाँ भूख को निवृत्ति का कोई उपाय नहीं सूझा । मैं सीधा नन्दिनाथ के पास गया । और मैंने विनय से भोजन के लिए उससे कुछ सामान माँगा । किंतु दुष्ट नन्दिनाथ ने मेरी कभी प्रार्थना न सुनी वह एकदम मुझ पर नाराज हो गया । दो-चार Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् गालियाँ भी दे मारी। मुझे उस समय अधिक दुःख हुआ था इसलिए अब मैं उनसे बिना बदला लिये न छोड़गा। उन्हें नन्दिग्राम से निकालकर मानूंगा। इस प्रकार महाराज के वचन सुनकर, और महाराज का क्रोध अनिवार्य है यह भी समझकर, मंत्रियों ने विनय से कहा। राजन इस समय आप भाग्य के उदय से उत्तम पद में विराजमान हैं। आप सभी के स्वामी कडे जाते हैं। आपको कदापि अन्याय मार्ग में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। संसार में राजा न्यायपर्वक राज्य का पालन करते हैं। उन्हें कीर्तिधन आदि की प्राप्ति होती है। उनके देश एवं नगर भी दिनोंदिन उन्नत होते चले जाते हैं। हे प्रजापालक ! अन्याय से राज्य में पापियों की संख्या अधिक बढ़ जाती है, देश का नाश हो जाता है। समस्त लोक का प्रलय होना भी शुरू हो जाता है। हे महाराज! जिस प्रकार किसान लोग खेत में स्थित धान्य की बाढ़ आदि प्रयत्नों से रक्षा करते हैं। उसी प्रकार राजा को भी चाहिए कि वह न्यायपूर्वक बड़े प्रयत्न से राज्य की रक्षा करे। हे दीनबंधु ! संसार में राजा के न्यायवान होने से समस्त लोक-न्यायवाला होता है। यदि राजा ही अन्यायी होवे तो कभी भी उसके अनुयायी लोग न्यायवान नहीं हो सकते। वे अवश्य अन्याय मार्ग में प्रवृत्त हो जाते हैं। कृपानाथ ! यदि आप नन्दिग्राम के ब्राह्मणों को नन्दिग्राम से निकालना ही चाहते हैं तो उन्हें न्याय-मार्ग से ही निकालें। न्याय-मार्ग के बिना आश्रय किये आपको ब्राह्मणों का निकालना उचित नहीं ॥३५-४३।। अतो न्याय व्यवस्थाप्य निः काश्या वाडवास्त्वया । श्रुत्वेति तं नृपोऽवोचत् साधु २ त्वयोदितं ॥ ४४ ॥ ततो दोषाय भूतेन मेषोनंदिपुरं प्रति । प्रस्थापितो जनः साकमिति वाक्यंवदैवरै ॥ ४५ ॥ तद्रक्षकास्तदा मेषं जग्मुरादाय तत्पुरम् । दृष्ट्वा तत्र द्विजा वाचो जगुरित्थं नयोद्यताः ।। ४६ ।। मेषोऽयं प्रेषितो राज्ञ विप्रा अस्मै निरन्तरं । देयो ग्रासः प्रयत्नेन कृशः पुष्टश्च वा यदि ॥ ४७ ॥ भविष्यति तदानूनं भवतां ग्रामनाशनम् । इत्युक्त्वा तं विमुच्याशु गतास्ते मेषरक्षका: ॥ ४८ ॥ मंत्रियों के ऐसे नीतियुक्त वचन सुन महाराज श्रेणिक का क्रोध शांत हो गया। कुछ समय पहले जो महाराज ब्राह्मणों को बिना विचारे ही निकालना चाहते थे। वह विचार उनके मस्तक से हट गया। अब उनके चित्त में ये संकल्प-विकल्प उठने लगे। यदि मैं यों ही ब्राह्मणों को निकाल Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् दूंगा तो लोग मेरी निंदा करेंगे। मेरा राज्य भी अनीति-राज्य समझा जायेगा। इसलिए प्रथम ब्राह्मणों को दोषी सिद्ध कर देना चाहिए। पश्चात् उन्हें निकालने में कोई दोष नहीं। तथा महाराज ने ब्राह्मणों को दोषी बनाने के अनेक उपाय सोचे। उन सबमें प्रथम उपाय यह किया था कि एक बकरा मँगवाया और कई-एक चतुर सेवकों को बुलाकर एवं बकरा सौंपकर, यह आज्ञा दी। जाओ, इस बकरे को शीघ्र ही नन्दिग्राम के ब्राह्मणों को दे दो। उनसे यह कहना कि यह बकरा महाराज श्रेणिक ने भेजा है। इसे खूब खिलाया-पिलाया जाय। किंतु इस बात पर ध्यान रहे। न तो यह दुबला होने पावे और न आबाद (मोटा) ही होवे। यदि वह लट गया या आबाद हो गया तो तुमसे नन्दिग्राम छीन लिया जायेगा। और तुम्हें उससे जुदा कर दिया जायेगा॥४४४८॥ किं कुर्मोऽत्र वयं विप्रा दुर्द्धरे कार्य एवहि । कृशः स्यादथवा पुष्ट: कथं तिष्ठति तादृशः ॥ ४६॥ इति चिताप्रपन्नास्ते यावत्तिष्ठति दुःखिताः । अथ वेणातटे श्रेष्ठी मत्वा राज्यं च भूपतेः ।। ५० ॥ महाराज के ऐसे आश्चर्यकारी वचन सुन सेवकों ने कुछ भी तीन-पाँच न की। वे बकरे को लेकर शीघ्र ही नन्दिग्राम की ओर चल दिये। तथा नन्दिग्राम में पहुँचकर बकरा ब्राह्मणों के सुपुर्द कर दिया। और जो कुछ महाराज का संदेशा था वह भी साफ-साफ कह सुनाया। महाराज का यह विचित्र संदेशा सुन नन्दिग्राम के ब्राह्मणों के होश उड़ गये। वे अपने मन में विचार करने लगे। यह बला कहाँ से आ पड़ी। महाराज का तो हमसे कोई अपराध हुआ नहीं है। उन्होंने हमारे लिए ऐसा संदेशा क्योंकर भेज दिया? हे ईश्वर ! यह बात कटिन आ अटकी। कमती-बढ़ती खिलाने से या तो यह बकरा लट जायेगा या मोटा हो जायेगा। इसका एक-सा रहना असम्भव है। मालूम होता है अब हमारा अंत आ गया है ॥४६.५०॥ तुतोषाथेंद्रदत्तोऽसौ तद्धयानंदश्रिया सह । अभयादिकुमारेण चचाल सह संपदा ॥ ५१ ॥ ततः क्रमात्समासेदे नंदिग्रामं सवाडवं । तस्थौ भोजनसंसिद्धय श्रेष्ठी: श्रेष्ठः क्रियादिभिः ।। ५२ ॥ तदाभयकुमारश्च स्वजनैः परिवारितः । ईक्षणाय पुरं प्राप्तः ददर्शाखिलवाडवान् ॥ ५३ ।। चितापन्नं द्विजाधीशं तावद्वीक्ष्य बभाष सः । विप्र ! चिंता कुतश्चित्ते वर्त्तते देहदाहिका ।। ५४ ।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १०३ इधर ब्राह्मण तो ऐसा विचार करने लगे। उधर वेगतट में सेठी इन्द्रदत्त को यह पता लगा कि कुमार श्रेणिक अब मगध देश के महाराज बन गये हैं। शीघ्र ही वे नन्दश्री और अभयकुमार को लेकर राजगह की ओर चल दिये। और नन्दिग्राम के पास आकर ठहर गये। सेठी इन्द्रदत्त आदि तो भोजनादि कार्य में प्रवृत्त हो गये । और नवीन पदार्थों के देखने के अति प्रेमी अभयकुमार नन्दिग्राम देखने के लिए चल दिये। उन्हें आते देख परिवार के मनुष्यों ने बहुत-कुछ मनाही की! किन्तु अभयकुमार के ध्यान में एक न आई। शीघ्र ही नन्दिग्राम में प्रवेश कर दिया। मध्यनगर में पहुँचते ही देव से उनकी मुलाकात नन्दिनाथ से हो गई उसे चिंता से व्याकुल एवं म्लान देख अभयकुमार ने चट धर पूछा ॥५१-५४।। ततो भूसुरनाथश्च संजगौ बचनं वरम् । मेषप्रस्थापनं चिताकारणं हरणं पुरः ॥ ५५ ।। तदाकाह तनयो मागधस्य मुदा हसन् । मा कुरुध्वं व्यथां विप्रा हरिष्याम्यसुखं तव ।। ५६ ।। हे विप्रों के सरदार ! आपका मुख क्यों फीका हो रहा है ! आप किस उधेड़-बुन में लगे हुए हैं ! इस नगर में सर्वमनुष्य चिंताग्रस्त ही प्रतीत होते हैं यह क्या बात है ? अभयकुमार के ऐसे उत्तम वचन सुन, और वचनों से उसे बुद्धिमान भी जान, नन्दिनाथ ने विनम्र वचनों में उत्तर दिया। __ महानुभाव ! राजगृह के स्वामी महाराज श्रेणिक ने एक बकरा हमारे पास भेजा है। उन्होंने यह कड़ी आज्ञा भी दी है कि नन्दिग्राम के निवासी विप्र इस बकरे को खूब खिलावें-पिलावें किंतु यह बकरा एक-सा ही रहे। न तो मोटा होने पावे और न लटने पावे। यदि यह बकरा लट गया अथवा पुष्ट हो गया तो नन्दिग्राम छीन लिया जायेगा। हे अभयकुमार ! महाराज की इस आज्ञा का पालन हमसे होना कठिन जान पड़ता है। इसलिए इस गाँव के निवासी हम सब ब्राह्मण चिंता से व्यग्र हो रहे हैं ।।५५-५६।। इति संधार्य विप्रांस्तांश्चक्राणस्तदुपायकम् । स्तंभंतं द्वीपिनोर्मध्ये बंधयामासकोविदः ।। ५७ ॥ चारयन्विविधं भक्षं यदा स्थलः प्रपश्यति । तदा व्याघ्र कृशी स्याच्च भयात्पक्षावधि स्थितः ॥ ५८ ।। न स्थूलं न कृशं मेषं प्रेषयामास भूपतिम् । तादृशं तं नृपो वीक्ष्य विस्मितोऽभूत्स्वमानसे ।। ५६ ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् नन्दिनाथ के ऐसे विनययुक्त वचन सुनने से अभयकुमार का हृदय करुणा से गद्गद हो गया। उन्होंने इस काम को कुछ काम न समझ ब्राह्मणों को इस प्रकार समझा दिया। हे विप्रो! आप इस कार्य के लिए किसी बात की चिंता न करें। आप धैर्य रखें। आपके इस विघ्न को दूर करने के लिए मैं भी उपाय सोचता हूँ। तथा ऐसा विश्वास देकर वे भी उस चिता को दूर करने का स्वयं उपाय सोचने लगे। कुमार की बुद्धि तो अगम्य थी, उक्त विघ्न दूर करने के लिए उन्हें शीघ्र ही उपाय सूझ गया। उन्होंने शीघ्र ही ब्राह्मणों को बुलाया। और उनसे इस प्रकार कहाहे विप्रो ! तुम एक काम करो बीच गाँव में एक खम्भा गड़वाओ। उससे कहीं से लाकर एक बाघ बाँध दो। जिस समय चराने से बकरा मोटा मालम पड़े धीरे से उसे बाघ के सामने लाकर खडा कर दो। विश्वास रखो इस रीति से वह बकरा न बढ़ेगा और न घटेगा। कुमार की युक्ति ब्राह्मणों के हृदय में जम गई। उन्होंने शीघ्र ही कुमार की आज्ञानुसार वह काम करना प्रारंभ कर दिया। प्रथम तो वे दिन-भर खूब बकरे को चरावें। और पश्चात् शाम को उसे बाघ के सामने ले जाकर खड़ा कर दें। इस रीति से उन्होंने कई दिन तक किया। बकरा वैसे-का-वैसा ही बना रहा। तथा जैसा राजगृह नगर से आया था वैसा ही ब्राह्मणों ने जाकर उसे महाराज की सेवा में हाजिर कर दिया॥५७-५६॥ तदा विघ्नं गतं वीक्ष्य विप्राः संतुष्टमानसाः । बभूवुर्जनितानंदा अभयाद्भय वर्जिताः ॥ ६० ॥ विप्राः समेत्य तत्पादौ प्रणम्य च पुनः पुनः । भो कुमार ! महाराज ! सुभग प्रियकारक ॥ ६१ ॥ अतो यज्जीवितं राजन्मेनेऽहं प्रीतिमंडितः । त्वत्तः कृपापराद्बुद्धिबोधिताखिलसंस्थितेः ॥ ६२ ॥ अकारणजगबंधुरसि त्वं भुवनत्रये । तादृशं नास्तिलोकेऽस्मिन् यादृशं त्वयि सौहृदं ।। ६३ ॥ परोपकृतये रक्ताः संतः संति स्वभावतः ।। मेघा इव सदा स्निग्धाः सदार्द्रा जगदुन्नताः ॥ ६४ ॥ कृपां कुरु प्रसीद त्वं तिष्ठ तिष्ठ ममालये। यावन्न याति मे विघ्नः तुष्टो भव मनोपरि ॥ ६५ ॥ गते त्वयि कथं राजन् स्थास्यामि नृपकोपतः । आकोपशांतिमत्रत्वमतस्तिष्ठ पुरे मम ॥ ६६ ।। विघ्न के हट जाने पर इधर ब्राह्मणों ने तो यह समझा कि कुमार की कृपा से हमारा विघ्न टल गया, हम बच गये। वे बारम्वार कुमार की प्रशंसा करने लगे। तथा अभयकुमार के पास Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १०५ आकर वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे हे दिव्य पुरुष! हे पुण्यात्मन् ! हे समस्त जीवों पर दया करनेवाले कुमार ! यह हमारा भयंकर विघ्न आपकी कृपा से शांत हुआ है। आपके सर्वोत्तम बुद्धिबल से ही इस समय हमारी रक्षा हुई है। आपके प्रसाद से ही हम इस समय आनंद का अनुभव कर रहे हैं। आपने हमें अपना समझ जीवनदान दिया है। यदि महाराज की आज्ञा का पालन नहीं होता तो न मालूम महाराज हमारी क्या दुर्दशा करते-हमें क्या दण्ड देते ? हे कृपानाथ कुमार! हम आपके इस उपकार के बदले में क्या करें? हम तो सर्वथा असमर्थ हैं। और आप समस्त लोक के बिना कारण बंधु हैं। हे कुमार! जैसी आपके चित्त में दया है। संसार में वैसी दया कहीं-नहीं जान पड़ती। हे महोदय ! आप संसार में अलौकिक सज्जन हैं। आप मेघ के समान हैं। क्योंकि जिस समय मेघ परोपकारी, स्नेह (जल) युक्त, आर्द्र, एवं उन्नत होते हैं। उसी प्रकार आप भी परोपकारी हैं। समस्त जनों पर प्रीति के करनेवाले हैं। आपका भी चित्त दया से भीगा हुआ है। और आप जगत में पवित्र हैं। हे हमारे प्राणदाता कुमार ! आपकी सेवा में हमारा यह सविनय निवेदन है। जब तक राजा का कोप शांत न हो, महाराज हमारे पर संतुष्ट न हों आप इस नगर को ही सुशोभित करें। आप तब तक इस नगर से कदापि न जाएँ। यदि आप यहाँ से चले जायेंगे तो महाराज हमें कदापि यहाँ नहीं रहने देंगे॥६०-६६॥ इतिसंप्रार्थितः सोऽपि तथेति प्रतिपन्नवान् । प्रायेण स्वाजनं चित्तं परोपकृतये रतम् ॥ ६७ ॥ अथ स श्रेणिको भूपः संप्रापदोषमुत्तमम्।। कथं निःकाशनं कुर्मो विप्राणां बुद्धिशालिनाम् ॥ ६८ ।। वचो हरं पुनः राजाप्रेषयामास वाडवम्।। स समेत्येति सद्वाचो जगाद विनयान्वितः ॥ ६६ ॥ कर्पूरवापिका विप्रा नेतव्या राजमंदिरम् । इति राज्ञश्च निर्देशो भवतामन्यथा हतिः ॥ ७० ॥ इधर तो नन्दिनाथ एवं अन्य विप्रों की इस प्रार्थना ने कुमार अभय के चित्त पर प्रभाव जमा दिया उन्हें जबरन प्रार्थना स्वीकार करनी पड़ी। और ब्राह्मणों पर दया कर नन्दिग्राम में कुछ दिन ठहरना भी निश्चित कर लिया। उधर जिस समय महाराज ने बकरे को ज्यों-का-त्यों देखा। वे गहरी चिंता में पड़ गये। अपनी प्रयत्न की सफलता न देख उन्हें अति क्रोध आ गया। वे सोचने लगे-जब नन्दिग्राम में ब्राह्मण इतने बुद्धिमान हैं। तब उनको कैसे नन्दिग्राम से निकाला जाय? तथा क्षणेक ऐसा सोचकर शीघ्र ही उन्होंने फिर एक दूत बुलाया, और उससे यह कहातुम अभी नन्दिग्राम जाओ। और वहाँ के निवासी ब्राह्मणों से कहो कि महाराज ने यह आज्ञा दी है कि नन्दिग्राम निवासी ब्राह्मण शीघ्र एक बावड़ी राजगृह नगर पहुँचा दें। नहीं तो उनको कष्ट का सामना करना पड़ेगा ॥६७-७०॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् वापिकानयनं लोके न श्रुतं श्रूयते नहि । कथं कुर्मो वयं विप्रा निर्नाशिनस्वपत्तनाः ।। ७१ पुनः कुमार सान्निध्यं प्रापुस्ते बुद्धिवंचिताः । किं कुर्म इति सत्प्रश्ने कुमारो वचनं जगौ ।। ७२ ।। महाराज की आज्ञा पाते ही दूत चला। और नन्दिग्राम में पहुँचकर शीघ्र ही उसने ब्राह्मणों से कहा-हे विप्रो! महाराज ने नन्दिग्राम से एक बावड़ी राजगृह नगर मँगाई है। आप लोगों को यह कड़ी आज्ञा दी है कि आप उसे शीघ्र पहुँचा दें। नहीं तो तुम्हें नन्दिग्राम से जाना पड़ेगा। दूत के मुख से महाराज की ऐसी कठिन आज्ञा सुन, नन्दिग्राम निवासी विप्र दांतों में उँगली दबाने लगे। वे विचार करने लगे कि अबकी महाराज ने कठिन अटकाई। बावड़ी का जाना तो सर्वथा असम्भव है। मालूम होता है महाराज का कोप अनिवार्य है। अब हमें नन्दिग्राम में रहना कठिन जान पड़ता है। तथा क्षणेक ऐसा विचार कर वे सब मिलकर अभयकुमार के पास गये । और सारा समाचार उन्हें जाकर कह सुनाया ॥७१-७२।। यूयं चितां जहीताशु निद्रालौभूपतौ पुनः । प्रेषणं संविधातव्यं दीपिकाया महीभृतम् ।। ७३ ।। ततः स्वपत्तनेऽन्यस्मिन् पुरे वृषभसत्कुलम् । लुलायाः करभा गावो महिष्यः पशवोऽखिलाः ॥ ७४ ॥ यावन्तः पतने संति ताबतां युगकंधरे । यानवक्त्रं विधातव्य मा राजगृहमंदिरात् ॥ ७५ ॥ आपत्तनं पशश्रेणि युगरूपेण चक्रिके। निद्रालुं भूपति मत्वा ते गता तत्र वाड़वाः ॥ ७६ ॥ ततस्तूर्यादि सन्नादः कुर्वंतो व्याकुलं जगत् । शयिते भूपतौ सर्वे प्रविष्टा राजकेतनम् ॥ ७७ ॥ निद्राकांतं नृपं सर्वेऽवोचन् राजन् सुवापिका । आनीता मंदिरे रम्ये यथाज्ञाक्रियते द्विजैः ।। ७८ ।। ब्राह्मणों के मुख से बावड़ी का भेजना सुनकर, और नन्दिग्राम निवासी ब्राह्मणों को चिंता से ग्रस्त देखकर, अभयकुमार ने उत्तर दिया। हे विप्रो ! यह कौन बड़ी बात है ! आप क्यों इस छोटी-सी बात के लिए चिंता करते हैं ? आप किसी बात से ज़रा भी न घबरायें। यह विघ्न शीघ्र ही दूर हो जायेगा। आप एक काम करें, आपके गाँव में जितने घर, बैल एवं भैंसें हों उन सबको इकट्ठा करो। सबके कंधों पर जूआ रखवा दो और नन्दिग्राम से राजगृह तक उनको Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् लगातार लगा दो। जिस समय महाराज अपने राजमंदिर में गाढ़ी निद्रा में सोते हों। बेधड़क हल्ला करते हुए राजमंदिर में घुस जाओ। और खूब जोर से पुकारकर कहो। नन्दिग्राम के ब्राह्मण बावड़ी लाये हैं। जो उन्हें आज्ञा होय सो किया जाय। बस महाराज के उत्तर से ही आपका यह विघ्न टल जायगा ॥७३-७८।। निद्रालुना तदा राज्ञा बभाषे वचनं शनैः । तत्रैव स्थापनीया सा गम्यतां सत्वरं गृहात् ।। ७६ ।। ततः पशून् समादाय विप्रा जग्मुनिजं पुरम् ।। तदाद्यभयतस्तुष्टा मन्यमाना स्वजीवितं ।। ८० ॥ अहोबद्धि रहोबुद्धिरभयस्य जगत्त्रये। अतिलोके गुणोपेतो शंसामिति व्यद्धिजाः ॥ ८१॥ कुमार की यह युक्ति सुन ब्राह्मणों ने गाँव के समस्त बैल एवं भैंसा एकत्रित किये। उनके कंधों पर जूआ रख दिया। और उन्हें नन्दिग्राम से राजमंदिर तक जोत दिया। जिस समय महाराज गाढ़ी निद्रा में बेसुध सो रहे थे। राजमंदिर में बड़े जोर का हल्ला करना प्रारंभ कर दिया। और महाराज के पास जाकर यह कहा-महाराजाधिराज ! नन्दिग्राम के ब्राह्मण बावड़ी लाये हैं । अब उन्हें जो आज्ञा हो, सो करें। उस समय महाराज के ऊपर निद्रा देवी का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ा हुआ था। निद्रा के नशे में उन्हें अपने तन-बदन का भी होशोहवास नहीं था। इसलिए जिस समय उन्होंने ब्राह्मणों के वचन सुने, तो बेसुध में उनके मुख से धीरे से ये ही शब्द निकल गये कि जहाँ से बावड़ी लाये हो, वहीं पर बावड़ी ले जाकर रख दो। और राजमंदिर से शीघ्र ही चले जाओ। बस फिर क्या था ? ब्राह्मण तो यह चाहते ही थे कि किसी रीति से महाराज के मुख से हमारे अनुकूल वचन निकलें। जिस समय महाराज से उन्हें अनुकूल जवाब मिला तो अपार हर्ष से उनका शरीर रोमांचित हो गया। वे उछलते-कूदते तत्काल ही नन्दिग्राम को लौट गये । और वहाँ पहुँचकर, विघ्न की शांति से अपना पुनर्जीवन समझ, वे सुखसागर में गोता मारने लगे। तथा अभयकुमार के चातुर्य पर मुग्ध होकर उनके मुख से खुले मैदान ये ही शब्द निकलने लगे कि अभयकुमार की बुद्धि अत्युत्तम और आश्चर्य करनेवाली है। इनका हरेक विषय में पांडित्य सबसे चढ़ा-बढ़ा है। सौजन्य आदि गुण भी इनके लोकोत्तर हैं इत्यादि ॥७९-८१॥ जजागार क्षणाद्भ पो वदन्निति क्व वापिका । आनीयतां तदा प्राह कश्चिद्भो मगधाधिप ।। ८२ ।। आनीता वापिका विप्रै निशायां भवता पुनः । उक्तं स्थाप्या च तत्रैव तैस्तथाकारि भूपते ॥ ८३ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् इधर अपने भयंकर विघ्न की शांति हो जाने से विप्र तो नन्दिग्राम में 'सुखानुभव करने लगे। उधर राजगृह नगर में महाराज श्रेणिक की निद्रा की समाप्ति हो गई। उठते ही उनके मुँह से यही प्रश्न निकला कि नन्दिग्राम के ब्राह्मण जो बावड़ी लाये थे वह बावड़ी कहाँ है ? शीघ्र ही मेरे सामने लाओ १०८ महाराज के वचन सुनते ही पहरेदार ने जवाब दिया- महाराजाधिराज ! नन्दिग्राम के ब्राह्मण रात को बावड़ी उठाकर लाये थे । जिस समय उन्होंने आपसे निवेदन किया था कि बावड़ी कहाँ रख दी जाय ! उस समय आपने यही जवाब दिया था कि 'जहाँ से लाये हो, वहीं ले जाकर रख दो और शीघ्र राजमंदिर से चले जाओ।' इसलिए हे कृपानाथ ! वे बावड़ी को पीछे ही लौटा ले गये ।। ८२-८३॥ निद्रायाश्चेष्टितं सर्वं नान्यस्य भुवि वर्त्तते । निद्रेयं महती पीड़ा प्राणिनां सातबाधिका ॥ ८४ ॥ यद्वदंति सदाचार्यास्तत्सत्यं सत्यमेव च । जेय शयनमानित्यं पुरुषैहितकांक्षिभिः ॥ ८५ ॥ निद्रांत: करणाद्देही किं न कुर्यात् शुभाशुभं । अजेयं शयनं लोके क्षुधेव न च संशयः ॥ ८६ ॥ कृत्याकृत्यं न जानाति हेयाहेयं शुभाशुभम् । पापापापं खलान्यं च निद्रादष्टो जनो भुवि ॥ ८७ ॥ घर्घराकलितः कंठो वेष्टनारक्षणं तथा । स्वेदो गमनभंगोऽत्र निद्रा च मरणायते ॥ ८८ ॥ वितर्येति चिरं राजा क्रोधोद्दीप्तो बभाण च । गजदेहतुलमानमानयध्वं च सत्वरम् ।। ८६ । पहरेदार के ये वचन सुन अत्यधिक क्रोध के कारण महाराज श्रेणिक का शरीर भभकने लगा । वे बारंबार अपने मन में ऐसा विचार करने लगे कि संसार में जैसी भयंकर चेष्टा निद्रा की है वैसी भयंकर चेष्टा किसी की नहीं । यदि जीवों के सुख पर पानी फेरनेवाली है तो यह पिशाचिनी निद्रा ही है । परमर्षियों ने जो यह कहा है कि जो मनुष्य हित के आकांक्षी हैं अपनी आत्मा का हित चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे इस निद्रा को अवश्य जीतें सो बहुत ही उत्तम कहा है । क्योंकि जिस समय पिशाचिनी यह निद्रा जीवों के अंतरंग में प्रविष्ट हो जाती है । उस समय बिचारे प्रांणी इसके वश हो अनेक शुभ-अशुभ कर्म संचय कर मारते हैं। और अशुभ कर्मों की कृपा से उन्हें नरकादि घोर दुःखों का सामना करना पड़ता है। वास्तव में यह निद्रा क्षुधा के समान है क्योंकि जिस प्रकार क्षुधा का जीतना कठिन है । उसी प्रकार इसी निद्रा का जीतना भी कठिन है। क्षुधा से पीड़ित मनुष्य को जिस प्रकार यह विचार नहीं रहता कौन धर्म अच्छा है कौन बुरा है । संसार में मुझे कौन वस्तु ग्रहण करने योग्य है कौन त्यागने योग्य है । उसी प्रकार 1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १०६ निद्रा-पीड़ित मनुष्य को भी अच्छे-बुरे एवं हेय उपादेय का विचार नहीं रहता। एवं जैसा क्षुधापीड़ित मनुष्य पाप-पुण्य की कुछ भी परवा नहीं करता। वैसी निद्रा-पीड़ित मनुष्य को भी पापपुण्य की कुछ भी परवा नहीं रहती। तथा यह निद्रा एक प्रकार का भयंकर मरण है। क्योंकि मरते समय कफ के रुक जाने पर जैसा कि कंठ में धड़-धड़-सा होने लग जाता है। निद्रा के समय में भी उसी प्रकार धड़-धड़ शब्द होता है । मरणकाल में संसारी जीव जिस प्रकार खाट आदि पर सोता है उसी प्रकार निद्राकाल में भी बेहोशी से खाट आदि पर सोता है। मरणकाल में जैसा मनुष्य के अंग पर पसीना झमक जाता है वैसा निद्रा के समय भी अंग पर पसीना आ जाता है। एवं मरण समय में जिस प्रकार जीव जरा भी नहीं चल सकता शांत पड़ जाता है। निद्राकाल में भी उसी प्रकार जीव जरा भी नहीं चल सकता किंतु काठ की पुतली के समान बेहोश पड़ा रहता है। इसलिए यह निद्रा अति खराब है। तथा क्षणेक ऐसा विचार कर दैदीप्यमान शरीर से शोभित महाराज श्रेणिक ने फिर से सेवकों को बुलाया और उनसे कहा कि जाओ और शीघ्र ही नन्दिग्नाम के ब्राह्मणों से कहो। महाराज ने यह आज्ञा दी है कि नन्दिग्राम के विप्र एक हाथी का वजन कर शीघ्र ही मेरे पास भेज दें॥८४-८९॥ मानं न दीयते चेद्भो गंतव्यं नगराद्रुतम् । इत्यादिष्टा बभूवुस्ते गजप्रेषणपूर्वकम् ॥ १० ॥ तदुपायमजानंतो व्याकुला गतमानसाः । कुमारसन्निधिं प्रापुर्वाचाला: किं कथं किमु ॥ ११ ॥ मा विभ्यतु भवंतो वै करोम्यत्र प्रतिक्रियाम् । इत्याश्वास्य स विप्रांस्तानुद्ययौ तत्कृते पुनः ।। ६२॥ गंभीरे जलधिप्रख्ये परागपरिपूरिते । कासारे वेशयामास नावं गजसमन्वितां ।। ६३ ॥ कासारे तारयन्नावं द्विपभार विभूषिताम् । यावन्मग्ना व्यधातत्र संज्ञां विज्ञानपारगः ॥ १४ ॥ निः काश्ययानपात्रं स पूरयामास प्रस्तरैः । पुनस्तत्तारयामास तावन्मग्नं चकार सः ।। ६५ ॥ ततो निक्षिप्य पाषाणांस्तत ऊर्द्धवप्रमाणकः । प्रमीय तद्गुरुत्वं च तेनाकथि सुबुद्धितः ।। ६६ ।। ततो निरूपयामास भूपतेस्तत्प्रमाणकम् । अजेया बुद्धितो विप्रा इति शंसां चकार स ॥ १७ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् महाराज की आज्ञा पाते ही सेवक चला। और नन्दिग्राम में जाकर उसने ब्राह्मणों से, जो कुछ महाराज की आज्ञा थी, सब कह सुनाई। तथा यह भी कह सुनाया कि महाराज की इस आज्ञा का पालन जल्दी हो। नहीं तो आपको जबरन नन्दिग्राम खाली करना पड़ेगा। सेवक के मुख से महाराज की आज्ञा सुनते ही नन्दिग्राम निवासी विप्रों के मुख फीके पड़ गये। मारे भय के उनका गात्र काँपने लग गया। वे अपने मन में सोचने लगे कि बावड़ी का विघ्न टल जाने से हमने तो यह सोचा था कि हमारे दु:खों की शांति हो गई। अब यह मुसीबत फिर से कहाँ से आ टूटी? तथा कुछ देर ऐसा विचार कर वे बुद्धिशाली अभयकुमार के पास गये। और उनसे इस रीति से विनयपूर्वक कहा माननीय कुमार ! अबकी महाराज ने बड़ी कठिन अटकाई है। अबकी उन्होंने हाथी का वजन माँगा है भला हाथी का वजन कसे, किस रीति से हो सकता है ? मालूम होता है महाराज अब हमें छोड़ेंगे नहीं। ब्राह्मणों के ऐसे दीनतापूर्वक वचन सुन कुमार ने उत्तर दिया आप इस जरा-सी बात के लिए क्यों इतने घबराते हैं ? मैं अभी इसका प्रतिकार करता हूँ। तथा ब्राह्मणों को इस प्रकार आश्वासन दे वे शीघ्र ही तालाब के किनारे गये। तालाब के पास जाकर उन्होंने एक नौका मंगाई। और ब्राह्मणों द्वारा एक हाथी मंगवाकर उस नाव में हाथी खड़ा कर दिया। हाथी के वजन से जितना नाव का हिस्सा डूब गया उस हिस्से पर कुमार ने एक लकीर खींच दी। एवं हाथी को नाव से बाहर कर उसमें उतने ही पत्थर भरवा दिये। जिस समय पत्थर और हाथी का वजन बराबर हो गया तो कुमार ने पत्थरों को भी नाव से निकलवा लिया। तथा उन पत्थरों के बराबर दूसरे बड़े-बड़े पत्थर कर महाराज श्रेणिक की सेवा में भिजवा दिये। और नन्दिग्राम के ब्राह्मणों की ओर से यह निवेदन कर दिया कि कृपानाथ ! आपने जो हाथी का वजन माँगा था सो यह लोजिए॥६०-६७॥ अन्यदा खादिरं काष्टं हस्तमात्रं विवल्कलं । प्रेषयामास भूपालो विप्रान्प्रतिजनैः सह ।। ६८ ॥ अस्याधस्तन भागः क उपरित्योऽयमेव कः । द्वावंशी कथनीयौ भो इति निर्देशपूर्वकम् ।। ६६ ।। जिस समय महाराज श्रेणिक ने हाथी के वजन के पत्थर देखे तो उनको बड़ा आश्चर्य हआ। वे अपने मन में विचारने लगे कि नन्दिग्राम के ब्राह्मण अधिक बुद्धिमान हैं। उनका चातुर्य एवं पांडित्य ऊँचे दर्जे पर चढ़ा हुआ है। ये किसी रीति से भी जीते नहीं जा सकते। तथा क्षणेक अपने मन में ऐसा भली प्रकार विचार कर महाराज ने फिर सेवकों को बुलाया। और एक हाथ प्रमाण की एक निखोल खैर की लकड़ी उन्हें दे यह कहा कि जाओ, इस लकड़ी को नन्दिग्राम के ब्राह्मणों को दे आओ। उनसे कहना महाराज ने यह लकड़ी भेजी है। कौन-सा तो इसका निचला भाग है और कौन-सा इसका ऊपर का भाग है ? यह परीक्षा कर शीघ्र ही महाराज के पास भेज दो। नहीं तो तुम्हें नन्दिग्राम से निकाल दिया जायगा। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् महाराज की आज्ञा पाते ही दूत राजगृह नगर से चला और नन्दिग्राम के ब्राह्मणों को लकड़ी देकर उसने कहा कि राजगृह के स्वामी महाराज श्रेणिक ने यह लकड़ो भेजी है। इसका कौनसा तो अगला भाग है और कौनसा पिछला भाग है? शीघ्र ही परीक्षा कर भेज दो। यदि नहीं बता सको तो नन्दिग्राम छोड़कर चले जाओ!।६८-६६॥ इति संप्राप्य संदेशं शक्रागम्यं नरैः किमु । गम्यं विप्राबभूवुस्ते सचिताः कल्मषाननाः ॥१०॥ कुमारशरणं श्रेयं मनीपाश्रमकारणम् । इति संचित्य जग्मुस्ते सविधिं तस्य बुद्धये ॥१०१।। मत्वाखिलं ततो वृत्तमभयो वचनं जगौ । न भेतव्यं भवद्भिश्च करोम्यत्र प्रतिक्रियां ।।१०२।। इत्युदीर्य समाश्वास्य समादायेध्मसत्करे । जगाम वाडवैः सत्रं परीक्षाय सरस्तटे ।।१०३॥ मुमोच सलिले काष्टं वहमाने चचाल तत् । मूलभागं पुरस्कृत्याभेद्यं बुद्धयादिवजितैः ॥१०४॥ तौ भागौ स परिज्ञाय कथयामास भूपतेः । वाड़वैः स्तूयमानश्च मन्यमानस्ततः शुभं ॥१०॥ दूत के मुख से जब महाराज का यह संदेशा सुनने में आया तो नन्दिग्राम के ब्राह्मणों के मस्तक घूमने लगे। वे सोचने लगे यह मुसीबत तो सबसे कठिन आकर टूटी। इस लकड़ी में यह बताना बुद्धि के बाह्य है कि कौनसा भाग इसका पिछला है और कौनसा अगला है ? इसका उत्तर जाना महाराज के पास कठिन है। अब हम किसी कदर नन्दिग्राम में नहीं रह सकते। तथा क्षणेक कल्प-विकल्प कर अति व्याकुल हो, वे कुमार के पास गये। महाराज का सारा संदेशा कुमार को कह सुनाया और यह खैर की लकड़ी भी उनके सामने रख दी। ब्राह्मणों को म्लान चित्त देख और उस खैर की लकड़ी को निहार कुमार ने उत्तर दिया आप महाराज की इस आज्ञा से जरा भी न डरें। मैं अभी इसका प्रतीकार करता हूँ। तथा सब ब्राह्मणों को इस प्रकार दिलासा देकर कुमार किसी तालाब के किनारे गये। तालाब में कुमार ने लकड़ी डाल दी। जिस समय वह लकड़ी अपने मूल भाग को आगे कर बहने लगी। शीघ्र ही उन्होंने उसका पीछे-आगे का भाग समझ लिया। एवं भली प्रकार परीक्षा कर किसी ब्राह्मण के हाथ उसे महाराज श्रेणिक की सेवा में भेज दिया। लकड़ी को ले ब्राह्मण राजगृह नगर गया। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् और कुमार की आज्ञानुसार उसने लकड़ी का नीचा-ऊँचा भाग महाराज की सेवा में विनयपूर्वक जा बताया ॥१००-१०॥ अन्यदेति निदेशस्तु दत्तो मागधनायकैः । कोपोद्दीपितसद्वक्त्र गंभीरधिषणावृतः ।।१०६॥ यावत्पूरं तिला विप्रै र्ग ह्यते तत्प्रमाणकं । तावत्पूरं च तेषां वै देयं तैलं मुदाद्रुतम् ॥१०७॥ आकर्ण्यति जगुर्विप्रा किं चिकीर्षति भूपतिः ? निर्देशो दुर्द्धरस्तेन कथं दीयेत शक्त्यगः ॥१०८।। ततोऽभयकुमारो सा वाश्वास्य निजबुद्धितः । वाड़वानिति जग्राह पूरयित्वा च दर्पणम् ॥१०॥ जिस समय महाराज ने लकड़ी को देखा तो मारे क्रोध से उनका तन-बदन जल गया। वे सोचने लगे कि मैं ब्राह्मणों पर दोषारोपण करने के लिए कठिन-से-कठिन उपाय कर चुका । अभी ब्राह्मण किसी प्रकार दोषी सिद्ध नहीं हुए हैं। नन्दिग्राम के ब्राह्मण बड़े चालाक मालूम पड़ते हैं। अब इनको दोषी बताने के लिए कोई दूसरा उपाय सोचना चाहिए। तथा क्षणेक ऐसा विचार कर उन्होंने फिर किसी सेवक को बुलाया। और उसके हाथ में कुछ तिल देकर यह आज्ञा दी कि तुम नन्दिग्राम जाओ। और वहाँ के ब्राह्मणों को तिल देकर यह बात कहो कि महाराजने ये तिल भेजे हैं। जितने ये तिल हैं इनकी बराबर शीघ्र ही तेल राजगृह पहुँचा दो। नहीं तो तुम्हारे हक में अच्छा न होगा। महाराज की आज्ञानुसार दूत नन्दिग्राम की ओर चल दिया। और तिल ब्राह्मणों को दे दिये। तथा यह भी कह दिया कि जितने ये तिल हैं महाराज ने उतना ही तेल मॅगाया है। तेल शीघ्र भेजो नहीं तो नन्दिग्राम छोड़ना पड़ेगा। दूत के मुख से ऐसे वचन सुन ब्राह्मण बड़े घबराये। वे सीधे अभयकुमार के पास गये। और विनयपूर्वक यह कहा-महोदय कुमार ! महाराज ने ये थोड़े-से तिल भेजे हैं। इनकी बराबर ही तेल माँगा है। क्या करें? यह बात अति कठिन है। तिलों के बराबर तेल कैसे भेजा जा सकता है ? मालम होता है अब महाराज छोड़ेंगे नहीं ॥१०६-१०६॥ तिलान् संपीड्य तैलं च निःकाश्य वरबुद्धितः । तैलमादर्शपूरं च प्रेषयामास भूपतिम् ॥११०॥ रुषाऽन्यदेति भूपेश इत्यादेशं ददौ पुनः । भो विप्राः प्रेषणीयं च भोज्ययोग्यं पयः शुभम् ॥१११॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ११३ गवादिपशु वर्ज च द्विपदत्यक्तकं तथा । नालिकेरादि वर्ज च प्रीतिदं प्रचुरं तथा ॥११२॥ श्रुत्वेति वाड़वाः सर्वे बुद्धिलाभाय तं श्रिताः । स समुद्धीर्य तान् बुद्धया गरिष्टप्रतिमः सदा ॥११३॥ आनयामास क्षीरार्थं शालीनां कणिशानि च । यंत्रे निः पीड्य निः काश्य क्षीरं गोक्षीरसत्प्रभं ॥११४॥ प्रपूर्य नृपति वेगाद्घटान् दुग्धावभासिनः । प्रेषयामास बुद्धींद्रो मागधांगसमुद्भवः ॥११॥ ब्राह्मणों को इस प्रकार हताश देख कुमार ने फिर उन्हें समझा दिया। तथा एक दर्पण मँगाया और दर्पण पर तिलों को पूरकर ब्राह्मणों को आज्ञा दी कि जाओ इनका तेल निकलवा लाओ। जिस समय कुमार की आज्ञानुसार ब्राह्मण तेल पेरकर ले आये। तो उस तेल को कुमार ने तिलों की बराबर ही दर्पण पर पूर दिया। और महाराज श्रेणिक की सेवा में किसी मनुष्य द्वारा भिजवा दिया। तिलों के बराबर तेल देख महाराज चकित रह गये। फिर उनके हृदय समुद्र में विचारतरंग उछलने लगीं। वे बारम्बार नन्दिग्राम के ब्राह्मणों के बुद्धिबल की प्रशंसा करने लगे। अब महाराज को क्रोध के साथ-साथ नन्दिग्राम के ब्राह्मणों की बुद्धि-परीक्षा कौतूहल-सा हो गया। उन्होंने फिर किसी सेवक को बुलाया और उसे आज्ञा दी कि तुम अभी नन्दिग्राम जाओ। और ब्राह्मणों से कहो कि महाराज ने भोजन के योग्य दूध मँगाया है। उनसे यह कह देना कि वह दूध गाय-भैंस आदि चौपायों का न हो। और न दुपायों का हो । नारियल आदि पदार्थों का भी न हो। किंतु इनसे अतिरिक्त हो । मीठा हो । उत्तम हो और बहुत-सा हो। महाराज की आज्ञानुसार दूत फिर नन्दिग्राम को गया महाराज ने जैसा दूध लाने के लिए आज्ञा दी थी। वही आज्ञा उसने नन्दिग्राम के विप्रों के सामने जाकर कह सुनायी। और यह भी सुना दिया कि महाराज का क्रोध तुम्हारे ऊपर बढ़ता ही चला जाता है। महाराज आप लोगों पर बहुत नाराज हैं। दूध शीघ्र भेजो नहीं तो तुम्हें नन्दिग्राम में नहीं रहने देंगे। दूत के मुख से यह संदेशा सुन विप्रों के मस्तक चक्कर खाने लगे। विचारने लगे कि दूध तो गाय, भैंस, बकरी आदि का ही होता है। इसके अतिरिक्त किसी का दूध आज तक हमने सुना ही नहीं है। महाराज ने जो किसी अन्य ही चीज का दूध मँगाया है सो उन्हें क्या सूझी है ? क्या वे अब हमारा सर्वथा नाश ही करना चाहते हैं ! तथा क्षणेक ऐसा विचार कर वे अति व्याकुल हो दौड़ते-दौड़ते अभयकुमार के पास गये। और महाराज का सब संदेशा कुमार के सामने कह सुनाया। तथा कुमार से यह भी निवेदन किया कि हे महानुभाव कुमार ! अबकी महाराज की आज्ञा बड़ी कठिन है क्योंकि हो सकता है दूध तो गाय, भैंस, बकरी आदि का ही हो सकता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् इनके अतिरिक्त दूध हो ही नहीं सकता। यदि हो भी तो वह दूध नहीं कहा जा सकता। महाराज ने अब यह दूध नहीं मांगा है हम लोगों के प्राण मांगे हैं। विप्रों के वचन सुन कुमार ने उत्तर दिया-आप क्यों घबराते हैं ? गाय, भैंस, बकरी आदि से अतिरिक्त का भी दूध होता है। मैं अभी उसे महाराज की सेवा में भिजवाता है। आप जरा धैर्य रखें। तथा ऐसा कहकर कुमार ने शीघ्र ही कच्चे धान्यों की बालें मँगवाईं। और उनसे गौ के समान ही उत्तम दूध निकलवाकर कई घड़े भरकर तैयार कराये। एवं वे घड़े महाराज श्रेणिक की सेवा में राजगृह नगर भेज दिये ॥११०-११५।। आदिदेशान्यदाधीश इति तान् द्विजनायकान् । एक एव सुयोद्धव्यः कुर्कुटो मे समीपतः ।।११६।। कुमार बुद्धितो विप्रा जग्मूराजगृहम् पुरम् । सादर्शास्ते हसंतश्च गृहीत्वा चरणायुधम् ॥११७॥ ततो भूपति सांनिध्ये युयोध चरणायुधः ।। दृष्टतत्प्रतिबिंबोऽसौ मुकुरे क्रोधतस्तदा ॥११८॥ चरणाहतिमाकुर्वन् वक्त्रघातं च दर्पणे । वैरिणं मन्यमानः स स्थितं दीर्घ युयोध च ॥११६॥ दृष्ट्वा तदाननं भूभृद्विस्मितोऽभूत्स्वमानसे । दत्तोऽन्यदा निदेशस्तु विप्राणां भूभृता हठात् ॥१२०॥ बालुकावेष्टनं शीघ्रमानेतव्यं द्विजाधिपः । अन्यथा ग्रामतो नाशो भवतां नात्र विचारणा ॥१२१।। दूध के भरे हुए घड़ों को देख महाराज आश्चर्य-समुद्र में गोता लगाने लगे। नन्दिग्राम के विनों की बुद्धिबल की ओर ध्यान दे उन्हें दांतों तले उंगली दबानी पड़ी। वे बार-बार यह कहने लगे कि नन्दिग्राम के विप्रों का बुद्धिबल है कि कोई बलाय है ? मैं जिस चीज को परीक्षार्थ उनके पास भेजता हूँ। फौरन वे उसका जवाब मेरे पास भेज देते हैं। मालूम होता है उनका बुद्धिबल इतना बढ़ा-चढ़ा है कि उन्हें सोचने तक की भी जरूरत नहीं पड़ती। अस्तु, अब मैं उन्हें अपने सामने बुलाकर उनकी परीक्षा करता हूँ। देखें, वे कैसे बुद्धिमान हैं ? तथा क्षणेक ऐसा अपने मन में दृड़ निश्चय कर महाराज ने शीघ्र ही एक सेवक को बुलाया। और उससे यह कहा-तुम अभी नन्दिग्राम जाओ और वहाँ के विप्रों से कहो कि महाराज ने यह आज्ञा दी है कि नन्दिग्राम के विप्र एक ही मुर्गे को मेरे सामने आकर लड़ावें। यदि वे ऐसा न करें तो नन्दिग्राम खाली कर चले जायें। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ११५ महाराज की आज्ञा पाते ही दूत फिर चल दिया। और नन्दिग्राम में पहुँच उसने विप्रों से जाकर यह कहा कि आप लोगों के लिए महाराज ने यह आज्ञा दी है कि नन्दिग्राम के विप्र राजगृह नगर आयें। और हमारे सामने एक ही मुर्गे को लड़ावें । यदि यह बात उनको नामंजूर हो तो वे शीघ्र ही नन्दिग्राम को खाली कर चले जायें। दूत के वचन सुन विप्र फिर घबराकर अभयकुमार के पास गये। और महाराज का सारा संदेशा उनके सामने निवेदन कर दिया। तथा यह भी कहा-महनीय कुमार ! अबकी महाराज ने हमें अपने सामने बुलाया है। अबको हमारे ऊपर अति भयंकर विघ्न मालूम पड़ता है। विप्रों के ऐसे वचन सुन कुमार ने उत्तर दिया-आप खुशी से राजगृह नगर जायें। आप किसी बात से घबरायें नहीं! वहाँ जाकर एक काम करें, मुर्गे को अपने सामने खड़ा कर एक दर्पण उसके सामने रख दें। जिस समय वह मुर्गा दर्पण में अपनी तस्वीर देखेगा। अपना बैरी दूसरा मुर्गा समझ वह फौरन लड़ने लग जायेगा । और आपका काम सिद्ध हो जायेगा। ___ कुमार के मुख से यह युक्ति सुनकर मारे हर्ष के विप्रों का शरीर रोमांचित हो गया। एक मुर्गा लेकर वे शीघ्र ही राजगृह नगर की ओर चल दिये। राजमंदिर में पहुंचकर उन्होंने भक्तिपूर्वक महाराज को नमस्कार किया। तथा उनके सामने उन्होंने मुर्गा छोड़ दिया। और उसके आगे एक दर्पण रख दिया जिस समय असली मुर्गे ने दर्पण में अपनी तस्वीर देखी तो उसने उसे अपना बैरी असली मुर्गा समझा। और वह चोंच मार-मारकर उसके साथ अति आतुर हो युद्ध करने लग गया। __ अकेले ही मुर्गे को युद्ध करते हुए देख महाराज चकित रह गये। उन्होंने शीघ्र ही मुर्गे की लड़ाई समाप्त करा दी। तथा विप्रों को जाने के लिए आज्ञा दे दी। जिस समय विप्र चले गये तब महाराज के मन में फिर सोच उठा । वे विचारने लगे कि विप्र बड़े बुद्धिमान हैं। उनको अब किस रीति से दोषी बनाया जाय? कुछ समझ में नहीं आता। तथा क्षणेक ऐसा विचार कर उन्होंने फिर किसी सेवक को बुलाया। और उससे कहा कि तुम शीघ्र नन्दिग्राम जाओ। और वहाँ के वित्रों से कहो कि महाराज ने बालू की रस्सी मॅगाई है, शोघ्र तैयार कर भेजो। नहीं तो अच्छा न होगा ॥११६-१२१॥ अभयाद्बुद्धिमासाद्य जग्मुस्ते राजसन्निधिम् । आदाय वालुकावृदं प्रणम्येति वचो जगुः ।।१२२॥ बालुकावेष्टनं भूपभांडागारस्थमुत्तमम् । देयं तेन प्रमाणेन क्रियते तत्समं पुनः ॥१२३॥ भूपोऽगदीद्वचो विप्रा नास्ति तद्वेष्टनं मम । भांडालये तदा प्रोचुर्युक्तं युक्तं द्विजानृप ॥१२४॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् भावत्के यद्गृहे नास्ति तन्नास्ति भुवनत्रये । अतो वृथा न दातव्यो देशो दैवावघातकः ॥१२५।। वाक्प्रबंधेन भूपालमिति संजित्य वाड़वाः । प्राप्य स्वपत्तनं वेगान्नेमुस्तत्पादपंकजम् ॥१२६।। महाराज की आज्ञा पाते ही दूत नन्दिग्राम की ओर चल दिया। तथा नन्दिग्राम में पहुँच कर उसने विप्रों के सामने महाराज श्रेणिक का सारा संदेशा कह सुनाया। दूत द्वारा महाराज की यह आज्ञा सुन विप्रों के तो बिलकुल छक्के छूट गये। वे भागतेभागते अभयकुमार के पास पहुंचे तथा अभयकुमार के सामने सारा संदेशा निवेदन कर उन्होंने कहा-पूज्य कुमार ! अबकी महाराज ने यह क्या आज्ञा दी है। इसका हमें अर्थ ही नहीं मालूम हुआ। हमने तो आज तक न बालू की रस्सी सुनी और न देखी। विप्रों द्वारा महाराज की आज्ञा सुन कुमार ने उत्तर दिया कि आप किसी भी बात से घबराइये नहीं । इसका उपाय यही है कि आप लोग अभी राजगृह नगर जाएँ। और महाराज के सामने यह निवेदन करें। श्री राजाधिराज ! आपके भण्डार में कोई दूसरी बालू की रस्सी हो तो कृपाकर हमें देवें, जिससे हम वैसी ही रस्सी आपकी सेवा में लाकर हाजिर कर दें। यदि महाराज मना करें कि हमारे यहाँ वैसी रस्सी नहीं है तो उनसे आप विनयपूर्वक अपने अपराध की क्षमा मांग लीजिए। और यह प्रार्थना कर दीजिए कि हे महाराज ! कृपाकर ऐसी अलभ्य वस्तु की हमें आज्ञा न दिया करें। हम आपकी दीन प्रजा हैं। कुमार की यह युक्ति सुनकर विप्रों को अति हर्ष हुआ। वे अत्यंत आनंदित हो उछलतेकूदते शीघ्र ही राजगृह नगर जा पहुँचे। राजमंदिर में प्रवेश कर उन्होंने महाराज को नमस्कार किया। और विनयपूर्वक यह निवेदन किया श्रीमहाराज! आपने हमें बालू की रस्सी के लिए आज्ञा दी है। हमें नहीं मालूम होता हम कैसी रस्सी आपकी सेवा में ला हाजिर करें। कृपया हमें कोई दूसरी बाल की रस्सी मिले तो हम वैसी ही आपकी सेवा में हाजिर कर दें । अपराध क्षमा हो। विप्रों की बात सुन महाराज ने उत्तर दिया। हे विप्रो ! मेरे यहाँ कोई भी बाल की रस्सी नहीं। बस, फिर क्या था ! महाराज के मुख से शब्द निकलते ही विप्रों ने एक स्वर हो इस प्रकार निवेदन किया हे कृपानाथ ! जब आपके भंडार में भी रस्सी नहीं है तो हम कहाँ से बालू की रस्सी बना कर ला सकते हैं। प्रभो! कृपया हम पर ऐसी अलभ्य वस्तु के लिए आज्ञा न भेजा करें। आपकी ऐसी कठोर आज्ञा हमारा घोर अहित करनेवाली है। हम आपके ताबेदार हैं, आप हमारे स्वामी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् हैं। तथा इस प्रकार विनयपूर्वक निवेदन कर विप्र राजमंदिर से चले गये। किंतु विप्रों के विनय करने पर भी महाराज के कोप की शांति न हुई । विप्रों के चले जाने पर उन्हें फिर नन्दिग्राम के अपमान का स्मरण आया । उनके शरीर में फिर क्रोध की ज्वाला छटकने लगी ।। १२२-१२६ ।। अन्यदा क्षितिपालश्च चुकोप पूर्वजं स्मरन् । ददामि तादृशादेशं कर्त्तुं कैश्चिन्न शक्यते ॥१२७॥ घटे घटप्रमाणं च कूष्मांडफलमुत्तमं । आनेतव्यं द्विजाधीशा नो चेद्ग्रामाद्बहिर्गतिः ॥ १२८ ॥ नराधिपः । वाड़वा जग्मुरभयस्य समक्षतां ॥ १२ ॥ ददाविति तदादेशं वाडवानां आकर्ण्य त्राहि त्राहि कृपाधीश ! लाहि लाह्यभयं द्विजान् । पाहि पाहि नृप क्रोधात्ख्याहि ख्याहि शुभं शुभम् ॥१३०॥ प्रमीमांस्य चिरं चित्ते प्रदीदांस्य ममव्ययाम् । प्रशीशांस्य धिया चित्तं प्रवीभत्स्य नृपोद्भवम् ॥ १३१ ॥ कुरु प्रतिक्रियां राजन् जीवने वाडवस्य च । गंभीरत्वं समुद्रस्याचलत्वं मंदरस्य च ।। १३२ ।। विद्वत्त्वं देवजीवस्य भानोस्त्वयि प्रतापता । आधिपत्यं सदा जिष्णो हिमांशोः सौम्यता पुनः ।। १३३ ।। न्यायत्वं रामदेवस्य पुष्पबाणस्य रूपिता । बुद्धित्वं ज्ञानिनः स्वामिन् समस्ति शुभशासन ।। १३४ ।। अतः प्रसीद धीरत्वं कुरु चिंतां मम प्रभो । अतः प्रभृति बुद्धीश त्वत्तो जीवितमुल्वणं ॥ १३५ ॥ घटे कूष्मांडपं कुरु त्वत्समो नास्ति सबंधुर्भुवने जीवनहेतवे । रक्षणोद्यतः ।। १३६ ।। ११७ वे विचारने लगे कि विप्र किसी प्रकार दोषी नहीं बन पाये हैं । नन्दिग्राम के विप्र बड़े चालाक मालूम पड़ते हैं । अस्तु, मैं अब उनके पास ऐसी आज्ञा भेजता हूँ जिसका वे पालन ही न Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कर सकें । तथा क्षणेक ऐसा विचार, महाराज ने शीघ्र ही एक दूत बुलाया। और उसे यह आज्ञा दीकि तुम -अभी नन्दिग्राम जाओ। और वहाँ के वित्रों को कहो कि महाराज ने यह आज्ञा दी है। किनन्दिग्राम के वि एक कूष्मांड (पेठा) मेरे पास लावें । वह कूष्मांड़ घड़े में भीतर हो । और घड़े की बराबर हो । कमती-बढ़ती न हो। यदि वे इस आज्ञा का पालन न करें तो नन्दिग्राम को छोड़ दें । इधर महाराज की आज्ञा पाकर दूत तो नन्दिग्राम की ओर रवाना हुआ। उधर जब विप्रों को बालू की रस्सी महाराज के यहाँ से न मिली। तो अपना विघ्न टल जाने से वे खूब आनंद से नन्दिग्राम में रहने लगे । और बार-बार अभयकुमार की बुद्धि की तारीफ करने लगे। किंतु जिस समय दूत फिर से नन्दिग्राम पहुँचा । और ज्योंही उसने विप्रों के सामने महाराज की आज्ञा कहनी प्रारम्भ की। सुनते ही विप्र घबरा गये । महाराज की आज्ञा के भय से उनका शरीर थर-थर काँपने लगा । वे अपने मन में विचारने लगे । हे ईश्वर ! यह विपत्ति फिर कहाँ से आ टूटी ! हम तो अभी महाराज से अपना अपराध क्षमा कराकर आये हैं। क्या हमारे इतने विनय-भाव से भी महाराज का हृदय दया से न पसीजा ? अब हम अपने बचने का क्या और कैसा उपाय करें ? तथा क्षणेक ऐसा विचार कर वे कुमार के सामने इस प्रकार रुदनपूर्वक चिल्लाने लगे । हे वीरों के सिरताज कुमार ! अबकी महाराज ने हमारे ऊपर अति कठिन आज्ञा भेजी है । हे कृपानाथ ! इस भयंकर विघ्न से हमारी शीघ्र रक्षा करो। हम विप्रों के इस भयंकर दुःख का जल्दी निवारण करो। हे दीनबंधु ! इस भयंकर कष्ट से आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं । आप ही हमारे दुःख पर्वत के नाश करने में अखंड वज्र हैं । महनीय कुमार ! लोक में जिस प्रकार समुद्र की गम्भीरता, मेरु पर्वत का अचलपना देवजीत की विद्वत्ता, सूर्य का प्रतापीपना, इन्द्र का स्वामीपना, चन्द्रमा की मनोहरता, राजा रामचन्द्र की न्यायपरायणता, कामदेव की सुन्दरता आदि बातें प्रसिद्ध हैं । उसी प्रकार आपकी सुजनता और विद्वत्ता प्रसिद्ध है । इस समय हम घोर चिंता से व्यथित हो रहे हैं। हे जीवननाथ ! हम सब लोगों का जीवन आपके ही आधार हैं। त्रिलोक में आपके समान हमारा कोई बन्धु नहीं है ।। १२७- १३६ ॥ श्रुत्वेति तत्प्रशंसां स जगाद वचनं घनम् । न भेतव्यं करोम्यत्रोपायं शर्माकरं परम् ॥१३७॥ वल्लीस्थितं घटे सूक्ष्मं स्थापयित्वा च तत्फलं । तत्प्रमाणं विवुध्याशु प्रेषयामास भूपतिम् ॥ १३८ ॥ कौतुकान्वितमानसः । संदृश्य भूपतिः सर्वं व्यतर्कयन्निजे चित्ते विकसत्पद्म सन्निभे ।। १३६ ।। कोऽप्यस्ति बुद्धिसंदाता किंवा विप्राश्च धीधनाः । न विद्मश्चरितं सारं सार्वबुद्धिभरक्षमं ॥ १४०॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् तेऽर्थं पूर्वं न जानंति पश्चात्सर्गत्वकिंचन । पाठकानार्थवेत्तारो विप्राः पश्चिमबुद्धयः ।। १४१॥ विज्ञानं शक्रराजस्य किं वा यक्षराजस्य किं दाहो स्तर्यस्य न विप्राणामियं बुद्धि निश्चयेन च किं चितया ? परीक्षामि बुद्धिहेतुं बुद्धिदायक सन्मवीक्षणाय संप्रेषिता नरास्तेऽपि चेलुस्तन्नगरं चंद्रमसः पुनः । धरणस्यवा ।। १४२॥ निधियाम् । सुयत्नतः ॥ १४३॥ नराधिपः । वरं ॥१४४॥ विप्रों को इस प्रकार करुणापूर्वक रुदन करते हुए देख अभयकुमार का चित्त करुणा से गद्गद हो गया । उन्होंने गम्भीरतापूर्वक विप्रों से कहा- विप्रो ! आप क्यों मामूली-सी बात के लिए इतना घबराते हैं। मैं अभी इसका उपाय करता हूँ । जब तक मैं यहाँ पर हूँ तब तक आप किसी प्रकार से राजा की आज्ञा का भय न करें। तथा विप्रों को इस प्रकार समझाकर अभय कुमार ने एक घड़ा मँगाया। और उसमें बेल सहित कूष्मांड़ फल को रख दिया। अनेक प्रयत्न करने पर कई दिन बाद कूष्मांड़ घड़े के बराबर बढ़ गया। और कुमार ने घड़े सहित ज्यों-का-त्यों उसे महाराज की सेवा में भिजवा दिया। एवं वे आनंद से रहने लगे । ११९ महाराज ने जैसा कूष्मांड़ माँगा था वैसा ही उनके पास पहुँच गया। अबकी कूष्मांड़ देख कर तो महाराज के सोच का पारावार न रहा । वे बारम्बार सोचने लगे हैं ! यह बात क्या है ? क्या नन्दिग्राम के ब्राह्मण ही इतने बुद्धिमान हैं ? या इनके पास कोई और ही मनुष्य बुद्धिमान रहता है ? नन्दिग्राम के ब्राह्मणों का तो इतना पांडित्य नहीं हो सकता। क्योंकि जब से इनको राज्य की ओर से स्थिर आजीविका मिली है तब से ये लोग निपट अज्ञानी हो गये हैं । इनकी समझ में साधारण से साधारण बात तो आती ही नहीं फिर इनके द्वारा मेरी बातों का जवाब देना तो बहुत ही कठिन बात है । जो-जो काम मैंने नन्दिग्राम के ब्राह्मणों के पास भेजे हैं। सबका tara मुझे बुद्धिपूर्वक ही मिला है। इसलिए यही निश्चय होता है । नन्दिग्राम में अवश्य कोई असाधारण बुद्धिधारक ब्राह्मणों से अन्य ही मनुष्य है । जिस पांडित्य से मेरी बातों का जवाब दिया गया है। न मालूम वह पांडित्य इन्द्रदेव का है ? या चन्द्रदेव का है ? अथवा सूर्यदेव या यक्षराज का है ? नन्दिग्राम के ब्राह्मणों का तो किसी प्रकार वैसा पांडित्य नहीं हो सकता । अस्तु, यदि नन्दिग्राम के ब्राह्मण ही इतने बुद्धिमान हैं तो अभी मैं उनकी बुद्धि की फिर परीक्षा किये लेता हूँ। तथा इस प्रकार क्षणेक अपने मन में पक्का निश्चय कर महाराज ने शीघ्र ही कुछ शूरवीर योद्धाओं को बुलाया । और उन्हें यह आज्ञा दी कि तुम लोग अभी नन्दिग्राम जाओ। और नन्दिग्राम में जो अधिक बुद्धिमान हो शीघ्र ही उसे तलाश कर आकर कहो । महाराज की आज्ञा पाते ही योद्धाओं ने शीघ्र ही नन्दिग्रान की ओर गमन कर दिया । तथा नन्दिग्राम के किसी मनोहर वन में वे अपनी भूख की शांति के लिए ठहर गये ।। १३७ - १४४॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तदा बटकवं दैश्च सेव्यमानोऽभयो महान् । क्रीड़ायै तद्वनं धीमानाजगाम मनोहरम् ॥१४॥ नानाशालसमाकीर्ण किलकोकिलनिस्वनम् । जंबूनारिंगजं बीर कंकेल्लिकदलीभरम् ॥१४६।। लांगलीबीजपूराढ्यं घोटादाडिम लिंबुकं । केतकीरक्तषट्पादध्वनवानं सचूतकम् ।।१४७।। तत्र रम्ये फलाकीर्णे जंबूशाखिनि चोन्नते । फलाशनकृते धीमानारुरोह सह द्विजैः ।।१४८।। नृप वीक्ष्य कौमार आटतसत्प्रभप्रभून् । अमीभिर्न च वक्तव्यं भो बटुका इत्यवारयत् ॥१४॥ ततस्ते तत्र राजीया आगत्य क्षुत्कुलाकुलाः । वृक्षाधः कलवं दानि बटुकांस्तान् ययाचिरे ॥१५०॥ वह वन अति मनोहर था। उसमें जगह-जगह पर अनार, नारंगी, संतरा, जमनी, कंकेली, केला, लौंग आदि उत्तमोत्तम फल वृक्षों पर फलते थे। नींबू आदि सुगंधित फलों की सुगंधि से सदा यह वन व्याप्त रहता था। उसके ऊँचे-ऊंचे वृक्षों पर कोयल आदि पक्षीगण अपने मनोहर शब्दों से पथिकों के मन हरण करते थे। और केतकी वृक्षों पर भ्रमर गुंजार करते थे। इसलिए हमेशा नन्दिग्राम के बालक उस वन में क्रीड़ार्थ जाया करते थे। रोज की तरह उस दिन भी बालक क्रीड़ार्थ वन में आये। दैवयोग से उस दिन विप्रों के बालकों के साथ अभयकुमार भी थे ये सब-के-सब हँसते-खेलते किसी जामुन के वृक्ष पर चढ़ गये। और आनंद से जामुन फलों को खाने लगे। बालकों को इस प्रकार जामुन के पेड़ पर चढ़े राजसेवकों ने देखा। तथा वे सब यह समझ कि हम इन बालकों से कुछ फल लेकर अपनी भूख शान्त करेंगे शीघ्र ही उस वृक्ष की ओर झुक पड़े। इधर अभयकुमार ने जब राजसेवकों को अपनी ओर आते हुए देखा। तो वे तो अन्य बालकों से यह कहने लगे-देखो भाई, ये राजसेवक अपनी ओर आ रहे हैं। तुममें कोई भी इनके साथ बातचीत न करें। जो कुछ जवाब-सवाल करूँगा सो मैं ही इनके साथ करूँगा। और उधर राजसेवक जामुन के वृक्ष के नीचे चट आ कूदे। और बालकों से कुछ फलों के लिए उन्होंने प्रार्थना भी की॥१४५-१५०॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १२१ तदाऽभयो वचोऽवादीद्राजीया: पुरुषोत्तमाः । फलेच्छा भवतां चित्ते समस्ति शुभशालिनां ॥१५१।। मयोष्णानि प्रदीयं तेशीतलानि फलानि वा । भवद्भयः कथनीयं मे यादृशानि द्रुतं नराः ॥१५२॥ रोचंते ते वचः श्रुत्वा चितयन्निति मानसे । उष्णानि शीतलान्येव फलानि प्रभवंति किं ॥१५३॥ अनुदृष्टानि शीतानि फलानि प्रचुराणि च । न श्रुतानि न दृष्टानि कोष्णान्यपि जगत्त्रये ॥१५४।। एकस्मिन्नथ वृक्षे च शीतान्युष्णानि कि ननु । भवंति विफलं वाक्यमेषां मन्यामहे वयं ॥१५॥ वितयेति चिरं चित्ते राजीयाः पुरुषा जगुः । उष्णानि तानि देयानि भो अस्मभ्यं त्वयाधुना ॥१५६॥ ततः पक्वानि संगृह्य कानिचित्तानि सत्करे । ईषद्विमर्च संजल्पन्निति निक्षिप्तवान् स च ।।१५७।। भो नरा नितरां दूरे स्थेयं स्थेयं प्रयत्नतः । वालुकायां च वृक्षाधः पतितानि फलानि वै ।।१५८।। ततस्ते बालुका मध्यात्तान्यादाय फलानि च । बालुकानाश सिद्धयर्थं फूत्कुर्वति नरोत्तमाः ॥१५६।। फूत्कुर्वतस्तदालोक्य नरान् स प्राह कौतुकी। फूत्कुर्वति नरा दूरं सोष्णानि फल चान्यथा ॥१६०॥ उष्णत्वाद्भवतां स्मस्र दाहो नूनं भविष्यति । आकर्ण्य हपयामासु रिति ते वचनं जगुः ॥१६॥ शीतानि देहि रम्याणि फलानि सरसानि च । ततो दत्तानि तेनैव तेभ्यो लज्जित मानसाः ॥१६२॥ राजसेवकों की फलों के लिए प्रार्थना सुन अभयकुमार ने सोचा। यदि इनको यों ही फल दे दिये जायेंगे तो कुछ मज़ा न आवेगा । इनको छकाकर फल देना ठीक होगा। इसलिए प्रार्थना के बदले में उन्होंने यही जवाब दिया। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् राजसेवको! तुमने फल माँगे सो ठीक है। जितने फलों की तुम्हें इच्छा हो, उतने ही फल दे सकता हूँ। किंतु यह कहो कि तुम ठण्डे फल लेना चाहते हो या गरम? क्योंकि मेरे पास फल दोनों तरह के हैं। कुमार के ऐसे विचित्र वचन सुन समस्त राजसेवक एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। उन्होंने विचारा कि क्या केवल गरम और केवल ठण्डे भी फल होते हैं ? हमें तो यह बात आज तक सुनने में नहीं आई कि फल गरम भी होते हैं। जितने फल खाये हैं सब ठण्डे ही खाये हैं। और ठण्डे ही फल सने हैं, एक। दूसरे, एक वक्ष पर गरम और ठण्डे दो प्रकार के फल हों यह सर्वथा विरुद्ध जान पड़ता है। तथा क्षणेक ऐसा दृढ़ निश्चय कर, और कुमार को अब उत्तर देना जरूर है,यह समझ उन्होंने कहा महोदय कुमार! हमें आपके वचन अति प्रिय मालूम पड़ते हैं। कृपाकर लाइए हमें गरम ही फल दीजिए। राजसेवकों के ये वचन सुन कुमार ने कुछ फल तोड़े। और उन्हें आपस में घिसकर बाल में दूर पटक दिया । और कह दिया-देखो, फल वे पड़े हैं, उठा लो ! कुमार की आज्ञा पाते ही जिधर फल पड़े थे, राजसेवक उसी ओर दौड़े। ज्योंही उन्होंने बाल से फल उठाकर फूंकना चाहा त्योंही कुमार ने कहा-देखो ! फल होशियारी से फूंकना, ये फल गरम हैं । जो बिना विचारे फूंका तो तुम्हारी सब दाढ़ी-मूंछ जल जायेंगी। कुमार के ऐसे वचन सुनते ही राजसेवक अपने मन में बड़े लज्जित हुए। वे बार-बार टकटकी लगाकर कुमार की ओर देखने लगे। कुमार की इस चतुरता को देखकर राजसेवकों ने निश्चय कर लिया कि हो न हो यही सबमें चतुर जान पड़ता है ? महाराज की बातों का उत्तर भी इसी ने दिया होगा ? ॥१५१-१६२॥ ततो व्याघुट्य ते सर्वे प्रणिपत्य नराधिपम् । कुमारस्य स्वरूपं चाशेषं भेणुर्न पोत्तमम् ।।१६३।। ततो विज्ञाय भूमीशस्तस्वरूपं सुधीधनं । शंसां चक्रे मनीषायास्तस्य संतुष्टचेतसः ।।१६४।। दत्तोऽन्यदा महादेशो राज्ञेत्यानयनकृते । तत्शेमुषीपरीक्षायै सस्मयेन स्वभावतः ॥१६॥ मार्गमुन्मार्गमावाहोरात्रं च त्वया शुभ । तृप्तत्वं च क्षुधार्त्तत्वं वीताद्यारोहणं तथा ॥१६६॥ पादचालनमावागंतव्यं मम पत्तने । इत्याकर्ण्य समेत्यवा भूवन् विप्राः समाकुलाः ॥१६७।। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १२३ तथा कुमार की रूप-संपत्ति उन्होंने देख यह भी निश्चय कर लिया कि यह कोई अवश्य राजकुमार है। यह बालक ब्राह्मण नहीं हो सकता क्योंकि जितने भी बालक यहाँ पर हैं सबसे तेजस्वी, प्रतापी एवं राजलक्षणों से मंडित यही जान पड़ता है। उपस्थित बालकों में इतना तेज किसी के चेहरे पर नहीं जितना इस बालक के चेहरे पर दिखाई देता है। एवं किसी से यह भी जानकारी प्राप्त की कि यह कुमार महाराज श्रेणिक का पुत्र अभयकुमार है। राजसेवकों ने नन्दिग्राम जाने का विचार यहीं समाप्त कर दिया। वे लज्जित एवं आनंदित हो राजगृह की ओर ही लौट पड़े और महाराज को नमस्कार कर अभयकुमार की जो-जो चेष्टा उन्होंने देखी थीं सब कह सुनायीं। सेवकों द्वारा अभयकुमार का समस्त वृत्तांत सुन, उन्हें बुद्धिमान एवं रूपवान भी निश्चय कर, महाराज श्रेणिक को अति प्रसन्नता हुई अत्यधिक आनंद के कारण उनके नेत्रों से आनंदाश्र झरने लगे। मुख कमल के समान विकसित हो गया। तथा वे विचार करने लगे कि मेरा अनुमान कदापि असत्य नहीं हो सकता। मुझे दृढ़ विश्वास था, नन्दिग्राम के ब्राह्मणों की बुद्धि ऐसी विशाल नहीं हो सकती। जरूर उनके पास कोई-न-कोई चतुर मनुष्य होना चाहिए भला कुमार अभय के सिवाय इतनी बुद्धि की तीक्ष्णता किसमें हो सकती है ? तथा क्षणेक ऐसा विचार कर उन्होंने अभयकुमार को बुलाने के लिए कुछ राजसेवकों को बुलाया। और उनको आज्ञा दी कि तुम अभी नन्दिग्राम जाओ। और अभयकुमार से कहो कि महाराज ने आपको बुलाया है। तथा यह भी कहना कि आपके लिए महाराज ने यह भी आज्ञा दी है कि कुमार न तो मार्ग से आवे और न उन्मार्ग से आवे। न दिन में आवे, न रात में आवे। भूखे भी न आवे, अफरे पेट भी न आवे । न किसी सवारी में आवे और न पैदल आवे। किंतु राजगृह नगर शीघ्र ही आवे। महाराज की आज्ञा पाते ही सेवक शीघ्र ही नन्दिग्राम की ओर चल दिये। एवं कुमार के पास पहुँचकर, उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर महाराज का जो-कुछ संदेशा था, सब कुमार को कह सुनाया ॥१६३-१६७।। ततोऽभयकुमारेण निषिद्धा भयतो द्रुतम् । मा कुरुध्वं भयं विप्राः करिष्यामि यथातथम् ॥१६॥ शकटस्य ततो क्षेषु सिक्यानि च विबंध्य सः । तत्र प्रविश्य संध्यायां भुंजयन् हरिमंथकान् ॥१६॥ सिक्याधः स्थितपादश्चामयाम नृपपत्तनम् । सकौतुकर्महाविप्रैर्महोत्सवशत।। समम् ॥१७०॥ अबकी महाराज ने अभयकुमार के ऊपर भी कठिन संदेशा अटकाया है। और उन्हें राजगृह नगर बुलाया है। यह समाचार सारे नन्दिग्राम में फैल गया। समाचार सुनते ही समस्त ब्राह्मण हा-हाकार करने लगे। भाँति-भाँति के संकल्प-विकल्पों ने उनके चित्त को अपना स्थान बना लिया। क्षण-क्षणे अब उनके मन में यह चिन्ता घूमने लगी कि अब हम किसी रीति से बच Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् नहीं सकते। अब तक जो हमारे जीवन की रक्षा हुई है, सो इसी कुमार की असीम कृपा से है । यदि यह कुमार न होता तो अब तक कब का हमारा विध्वंस हो गया होता। अबकी राजा ने कुमार को बुलाया यह बड़ा अनर्थ किया । हे ईश्वर ! हमने किस भव में ऐसा प्रबल पाप किया था । जिसका फल हम दुःख ही दुःख भोग रहे हैं। भो ईश्वर ! अब तो हमारी रक्षा कर । तथा इस प्रकार रोते-चिल्लाते हुए वे समस्त ब्राह्मण अभयकुमार की सेवा में गये । और ऊँचे स्वर से उनके सामने रोने लगे । विप्रों की ऐसी दुःखित अवस्था देख कुमार ने कहा १२४ I ब्राह्मणो ! आप क्यों इतना व्यर्थ खेद करते हो । राजा ने जिस आज्ञा से बुलाया है । मैं वैसे ही जाऊँगा । मैं आप लोगों का पूरा-पूरा ख्याल रखूंगा। किसी तरह की आप चिंता न करें । तथा विप्रों को इस प्रकार धैर्य बँधाकर कुमार ने शीघ्र ही एक रथ मँगाया । और उसके मध्य में एक छींका बँधवाकर तैयार करवा दिया । जिस समय दिन समाप्त हो गया। दिन का अंत रात का प्रारंभ संध्याकाल प्रकट हो गया । कुमार ने राजगृह की ओर रथ हँकवा दिया। चलते समय रथ का एक चक्र (पहिया) मार्ग में चलाया गया और दूसरा उन्मार्ग में । कुमार ने चलते समय (हरिमंथक) चना का भोजन किया एवं छींके पर सवार हो कुमार अनेक विप्रों के साथ आनंदपूर्वक राजगृह नगर जा पहुँचे ॥१६८ १७० ॥ पौराश्च कामिनीचारा आजन्मादृष्टकौतुकम् । इतस्ततः पर्यटंत ईक्षं नृपदेहजम् ॥१७१॥ सायं ततो महाभूत्या मातामहसमं मुदा । अगमद्राजसमितौ कुमारो मार विभ्रमः ॥ १७२॥ ततो भूपं प्रणम्याशु समालिंग्य पुनः पुनः । सस्नेहं वचनालापं स चक्रे विनयान्वितः ॥१७३॥ दापयित्त्वा च विप्राणामभयं भयवर्जितः । अभयोभयसंरक्तो व्यक्त बुद्धिर्विचक्षणः ।। १७४।। महाराज श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार राजगृह आ गये । यह समाचार सारे नगर में फैल गया। समस्त पुरवासी लोग कुमार के दर्शनार्थ राजमार्ग पर एकत्रित हो गये । नगर की स्त्रियाँ कुमार को टकटकी लगाकर देखने लगीं। कुमार के आगमन - उत्सव में सारा नगर बाजों से गूंजने लग गया । बंदीगण कुमार की बिरदावली बखानने लगे । और पुरवासी लोग कुमार को देख उनकी भाँति-भाँति रीति से प्रशंसा करने लगे। इस प्रकार राजमार्ग से जाते हुए, पुरवासी जनों से भलीभाँति स्तुत, कुमार अभय राजमंदिर के पास जा पहुँचे । रथ से उतर कुमार ने अपने नाना इन्द्रदत्त के साथ राजसभा में प्रवेश किया । और सभा में महाराज को सिंहासन पर विराजमान देख अति विनय नमस्कार किया। महाराज के चरण स्पर्श किये । एवं प्रेमपूर्वक Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ श्रेणिक पुराणम् वार्तालाप करने लगे। कुमार के साथ नंदिग्राम के विप्र भी थे। महाराज से उनका अपराध क्षमा कराया। उन्हें अभय दान दिला संतुष्ट किया। एवं उन्हें आनंदपूर्वक नन्दिग्राम में रहने के लिए आज्ञा दे दी॥१७१-१७४।। राज्ञाभाणि कुमार त्वं गंभीरो धीधनाकुलः । नास्तीदृशी महाबुद्धिर्भुवने यादृशी त्वयि ॥१७॥ मेषश्वदीधिका दंती काष्ठं तैलं पयोंडजः । बालुकावेष्टनं कुंभ कूष्मांडाख्यमहाफलम् ।।१७६॥ अहोरात्रविवर्जं वै तत्तु सर्वं त्वयि स्थितं । महाबुद्धौ नरेऽन्यस्मिन् स्वप्नेऽपिविद्धिदुर्लभं ॥१७७।। तदुक्तं-मेषश्च वापी करि काष्टतैलं । __ क्षीरांड वालुक वेष्टनं च । घटस्थकूष्मांडफलं शिशूनां । दिवानिशावर्जसमागतं च ।।१७८।। अन्योन्य प्रेमबद्धौ जनकवरसुता वापतुः स्नेहसारम्, चक्राते मध्यसारां विहितशुभशतां सत्कथां ग्रंथ्यमानं । रेजाते तौ सुचंद्रादिनकिरणसमौ नीतिधामप्रपन्नौ, रेमाते वाक्प्रबंधै सुघटितविषय ___ शिता नीतिमार्गः ॥१७६।। शास्त्रज्ञता धर्मवलेन जीवे । मेधाविता धर्मबलेन चैव । स्वसंगताधर्मबलेन लोके संजायते पुण्यवतां विशोके ।।१८०॥ क्व गांभीर्यमौदार्यमशौर्यसारं, ___क्व बुद्धित्वमिद्धत्त्वमलब्धिपारम् । क्व रूपित्वमान्तवमासूक्तिधृत्वं तयोरस्ति संन्यस्त वस्तुत्वसत्वम् ।।१८१।। कुमार के इस विनय-बर्ताव से एवं लोकोत्तर चातुर्य से महाराज श्रेणिक को अति प्रसन्नता हुई। कुमार की बिना प्रशंसा किये उनसे न रहा गया । वे इस प्रकार कुमार की प्रशंसा करने लगे। भो कुमार ! जैसा ऊँचे दर्जे का पांडित्य आपमें मौजूद है वैसा पांडित्य कहीं पर Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् नहीं । महाभाग ! वकरा, बावड़ी, काष्ट, तेल, दूध, बालू की रस्सी, कूष्मांड़ रात-दिन आदि रहित, इत्यादि प्रश्नों के जवाब का सामर्थ्य आपकी बुद्धि में ही था । भला ऐसी विशाल बुद्धि अन्य मनुष्य में कहाँ से हो सकती है । इत्यादि अनेक प्रकार से अभयकुमार की तारीफ कर महाराज ने उनके साथ अधिक स्नेह जताया। दोनों पिता-पुत्र अनेक उत्तमोत्तम पुरुषों की कथा कहने लगे । आपस में वार्तालाप करते हुए, एक स्थान में स्थित, दोनों महानुभावों ने सूर्य-चन्द्रमा की उपमा को धारण किया। महाराज श्रेणिक ने सेठी इन्द्रदत्त का भी अति सम्मान किया । एवं मधुरभाषी, सोच-विचारकर कार्य करनेवाले, कुमार और महाराज आनंदपूर्वक राजगृह नगर में सुखानुभव करने लगे । १२६ धर्म का माहात्म्य अचिंतनीय है । क्योंकि इसकी कृपा से संसार में जीवों को उत्तमोत्तम बुद्धि की प्राप्ति होती है । उत्तम संपत्ति मिलती है। तेजस्वीपना, सम्मान, गंभीरता आदि उत्तमोत्तम गुणों की प्राप्ति भी धर्म से ही होती है। महाराज श्रेणिक एवं कुमार अभय ने पूर्व भव में कोई अपूर्व संचय किया था । इसलिए उन्हें इस जन्म में गंभीरता, शूरता, उदारता, बुद्धिमत्ता, तेजस्वीपना, सम्मान, रूपवानपना आदि उत्तमोत्तम गुणों की प्राप्ति हुई । इसलिए उत्तम पुरुषों को चाहिए कि वे हरेक अवस्था में इस परम प्रभावी धर्म का अवश्य आराधन करें ।। १७५-१८१ ।। इति श्रेणिकभवानुबद्ध भविष्यत् श्री पद्मनाभ तीर्थंकर पुराणे मुमुक्षु श्री शुभचन्द्राचार्य विरचितेऽभयकुमारस्यनगरसमागमः षष्ठः सर्गः ॥ ६ ॥ इस प्रकार भविष्यत्काल में होनेवाले श्री पद्मनाभ तीर्थंकर के भवांतर के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित अभयकुमार का राजगृह में आगमन वर्णन करनेवाला छठवाँ सर्ग समाप्त हुआ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः ज्ञानभूषाय सिद्धाय नमः स्यान्मनिवातके । त्रिलोकस्य स्थितायैव तद्गुणाप्तिकृते पुनः ॥ १ ॥ ततो राज्ञा महादेवी पट्टोनंदश्रियः शुभः । बबंधे संभ्रमेणैव दुंदुभ्यानकवादतः ॥ २ ॥ अभयाय कुमाराय युवराज्यं ददौ मुदा । प्राधान्यं च नराधीशः सर्वसामंतसाक्षिकं ।। ३ ॥ जगबौद्धमयं कुर्वश्चितयंस्तद्गुणादिकम् । श्रेणिकोऽभयपुत्रेण रराज जितशात्रवः ॥ ४ ॥ भगवंतं गुरुं कृत्वा जाठराग्नि मदोद्धतम् । चतुरार्यमयं तत्वं पूजयामास भूपतिः ॥ ५ ॥ ज्ञानरूपी भूषण के धारक, तीनों लोक के मस्तक पर विराजमान श्री सिद्ध भगवान को उनके गुणों की प्राप्यतर्थ मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ। __ अनंतर इसके महाराज श्रेणिक ने रानी नन्दश्री को नन्दिग्राम से बुला महादेवी का पद प्रदान किया-उसे पटरानी बनाया। तथा अभयकुमार को युवराज-पद दिया। अभयकुमार का बद्धिबल और तेजस्वीपन देख सामंतों को सम्मतिपूर्वक महाराज ने उन्हें सेनापति का पद भी दे दिया। एवं बुद्धदेव के गुणों में दत्तचित्त महाराज श्रेणिक ने किसी बौद्ध-संन्यासी को गुरु बनाया। और उसकी आज्ञानुसार वे आनंदपूर्वक चतुरार्यमय तत्त्व की पूजन करने लगे। तथा अपने राज्य को निष्कंटक राज्य बना अभयकुमार के साथ लोकोत्तर सुख अनुभव करने लगे।।१-५॥ अभयो बुद्धिकौशल्यं काशांचक्रे निरन्तरम् । नानानीति भयन्न्यायी विन्यायपथवजितः ॥ ६ ॥ अभयकुमार अतिशय बुद्धिमान थे। बुद्धिपूर्वक राज्य-कार्य करने से उनका चातुर्य और यश समस्त संसार में फैल गया। कुमार की न्यायपरायणता देख समस्त प्रजा मुक्त कंठ से उनकी तारीफ करने लगी। एवं कुमार की नीति-निपुणता से राज्य में किसी प्रकार की अनीति नजर न आने लगी। मगध देश की प्रजा आनंदपूर्वक रहने लगी॥६॥ अथेत्य पुण्यवान श्रेष्ठी समुद्रादिसुदत्तकः । द्वे भार्ये स्तः शुभे तस्य वसुदत्ता वरानना ॥ ७ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् वसुमित्रा शुभा पत्नी द्वितीया सुंदराकृतिः । मित्रायां च सुतो जातो दैवयोगाद्वराननः ॥ ८ ॥ कुतश्चिद्ग्रामतः श्रेष्ठी निवासाय समागमत् । स्त्रीभ्यां पुत्रेण साकं च पुरे तत्र सुमंदिरे ॥ ६ ॥ ततः सुखेन तत्रास्थाद्धनेभ्यो धनकांक्षिणे । यच्छन् धनं च कुर्वाणो धर्मधन निबंधनम् ॥ १० ॥ मगध देश में महान संपत्ति का धारक कोई समुद्रदत्त नाम का सेठ निवास करता था । उसकी दो स्त्रियाँ थीं । समुद्रदत्त की बड़ी स्त्री का नाम वसुदत्ता था। और उसकी दूसरी स्त्री जो अतिशय रूपवती थी, वसुमित्रा थी । उन दोनों में वसुदत्ता के कोई संतान न थी । केवल छोटी स्त्री वसुमित्रा के एक बालक था । 1 कदाचित् घर में विपुल धन रहने पर भी सेठ समुद्रदत्त को धन कमाने की चिंता हुई । वे शीघ्र ही अपनी दोनों स्त्री और पुत्र के साथ विदेश को निकल पड़े। अनेक देशों में घूमते-घूमते वे राजगृह नगर आये। और वहाँ पर सुखपूर्वक धन का उपार्जन करने लगे व आनंदपूर्वक रहने लगे । दुर्देव की महिमा अपार संसार में जो घोर से घोर दुःख का सामना करना पड़ता है, इसी की कृपा है। इस निर्दयी दुर्देव को किसी पर दया नहीं । श्रेष्ठी समुद्रदत्त आनंदपूर्वक निवास करते थे । अचानक ही उन्हें काल ने ग्रसित किया। समुद्रदत्त को पुत्र व स्त्रियों से स्नेह छोड़ना पड़ा । समुद्रदत्त के मरने के बाद उनकी स्त्रियों को अपार दुःख हुआ। किंतु किया क्या जाए ? दुर्देव के सामने किसी की भी तीन पाँच नहीं चलती ॥ ७-१० ॥ लाल्यते पाल्यते पुत्रो द्वाभ्यां स्त्रीभ्यां निरंतरम् । प्राप्यते स्तन्यमुत्संगे ध्रियते सममोहकः ।। ११॥ दैवादियोगेन मृतेऽभूत्कल हस्तयोः । दत्ते संबद्धबहुकोपयोः ।। १२॥ वित्तपुत्रकृते नित्यं वसुदत्ता वचो वक्ति पुत्रोऽयं मे न चान्यथा । वसुमित्रा तथा वक्ति तयो द्वेषो बभूव च ।। १३ ।। जब तक सेठ समुद्रदत्त जीवित थे तब तक तो वसुदत्ता एवं वसुमित्रा में प्रगाढ़ प्रेम रहा । समुद्रदत्त के सामने यह विचार स्वप्न में भी नहीं आता था कि कभी इन दोनों में झगड़ा होगा । सेठजी के मरणोपरांत ये उनकी बुरी तरह अवहेलना करेंगी ? पुत्र के ऊपर भी उन दोनों का बराबर प्रेम था । पुत्र की खास माँ वसुमित्रा जिस प्रकार पुत्र पर अधिक प्रेम रखती थी । उससे भी अधिक वसुदत्ता का था । यहाँ तक कि समान रीति से पुत्र के लालन-पालन करने से Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १२६ किसी को यह पता भी नहीं लगता था कि पुत्र वसुदत्ता का है या वसुमित्रा का ? बालक को भी कुछ पता नहीं लगता था। वह दोनों को ही अपनी माँ मानता था। किंतु ज्योंही सेठ समुद्रदत्त का शरीरांत हुआ वसुदत्ता और वसुमित्रा में झगड़ा होना प्रारंभ हो गया। कभी तो उन दोनों की लड़ाई धन के लिए होने लगी। और कभी पुत्र के लिए। वसुदत्ता तो यह कहती थी यह पुत्र मेरा है। और उसकी बात को काटकर वसुमित्रा यह कहती थी-यह पुत्र मेरा है। गाँव के सेठसाहकारों ने भी यह बात सुनी। वे सेठ समुद्रदत्त की आबरू का ख्याल कर उनके घर आये। सेठसाहूकारों ने बहुत-कुछ उन स्त्रियों को समझाया। उन्हें सेठ समुद्रदत्त की प्रतिष्ठा का भी स्मरण दिलाया। किंतु उन मूर्खा स्त्रियों के ध्यान पर एक बात न चढ़ी। धन-संबंधी झगड़ा छोड़ वे पुत्र के लिए अधिक झगड़ा करने लगीं। पुत्र का झगड़ा देख सेठ-साहूकारों की नाक में दम आ गया। वे ज़रा भी इस बात का फैसला न कर सके कि वह पुत्र वास्तव में किसका था? तथा इस रीति से उन दोनों स्त्रियों में दिनोंदिन द्वेष वृद्धिगत होता चला गया ॥११-१३।। नगरश्रेष्ठिभिर्लोकार्यमाणेन तिष्ठतः । ततस्ते भूपति प्राप्याऽचीकथतां मनोगताम् ॥ १४ ।। राज्ञा निवार्यमाणे तेन वित्तश्च परस्परम् । भेदं कर्तुं न शक्नोति विवादस्य नृपस्तयोः ॥ १५ ॥ आदिदेश ततो भूपः कुमारं मंत्रिसत्यदम् । तद्भेदनकृते सोऽपि यतते बहुचेष्टितैः ।। १६ ॥ भेदयन्नपि तद्भेदं कर्तुं विविधवेष्टितः । नाशक्तः स यदा तावबालं भूमौ न्यविक्षिपत् ॥ १७॥ आकृष्य छुरिकां धीमान् करेण कृतकौतुकः । बालस्योपरि संस्थाप्य तामित्याह वचस्तके ॥ १८ ॥ उभाभ्यामर्द्धमद्धं च शिशो स्यामि निश्चितं । विवादहानये बाले विवादः कोऽत्र निर्णये ॥ १६ ॥ वसुमित्रा ततो वादीदित्थं मा कुरु सज्जन । देहि त्वं वसुदत्तायै मामकीनः सुतो न हि ॥ २० ॥ अस्यास्तनुजवायमस्मिन् स्नेहप्रदर्शनात् । नान्यथेति विवेदासौ बुद्धितः शिशुमातरं ।। २१ ॥ ज्ञात्वा प्रकथ्य लोकानां जनन्यादिककारणम् । निश्चित्य वसुदत्तां न ददौ तस्यै लघीयसे ॥ २२॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् इत्यादि बहुसन्नीतिं कुर्वाणो बुद्धितः सुधीः । न्यायं प्रवर्त्तयामास नगरे मागधोद्भवः ॥ २३ ॥ अथान्यदा कुटुंबीचायोध्यायां वसते मुदा। बलभद्राभिधोन्ययी भद्रातस्य सुभामिनी ॥ २४ ॥ कदाचित् उन स्त्रियों के मन में न्याय-सभा में जाकर न्याय कराने की इच्छा हुई-उन्हें इस प्रकार दरबार में जाते देख फिर गाँव के बड़े-बड़े मनुष्य सेठ समुद्रदत्त के घर आये। उन्होंने फिर उन स्त्रियों को इस रीति से समझाया-देखो, तुम बड़े घराने की स्त्रियाँ हो। तुम्हारा कुल उत्तम है। तुम्हें इस बात के लिए दरबार में जाना नहीं चाहिए। यदि तुम दरबार में बिना विचारे चली जाओगी तो समस्त लोक तुम्हारी निंदा करेगा। तम्हें निर्लज्ज कहेगा एवं पश्चात तुम्हें बहुत-कुछ पछताना पड़ेगा किंतु उन मूर्खा स्त्रियों ने एक न मानी। निर्लज्ज हो, वे सीधी दरबार को चल दीं। और महाराज के सामने जो-कुछ उन्हें कहना था, साफ-साफ कह सुनाया। स्त्रियों की यह विचित्र बात सुन महाराज श्रेणिक चकित रह गये। उन्होंने वास्तव में यह पुत्र किसका है? इस बात के जानने के लिए अनेक उपाय सोचे किन्तु कोई उपाय सफल न जान पड़ा। उन्होंने स्त्रियों को बहुत-कुछ समझाया। लड़ाई करने के लिए भी रोका। किन्तु उन स्त्रियों ने एक न मानी। महाराज ने जब स्त्रियों का हठ विशेष देखा। समझाने पर भी जब वे न समझीं। तब उन्होंने शीघ्र ही युवराज अभयकुमार को बुलाया। और जो हकीकत उन स्त्रियों की थी, सारी कह सुनायी। महाराज के मुख से स्त्रियों का यह विचित्र विवाद सुन कुमार को भी दाँत तले उँगली दबानी पड़ी। किन्तु उपाय से अति कठिन काम भी अति सरल हो जाता है, यह समझ उन्होंने उपाय करना प्रारंभ कर दिया। कुमार ने उन दोनों स्त्रियों को अपने पास बुलाया। प्रिय वचन कह उन्हें अधिक समझाने लगे। किन्तु वह पुत्र वास्तव में किसका था, स्त्रियों ने पता न लगने दिया। किसी समय कुमार ने एक-एक कर उन्हें एकांत में भी बुलाकर पूछा। किन्तु वे दोनों स्त्रियाँ पुत्र को अपना-अपना ही बतलाती रहीं। विवाद-शांति के लिए कुमार ने और भी अनेक उपाय किये। किन्तु फल कुछ भी नहीं निकला । अन्त में उनको अधिक गुस्सा आ गया। उन्होंने बालक शीघ्र ही जमीन पर रखवा लिया और अपने हाथ में एक तलवार ले, उसे बालक के पेट पर रख कुमार ने स्त्रियों से कहास्त्रियो ! आप घबराइयें नहीं, मैं अभी इस बालक के दो टुकड़े कर आपका फैसला किये देता हूँ। आप एक-एक टुकड़ा ले अपने घर चली जायें। मातृस्नेह से बढ़कर दुनिया में स्नेह नहीं। चाहे पुत्र कुपुत्र हो जाए, माता कुमाता नहीं होती। पुत्र भले ही उनके लिए किसी काम का न हो। माता कभी भी उसका अनिष्ट चिंतन नहीं करती। सदा माता का विचार यही रहता है। चाहे मेरा पुत्र कुछ भी न करे। किन्तु मेरी आँखां के सामने प्रति समय बना रहे। इसलिए जिस समय सेठानी वसुमित्रा ने अभयकुमार के वचन Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ श्रेणिक पुराणम् सुने । मारे भय के उसका शरीर थर्राने लगा । पुत्र के टुकड़े सुन उसके नेत्रों से अविरल अश्रुओं की धारा बहने लगी । उसने शीघ्र ही विनयपूर्वक कुमार से कहा महाभाग कुमार ! इस दीन बालक के आप टुकड़े न करें आप यह बालक वसुदत्ता को दे दें। यह बालक मेरा नहीं वसुदत्ता का ही है । वसुदत्ता का इसमें अधिक स्नेह है, बालक की खास माता वसुमित्रा के ऐसे वचन सुन कुमार ने चट जान लिया कि इस बालक की माँ वसुमित्रा ही है । तथा समस्त मनुष्यों के सामने यह बात प्रकट कर कुमार ने सेठानी वसुमित्रा को बालक दे दिया । और वसुदत्ता को राज्य से निकाल दिया। इस प्रकार अपने बुद्धिबल से नीतिपूर्वक राज्य करनेवाले अभयकुमार ने महाराज श्रेणिक का राज्य धर्म- राज्य बना दिया । और कुमार आनंद पूर्वक रहने लगे ।। ११-२४॥ रूपाढ्या चंद्रवक्त्रा सा तन्वंगी कठिनस्तनी । मृगेक्षणी शुभाकारा वर्त्तते कोकिलस्वना ॥ २५ ॥ वसंतः क्षत्रियः कश्चित्पुरे तत्रास्ति चोन्नतः । दयिता माधवी तस्य रूपादि गुणवर्जिता ॥ २६ ॥ एकदा स वसंतश्च प्रेक्ष्य भद्रां मनोहराम् । ताडयामास कामांधः स्मरबाणेन मोहितः ॥ २७ ॥ महादाहस्तदा जातस्तदंगे स्मरसंभवः । पद्मकर्पूरसज्जलैः ।। २८॥ चंदनद्रवशुभ्रांशु शाम्यति प्राप्नोत्यधिकतां सुवस्त्रैश्च हारैर्मलयचंदनैः । दाहस्तै लेनेव धनंजयः ॥ २६ ॥ न । इसी अवसर में अतिशय सच्चरित्र कोई बलभद्र नाम का गृहस्थ अयोध्या में निवास करता था। उसकी स्त्री भद्रा जो कि अतिशय रूपवती, चन्द्रमुखी, तन्वंगी, कठिनस्तनी, पिकवैनी अति मनोहरा थी । उसी नगर में अतिशय धनवान एक वसंत नाम का क्षत्रिय भी रहता था । उसकी स्त्री का नाम माधवी था, किन्तु वह कुरूपा अधिक थी । कदाचित् भद्रा अपने घर की छत पर खड़ी थी । दैवयोग से वसंत की दृष्टि भद्रा पर पड़ी। भद्रा की खूबसूरती देख वसंत पागल-सा हो गया। सारी होशियारी उसकी किनारा कर गई । कामदेव के तीक्ष्ण बाण वसंत के शरीर का भेदन करने लग गये । उसका दिनोंदिन कामजनित संताप बढ़ता ही चला गया । दाह की शांति के लिए उसने चन्दन - रस, चन्द्रकिरण, कमल कपूर, उत्तम शीतल जल आदि अनेक पदार्थों का सेवन किया । किन्तु उसके दाह की शांति किसी कदर कम न हुई । किन्तु जैसे अग्नि पर घृत डालने से उसकी ज्वाला और भी अधिक बढ़ती जाती है । उसी प्रकार शीतल वस्त्र फूल-माला मलय चंदन उस उल्लू वसंत का मन्मथ संताप दिनोंदिन बढ़ता ही चला गया । भद्रा के बिना उसे समस्त संसार शून्य-ही-शून्य प्रतीत होने लगा । भद्रा की चिंता में वसंत की सारी भूख-प्यास एक ओर किनारा कर गई ।। २५-२६।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ततोऽवसरमासाद्य प्रेषयामास दूतिकाम् । वसंतो विह्वलीभूतो गतस्तापक्षुधादिकः ॥ ३० ॥ सा दूती तां समासाद्य प्रोवाच वचनैः शुभेः । भो भद्रे त्वं कथं नित्यं बलिभद्रेण तिष्ठसि ॥ ३१ ॥ कुरूपी कुत्सितः सोऽपि कर्षणोद्यत मानसः । मेनेऽहं दुर्द्धरं योगं तव तेन कुरूपिणा ॥ ३२॥ त्वत्समा सुंदरा नारी भुवने नास्ति संदरि। त्वन्नाथ सदृशो लोके कुदेही नास्ति निश्चितं ॥ ३३ ॥ अन्यस्यासदृशो नाथश्चेत्सा दूरं विहाय तं । प्रयात्यत्र कथं त्वं भो स्थास्यसि प्रमदोत्तमे ॥ ३४ ॥ ततोभद्रा वचोऽवादीत्कि करोमि सुमित्रके। साह भद्रेवसंतोऽस्ति प्रभुः परमसुंदरः ।। ३५ ॥ त्वया समं कृतस्नेहः सोऽपि मोहवशीकृतः । तेन सत्रं यथेष्टं त्वं रमयस्व सुखाप्तये ॥ ३६॥ कदाचित् अवसर पाकर वसंत ने एक चतुर दूती बुलाई। और अपनी सारी आत्मकहानी उसे कह सुनाई। एवं शीघ्र ही उसे अपना संदेशा कह भद्रा के पास भेज दिया। वसंत की आज्ञा अनुसार दूती शीघ्र ही भद्रा के पास गई। भद्रा को देख दूती ने उसके साथ प्रबल हितैषिता दिखाई। एवं मधर शब्दों में उसे इस प्रकार समझाने लगी- हे भद्रे ! संसार में तू रमणी-रत्न है। तेरे समान रूपवती स्त्री दूसरी नहीं। किन्तु खेद है, जैसी तू रूपवती, गुणवती चतुर है। वैसा ही तेरा पति कुरूपवान, निर्गुण एवं मूर्ख किसान है। प्यारी बहिन! अति कुरूप बलभद्र के साथ, मैं तेरा संयोग अच्छा नहीं समझती। मुझे विश्वास है कि बलभद्र सरीखे कुरूप पुरुष से तुझे कदापि संतोष नहीं होता होगा? तुम सरीखी सुन्दर किसी दूसरी स्त्री का यदि इतना बदसूरत पति होता तो वह कदापि उसके साथ नहीं रहती। उसे सर्वथा छोड़कर चली जाती। न मालूम तू क्यों इसके साथ अनेक क्लेश भोगती हुई रहती है ? दूती की ऐसी मीठी बोली ने भद्रा के चित्त पर पक्का असर डाल दिया। भोली भद्रा दूती की बातों में आ गई, वह दूती से कहने लगी बहन ! मैं क्या करूँ ? स्वामी तो मुझे ऐसा ही मिला है। मेरे भाग्य में तो यही पति था। मुझे रूपवान पति मिलता कहाँ से? तथा ऐसा कह भद्रा का मुख भी कुछ म्लान हो गया। भद्रा की ऐसी दशा देख दूती मन में अति प्रसन्न हुई। किन्तु अपनी प्रसन्नता प्रकट न कर वह भद्रा को इस प्रकार समझाने लगी-भद्रे बहन ! तू क्यों इतना व्यर्थ विवाद करती है। इसी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १३३ नगरी में एक वसंत नाम का क्षत्रिय पुरुष निवास करता है। वसंत अति रूपवान, गुणवान एवं धनवान है। वह तेरे ऊपर मोहित भी है। तू उसके साथ आनंद से भोगों को भोग। तुझ सरीखी रूपवती के लिए संसार में कोई चीज दुर्लभ नहीं ॥३०-३६।। तथेति प्रतिपद्यासौ वंचयित्वानिजं पति । कुर्वती कलहं धाम्नि भ; पापपरायणा ॥ ३७॥ केदारमन्यदा भद्रा गच्छंती दृष्टवान्मुनि । बालाकंदीधिति रूप रंजिताखिलभूतलं ।। ३८ ॥ मूत्तिभूतं तथा मारं कुमारं लक्षणान्वितं । प्रणम्याग्रे स्थिता बाला कुर्वती कामवेदनां ॥ ३९ ॥ भद्राप्राह यते केन तपस्येत निरंतरं । भोक्तव्यमैं द्रियं सौख्यं भवशाखिमहाफलं ॥ ४० ॥ रूपं तवेदृशं ज्ञानिन् वयो बाल्यं शुभावहम् । हिमांशुवदनं तेऽस्ति वपुः सर्वगुणाकरम् ।। ४१ ॥ भुक्ष्वं भोगाननौपम्यान् कुमारत्वे स्त्रिया समां । पुनर्गहाण वृद्धत्वं तपः स्वर्मोक्षसिद्धये ।। ४२ ।। आकर्पुति वचो धीमानवधिज्ञानलोचनः । गुणादिसागरः प्राह संबोधनकृते मुनिः ।। ४३ ॥ दूती के ऐसे वचन सुने तो भद्रा के मुंह में पानी आ गया। उस मूर्खा ने यह तो समझा नहीं कि इस दुष्ट बर्ताव से क्या हानियाँ होंगी। वह शीघ्र ही वसंत के घर जाने के लिए राजी हो गई। तथा किसी दिन दाँव पाकर वसंत के घर चली भी गई। और उसके साथ भोग-विलास करने शुरू. कर दिये। व्यसन का चसका बुरा होता है। भद्रा को व्यसन का चसका बुरा पड़ गया। वह अपने भोले पति को बातों में लगा प्रतिदिन वसंत के घर जाने लगी। वसंत पर अभिमान कर उसने अपने पति का अपमान करना भी प्रारंभ कर दिया। अनेक प्रकार की कलह करनी भी उसने घर में शुरू कर दी। और अपने सामने किसी को वह बड़ा भी नहीं समझने लगी। भद्रा का पति बलभद्र किसान था। कदाचित् भद्रा को कार्यवश खेत पर जाना पड़ा। दैवयोग से मार्ग में भद्रा की भेंट मुनि गुणसागर से हो गई। मुनि गुणसागर को अति रूपवान, सूर्य के समान तेजस्वी, युवा एवं अनेक गुणों के भंडार देख भद्रा काम से व्याकुल हो गई। काम के गाढ़े नशे में आकर उसको यह भी न सूझा कि यह कौन महात्मा हैं ? वह शीघ्र ही काम से Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् व्याकुल हो मुनिराज के सामने बैठ गई। और कामजन्य विकारों को प्रकट करती हुई इस प्रकार कहने लगी-साधो ! यह तो आपका उत्तम रूप ? और यह अवस्था एवं सौंदर्य ? आपको इस अवस्था में किसने दीक्षा की शिक्षा दे दी? इस समय आप क्यों यह शरीर सुखानेवाला तप कर रहे हैं। इस समय तप करने से शरीर सुखाने के सिवाय दूसरा कोई फायदा नहीं हो सकता। इस समय तो आपको इंद्रिय-सम्बन्धी भोग भोगने चाहियें। जिस मनुष्य ने संसार में जन्म धारण कर भोगविलास नहीं किया, उसने कुछ भी नहीं किया ! मुने ! यदि आप मोक्ष को जाने के लिए तप ही करना चाहते हैं तो कृपाकर वृद्धावस्था में करना? इस समय आपको छोटी उम्र है। आपका मुख चन्द्रमा के समान उज्ज्वल एवं मनोहर है। आपका रूप भी अधिक उत्तम है। इसलिए आपकी सेवा में यही मेरी सविनय प्रार्थना है कि आप किसी उत्तम रमणी के साथ उत्तमोत्तम भोग भोगें। और आनन्दपूर्वक किसी नगर में निवास करें॥३७-४३॥ रे बाले मा कृथाश्चत्तं विकारं रागदीपनं । भंक्तुं वांछसि सच्छीलं तत्पापं वेत्सि कि नहि ।। ४४ ।। अशीलतो महापापमशीलान्नरकेस्थितिः । अशीलाद्वेदना तीव्रा निःशीलात् संसृतिभ्रमः ।। ४५ ।। अशीलात्कुलनाशश्चापकीर्तिश्च विशीलनात् ।। अशीलात्शोकसंतापोऽशीलाद्राज्ञश्च साध्वसं ॥ ४६ ।। अतो जहि शुभे बाले निःशिलत्वं सुखाप्तये । शीलतो नाकिनाथत्वं कुरु शीले मतिं परां ।। ४७ ।। विहायान्यधवं बाले कुरु धर्म पतिव्रतं । संसारसातने दक्षं गुणलक्षं सुलक्षणम् ।। ४८ ।। चपलं मानसं बाले निरुध्य मधुसंगतं । स्थापस्व निजेकांते भवशीलादिसंगता ।। ४६ ॥ तदा सा स्मयसंदर्भा स्मेराक्षी वचनं जगौ। सच्चरित्र भदाकतं कथं वेत्सि महामने ।। ५० ॥ मुनिराज गुणसागर तो अवधि-ज्ञान के धारक थे। भला वे ऐसी निष्कृष्ट भद्रा सरीखी स्त्रियों की बातों में कब आनेवाले थे। जिस समय मुनिराज ने भद्रा के वचन सुने। शीघ्र ही उन्होंने भद्रा के मन के भाव को पहचान लिया। एवं वे उसे आसन्न भव्या समझ इस प्रकार उपदेश देने लगे बाले! तू व्यर्थ राग के उत्पन्न करनेवाले कामजन्य विकारों को मत कर । क्या इस प्रकार के दृष्टविकारों से तू अपना परम पावन शीलवत नष्ट करना चाहती है ? क्या तू इस बात को नहीं जानती शील नष्ट करने से किन-किन पापों की उत्पत्ति होती है ? शील के न धारण करने से Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ श्रेणिक पुराणम् किन-किन घोर दुःखों का सामना करना पड़ता है ? भद्रे ! जो जीव अपने शीलरूपी भूषण की रक्षा नहीं करते वे अनेक पापों का उपार्जन करते हैं । उन्हें नरकादि दुर्गतियों में जाना पड़ता है । एवं वहाँ पर कठिन से कठिन दुःख भोगने पड़ते हैं । तथा भद्रे ! शील के न धारण करने से संसार में भयंकर वेदनाओं का सामना करना पड़ता है। कुशीली जीव अज्ञानी जीव कहे जाते हैं । उनके कुल नष्ट हो जाते हैं । चारों ओर उनकी अपकीर्ति फैल जाती है । और अपकीत्ति फैलने पर शोक संताप आदि व्यथा भी उन्हें सहनी पड़ती हैं । इसलिए यदि तू संसार में सुख चाहती है । और तुझे रमणी - रत्न बनने की अभिलाषा है तो तू शीघ्र ही इस खोटे शील का परित्याग कर दे । उत्तम शील- व्रत में ही अपनी बुद्धि स्थिर कर । अपने चंचल चित्त को कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग ला । एवं अपने पवित्र पतिव्रत धर्म का पालन कर । हे बाले ! जो स्त्रियाँ संसार में भली प्रकार अपने पतिव्रत धर्म की रक्षा करती हैं, उनके लिए अति कठिन बात भी सर्वथा सरल हो जाती है । अधिक क्या कहा जाय पतिव्रत धर्म-पालन करनेवाली स्त्रियों का संसार भी सर्वथा छूट जाता है। उन्हें किसी प्रकार को सुसंगति का सामना नहीं करना पड़ता ।।४४-५० ।। ततो बभाण योगींद्रः शृणु बाले वेद्म्यहं ज्ञानयोगेन कोऽत्रास्ति तव ततस्तद्वचसा बाला शीलं इंद्रचंद्रनरेंद्राद्यैः प्रणम्य मनोगतं । विस्मयः ।। ५१ ।। जग्राह् वंदितं । मुनिसत्तमं ।। ५२ ।। जगाम मंदिरं हृष्टा कृतशील परिग्रहा । दधती मोहमानंदं बलिभद्रे निजे धवे ॥ ५३ ॥ कुर्वती जिनधर्मंच पालयंती शुभं व्रतं । सा संबोध्य धवं दक्षा ग्राहयामास सद्व्रतं ।। ५४ ।। महामुनि गुणसागर के उपदेश का भद्रा के चित्त पर पूरा प्रभाव पड़ गया। कुछ समय पहले जो भद्रा का चित्त कुशील में फँसा हुआ था, वह शीलव्रत की ओर लहराने लगा । मुनिराज के वचन सुनने से भद्रा का चित्त मारे आनंद के व्याप्त हो गया। शरीर में रोमांच खड़े हो गये । एवं गद्गद कंठ से उसने मुनिराज से निवेदन किया - प्रभो ! मेरे चित्त की वृत्ति कुशील की ओर झुकी हुई है यह बात आपको कैसे मालूम हो गई ? किसी ने आपसे कहा भी नहीं ? कृपाकर इस दासी पर अनुग्रह कर शीघ्र बताइए । भद्रा के ऐसे वचन सुन मुनिराज ने उत्तर दिया- भद्रे ! तेरे चरित्र के विषय में मुझसे किसी ने भी कुछ नहीं कहा किन्तु मेरी आत्मा के अन्दर ऐसा उत्तम ज्ञान विराजमान है। जिस ज्ञान के बल से मैंने तेरे मन का अभिप्राय समझ लिया है। ज्ञान की शक्ति अपूर्व है इस बात में तुझे जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् मुनिराज के ज्ञान की अपूर्व महिमा सुन भद्रा को अति आनंद हुआ। मुनिराज की आज्ञा अनुसार जिस शील से देवेन्द्र नरेन्द्र आदि उत्तमोत्तम पद प्राप्त होते हैं वह शीलवत शीघ्र ही उसने धारण कर लिया एवं समस्त मुनियों में उत्तम, जीवों को कल्याण-मार्ग का उपदेश देनेवाले, मुनिराज गुणसागर को नमस्कार कर वह शीघ्र ही अपने घर आ गई ॥५१-५४।। ततस्तौ समसच्चितौ कुर्वतौ जिनसद्व षम् । गमयंतौ निजं कालं शर्मणावतभूषितौ ॥ ५५॥ प्रार्थयंस्तां वसंतश्च प्रेषयन् दूतिकां निजाम् । दर्शयंल्लोभ संतानं कुर्वन्विविधविक्रियां ॥ ५६ ॥ सा धिक्कारादिकं कृत्वा नावलोकयति स्वयं । सन्मुखं कथयंतीति गृहीतंच मया व्रतम् ॥ ५७ ॥ रे पापिन् व्रतहीनस्त्वं न करोमि त्वया समम् । संगमं प्राणनाशेप्यभिलाषं मा कृथा वृथा ।। ५८ ।। ततोऽभेद्यां परिज्ञाय वसंतो विधिवंचितः । उपायं चितयंश्चित्ते शीलखंडनहेतवे ।। ५६ ।। उत्तम उपदेश का फल भी उत्तम ही होता है। वसंत की बातों में फंसकर जो भद्रा ने वसंत को अपना लिया था। और अपने पति का अनादर करना प्रारंभ कर दिया था। भद्रा की वह प्रकृति अब न रही। पाप से भयभीत हो भद्रा ने वसंत से अब सर्वथा सम्बन्ध तोड़ दिया। उस दिन से वसंत उसकी दृष्टि में कालाभुजंग सरीखा झलकृने लगा। अब वह अपने पति की तन-मन से सेवा करने लगी। अपने स्वामी के साथ स्नेह का व्यवहार करने लगी। भद्रा का जैन धर्म पर अगाध प्रेम हो गया। अपने सुख का महान कारण जैन धर्म ही उसे जान पड़ने लगा। तथा जैन धर्म पर उसकी यहाँ तक गाढ़ भक्ति हो गई कि उसने अपने पति को भी जैनी बना लिया। एवं वे दोनों दंपती आनंदपूर्वक अयोध्या नगरी में रहने लगे। भद्रा ने जिस दिन से शीलवत को धारण किया उसी दिन से वह वसंत के घर झाँकी तक नहीं। इस रीति से जब कई दिन बीत गये वसंत को बिना भद्रा के बड़ा दुःख हुआ। वह विचार करने लगा-भद्रा अब मेरे घर क्यों नहीं आती? जो वह कहती थी सो ही मैं करता था। मैंने कोई उसका अपराध भी तो नहीं किया? तथा क्षणेक ऐसा विचार कर उसने भद्रा के समीप एक दूती भेजी। दूती के द्वारा वसंत ने बहुत-कुछ भद्रा को लोभ दिखाये । अनेक प्रकार के अनुनय भी किये। किन्तु भद्रा ने दूती की बात तक भी न सुनी। मौका पाकर वसंत भी भद्रा के पास गया। किन्तु भद्रा ने वसंत को भी यह जवाब दे दिया कि मैं अब शीलवत धारण कर चुकी। अपने स्वामी को छोड़कर मैं पर-पुरुष की प्रतिज्ञा ले चुकी। अब मैं कदापि तेरे साथ विषय-भोग नहीं कर सकती। भद्रा की यह बात सुन जब वसंत उसे धमकी देने लगा और उसके साथ व्यभिचारार्थ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १३७ कड़ाई करने लगा। तब भद्रा ने साफ शब्दों में यह जवाब दे दिया-रे वसंत ! तू पापी, नीच, नराधम, व्रतहीन है, मेरे चाहे प्राण भी चले जायें, मैं अब तेरा मुंह तक नहीं देखूगी। अब तू मेरी अभिलाषा छोड़। अपनी स्त्री में संतोष कर ॥५५-५६॥ सोऽचितयन्निजे चित्ते करोमि वशवत्तिनी। येन केनाप्युपायेनैनां हठाद्विद्ययाथवा ।। ६० ॥ कापालिको महाभीमो नाना मंत्र क्रियोद्यतः । आजगाम पुरे तत्र सेव्यमानोऽखिलैर्जनैः ॥ ६१ ॥ वसंतस्त परिप्राप्य परिचर्यामचीकरत् । भोजनस्नानपानादि संभवां विभवोद्भवां ॥ ६२ ॥ ततः कतिपयैर्घस्रविद्यां रूपावसाधिनीं । ययाचे कार्यसिद्ध यर्थं वसंतस्तं मदोद्धतं ।। ६३ ।। प्रसाधितस्तदा सोऽपिददौ मंत्रं सुसाधकं । वसंताय ततः सोऽपि विद्यां साधितवान् वने ॥ ६४ ।। वैतालिकां महाविद्यां प्रसाध्य नगराधिपः । चकार विविधं वेषं सूक्ष्म स्थूलं कृशाकृशं ।। ६५ ।। अन्यदा बलिभद्रस्य सद्मपार्वेर्द्धराजके । चरणायुध आभूय चकारध्वनिमुत्तमं ॥६६॥ शब्दश्रवणतः सोऽपि मत्वा प्रातः कुटंबिकः । महिष्यादिकमादायागाद्वनं चारणकृते ॥ ६७ ॥ बलिभद्रस्य वेषेण समाट तद्गृहं ततः । भद्रा तं वीक्ष्य गत्यादि भेदेनालक्षयत्तदा ॥ ६८ ॥ नायं धवो ममायं च वदंती गालिसंतति । कपाटयुगलं दत्वा विशन्मध्ये गृहं तदा ॥६६॥ तदा कलकलो यज्ञे बलभद्रादिका नराः । आजग्मुर्नागरा लोका वीक्षणाय च कौतुकं ॥ ७० ।। उभौ तौ सदृशाकारौ भेत्तुं शक्तौ न सज्जनैः । संकेतादिकसर्वस्वं कथयंतौ सवाक्यकौ ॥ ७१ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अशक्तौ भेत्तुमाज्ञाय तौ जनाराजमंदिरे । अभयां तं समापन्नास्ताभ्यां तन्न्यायसिद्धये ।। ७२ ।। भद्रा को इस प्रकार अपने व्रत में दृढ़ देख वसंत की कुछ भी पेश न चली। वह पागल सरीखा हो गया। वह मूर्ख विचारने लगा कि भद्रा को यह व्रत किसने दे दिया? अब मैं भद्रा को अपनी आज्ञाकारिणी कैसे बनाऊँ ? क्या इसे हठ से दासी बनाऊँ या किसी मंत्र से बनाऊँ ? क्या करूँ? पापी वसंत ऐसा अधम विचार कर ही रहा था कि अचानक ही एक महाभीम नाम का मंत्रवादी अयोध्या में आ पहुँचा। सारे नगर में मंत्रवादी का हल्ला हो गया। वसंत के कान तक भी यह बात पहुँची। मंत्रवादी का आगमन सुन वसंत शीघ्र ही उसके पास गया और स्नान, भोजन आदि से वसंत ने यथेष्ट उसकी सेवा की। जब कई दिन इसी प्रकार सेवा करते बीत गये। और मंत्रवादी को जब अपने ऊपर वसंत ने प्रसन्न देखा तो उसने अपना सारा हाल मंत्रवादी को कह सुनाया। और विनय से बहुरूपिणी विद्या के लिए याचना भी की। वसंत की मंत्र के लिए प्रार्थना सुन एवं उसकी सेवा से संतुष्ट होकर मंत्रवादी महाभीम ने उसे विधिपूर्वक मंत्र दे दिये तथा मंत्र लेकर वसंत किसी वन में चला गया। और उसे सिद्ध करने लगा। दैवयोग से अनेक दिन बाद वसंत को मंत्र सिद्ध हो गया। अब मंत्रबल से वह छोटे-बड़े शरीर धारण करने लगा एवं अनेक प्रकार की चेष्टा करनी भी उसने प्रारंभ कर दी। कदाचित् उसके सिर पर फिर भद्रा का भूत सवार हो गया। किसी दिन वह अचानक ही मुर्गे का रूप धारण कर बलभद्र के घर के पास चिल्लाने लगा। मुर्गे की आवाज से यह समझ कि सबेरा हो गया, अपने पशुओं को लेकर बलभद्र तो अपने खेत की ओर रवाना हो गया। और उस पापी वसंत ने मुर्गे का रूप बदल शीघ्र ही बलभद्र का रूप धारण किया। और धृष्टतापूर्वक बलभद्र के घर में घुस गया। सुशीला भद्रा की दृष्टि नकली बलभद्र पर पड़ी। चाल-ढाल से उसे चट मालूम हो गया कि यह मेरा पति बलभद्र नहीं। तथा उसने गाली देनी भी शुरू कर दी। किन्तु उस नकली बलभद्र ने कुछ भी परवा न की। वह निर्लज्ज किवाड़ बंद कर जबरन उसके घर में घुस पड़ा। नकली बलभद्रका इस प्रकार धृष्टतापूर्वक बर्ताव देख भद्रा चिल्लाने लगी। नकली बलभद्र एवं भद्रा का झगड़ा भी बड़े जोर-शोर से होने लगा। झगड़े की आवाज सुन आसपास के सब भद्रा के घर आ कर इकट्ठे हो गये। असली बलभद्र के कान तक भी यह बात पहुँची। वह भी दौड़ता-दौड़ता शीघ्र अपने घर आया। और अपने समान दूसरा बलभद्र देख आपस में झगड़ा करने लगा। दोनों बलभद्रों की चाल-ढाल, रूप-रंग देख पास-पडोसी मनष्यों के होश उड गये। सब-के-सब दाँ उँगली दबाने लगे। तथा अनेक उपाय करने पर भी उनको ज़रा भी इस बात का पता न लगा कि इन दोनों में असली बलभद्र कौन है ? ॥६०-७२।। अभयेन सभामध्ये दृष्टौ स श्रेणिकेन च । दृष्टिस्वर विवादैश्चालक्ष्यौ संकेतदर्शनैः ।। ७३ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ततोऽभयकुमारेण लक्षितावपि यत्नतः । शक्यौ यथा कथंचिच्च ज्ञातुं तौ न समायतौ ।। ७४ ।। ततोऽपवरकांतस्तौ प्रवेश्यद्वारमुन्नतम् । दापयित्त्वा वोsवादी भयो भयवर्जितः ।। ७५ ।। हलिना वुभयोर्मध्ये कुंचिका विवरे च यः । निः सरत्येव स स्वामी भद्राया नात्र संशयः ॥ ७६॥ ततो मूलहली चित्ते चिंतयन्निति क्षिप्रधीः । निःसारः क्वाहमेवात्र क्व भद्रा क्व मम गृहम् ।। ७७ ।। तदाकारधरस्तावत्कथ्यमाने स्वहर्षतः । विवरे निर्गतो वेगाज्जग्राहासौ च तत्करं ॥ ७८ ॥ असत्योयमसत्योयं सत्यः सत्यो गृहे स्थितः । असत्यं तं प्रपीड्याशु ज्ञात्वा वृत्तांतमंजसा ॥ ७९ ॥ निर्द्धाटितो निजाद्देशाद्बलभद्राय ददौ । भद्रां गृहं शुभं वित्तमभयो निजबुद्धितः ॥ ८० ॥ इत्यादि न्यायवारेण प्रसिद्धोऽभूज्जगत्रये । अभयो बुद्धिनाथत्वं तवा नो वृषधारकः ॥ ८१ ॥ जब पुरवासी मनुष्यों से असली बलभद्र का फैसला न हो सका तो वे दोनों बलभद्रों को लेकर राजगृह अभयकुमार की शरण में आये । और उनके सामने सब समाचार निवेदन कर दोनों बलभद्रों को खड़ा कर दिया । १३६ दोनों बलभद्रों की शक्ल, रूप-रंग एक-सा देख अभयकुमार भी चकराने लगे। असली बलभद्र को जानने के लिए उन्होंने अनेक उपाय किये। किन्तु जरा भी उन्हें असली बलभद्र का पता न लगा । अन्त में सोचते-सोचते उनके ध्यान में एक विचार आया। दोनों बलभद्रों को बुला उन्हें शीघ्र ही एक कोठे में बंद कर दिया । और भद्रा को सभा में बुलाकर एवं एक तुंबी अपने सामने रखकर दोनों बलभद्रों से कहा सुनो भाई दोनों बलभद्रो ! तुम दोनों में से कोठे के छिद्र से न निकलकर जो इस तुंबी के छिद्र से निकलेगा, वही असली बलभद्र समझा जायेगा । और उसे ही भद्रा मिलेगी । कुमार की यह बात सुन असली बलभद्र को तो बड़ा दुःख हुआ, उसे विश्वास हो गया कि भद्रा अब मुझे नहीं मिल सकती क्योंकि मैं तुंबी के छेद से निकल नहीं सकता । किन्तु जो नकली Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् बलभद्र था कुमार के वचन से मारे हर्ष के उसका शरीर रोमांचित हो गया। उसने चट तुंबी के छिद्र से निकल आनंदपूर्वक भद्रा का हाथ पकड़ लिया। नकली बलभद्र की यह दशा देख सभा-भवन में बड़े जोर-शोर से हल्ला हो गया। सबके मुख से ये ही शब्द निकलने लगे कि यही नकली बलभद्र है। असली बलभद्र तो कोठरी के भीतर बैठा है। एवं अपनी विचित्र बुद्धि से अभयकुमार ने नकली बलभद्र को मार-पीटकर नगर से बाहर भगा दिया। और असली बलभद्र को कोठे से बाहर निकाल एवं उसे भद्रा देकर अयोध्या जाने की आज्ञा दी ।।७३-५१॥ अनीदृशी महाबुद्धिःसर्वदानंददायिका । अभये वर्त्तते नित्यमिति लोका जगुस्तदा ।। ८२॥ अन्यदा मुद्रिकां कूपे पतितां वीक्ष्य भूमिपः । जगावत्र स्थितः पुत्रानय वेण्वादिना विना ।। ८३ ॥ ततोऽभयो विमृश्याशु कूपे पानीयवजिते । चिक्षेप गोमयं तत्र निमग्ना मुद्रिका ततः ॥ ८४ ॥ शुष्कं गोमयमाजातं कालेन कियता पुनः । परिज्ञाय जलेनेमं पूरयामास भूपजः ॥ ८५॥ आकंठं पूरिते कूपे वारिणा तरितं तदा । तदंगीकृतं मूर्द्धस्थं तेन कूपस्य सापि च ॥८६॥ इत्यादि कौतुकं धीमान् दर्शयन्नखिले जने । रराज गुरुवत्प्राज्ञोऽभयः श्रेणिकपूजितः ।। ८७ ॥ कौतुकावलि विलोल मानसो मानवाधिपति पूजितांह्निकः । राजते रमितराजनंदनो नंदनोऽभयकुमार मंत्रिकः ॥ ८८ ॥ नानान्यायनिरस्तनीतिरहितो मार्गः सुमार्गः सुधीः । स्वर्गस्वर्गि सुवर्गसर्गसुगुरु प्रख्यः सुविख्यातमान् ।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १४१ बुद्धया सिद्धितसर्वसिद्धिरभयो भानुप्रभापिंजरो, जीयाद्भूतलमंडले नृपकला कांतक्रमं भूषयन् ॥ ८६ ॥ बुद्धितो विशदमार्गमंडनं बुद्धितोऽखिलनृपाधिपूजनम् बुद्धितो बलकुलालिलिंगनं बुद्धितोनयपतित्त्वभाजनम् ॥ १० ॥ इस प्रकार पक्षपात रहित न्याय करने से अभयकुमार की कीर्ति चारों ओर फैल गई। उनकी न्यायपरायणता देख समस्त प्रजा मुक्तकंठ से तारीफ करने लगी। एवं अभयकुमार आनंद से राजगृह में रहने लगे। किसी समय महाराज श्रेणिक की अंगूठी किसी कुएँ में गिर गई। कुएँ में अंगूठी गिरी देख महाराज ने शीघ्र ही अभयकुमार को बुलाया। और यह आज्ञा दी प्रिय कुमार! अँगूठी सूखे कुएं में गिर गई है। बिना किसी बांस आदि की सहायता के शीघ्र अँगूठी निकालकर लाओ। महाराज की आज्ञा पाते ही कुमार शीघ्र ही कुएं के पास गये। कहीं से गोबर मंगाकर कुमार ने कुएं में गोबर डलवा दिया। जिस समय गोबर सूख गया कुएँ के मुंह तक पानी से भरवा दिया। ज्योंही बहता-बहता गोबर कुएँ के मुंह तक आया गोबर में लिपटी अंगूठी भी कएँ के मंह पर आ गई तथा उस अंगूठी को लेकर कुमार ने महाराज की सेवा में ला हाजिर की। कुमार का यह विचित्र चातुर्य देख महाराज.अति प्रसन्न हुए। कुमार का अद्भुत चातुर्य देख सब लोग कुमार के चातुर्य की प्रशंसा करने लगे। अनेक गुणों से शोभित अभयकुमार को चतुर जान महाराज श्रेणिक भी कुमार का पूरा-पूरा सम्मान करने लगे। और उनको बात-बात में अभय कुमार की तारीफ करनी पड़ी। इस प्रकार अनेक प्रकार के नवोन-नवीन काम करने का कौतूहली, महाराज श्रेणिक आदि उत्तमोत्तम पुरुषों द्वारा मान्य, नीति-मार्ग पर चलनेवाला, समस्त दोषोंकर रहित, वृहस्पति के समान प्रजा को शिक्षा देनेवाला, अतिशय आनंदयुक्त, अपने बुद्धिबल से अति कठिन कार्य को भी तुरंत करनेवाला, सूर्य के समान तेजस्वी, राजलक्षणों से विराजमान, युवराज अभयकुमार सबको आनंद देने लगे। संसार में जीवों को यदि सुख प्रदान करनेवाली है तो यह उत्तम बुद्धि ही है। क्योंकि इसो की कृपा से मनुष्य सभी का शिरोमणि बन जाता है। उत्तम बुद्धिवाले मनुष्य का राजा भी पूरा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् पूरा सम्मान और आदर करते हैं। बड़े-बड़े सज्जन पुरुष उसकी विनय-भाव से सेवा करने लग जाते हैं। तथा उत्तम बुद्धि की कृपा से अच्छे-अच्छे नीति आदि गुण भी उस मनुष्य को अपना स्थान बना लेते हैं ॥८२-६०॥ इति श्रेणिक भवानुबद्ध भविष्यत्पत्मनाभपुराणे भट्टारक श्रीशुभचंद्राचार्य विरचिते अभयकुमारबुद्धि वर्णनं नाम सप्तमः सर्गः ॥७॥ इस प्रकार भविष्यकाल में होनेवाले श्रीपद्मनाभ तीर्थंकर के भवांतर के जीव महाराज श्रेणिक के भट्टारक श्रीशुभचन्द्राचार्य विरचित पुत्र अभयकुमार की बुद्धि का वर्णन करनेवाला सातवा सर्ग समाप्त हुआ। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः बुद्धिबोधित बोधांतमुपाध्यायं यतीश्वरं । ध्यायामि ध्यान सिद्धयर्थमंगोपांगाप्तये पुनः ।। १ ॥ अयोध्याया मथो कश्चिद्भरतश्चित्रकर्मकृत् । पद्मावतीं शुभां देवीं साधयामास मंत्रतः ।। २ ॥ पद्मादेवी प्रसन्ना तमगदीद्वचनं परम् । याचयस्व वरं शीघ्र तदा सोप्यगदीद्वचः ॥ ३ ॥ मातर्देवि प्रसन्ना चेत्त्वं मे देहि मनोगतं । लेखयामि च यद्रूपं लेखनीयं च पट्टके ॥ ४ ॥ अपने पवित्र ज्ञान से समस्त जीवों का अज्ञानांधकार मिटानेवाले, निर्मल ज्ञान के दाता, मुनियों में उत्तम मुनिश्री उपाध्याय परमेष्टी को अंगोपांग सहित समस्त ध्यान की सिद्धि के लिए मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ। उस समय अयोध्यापुरी में कोई भरत नाम का पुरुष निवास करता था। भरत चित्रकला में अति निपुण था। कदाचित् उसके मन में यह अभिलाषा हुई कि यद्यपि मैं अच्छी तरह चित्रकला जानता हूँ किन्तु कोई ऐसा उपाय होना चाहिए कि लेखनी हाथ में लेते ही आप-से-आप पट पर चित्र खिच जावे। मुझे विशेष परिश्रम न करना पड़े। उस समय उसे और तो कोई तरकीब न सूझी। अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिए उसने पद्मावती देवी की आराधना करनी शुरू कर दी। दैवयोग से कुछ दिन बाद देवी भरत पर प्रसन्न हो गई। और उसने प्रत्यक्ष हो भरत से कहा भक्त भरत ! मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हूँ। जिस वर की तुझे इच्छा हो माँग, मैं देने के लिए तैयार हैं। देवी के ऐसे वचन सुन भरत अति प्रसन्न हुआ। और विनय-भाव से उसने इस प्रकार देवी से निवेदन किया __ माता ! यदि तू मुझ पर प्रसन्न है और मुझे वर देना चाहती है तो मुझे यही वर दे जिस समय मैं लेखनी हाथ में लेकर बैलूं, उस समय आप-से-आप मनोहर चित्र पट पर अंकित हो जाएँ मुझे किसी प्रकार का परिश्रम न उठाना पड़े। देवी ने भरत का निवेदन स्वीकार किया। तथा भरत को इस प्रकार अभिलाषित वर दे देवी तो अंतर्लीन हो गई। और भरत अपने परीक्षार्थ किसी एकांत स्थान में बैठ गया ।।१-४॥ तथेति प्रतिपन्ना सा भरतेन तदा पुनः । लेखनी ध्रियते पट्टे धृत्वायद्रूपमुत्तमं ॥ ५ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् लेख्यते स्वयमेवात्रेतिलब्धवरभाजनः । देशे देशे पुरे ग्रामे स्वकौशल्यं प्रकाशयन् ॥ ६ ॥ विजहार महीं रम्यां रंजयन् भूपति पतिम् । कुर्वंश्चित्रस्यपट्टानि भरतो भारतेऽखिले ।। ७ ।। अन्यदा सिंधुदेशे च विशाले शालमंडिते । पुरपत्तनखेडाद्रि द्रोणवाहनभूषिते ॥ ८ ॥ विशाला नगरी तत्र विशाला शोभिता । शास्ता तस्या अभूद्धीमांश्चेटको भटमंडितः ॥ ६ ॥ सुभद्रा महिषी तस्य मृगाक्षी पद्मलोचना । चंद्रानना च तन्वंगी पीनोन्नतपयोधरा ॥ १० ॥ सुधांशुवक्त्रविख्याताः पुत्र्यः सप्ताभवंस्तयोः । प्रियादिकारिणी चाद्या मृगावती वसुप्रभा ॥ ११ ॥ प्रभावती तथा ज्येष्ठा चेलना चंदना तथा । जिनधर्मकरारम्या नारीसर्वगुणान्विताः ।। १२ ।। ज्योंही उसने पट सामने रख लेखनी हाथ में ली। त्योंही बिना परिश्रम के आप-से-आप पट पर चित्र खिंच गया। चिन को अनायास पट पर अंकित देख भरत को अति प्रसन्नता हुई। अपने वर को सिद्ध समझ वह अयोध्या से निकल पड़ा। एवं अनेक देश, पुर, ग्रामों में अपने चित्रकौशल को दिखाता हुआ, कठिन चित्रों को भी अनायास खींचता हुआ, अपने चिन-कर्म चातुर्य से बड़े-बड़े राजाओं को भी मोहित करता हुआ वह भरत आनंदपूर्वक समस्त पृथ्वीमंडल पर घूमने लगा। अनेक पुर एवं ग्रामों से शोभित, वन-उपवनों से मंडित, भाँति-भाँति के धानों से विराजित एक सिंधु देश है। सिंधु देश में अनुपम राजधानी विशालापुरी है। विशालापुरी के स्वामो नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करनेवाले अनेक विद्वानों से मंडित महाराज चेटक थे। महाराज चेटक की पटरानी का नाम सुभद्रा था जो कि मृगनयनी, चन्द्रमुखी, कृशांगी और कठिन एवं उन्नत स्तनों को धारण करनेवाली थी। राजा चेटक की पटरानी सुभद्रा से उत्पन्न मनोहरा, मृगावती, वसुप्रभा, प्रभावती, जेष्ठा, चेलना एवं चंदना ये सात कन्याएँ थीं। ये सातों ही कन्या अति मनोहरा थीं। भली प्रकार जैन-धर्म की भक्त थीं। स्त्रियों के प्रधान-प्रधान गुणों से मंडित एवं उत्तम थीं। सातों कन्याओं के रूप-सौंदर्य देख राजा चेटक एवं महारानी सुभद्रा अति प्रसन्न रहते थे॥५-१२॥ भरतः कालयोगेनाजगाम तत्पुरं परम् । पुत्र्याः सप्त च रूपाणि कृत्वा पट्ट शुभानि च ।। १३ ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् प्रदर्श्य भपतिं तेन चित्रकारा जिताः खलु । नृपस्तुतोष तस्मै च ददौवृत्ति मनोहराम् ।। १४ ।। राजद्वारे विलेख्याशु कन्यारूपाणि शोभया ।। बबंध: भरतः प्रीत्या पट्ट सप्तविचक्षणः ॥ १५॥ .. वीक्ष्य लोकाः स्मयं जग्मुर्दारे ततो जनैर्वरैः । संकार्यसप्तरूपाणि क्षणेन च बबंधिरे ।। १६ ॥ कन्याएँ भी भाँति-भाँति के कला-कौशलों से माता-पिता को सदा संतुष्ट करती रहती थीं। कदाचित् भ्रमण करता-करता चित्रकार भरत इसी विशाल नगरी में आ पहुँचा। उसने सातों कन्याओं का शीघ्र ही चित्र अंकित किया। एवं उसे महाराज चेटक की सभा में जा हाजिर किया। और महाराज के पूछे जाने पर उसने अपना परिचय भी दे दिया। अति चतुरता से पट पर अंकित कन्याओं का चित्र देख राजा चेटक अति प्रसन्न हुए। भरत की चित्र, चित्र-विषयक कारीगरी देख महाराज बार-बार भरत की प्रशंसा करने लगे। और उचित पारितोषिक दे राजा चेटक ने भरत को पूर्णतया सम्मानित भी किया। किसी समय महाराज की प्रसन्नता के लिए भरत ने उन सातों कन्याओं का चित्र राजद्वार में अंकित कर दिया। और उसे भाँति-भाँति के रंगों से रंगित कर अति मनोहर बना दिया। चित्र की सुघड़ाई देख समस्त नगरनिवासी उस चित्र को देखने आने लगे। और उन सातों कन्याओं का वैसा ही चित्र नगरनिवासियों ने अपने-अपने द्वारों पर भी खींच लिया। एवं कन्याओं के चित्र से अपने को धन्य समझने लगे ॥१३-१६।। ततः प्रभृति संजातं मिथ्यात्वं सप्तमातृकं । देशे देशे पुरे ग्रामेऽद्यापि तद्वर्त्तते खलु ॥ १७ ॥ ततो भूपतिना दत्ता सिद्धार्थाय मनोहरा। प्रथमा कुंडनाथाय नाथवंशाय रूपिणे ॥ १८ ॥ विषये वत्सनामाख्ये कौशांबीपुरवासिने । सोमवंशे च नाकाय वितीर्णा द्वितीया सुता ॥ १६॥ दशार्णविषये दत्ता हेरकच्छपुरेशिने । राशे दशरथायैव सूर्यवंशे च सुप्रभा ॥ २० ॥ कच्छाख्यविषये दत्ता रोरुखाख्यपुरेशिने । महानुदयने तेन विख्याता च प्रभावती ।। २१ ।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तिस्त्रोऽन्यदा महाकन्याश्चित्रकारं समाप्य च । बभाण तत्र ज्येष्ठा च प्रहस्य चित्रकृच्चेलनारूपं यथोक्तं पट्टके कुरु पश्यामि कलां आकर्ष्णेति ततस्तेन गृहीत्वा पट्टे पद्माप्रसादेनाऽलेखि गुह्यस्थानादिदेशेषु विलिख्य कृतकौतुका ॥ २२ ॥ चेलवर्जितम् । विज्ञानपारगां ॥ २३ ॥ लेखिनीं वरां । रूपं यथाभवं ।। २४ ॥ तिलकादिकलक्षणं । दर्शयामास तद्रूपं संसार में जो लोग सात माता कहकर पुकारते हैं । और उनकी भक्ति भाव से पूजा करते हैं । सो अन्य कोई सात माता नहीं । इन्हीं कन्याओं को बिना समझे सात माता मान रखा है। यह सात माता का मिथ्यात्व उसी समय से जारी हुआ है । संसार में अब भी कई स्थानों पर यह मिथ्यात्व प्रचलित है । मृत्युबर्द्धकं ।। २५ ।। सातों कन्याओं में राजा चेटक की चार कन्या विवाहिता थीं। प्रथम कन्या का विवाह नाथवंशीय कुण्डपुर के स्वामी महाराज सिद्धार्थ के साथ हुआ था । द्वितीय कन्या मृगावती नाथवंशीय वत्स देश में कौशांबीपुरी के स्वामी महाराज नाथ के साथ विवाही गई थी । तथा तृतीय कन्या जो कि वसुप्रभा थी उसका विवाह राजा चेटक ने सूर्यवंशीय दशार्ण देश में हेरकच्छपुर के स्वामी राजा दशरथ को दी थी । एवं चतुर्थ कन्या प्रभावती का विवाह कच्छ देश में रोरूकपुर के स्वामी महाराज महातुर के साथ हो गया था। बाकी अभी तीन कन्या कुमारी ही थीं । कदाचित् ज्येष्ठा को आदि ले तीनों कन्या चित्रकार भरत के पास गईं। और उन सबमें बड़ी कुमारी ज्येष्ठा ने हँसी-हँसी में चित्रकार से कहा भरत ! हम जब तुझे उत्तम चित्रकार समझें । कुमारी चेलना का जैसा रूप है, वैसा ही इसका वस्त्ररहित चित्र खींचकर तू हमें दिखावे । कुमारी चेलना का वस्त्र रहित चित्र खींचना भरत के लिए कौन बड़ी बात थी ? ज्योंही उसने ज्येष्ठा के वचन सुने, चट अपने सामने पट रखकर हाथ में लेखनी ले ली। और पद्मावती देवी के प्रसाद से जैसा कुमारी चेलना का रूप था । तथा जो-तो उसके गुप्तांगों में तिल आदि चिह्न थे, वे ज्यों-के-त्यों चित्र में आ गये । तथा चौखटा वगैरह से उस चित्र को अति मनोहर बना शीघ्र ही उसने ज्येष्ठा को दे दिया ।। १७-२५।। कर, अजीजनत्तदा कथं पुत्री ज्येष्टा चिंतापरायणा । बुद्धमहोगुप्तं तिलकादिकलक्षणम् ॥ २६ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १४७ अचीकथत्तदा कर्णे जपः कश्चिच्च भूपतेः । तद्वत्तं स समाकर्ण्य चुकोप मनसा स्मरन् ॥ २७ ॥ कम्रलेखी तथाप्यत्रस्थमिदं तिलकं कथं ।। वेत्त्यहो कारणं किं वा न जानीमो वयं पराः ॥ २८ ॥ देवानामपि दुर्लक्ष्यं योगिनामप्यगोचरम् । स्त्रीचरित्रं कथं विद्मो मनुष्याः स्वल्पबुद्धयः ॥ २६ ॥ पिशुनोऽयं गतः संगो मुग्धया कन्यया समं । नि: काश्योऽतः स्वदेशाच्च विषमो गोत्रपापदः ॥ ३० ॥ कुमारी चेलना के चित्र को लेकर प्रथम तो ज्येष्ठा अति प्रसन्न हुई। किन्तु ज्योंही उसकी दृष्टि गुप्त स्थानों में रहे तिल आदि चिह्नों पर पड़ी, वह एकदम आश्चर्य-सागर में डूब गई। अब उसके मन में अनेकानेक संकल्प-विकल्प उठने लगे कि बाह्यांगों के चिह्नों की तो बात दूसरी है, इस चित्रकार को गुह्यांगों के चिह्नों का कैसे पता लग गया? न मालूम यह चित्रकार कैसा है ? इधर ज्येष्ठा तो ऐसा विचार कर रही थी, उधर किसी जासूस को भी इस बात का पता लग गया। और चित्रकार की सारी बातें महाराज चेटक से आकर कह दीं। जासूस के मुख से यह वृत्तांत सुन राजा चेटक अति कुपित हो गये। कुछ समय पहले जो राजा चेटक चित्रकार भरत को उत्तम समझते थे। वही बेचारा चित्रकार जासूस के वचनों से उन्हें काला भुजंग सरीखा जान पड़ने लगा। वे विचारने लगे-बड़े खेद की बात है कि इस नालायक चित्रकार ने कुमारी चेलना का गुप्त स्थान में स्थित चिह्न कैसे जान लिया? मैं नहीं जान सकता यह बात क्या हो गई ? अथवा ठीक ही है स्त्रियों का चरित्र सर्वथा विचित्र है। बड़ेबड़े देव भी इसका पता नहीं लगा सकते। अखंड ज्ञान के धारक योगी भी स्त्रियों के चरित्र का पता लगाने में हैरान हैं। तब न कुछ ज्ञान के धारक हम कैसे उनके चरित्र की सीमा पा सकते हैं? हाय मालूम होता है इस दुष्ट चित्रकार ने भोली-भाली कन्या चेलना के साथ कोई अनुचित काम कर डाला। कल को कलंकित करनेवाले इस दष्ट भरत को अब शीघ्र ही सिंध देश से निकाल देना चाहिए। अब क्षण-भर भी इसे विशालापुरी में रहने देना ठीक नहीं ॥२६-३०॥ कुतश्चिद्भरतो मत्वेति क्रु द्धं नरनायकम् । पलायनं व्यधादूरे भयकंपितविग्रहः ॥ ३१ ॥ ततः क्रमेण संप्राप्तः पुरं राजगृहं स्पृहम् । भरतो रूपमालिख्य चेलिन्याः पट्टके परे ।। ३२ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अदर्शयत्सभां तस्थं मागधं मागधैः समम् । आतपत्रप्रभावेन वीक्ष्य तां पट्ट संरूढां करेणाकारयंती श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् लुप्तचंद्रार्कमंडलम् ॥ ३३ ॥ गूढावयवदायिनीं । वानरान्मगधनायकः || ३४ ॥ अतर्कयत्तरां चित्ते धमिल्लः कचगुंठितः । कामिनां कामपाशो वा चित्रितो नागसंभवः ।। ३५ ।। धम्मिल्ल भुजगो भाति चूड़ामणिसुरत्नकः । कामिनां भीतिदस्तस्या: कौसुंभिक सुचित्रभृत् ।। ३६ ।। भालं भाभार संभूतं गांगेय तिलकायितम् । नभो वा चंद्रसंकीर्णं धत्ते या मारमंजरी || ३७ ॥ यस्या भ्रूभंगतो जातं कारो जपनाय वा । कामिनां मारदेवस्य साधनाय महाप्रभोः ।। ३८ ।। कटाक्षक्षेपतो यस्याः कामी बध्नाति संथुरः । पाशतो मृगयूथो वालोकनोद्गीतमोहितः ॥ ३६ ॥ सर्वार्थश्रवणायैव श्रवणौ वेधसा कृतौ । सूर्येदुयुगलाभ्यां वा कुंडलाभ्यां विभूषितौ ॥ ४० ॥ कामिनां कर्षणे मंत्रं नेत्रयुग्मं विभाति च । पद्मपत्रसमं स्फीतं यस्यास्त्रस्तमृगीदृशः ।। ४१ ।। तांबूल रक्तताकीर्णं सितदंतमयूरवकम् । गंभीरे मेघसद्ध वानं वक्त्रं व्योमे च राचते ।। ४२ ।। ग्रीवा यस्याः शुभारेजे जितनादसुवल्लकी । स्वर्णवर्णात्रिरेखा च वक्त्रधारणस्तंभिका ।। ४३ ।। यस्या नादेन मन्येऽहं निर्जिता कलकोकिला । धत्ते कृष्णत्वमद्यापि पुरं त्यक्त्वा वनंश्रिता ।। ४४ ।। शेलायेते स्तनौ तुंगौ यस्यावक्षोवने घने । लसन्मार महासाले विशाले मोहसिंह ।। ४५ ।। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १४ नाभिपद्माकरे यस्याः स्नाति मोहद्विपः सदा। अधः कचालिमधुपैः सेव्यमानेति निम्नके ॥४६ ।। भूषणाढ्यौ करौ रम्यौ कामपाशौ च कामिनां । लसत्कंचुकदीप्ताढ्यौ यस्या रेजतु रुन्नतौ ॥ ४७ ।। सूक्ष्म कटीतटं यस्याः पादौ पद्मावलंबितौ । पुनर्भूकांति संकीणौं भातो भूषणभूषितौ ।। ४८ ।। अनीदृशस्वरूपेयं किन्नरी यक्षयोषिता । खेचरी रोहिणी वाहो पद्मा पद्मावती पुनः ॥ ४६ ।। पुलोमजाऽथवा देवी रतिर्वा किं सरस्वती। नागकन्या पराकारा सूरकांताऽथवा किमु ॥ ५० ॥ इति चित्ते चिरं राजा संवितयं मुमोह च । प्रतिबिंबसमाकारो बभूव मगधाधिपः ।। ५१ ॥ इधर महाराज तो चित्रकार के विषय में यह विचार करने लगे। उधर चित्रकार को भी कहीं से यह पता लग गया कि महाराज चेटक मुझ पर कुपित हो गये हैं। मेरा पूरा-पूरा अपमान करना चाहते हैं । वह शीघ्र ही भय के कारण अपना झोली-डंडा ले वहाँ से उठ भागा। और कुछ दिन मंजिल-दर-मंजिल कर राजगृह नगर आ गया। राजगृह नगर में आकर उसने फिर चेलना का चित्रपट बनाया। और बड़े विनय से महाराज श्रेणिक की सभा में जाकर उसे भेंट कर दिया। महाराज उस समय अनेक मगध देश के बड़े-बड़े पुरुषों के साथ सिंहासन पर विराजमान थे। उनके चारों ओर कामिनी चमर डुला रही थीं। बंदीजन उनका यशोगान कर रहे थे। ज्योंही महाराज की दृष्टि चेलना के चित्र पर पड़ी। एकदम महाराज चकित रह गये। चेलना की सुव्यक्त तस्वीर देख उनके मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प उठने लगे वे विचारने लगेइस चेलना का केश-वेश ऐसा जान पड़ता है मानो कामी पुरुषों के लिए यह अद्भुत जाल है। अथवा यों कहिए चूड़ामणियुक्त यह केश-वेश नहीं है। किंतु उत्तम रत्नयुक्त समस्त जीवों को भय का करनेवाला, यह काला नाग है। एवं जैसे चंद्रमायुक्त आकाश शोभित होता है उसी प्रकार गांगेय तिलकयुक्त चेलना का यह ललाट है। और यह जो भ्रूभंग से इसके ललाट पर ओंकार बन गया है वह ओंकार नहीं है जगद्विजयो कामदेव का बाण है। तथा गायन जिस प्रकार मग को परवश बना देता है। उसी प्रकार इसका कटाक्ष विक्षेप कामी जनों को परवश करनेवाला है। अहा! इस चेलना के कानों में जो ये दो मनोहर कुण्डल हैं सो कुण्डल नहीं। किंतु इसकी सेवार्थ दो सूर्य-चन्द्र हैं। मृगनयनी इस चेलना के ये कमल के समान फूले हुए नेत्र ऐसे जान पड़ते हैं मानो कामी जनों को वश में करनेवाले मंत्र हैं। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् इस मृगाक्षी चेलना का मुख तो सर्वथा आकाश ही जान पड़ता है। क्योंकि आकाश में जैसे बादल की ललाई, चन्द्र आदि की किरण एवं मेघ की ध्वनि रहती है। वैसी ही इसके मुख में तो पान की ललाई है। दाँतों को किरण चन्द्रकिरण हैं। और इसकी मधुर ध्वनि मेघध्वनि मालम पड़ती है। इसकी यह तीन रेखाओं से शोभित, सोने के रंग की, मनोहर ग्रीवा है। मालूम होता है कोयल ने जो कृष्णत्व धारण किया है। और पुर छोड़ वन में बसी है। सो इस चेलना के कण्ठ के शब्द-श्रवण से ही ऐसा किया है। इस चेलना के दो स्तन ऐसे जान पड़ते हैं मानो वक्षःस्थलरूपी वन में दो अति मनोहर पर्वत ही हैं। मालूम होता है इस चेलना के नाभिरूपी तालाब में कामदेव रूपी हाथी गोता लगाये बैठा है। नहीं तो रोमावलीरूपी भ्रमर पंक्ति कहाँ से आई? इसके कमल के समान कोमल कर अति मनोहर दिखाई पड़ते हैं। कटिभाग भी इसका अधिक पतला है। ये इसके कोमल चरणों में स्थित नूपुर इसके चरणों की विचित्र ही शोभा बना रहे हैं। नहीं मालूम होता ऐसी अतिशय शोभायुक्त यह चेलना कोई किन्नरी है ? वा विद्याधरी है ? किंवा रोहिणी है ? अथवा कमलनिवासिनी कमला है ? या यह इन्द्राणी अथवा कोई मनोहर देवी है ? अथवा इतनी अधिक रूपवती यह नाग-कन्या वा कामदेव की प्रिया रति है? अथवा ऐसी तेजस्विनी यह सूर्य की स्त्री है। तथा इस प्रकार कुछ समय अपने मन में भले प्रकार विचार कर और चेलना के रूप पर मोहित होकर, महाराज ने शीघ्र ही भरत चित्रकार को अपने पास बुलाया। और उससे पूछा-॥३१-५१॥ कस्येयं तनुजा चित्रकृत्का रूपावभासिनी । कथं प्राप्या ततः प्राह भरतो भूपति प्रति ॥ ५२ ।। सिंधदेशे विशालायाः अधीशश्चेटको नृपः । कुमारी तनुजा तस्य चेलना चित्ररोपिता ॥ ५३ ॥ जैनं विहाय नान्यस्मै प्रयच्छति सुकन्यकां । कुरुत्वं च यथाशक्ति वाक्यसारा हि मादृशाः ।। ५४ ॥ कहो भाई ! यह अति सुंदरी चेलना किस राजा की पुत्री है ? किस देश एवं पुर का पालक वह राजा है ? क्या उसका नाम है ? यह कन्या हमें मिल सकती है या नहीं? यदि मिल सकती है तो किस उपाय से मिल सकती है ? ये सभी बातें स्पष्ट रूप से शीघ्र मुझे कहो। महाराज श्रेणिक के ऐसे वचन सुन भरत ने उत्तर दिया भो कृपानाथ ! यह कन्या राजा चेटक की है। राजा चेटक सिंधु देश में विशालापुरी का पालन करनेवाला है। यह कन्या आपको मिल तो सकती है किंतु राजा चेटक का यह प्रण है कि वह सिवाय जैनी के अपनी कन्या दूसरे राजा को नहीं देता। चेटक जैन धर्म का परम भक्त है। . इसलिए यदि आप इस कन्या को लेना चाहते हैं तो आप उसके अनुकूल ही उपाय करें॥५२-५४।। इत्याकर्ण्य सचितोऽभून्नृपः किं कार्यमत्र च । न प्रयच्छति चास्मभ्यं जैनाभावत्वतः पुनः ।। ५५ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १५१ बलैरशक्यो युद्धे च किं कर्त्तव्यं मयात्र वै। तर्कयन्निति धून्वन्स शिरोवाष्पं विमुंचयन् ॥ ५६ ।। तदेत्थं जनकं वीक्ष्य कुमारोऽभयनामभाक् । प्रोवाच राजराजेश ! का चिंतास्ति तवेदृशी ।। ५७ ॥ तवाधीनाः जनाः सर्वे नप आज्ञाविधायिनः ।। कोशाश्वदंतिपत्तीनां स्वामित्वं प्रचुरं त्वयि ॥ ५८ ।। अंगनारंगसंलीनाः पुत्रा दासेयसन्निभाः । शत्रवो मित्रतापन्ना वर्त्तते तव शासने ॥ ५६ ॥ चिताहेतुं नराधीश निर्देश्यं मे त्वयाधुना । भविष्यति यथाकार्यं तथा कुर्मो निबंधनं ॥ ६० ॥ भरत के ऐसे वचन सुन महाराज, विचार-सागर में गोता मारने लगे। ये सोचने लगेयदि राजा चेटक का यह प्रण है कि जैन राजा के अतिरिक्त दूसरे को कन्या न देना तो यह कन्या हमें मिलना कठिन है क्योंकि हम जैन नहीं। यदि बुद्ध मार्ग से इसके साथ जबरन विवाह किया जाए सो भी सर्वथा अनुचित एवं नीति-विरुद्ध है। और विवाह इसके साथ करना जरूरी है क्योंकि ऐसी सुंदरी स्त्री दूसरी जगह मिलनेवाली नहीं। किंतु किस उपाय से यह कन्या मिलेगी? यह कुछ ध्यान में नहीं आता। तथा ऐसा अपने मन में विचार करते-करते महाराज बेहोश हो गये। चेलना के बिना समस्त जगत उन्हें अंधकारमय प्रतीत होने लगा । यहाँ तक कि चेलना की प्राप्ति का कोई उपाय न समझ उन्होंने अपना मस्तक तक भी धुन डाला। महाराज को इस प्रकार चिंता-सागर में मग्न एवं दुःखित सुन अभय कुमार उनके पास आये। महाराज की विचित्र दशा देख अभयकुमार भी चकित रह गये। कुछ समय बाद उन्होंने महाराज से नम्रतापूर्वक निवेदन किया पूज्य पिताजी ! मैं आपका चित्त चिंता में अधिक व्यथित देख रहा हूँ। मुझे चिंता का कोई भी कारण नजर नहीं आता। पूज्यपाद ! प्रजा की ओर से आपको चिंता हो नहीं सकती। क्योंकि प्रजा आपके आधीन और भली प्रकार आज्ञापालन करनेवाली है। कोषबल एवं सैन्यबल भी आपको चिंतित नहीं बना सकता क्योंकि न आपके खजाना कम है और न सेना ही। किसी शत्रु के लिए चिंता करना आपको अनुचित है क्योंकि आपका कोई भी शत्रु नज़र नहीं आता। आपके शत्रु भी मित्र हो रहे हैं। भो पूज्यवर ! आपकी स्त्रियाँ भी एक-से-एक उत्तम हैं। पुत्र आपकी आज्ञा के भली प्रकार पालक और दास हैं इसलिए स्त्री-पुत्रों की ओर से भी आपका चित्त चिंतित नहीं हो सकता। इनके अतिरिक्त और कोई चिंता का कारण प्रतीत नहीं होता फिर आप क्यों ऐसे दुःखित हो रहे हैं। कृपाकर शीघ्र ही अपनी चिंता का कारण मुझे कहें। मैं भी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् यथासाध्य उसके दूर करने का प्रयत्न करूँगा। अभयकुमार के ऐसे विनय-भरे वचन सुन प्रथम तो महाराज ने कुछ भी जवाब नहीं दिया। वे सर्वथा चुपकी साध गये। किंतु जब उन्होंने कुमार का आग्रह-विशेष देखा तब वे कहने लगे ॥५५-६०॥ ततो यथा कथंचिच्च भूपेनाऽभाणि वृत्तकम् । सर्वं पुत्रानयाराज्यं विना निः फलतांगतं ।। ६१ ।। निरर्थं जीवितं मेने सर्व शून्यं बभाति च।। चंचलत्वं समापन्नं स्वांतं नेत्रं च चंचलं ।। ६२॥ दुश्चलं नृपतिं वीक्ष्य पितृभक्त्या बभाण च । चितां विधेहि मा राजन् विदधामि समीहितं ।। ६३ ॥ समुद्धीर्येति भूपालं तत्कार्यकरणोद्यतः । पुरस्थितान् समाहूय जैनान् व्यापार सिद्धये ॥ ६४ ॥ स्वयं सार्थाधिपोभूत्वा जैनलोका च मंडितः । चचाल संपदा साकं बलीवश्च घोटकैः ।। ६५ ॥ नाना सद्वस्तु संपन्न र्वाणिज्यायाभयस्तदा । निर्ययौ सिंधु देशं तं वृद्धबुद्धिविराजितः ।। ६६ ॥ प्यारे पुत्र ! चित्रकार भरत ने मुझे चेलना का यह चित्र दिया है। जिस समय से मैंने चेलना की तस्वीर देखी है मेरा चित्त अति चंचल हो गया है। इसके बिना यह विशाल राज्य भी मझे जीर्ण तण सरीखा जान पड रहा है। इसके पिता की यह कडी प्रतिज्ञा है कि सिवाय जैन राजा के दूसरे को कन्या न देना, इसलिए इसकी प्राप्ति मुझे अति कठिन जान पड़ती है। अब इस कन्या की प्राप्ति के लिए प्रयत्न शीघ्र होना चाहिए। बिना इसके मेरा सुखी होना कठिन है। पिताजी के ऐसे वचन सुन कुमार ने कहा-माननीय पिताजी ! इस जरा-सी बात के लिए आप इतने अधीर न हों। मैं अभी इसके लिए उपाय करता हूँ। यह कौन बड़ी बात है ? तथा महाराज को इस प्रकार आश्वासन दे कुमार ने शीघ्र ही पुर के बड़े-बड़े जैनी श्रेष्ठी बुलाये। और उनसे अपने साथ चलने के लिए कहा। तथा कुमार की आज्ञानुसार वे सब कुमार के साथ चलने के लिए राजी भी हो गये। जब कुमार ने यह देखा कि सब श्रेष्ठी मेरे साथ चलने के लिए तैयार हैं। उन्होंने शीघ्र ही महाराज श्रेणिक से जाने के लिए आज्ञा माँगी। तथा हीरा, पन्ना, मोती, माणिक आदि जवाहरात और अन्य-अन्य उपयोगी पदार्थ लेकर एवं समस्त सेठों के मुखिया सेठी बनकर अभयकुमार ने शीघ्र ही सिंधु देश की ओर प्रयाण कर दिया ॥६१-६६॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् जिनस्नपनपूजादीन् कुर्वंतो जिन बिंबके । सामायिकस्तवारूढा गुरुपंचजयोद्यताः ।। ६७ ॥ जैनत्वेन प्रसिद्धि ते गताः सर्वत्र निर्व. तिम् । क्रमेण प्रापुरानंदाद्विशालां नगरी पुराम् ।। ६८ ।। तद्बाह्योद्यानमासाद्य तस्थुः सर्वेनरोत्तमाः । जैनं धर्मं प्रकुर्वंतः पंचसत्यदपाठकाः ॥ ६६ ॥ ततोऽभयकुमारोऽसौ नानारत्नाद्युपायनम् । आदाय सज्जनैः साकं जगाम नृपसंसदि ॥ ७० ॥ प्रमुच्य प्राभृतं धीमान् प्रणम्य संभाष्य पेशलैर्वाक्यै स्तोषयामास नृपचेटकं । भूपति ॥ ७१ ॥ मायाचारी संसार में विचित्र पदार्थ है । जिस मनुष्य पर इसकी कृपा हो जाती है । उसके लिए संसार में बड़े से बड़ा अहित करने में भी सुलभ हो जाता है । मायाचारी निर्भय हो चट अनर्थं कर बैठता है । कुमार ने ज्योंही राजगृह नगर छोड़ा। माया के वे भी बड़े भारी सेवक हो गये । मार्ग में जिस नगर को वे बड़ा नगर देखें फौरन वहाँ ठहर जावें । और अन्य सेठों के साथ कुमार भली प्रकार भगवान की पूजा करें। एवं त्रिकाल सामायिक और पंच परमेष्ठी स्तोत्र का पाठ भी करें। क्या मजाल थी जो कोई ज़रा भी भेद जान जाए ? इस प्रकार समस्त पृथ्वी मंडल पर अपने जैनत्व की प्रसिद्धि करते हुए कुमार कुछ दिन बाद विशाला नगरी में जा पहुँचे । और वहाँ के किसी बाग में ठहरकर खूब जोर-शोर से जिनेन्द्र भगवान के पूजा-माहात्म्य को प्रकट करने लगे । कुछ समय बाग में आराम कर कुमार ने उत्तमोत्तम रत्नों को चुना। और कुछ जैन सेठों को लेकर वे शीघ्र ही राजा चेटक की सभा में गये । महाराज चेटक की सभा में प्रवेश कर कुमार ने राजा को विनय-भाव से नमस्कार किया । तथा उनके सामने भेंट रखकर, उनके साथ मधुरमधुर वचनालाप कर अपने को जैनी प्रकट करते हुए कुमार ने प्रार्थना की ।। ६७-७१ ।। जपन्यं च नमस्कारस्तस्थौ भूपस्य कुशलप्रश्नपूर्वं चान्योन्यं ततोऽभयो नृपाधीशं संतुष्टं वाससंकृते । ययाचे नृपगेहस्य समीपं वरमंदिरम् ।। ७३ ॥ अदा पो गृहं तस्मै तत्र तस्थौ च मागधः । जिनाच पंडितैः साकं करोतिच्छद्मसंगतः ॥ ७४ ॥ १५३ सन्निधि | भेणतुरुन्नतौ ॥ ७२ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पूरयन्महिषीवासं स्तवनैजिनसद्गुणैः । विदधाति महारंभं जिनार्चायां च छद्मना ।। ७५ ।। कदाचिन्नृत्यमत्यंतं कदाचिन्मंगलोद्गीति कदाचित्स्नपनारंभं महापुराण संपाठ कुमार का ऐसा अद्भुत वचनालाप एवं हुए । उन्होंने बिना सोचे-समझे ही कुमार को कुमार आदि का हद से ज्यादा सम्मान किया। कारयामास श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कदाचित्स्तवनोत्सवम् । कदाचिद्वाद्यसंभ्रमं ॥ ७६ ॥ पठनं गद्यपद्ययोः । राजाधिराज ! हम लोग जौहरी बच्चे हैं । अनेक देशों में भ्रमण करते-करते यहाँ आ पहुँचे हैं । हमारी इच्छा है कि हम इस मनोहर महल में कुछ दिन ठहरें । हमारे पास मकान का कोई प्रबन्ध नहीं कृपा कर आप राजमंदिर के पास हमें किसी मकान में ठहरने के लिए आज्ञा दें । तदा मागधः ।। ७७ ।। अब क्या था ! राजा की आज्ञा पाते ही कुमार ने शीघ्र ही अपना सामान राजमंदिर के समीप किसी महल में मँगा लिया । एवं उस मकान में मनोहर चैत्यालय बनाकर आनंदपूर्वक बड़े समारोह से जिन- भगवान की पूजा करनी प्रारंभ कर दी। कभी तो कुमार बड़े-बड़े मनोहर स्तोत्रों में भगवान की स्तुति करने लगे । और कभी उन सेठों के साथ जिनेन्द्र भगवान की पूजा करनी प्रारंभ कर दी। कभी-कभी कुमार को पूजा करते ऐसा आनंद आ गया कि वे बनावटी तौर से भगवान के सामने नृत्य भी करने लगे। और कभी उत्तमोत्तम शब्द करनेवाले बाजे बजाना भी उन्होंने प्रारंभ कर दिया । एवं कभी-कभी कुमार त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र वर्णन करनेवाले पुराण बाँचने लगे । जिस समय वे समस्त भगवान की पूजा-स्तुति आदि कार्य करते थे । बराबर उनकी आवाज रनिवास में जाती थी । राजा की काफी स्त्रियाँ साफ रीति से इनके स्तोत्र आदि को सुनकर वे अपने मन-ही-मन इनकी भक्ति की अधिक तारीफ करती थी ।।७२-७७ ।। विनय - व्यवहार देख राजा चेटक अति प्रसन्न राजमंदिर के पास रहने की आज्ञा दे दी । और अन्यदा तादृशं श्रुत्वा ज्येष्ठाद्यातच्च वीक्षितुं । आजग्मुर्निजसाधर्म्यात्परमं तास्तत्कृतां पूजां पुष्पचंद्रोपकाकीर्णां अवलोक्य महाप्रीत्या धन्या भवंत एवात्र तन्निकेतनं ॥ ७८ ॥ वरशोभासमन्विताम् । लसच्चामरघंटिकाम् ॥ ७६ ॥ भेणुस्तत्स प्रशंसनम् । जिनभक्तिपरायणाः ॥ ८० ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् वणिजो वणिजां नाथास्त्वत्समा जगतीतले । न दृष्टा जिनपूजायां दर्शने व्रतबोधके ।। ८१ ॥ को नीवृद्भवतां राजा को धर्मस्तस्य भूपतेः । किं वयः किं च सौभाग्यं काभूतिः केगुणाः पुनः ॥ ८२ ॥ किसी समय महाराज चेटक की ज्येष्ठा आदि पुत्रियों के मन में इस बात की इच्छा हुई कि चलो इनको जाकर देखें । ये बड़े भक्त जान पड़ते हैं। प्रतिदिन भाव-भक्ति से भगवान् की पूजा करते हैं । तथा ऐसा दृढ़ निश्चय कर वे अपनी सखियों के साथ किसी दिन अभयकुमार द्वारा बनाये हुए चैत्यालय में गईं। और वहाँ पर चमर, चाँदनी, झालर, घंटा आदि पदार्थों से शोभित चैत्यालय देख अति प्रसन्न हुईं । तथा कुमार आदि को भगवान की भक्ति में तत्पर देख कहने लगीं आप लोग श्री जिनेन्द्र देव की भक्ति भाव से पूजन एवं स्तुति करते हैं । इसलिए आप धन्य हैं। इस पृथ्वीतल पर आप लोगों के समान न तो कोई भक्त दीख पड़ता है और न ज्ञानवान एवं स्वरूपवान भी दीख पड़ता । कृपाकर आप कहें कौन तो आपका देश है ? कौन उस देश का राजा है ? वह किस धर्म का पालन करनेवाला है ? क्या उसकी वय है ? कैसी उसकी सौभाग्य विभूति है ? एवं कौन-कौन गुण उत्तमतया उसमें मौजूद हैं ? राजकन्याओं के मुख से ऐसे वचन सुन अभयकुमार ने मधुर वचन में उत्तर दिया-- ॥७८-६२ ॥ आकर्ण्यति जगौ शृणुध्वं मगधोदेशो धीमांस्तदाहरणहेतवे । ग्रामारामविमंडितः ॥ ८३ ॥ यत्र सर्वत्र देशेषु वर्त्तते गणनातीताः गृहाजैना सातकुंभ शोभा सर्वस्व संपूर्णे तत्र राजगृहं पुरं । विशालशालसंपूर्ण दीर्घखातिक्याशुभं ॥ ८५ ॥ परोत्तमाः । सुंभत्सुसातकुंभानामभ्र ंलिहाः प्रासादाः संति सर्वत्र यत्र मित्र समप्रभे ॥ ८६ ॥ तच्छास्ता श्रेणिको भाति लघीयान्वयसापुनः । गुणैर्गरीयान्विख्यातो ज्यायान् ज्येष्ठैः सुमाननात् ।। ८७ ।। सार्थवाहा वयं कन्या नानानीवृत्परिभ्रमाः । कलानां प्रेक्षिणो धीरानानाभूपाललोकिनः ॥ ८८ ॥ १५५ यतीश्वराः । सुकुंभकाः ॥ ८४ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् न तादृशो नृपोलोके जिनधर्मेण मंडितः । रूपी गुणो प्रतापी च न दृष्टो नैव दृश्यते ।। ८६ ।। यत्प्रतापेन भूपाला अन्ये वननिवासिनः । विधाय सप्तभूमांश्च गृहान् शालोपशोभितान् ॥६० ॥ अन्येषां तादृशी नैव संपत्तिः कोशसंभवा । वीतदंतिरथाकीर्णा यादृशास्य सुभूभृतः ॥ ६१॥ किमत्र बहुनोक्तेन तादृशो नरनायकः । धर्मादिगुणसत्सीमा ना भून्नास्तिसुभावुकः ॥ ६२ ॥ राजकन्याओ! यदि आपको हमारा सविस्तार हाल जानने की इच्छा है तो आप ध्यानपूर्वक सुनें, मैं कहता हूं-अनेक प्रकार के ग्राम, पुर एवं बाग-बगीचों से शोभित, ऊँचे-ऊँचे जिनमंदिरों से व्याप्त, असंख्याते मुनि एवं यतियों का अनुपम विहार, स्थान, देश तो हमारा मगध देश है। मगध देश में एक राजगृह नगर है। जो राजगृह नगर बड़े-बड़े सुवर्णमय कलशों से शोभित, अपनी ऊँचाई से आकाश को स्पर्श करनेवाले, सूर्य के समान दैदीप्यमान अनेक धनिकों के मंदिर एवं जिन-मंदिरों से व्याप्त है। और जहाँ की भूमि भाँति-भाँति के फलों से मनुष्यों के चित्त सदा आनंदित करती रहती है। उस राजगृह नगर के हम रहनेवाले हैं। राजगृह नगर के स्वामी जो नीतिपूर्वक प्रजा-पालन करनेवाले महाराज श्रेणिक हैं। राजा श्रेणिक जैन धर्म के परम भक्त हैं। अभी उनकी छोटी अवस्था है। एवं अनेक गुणों के भंडार हैं। राजकन्याओ ! हम लोग व्यापारी हैं छोटी-सी उम्र में हम चारों ओर भूमंडल घूम चुके। हरेक कला में नैपुण्य रखते हैं। हमने अनेक राजाओं को देखा किंतु जैसी जिनेन्द्र की भक्ति, रूप, गुण, तेज महाराज श्रेणिक में विद्यमान है वैसा कहीं पर नहीं। क्योंकि ऐसा तो उनका प्रताप है कि जितने भी उनके शत्रु थे सब अपने मनोहर-मनोहर नगरों को छोड़ वन में रहने लगे। कोषबल भी जैसा महाराज श्रेणिक का है शायद ही किसी का होगा। हाथी, घोड़े, पयादे आदि भी उनके समान किसी के भी नहीं। अब हम कहाँ तक कहें। धर्मात्मा, गुणी, प्रतापी जो कुछ हैं सो महाराज श्रेणिक ही हैं। कुमार के मुख से महाराज श्रेणिक को ऐसा उत्तम सुन ज्येष्ठा आदि समस्त कन्याएँ अति प्रसन्न हुई। __ अब महाराज श्रेणिक के साथ विवाह करने के लिए हरेक का जी ललचाने लगा। कुमार की तारीफ ने कन्याओं को महाराज श्रेणिक के गुणों के परतंत्र बना दिया। अब वे चुपचाप न रह सकी। उन्होंने शीघ्र ही विनयपूर्वक कुमार से कहा- ॥८३-६२॥ प्रीता आकर्ण्य तद्वाक्यं भेणुर्विश्वासितास्तकैः । च्छद्मनान्योन्यमालोक्य तावत्राणींदुभानि च ।। ६३ ।। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १५७ कथं संप्राप्यतेऽस्माभिः सार्थनाथवरोत्तमः । न ज्ञायते भविष्णुः को भर्तास्माकं विधर्वशात् ।। ६४ ॥ यदि नेष्यसि नः शीघ्र त्वं स संप्राप्यते । खलु नान्यथा मागधः कुत्र वयं कुत्र विदेशगाः ॥ ६५ ॥ तथाकूरु यथा भावी वरोऽस्माकं महामते । अन्यथा न सुखं निद्रा दुःखंतद्विरहात्पुनः ।। १६॥ ततोऽन्योन्यसमालाएं विधाय विधिकोविदः । आ राजभवनं रम्यां सुरंगां तामकारयत् ।। ६७ ॥ प्रिय वणिक सरदार ! ऐसे उत्तम वर की हमें किस रीति से प्राप्ति हो? न जाने हमारे भाग्य से इस जन्म में हमारा कौन वर होगा? श्रेष्ठिवर्य ! यदि किसी रीति से आप वहाँ हमें ले चलें तब तो मगधेश हमारे पति हो सकते हैं। क्योंकि कहाँ तो महाराज श्रेणिक और कहाँ हम ? कृपाकर आप कोई ऐसी युक्ति सोचिये, जिसमें मगधेश हमारे स्वामी हों। याद रखिये जब तक महाराज श्रेणिक हमें न मिलेंगे तब तक न तो हम संसार में सुखी रह सकेंगी। और न हमें निद्रा ही आवेगी, विशेष कहाँ तक कहा जाय महाराज श्रेणिक के वियोग में अब हमें संसार दुःखमय ही प्रतीत होने लगेगा। कन्याओं के ऐसे लालसा-भरे वचन सुन कुमार अति प्रसन्न हुए। अपने कार्य की सिद्धि जान मारे हर्ष के उनका शरीर रोमांचित हो गया। कन्याओं को आश्वासन दे शीघ्र ही उन्हें वहाँ से चंपत किया। और अपने महल से राजमंदिर तक कुमार ने शीघ्र ही एक सुरंग तैयार करने की आज्ञा दे दी। कुछ दिन बाद सुरंग तैयार हो गई। कुमार ने सुरंग के भीतर अपने महल से राजमहल तक एक रस्सी बंधवा दी। और गुप्त रीति से कन्याओं के पास भी समाचार भेज दिया॥६३-६७॥ प्राकारां तां परां तस्यां रज्जुबंधं चकार च । आगता रज्जुबंधेन निर्गमाय च कन्यकाः ॥ ८ ॥ ज्येष्टा च चंदना वीक्ष्य तां सुरंगां सुभीषणां । अग्रस्थां तमसा व्याप्तामुपायं हृद्यचितयत् ।। ६६ ।। दुर्मार्गे किमु गम्येत भविता जनहास्यता । पितृकोपस्तथा • भावी न गंतव्यं मया स्फुटम् ॥१०॥ चंदनेत्यभणद्वाक्यं मुद्रिका मम विस्मृता । आनयामि द्रुतं तस्मादिति कृत्वा गृहं गता ।।१०१॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ज्येष्टेति वचनं ब्रूते हारो विस्मारितो मया । संविकल्प्येत्युपायं सा व्याघुट्य स्वगृहं गता ॥१०२॥ कुमार की यह युक्ति देख कन्या अति प्रसन्न हुई। किसी समय अवसर पाकर उन तीनों कन्याओं ने सुरंग से जाने का पूरा-पूरा इरादा कर लिया। और वे सुरंग के पास आगई। किंतुज्यों ही वे तीनों सुरंग में घुसी सुरंग में अँधेरा देख ज्येष्ठा और चंदना तो एकदम घबरा गई। उन्होंने सोचा हमें इस मार्ग से जाना ठीक नहीं, क्योंकि प्रथम तो इसमें गाढ़ अंधकार है, इसलिए जाना कठिन है। द्वितीय, यदि हमारे पिता सुनेंगे तो हम पर नाराज होंगे। इसलिए ज्येष्ठा तो अपना हार का बहाना कर वहाँ से लौट आई। और चंदना अपनी मुद्रिका का बहाना बनाकर लौटी। अकेली बेचारी चेलना रह गई उसको कुमार ने शीघ्र ही खींच लिया। और उसे रथ में बिठाकर तत्काल राजगृह नगर की ओर प्रयाण कर दिया ।।६८-१०२।। चेलिन्या सह सर्वेऽपि निर्जग्मुस्तत्रसोद्यमाः । ततस्तां रथ संरूढां विधायागुः पुरं निजम् ॥१०३।। मातृ पित्रादिसंमोहं दधती निजमानसे । उद्वीरिताऽभयेनैव चचाल रथसंगता ॥१०४॥ ततः सत्वरमासाद्य स्वदेशं मगधंशुभम् । सोत्कंठिता बभूवुस्ते विमुक्तभयविग्रहाः ॥१०॥ आगच्छंती समाकर्ण्य श्रेणिकोर्द्धपथं मुदा । आजगाम महाभूत्या सन्मुखं सुखसंगतः ।।१०६।। विलोक्य तनुजं रम्यं पप्रच्छ पूर्ववृत्तकम् । आलिंगनादिकं प्राप्य तुतोष स्वतुजा समं ॥१०७।। प्रेक्ष्य चंद्राननां तन्वों चलनी चेलसंगताम् । मृगाक्षी रतिमापन्नः कदर्यश्च महानिधि ॥१०८॥ अवीविशत्पुरं राजा जिनदासस्य सद्गृहे । श्रेष्ठिनो धर्मरक्तस्य तां मुमोच शुभाप्तये ॥१०६।। सुमुहूर्ते शुभेलग्ने शुभे योगे सुवासरे । क्षणेन तां महीपालोऽवीवरन्मृगलोचनां ॥११०॥ ततः पटहनादेन कुर्वन्भवनमाकुलम् ।। तया जगाम सद्धाम रत्या वा मीनकेतनः ॥११॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् प्रेक्षमाणो जनः सर्वैमुखुरैर्जयनादतः । मेने जन्म सुसाफल्यं तया भूभृद्विशांपतिः ॥११२॥ ततो ददौ पदं देव्यै महिष्याः स्नापयन्जलैः । दुंदुभ्यानकनादेन ख्यापयंस्तत्पदं नृपः ।।११३॥ निशांते सप्तभूमं च गवाक्षादि सुतोरणम् । स्वर्णजं रत्नसंबद्ध धरं तस्यै गुहं ददौ ॥११४॥ स शर्म नितरां लेभे कथया कथ्यमानया। गतिवीक्षणतश्चैव मुखालोकनतः क्वचित् ॥११॥ रतिजं हास्यजं शर्म संगजं कुचमर्दनम् । तयोर्नव्यमहारंभयौवनप्रेमबद्धयोः ॥११६॥ चंदनैः क्रीड़नः काव्य रागकोपोपहापनैः । तौ रेमाते महाप्रीतावभिन्न निजजीविनौ ॥११७॥ मारोद्दीपनतत्परौ जितसुरौ संसारसाताब्धिगौ, प्रेमाबद्ध मनोदृशो विशदृशाऽभिप्रायमुक्तौ शुभौ । शक्रक्रीड़न कामिनौ कृत कथा काव्यादिसत्कौशलौ, रेजाते वरभोगसंगमविधौ तौ च प्रसिद्धौ सदा ॥११८।। विशाला नगरी से जब रथ कुछ दूर निकल आया। कुमारी चेलना को अपने माता-पिता की हुड़क आई। वह उनकी याद कर रुदन करने लगी। किंतु अभयकुमार ने उसे समझा दिया जिससे उसका रुदन शांत हो गया। एवं ये समस्त महानुभाव कुछ दिन बाद आनंदपूर्वक मगध. देश में आ पहुँचे। किसी दूत के मुख से महाराज को यह पता लगा कि कुमार आ रहे हैं उनके साथ कुमारी चेलना भी है। शीघ्र ही बड़ी विभूति से वे कुमार के सामने आये। कुमार के मुख से उन्होंने सारा वृत्तांत सुना । कुमार को छाती से लगा महाराज अति प्रसन्न हुए। कुमार के साथ जो अन्यान्य सज्जन थे, उनके साथ भी महाराज ने अधिक स्नेह प्रकट किया। जिस समय मृगनयनी चंद्रवदनी कुमारी चेलना पर महाराज की दृष्टि गई तो उस समय तो महाराज के हर्ष का पारावार न रहा। दरिद्री पुरुष जैसा निधि को देख एक विचित्र आनंदानुभव करने लगता है। चेलना को देख महाराज की भी उस समय वैसी ही दशा हो गई। इस प्रकार कुछ समय वार्तालाप कर सभीजनों ने राजगृह नगर में प्रवेश किया। महाराज की आज्ञानुसार कुमारी चेलना सेठी इन्द्रदत्त के घर उतारी गई। किसी दिन शुभ मुहूर्त एवं शुभ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् लग्न में महाराज का विवाह हो गया। विवाह के समय समस्त दिशाओं को बधिर करनेवाले बाजे बजने लगे। बंदीजन महाराज की उत्तमोत्तम पद्यों में स्तुति करने लगे। महाराज के विवाह से नगर-निवासियों को अति प्रसन्नता हुई। चेलना के विवाह से महाराज ने भी अपने जन्म को धन्य समझा। विवाह के बाद महाराज ने बड़े गाजे-बाजे के साथ रानी चेलना को पटरानी का पद दिया। एवं राजमंदिर में किसी उत्तम मकान में रानी चेलना को ठहराकर प्रीतिपूर्वक महाराज उसके साथ भोग भोगने लगे। कभी तो महाराज को रानी चेलना के मख से कथा-कौतहल सुन परम संतोष होने लगा, कभी महाराज को रानी चेलना की हंसिनी के समान गति एवं चंद्र के समान मुख देख अति प्रसन्नता हुई, कभी महाराज चेलना के हास्योत्पन्न सुख से सुखी होने लगे, कभी-कभी महाराज को रतिजन्य सखसखी करने लगा.और कभी चेलना के प्रति अंग की सघडाई महाराज को सुखी करने लगी। जिस समय राजा रानी पास में बैठते थे, उस समय इनमें और इन्द्र इन्द्राणी में कुछ भी भेद देखने में नहीं आता था। ये आनंदपूर्वक इन्द्र इन्द्राणी के समान ही भोग-विलास करते थे। रानी चेलना एवं राजा श्रेणिक के शरीर ही भिन्न थे, किंतु मन उनका एक ही था। लोग ऐसा आपसी घनिष्ठ प्रेम देख दोनों को सुख की जोड़ी कहते थे। और बराबर दोनों के पुण्य फल की प्रशंसा करते थे॥१०३-११८॥ क्व चेलना चेटकराजपुत्रिका, सुमार्गसद्देशनभावसूचिका । क्व मागधो धर्म विदूरमानसः, क्व सिंधुदेशः क्व च राजमंदिरं ॥११६।। क्व चापहारोऽभयदेवसंकृतः, सुचेलनायाः क्व च देशमोचनम् । कथं विमोहः परभूपसंभवै विधेविलासो भुवि दुर्घटो भवेत् ॥१२०॥ करोति मार्ग सुगमं विधिः सताम् ससन्मुखश्चेत् कुरुतेऽन्यथा पुनः । विविधानं बहुधा समीक्ष्य, वैकुर्यात्प्रयत्नं विधिसिद्धये पुनः ॥१२१॥ भाग्य की महिमा अनुपम है। देखो कहाँ तो राजा चेटक की पुत्री चेलना? और कहाँ जिनधर्म रहित महाराज श्रेणिक ? कहाँ तो सिंधु देश में विशालपुरी? और राजगृह नगर कहाँ? तथा कहाँ तो अभयकुमार द्वारा चेलना का हरण ? और कहाँ महाराज श्रेणिक के साथ संयोग ? इसलिए मनुष्य को अपने भाग्य पर भी अवश्य भरोसा रखना चाहिए क्योंकि भाग्य में पूर्णतया फल Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् एवं अफल देने की शक्ति मौजद है। जीवों को शुभ भाग्य के उदय से परमोत्तम सुख मिलते हैं। और दुर्भाग्य के उदय से उन्हें दुःखों का सामना करना पड़ता है। नरकादि गतियों में जाना पड़ता है॥११६-१२१।। इति श्रेणिक भवानुबद्ध भविष्यत्पद्मनाभपुराणे भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचिते चेलना श्रेणिक विवाहवर्णनं अष्टमः सर्गः ॥६॥ इस प्रकार भविष्यकाल में होनेवाले तीर्थकर पदमनाभ के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भट्रारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित चेलना के साथ विवाह-वर्णन करनेवाला अष्टम सर्ग समाप्त हुआ। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः संसिद्धार्थाः प्रशस्तार्थसन्मुख्यत्वमुपागताः । रत्नत्रयावलिप्ता नः प्रीणंतु शुभसाधवः ॥ १ ॥ कृतकृत्य समस्त कर्मों से रहित होने के कारण परम पूजनीय सम्यग्दर्शनादि तीनों रत्नत्रय से भूषित श्रीसिद्ध भगवान हमारी रक्षा करें॥१॥ अथ सा तद्गृहाचारमेकदा वृषवजितम् । हिंस्यहिंसक भावाद्यं जन्यरक्षणवर्जितम् ॥ २ ॥ कुदेवभक्तिसंरूढं समूढं समदाष्टकम् । जठराग्निकृतावेशं वीक्ष्येति हृद्यचिंतयत् ।। ३ ।। वंचिता नूनमभयः प्रतारणपरायणः । वचोभिर्जिनश्रेयस्कं प्रदाहं विमानसा ।। ४ ।। जिनस्य सुकृतं यत्र समस्ति तद्गृहं मतम् ।। अन्यथा नीड़प्रख्यंतत् त्रिवर्गफलवर्जनात् ॥ ५ ॥ विभवेन किमत्राहोऽशभोदर्कदायिना । भोगेन भोगितुल्येन किं साध्यं धर्मवजिना ॥ ६ ॥ विधनत्वं वरं लोके सवृषस्य च देहिनः । न चक्रवत्तिता रम्या वृषत्यक्ताऽशुभावहा ।। ७ ।। विधवत्वं वरं मन्ये भ; मिथ्यात्वचेतसा। समं न क्षणमेकं च वासो विद्वेषकारिणा ॥ ८ ॥ विंध्यात्वं वनेवास: पतनं च दवानले । कालकूटाशनं नीरनाथे झंपा न पापदा ॥ ६ ॥ अहिवक्त्रे करोत्क्षेपो मरणं रणमंडले । एतत्सर्वं वरं नैवाश्रेयसं जीवितं क्वचित् ॥ १० ॥ भुजंगेन समं केलि शर्मफलदायिका । वृषत्यक्तेन भ; च नानोत्पत्त्यशुभप्रदा ॥ ११॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अहो कष्ट महो कष्टमहोपापं मया कृतम् । अहो अशर्मसंतापोsहो अहो क्व च धर्मता ।। १२ ।। अहो अभयपुत्रेण वंचिता मुग्धमानसा । अबला यत्प्रोच्यते सद्भिस्तत्सत्यं सत्यमेव च ।। १३ ।। पर वंचनसंशक्ता नराः प्रायेण पापिनः । धूर्त्ताश्च कथिता शास्त्रे प्रतीत्यासत्यमेव तत् ।। १४ ।। इति चित्ते विमृश्याशु तूष्णीत्वं समुपागता । भुनक्ति सा न जल्पादि विदधाति न केनचित् ।। १५ ।। कुर्वती स्वतिरस्कारं पठती जिनशासनम् । पूजयंती जिनेंद्र च स्मरंति जनकादिकं ।। १६ ।। न पश्यामि न पश्यामि गुरुं निर्ग्रन्थनायकं । पश्यामि जठराग्नि च चिंतयंतीति सा स्थिता ।। १७ ।। अनंतर इसके रानी चेलना आनंदपूर्वक महाराज श्रेणिक के साथ भोग भोग रही थी । अचानक ही जब उसने यह देखा कि महाराज श्रेणिक का घर परम पवित्र जैन धर्म से रहित है । महाराज घर में हिंसा को पुष्ट करनेवाले तीन मूढ़ता सहित, ज्ञान-पूजा आदि आठ अभिमानयुक्त, एवं उभयलोक में दुःख देनेवाले बौद्ध धर्म का अधिकतर प्रचार है । तो उसे अति दुःख हुआ । वह सोचने लगी- हाय, पुत्र अभयकुमार ने बुरा किया ! मेरे नगर में छल से जैन धर्म का वैभव दिखा मुझ भोली-भाली को ठग लिया। क्योंकि जिस घर में श्री जिन धर्म की भली प्रकार प्रवृत्ति है । उनके गुणों का पूर्णतया सत्कार है । वास्तव में वही घर उत्तम घर है। किंतु जहाँ जिन धर्म की प्रवृत्ति नहीं है वह घर कदापि उत्तम नहीं हो सकता। वह मानिंद पक्षियों के घोंसले के हैं । १६३ यदि मैं महाराज श्रेणिक के इस अलौकिक वैभव को देख अपने मन को शांत करूँ सो भी ठीक नहीं क्योंकि पराभव में मुझे इससे घोरतर दुःखों की ही आशा है । अथवा मैं अपने मन को इस रीति से कहलाऊँ कि महाराज श्रेणिक के घर में मुझे अनन्य लभ्य भोग भोगने में आ रहे हैं, यह भी अनुचित है । क्योंकि ये भोग मानिंद भयंकर भुजंग के मुझे परिणाम में दुःख ही देंगे । भोगों का फल नरक तिर्यंच आदि गतियों की प्राप्ति है। उनमें मुझे जरूर ही जाना पड़ेगा । एवं वहाँ पर घोरतर वेदनाओं का सामना करना पड़ेगा । संसार में धर्म होवे धन न होवे तो धर्म के सामने धन का न होना तो अच्छा किंतु बिना धर्म के अतिशय मनोहर, सांसारिक सुख का केन्द्र चक्रवर्तीपना भी अच्छा नहीं । संसार में मनुष्य विधवापन को बुरा कहते हैं । किंतु यह उनकी बड़ी भारी भूल है । विधवापना सर्वथा बुरा नहीं । क्योंकि पति यदि सन्मार्गगामी हो और वह मर जाय तब तो विधवापना बुरा है। किंतुपति जीता हो और वह मिथ्यामार्गी हो तो उस हालत में विधवापना सर्वथा बुरा नहीं है । संसार में बाँझ रहना अच्छा । भयंकर वन का निवास भी उत्तम । अग्नि में जलकर और विष खाकर मर जाना भी अच्छा । तथा अजगर के मुख में प्रवेश I Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् और पर्वत से गिरकर मर जाना भी अच्छा। एवं समुद्र में डूबकर मर जाने में भी कोई दोष नहीं। किंतु जिन धर्म रहित जीवन अच्छा नहीं। पति चाहे अन्य उत्तमोत्तम गुणों का भंडार हो। यदि वह जिनधर्मी न हो तो किसी काम का नहीं। क्योंकि कुमार्गगामी पति के सहवास से, उसके साथ भोग भोगने से दोनों जन्म में अनेक प्रकार के दुःख ही भोगने पड़ते हैं। हाय बड़ा कष्ट है। मैंने पूर्वभव में कौन घोर पाप किया था। जिससे इस भव में मुझे जैन धर्म से विमुख होना पड़ा। हाय अब मेरा एक प्रकार से जैन धर्म से सम्बन्ध छूट-सा ही गया। हे दुर्दैव! तू मुझसे कब-कब के किये गये पापों का बदला ले रहा है। पुत्र अभयकुमार! क्या मुझे भोली बातों में फंसाकर ऐसे घोर संकट में डालना आपको योग्य था? अथवा कवियों ने जो स्त्रियों को अबला कहकर पुकारा है सो सर्वथा ठीक है। ये बेचारी वास्तव में अबला ही है। बिना समझे-बूझे ही दूसरों की बात पर चट विश्वास कर बैठती है। और पीछे पछताती है। हे दीनबन्धु ! जो मनुष्य प्रिय वचन बोल दूसरे भोले जीवों को ठग लेते हैं। संसार में कैसे उनका भला होता होगा? फुसलाकर दूसरों को ठगनेवाले संसार में महापातकी गिने जाते हैं। तथा ऐसा चिरकालपर्यंत विचार कर रानी चेलना ने मौन धारण कर लिया। एवं एकांत स्थान में बैठ करुणाजनक रुदन करने लगी। रानी चेलना की ऐसी दशा देख समस्त सखियाँ घबरा गईं। चेलना की चिंता दूर करने के लिए उन्होंने अनेक उपाय किये किन्तु कोई भी उपाय सफल नहीं हुआ। यहाँ तक कि रानी चेलना ने सखियों के साथ बोलना भी बन्द कर दिया। वह बारबार अपने जीवन की निन्दा करने लगी। जिनेन्द्र भगवान की मानसिक पूजा और उनके स्तवन में उसने अपना मन लगाया। एवं इस दुःख से बार-बार उसे अपने माता-पिता को याद आई तो वह रोने भी लगी ॥२-१७।। कुतश्चित्तादृशां श्रुत्वा तां तन्वंगी मृदुस्तनीं । आजगाम नृपो वेगात् तत्सद्मव्याकुलाशयः ॥ १८ ॥ आहूय तां नृपोऽवादीत् प्रिये त्वं केन हेतुना । दुखस्थामीदृशां प्राप्ता मच्चित्तोत्क्षेपकारिणीम् ।। १६ ।। अतः पूर्वं प्रिये बाले त्वद्वचो नाकृतं मया । अद्यप्रभृति कुर्वेऽहं वचस्ते नियमेन वै ॥ २० ॥ मद्गृहे येन केनापि कया वा मर्मकृद्वचः । जल्पितं यदि ते ब्रूहितस्य दंडं करोम्यहं ।। २१ ॥ त्वयीशि प्रिये नूनं मृतिर्मे नियमाच्छुभे । मत्प्राणार्द्धसमां वेमि त्वां मज्जीवगृहोपमां ॥२२॥ दुःखिन्यां त्वयि मे दुःखं दुःस्थितायां च दुःस्थिता। दुःखिन्यां त्वयि मे धाम्नि किंचिन्न स्थितं मम ॥ २३ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अतः कथय मत्प्राणतुल्ये पूर्णेदुसन्मुखे । प्रसीद मुंच कालुष्यं विधेहि शुभसत्क्रियां ॥ २४ ॥ रानी चेलना की चिंता का समाचार महाराज श्रेणिक के कान तक पहुँचा। अति व्याकुल हो वे शीघ्र ही चेलना के पास आये। चेलना को मौन धारण देख उन्हें अति दुःख हुआ। रानी चेलना के सामने वे विनय भाव से इस प्रकार कहने लगे प्रिये ! आज तुम्हारी अचानक यह दशा कैसे हो गई ? जब मैं तुम्हारे मंदिर में आता था तो तुमको सदा प्रसन्न ही देखता था। मैंने आज तक कभी आपके चित्त पर ग्लानि न देखी। और उस समय तुम मेरा पूरा-पूरा सम्मान भी करती थीं। आज तुमने मेरा सम्मान भी बिसार दिया। आज तक मैंने तुम्हारा कोई कहना भी न टाला। जिस समय मैं तुम्हारा किसी काम के लिए आग्रह देखता था फौरन करता था तथापि यदि मुझसे तुम्हारी अवज्ञा हो गई हो तो क्षमा करो अब तुम्हारी अवज्ञा न की जायगी। मैं तुम्हारा अब कहना मानंगा। यदि राजमंदिर में किसी ने तुम्हारे प्रति कटुवचन कहे, तुम्हारी आज्ञा नहीं मानी है। सो भी मुझे कहो मैं अभी उसे दंड देने के लिए तैयार हूँ। शुभे! मुझसे थोड़ी-सी तो बातचीत करो। मैं तुम्हारी ऐसी दशा देखने के लिए सर्वथा असमर्थ हूँ। तुम्हारी इस अवस्था ने मुझे अर्धमृतक बना दिया है। तुम्हें मैं अपने आधे प्राण समझता हूँ। तू मेरे जीवनरूपी घर के लिए विशाल स्तम्भ है। शुभानने ! तेरी दु:खमय अवस्था मुझे भी दुःखमय बना रही है। तेरे दुःखित होने पर यह समस्त राजमंदिर मुझे दुःखमय ही प्रतीत हो रहा है। पूर्ण चन्द्रानने! तू शीघ्र अपने दुःख का कारण कह शीघ्र ही अपनी मनोमलिनता दूर कर ! और जल्दी प्रसन्न हो॥१८-२४॥ ततो यथा कथंचिच्च वचोऽभाणितयाशुभम् । नाऽशर्मपरजं राजन् किंतु धर्मोद्भवं मम ॥ २५ ॥ अधर्म त्वद्गृहे वीक्ष्य राजन् दुःखं ममाभवत् । न त्वज्जं न च बंधूत्थमाकर्ण्यति नृपो जगौ ॥ २६ ॥ राज्ञि मद्धाम्नि सद्धों वर्त्तते शर्मसाधकः । ताथागतोऽस्ति मे देवो विश्वविज्ञानपारगः ॥ २७ ॥ भगवान्गुरुरेवात्र सेव्योः भूपैर्नरोत्तमैः । तत्सेवया सुखं राशि फलं स्वर्मोक्षसंभवं ॥ २८ ॥ महाराज श्रेणिक के ऐसे मनोहर वचन सुनकर भी प्रथम तो रानी चेलना ने कुछ भी जवाब न दिया किन्तु जब उसने महाराज का प्रेम एवं आग्रह अधिक देखा तब वह कहने लगी-- Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् जीवननाथ ! इस समय जो आप मुझे चिंतायुक्त देख रहे हैं। इस चिंता का कारण न तो आप हैं। और न कोई दूसरा मनुष्य है। इस समय मुझे चिंता किसी दूसरे ही कारण से हो रही है तथा वह कारण मेरा जैन धर्म का छूट जाता है। कृपानाथ ! जब से मैं इस राजमंदिर में आई हूँ एक भी दिन मैंने इसमें निर्ग्रन्थ मुनि को नहीं देखा! राजमंदिर में उत्तम धर्म की ओर किसी की दृष्टि नहीं। मिथ्या धर्म का अधिकतर प्रचार है। सब लोग बौद्ध धर्म को ही अपना हितकारी धर्म मान रहे हैं। किंतु यह उनकी बड़ी भारी भूल है क्योंकि यह धर्म नहीं कुधर्म है। जीवों को कदापि इससे सुख नहीं मिल सकता। रानी चेलना के ऐसे वचन सुन महाराज अति प्रसन्न हुए। उन्होंने इस प्रकार गम्भीर वचनों में रानी के प्रश्न का उत्तर दिया प्रिये! तुम यह क्या ख्याल कर रही हो? मेरे राजमंदिर में सद्धर्म का ही प्रचार है। दुनिया में यदि धर्म है तो यही है। यदि जीवों को सुख मिल सकता है तो इसी धर्म की कृपा से मिल सकता है। देख ! मेरे सच्चे देव तो भगवान् बुद्ध हैं। भगवान बुद्ध समस्त ज्ञान-विज्ञानों के पारगामी हैं। इनसे बढ़कर दुनिया में कोई देव उपास्य और पूज्य नहीं। जो पुरष उत्तम पुरुष हैं, अपनी आत्मा के हित के आकांक्षी हैं, उन्हें भगवान बुद्ध की ही पूजा-भक्ति एवं स्तुति करनी चाहिए। क्योंकि हे प्रिये ! भगवान बुद्ध की ही कृपा से जीवों को सुख मिलते हैं। और इन्हीं की कृपा से स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति होती है। महाराज के मुख से इस प्रकार बौद्ध धर्म की तारीफ सन रानी चेलना ने उत्तर दिया ॥२५-२८॥ महिषी वचनं प्राह ततो राजन्नराधिप । जिनधर्म बिना धर्मोनाऽन्यो लोकत्रये मतः ।। २६ ।। नानाजंतुदयापूर्णः केवलज्ञानिभाषितः । धर्मो नाकं शिवं दत्ते राध्यमानो नरोत्तमैः ॥ ३० ॥ अष्टादशमहादोषकोशमुक्त: शिवप्रदः । केवलज्ञानने वाढ्यो देवो लोके विरागविट् ।। ३१ ।। तत्वं बाभाति जीवादिपरीक्षाक्षममुन्नतम् । जिनैरभाणि सन्माननयनिक्षेपनिश्चितम् ॥ ३२ ॥ कथंचिन्नित्यतारूढं स्यादनित्यं द्वयं तथा । स्यादवक्तव्यमित्यादिभंगरूढ मनंतयुक् ॥ ३३ ॥ सर्वथानित्यरूपादिहन्यमानं प्रमाणतः । तत्वमर्थक्रियाभावाद्विचारं सहते न च ॥ ३४ ॥ निग्रंथा साधवो जैना: शर्मादिगुणगुंठिताः । गुरवो रागमोहादिहंतारस्तपसान्विताः ॥ ३५ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् परीषहसहाः कांतत्यक्तवस्त्रादिविग्रहाः । वंदनीयाः सतां पूज्या नाऽन्ये लोभादिमंडिताः ॥ ३६ ।। अहिंसा परमो धर्मः स्वर्गमोक्षादिसाधकः । अहिंसा परमं ज्ञानमहिंसा परमं तपः ।। ३७ ।। पूर्वं जीवादिसद्भदे मत्वा तद्रक्षणं ततः । कार्य सुकृतसंसिद्ध्यै कांत ! स्वस्य हिताप्तये ॥ ३८ ॥ न जहामि वृषं जैनं प्राणांते प्राणवल्लभ ! धर्मादमुत्र सातं स्याज्जिनधर्मादृतेनहि ।। ३६ ।। प्राणनाथ ! आप तो बौद्ध धर्म की इतनी तारीफ कर रहे हैं सो बौद्ध धर्म इतनी तारीफ के लायक है ही नहीं। उससे जीवों का ज़रा भी हित नहीं हो सकता। दुनिया में सर्वोत्तम धर्म जैनधर्म ही है। जैन धर्म छोटे-बड़े सब प्रकार के जीवों पर दया के उपदेश से पूर्ण है। इसका वर्णन केवली भगवान के केवलज्ञान से हुआ है। जो भव्य जीव इस परम पवित्र धर्म की भक्तिपूर्वक आराधना करता है। नियम से उसे आराधना के अनुसार फल मिलता है। तथा हे कृपानाथ! इस जैनधर्म में क्षधा, तृषा आदि अठारह दोषों से रहित, समस्त प्रकार के परिग्रहों से विनिर्मुक्त केवलज्ञानी एवं जीवों को यथार्थ उपदेशदाता तो आप्त कहा गया है। और भली प्रकार परीक्षित जीव, अजीव, आश्रव आदि सात तत्त्व कहे हैं। प्रमाण नयनिक्षेप आदि संयुक्त इन सप्त तत्त्वोंका वर्णन भी केवली भगवान की दिव्य ध्वनि से हुआ है। ये सातों तत्त्व कथंचित् नित्यत्व और कथंचिा अनित्यत्व इत्यादि अनेक धर्म स्वरूप हैं। यदि एकांत रीति से ये सर्वतत्त्व सर्वथा नित्य और अनित्य ही माने जाएँ तो इनके स्वरूप का भली प्रकार परिज्ञान नहीं हो सकता। और हे स्वामिन् ! जो साधु निग्रंथ, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि उत्तमोत्तम गुणों के धारी, मिथ्या अन्धकार को हटानेवाले, राग, द्वेष, मोह आदि शत्रुओं के विजयी, बाह्याभ्यंतर दोनों प्रकार के तप से विभूषित भला प्रकार पारषहाक सहन करनेवाले एव नग्न दिगबर हैं। वे इस नागम में गुरु माने गये हैं। तथा भो प्रभो! जिससे किसी प्रकार के जीवों के प्राणों को त्रास न हो ऐसा इस जैन सिद्धांत में अहिंसा परम धर्म माना गया है। इसी धर्म की कृपा से जीवों का कल्याण हो सकता दयासिंधो! यह थोड़ा-सा जैन धर्म का स्वरूप मैंने आपके सामने निवेदन किया है। इसका विस्तारपूर्वक वर्णन सिवाय भगवान केवली के दूसरा कोई नहीं कर सकता। अब आप ही कहें ऐसे परम पवित्र धर्म का किस रीति से परित्याग किया जा सकता है। मेरा विश्वास है जो जीव इस जैन धर्म से विमुख एवं घृणा करनेवाले हैं। वे कदापि भाग्यशाली नहीं कहे जा सकते ॥२६-३६॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् निरूप्येति स्थिता राज्ञी तूष्णीगभूयता च सा । बभाण राज्ञि ते राजा रोचते यच्च तत्कुरु ॥ ४० ॥ असातं मा विधेहि त्वं विराम इति भूपतौ । सोत्कंठिता शुभा राज्ञी जिनधर्म चकार च ।। ४१॥ जिनार्चा पूजयामास क्षणेन महता समम् । चतुर्दश्यां कदाचिच्च रात्रिजागरणं व्यधात् ॥ ४२ ।। नृत्येन वाद्यनादेन गीतेन वंशवादनः । कुर्वंती जिनकल्याणं पठंती सा जिनागमं ॥ ४३ ।। निशांतं जिनसद्धर्ममयं चक्रे स्वबुद्धितः । पंचसन्नुतिवाचालं सद्दयापेशलं शुभम् ।। ४४ ॥ भगवंतः समाकर्ण्य तथा तं व्याकुलं नृपम् । भेणुः संमर्षसंदीप्ता भोभूभद्भो विशांपते ॥ ४५ ॥ रानी चेलना के मुख से इस प्रकार जैन धर्म का स्वरूप ग्रहण कर महाराज निरुत्तर हो गये। उन्होंने और कुछ न कहकर महारानी से यही कहा-प्रिये ! जो तुम्हें श्रेयस्कर मालूम पड़े, वही काम करो। किंतु अपने चित्त पर किसी प्रकार की ग्लानि न लाओ। मैं यह नहीं चाहता कि तुम किसी प्रकार से दु:खित रहो। __ महाराज के मुख से ऐसा अनुकूल उत्तर पाकर रानी चेलना अति प्रसन्न हुई। अब रानी चेलना निर्भय हो जैन धर्म की आराधन करने लगी। कभी तो रानी चेलना ने भक्ति-भाव से भगवान का पूजन करना प्रारंभ कर दिया और कभी वह अष्टमी,चतुर्दशी आदि पर्यों में उपवास और रात्रि-जागरण भी करने लगी। तथा नत्य और उत्तमोत्तम गद्य पद्यमय गायनों से भी उस भगवान की स्तुति करनी प्रारंभ कर दी। जैनशास्त्रों का वह प्रतिदिन स्वाध्याय करने लगी। रानी चेलना को इस प्रकार धर्म पर आरूढ़ देख समस्त रनिवास उसके धर्मात्मापने की तारीफ करने लगा। यहाँ तक कि गिनती के ही दिनों में रानी चेलना ने समस्त राजमंदिर जैन धर्ममय कर दिया। कदाचित् बौद्ध साधुओं को यह पता लगा कि रानी चेलना जैन धर्म की परम भक्त है। राजमंदिर को उसने जैन धर्म का परम भक्त बना दिया है। और नगर एवं देश में वह जैन धर्म प्रचारार्थ शक्ति-भर प्रयत्न कर रही है। वे शीघ्र ही दौड़ते-दौड़ते राजा श्रेणिक के पास आये। और क्रोध में आकर महाराज श्रेणिक से इस प्रकार कहने लगे ॥४०-४५।। राज्या विधीयते जैनः स्वयं धर्मः कथंचन । कार्यते चापरेषां वै धर्मो जीवदयामय: ।। ४६ ।। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् त्याज्यते सौगतो धर्मः किं कर्त्तव्यं नपाधिप ! अनया कार्यते श्रेयो जैनं वंचनविद्यया ॥४७॥ नृपोऽभाणीन्महाप्रीत्या बोधनीया बुधोत्तमाः । भवद्भिरेषिका तूर्णं नान्यथा धर्मसंस्थितिः ॥ ४८ ॥ भो ! भूभृद्बोधयिष्यामस्तां शास्त्रादिसुविद्यया । पिटकत्रयवेत्तारो वयं विद्यानुगामिनः ।। ४६ ॥ अभ्येत्य तां ततो बौद्धा मदोद्दीप्ता अवादिषुः । अस्माकीनो वृषः कार्यस्त्वया राज्ञि हिताप्तये ॥ ५० ॥ गुरवो यत्र वर्तते भावकाश्चेलवर्जिताः । पशुवल्लंघनारूढा ज्ञानविज्ञान वंचिताः ॥ ५१ ॥ नग्नाः क्षपणका येऽत्र म्रियतेऽमुत्रजन्मनि । तादृशा एव जायते नग्ना नात्र विचारणा ॥ ५२ ।। क्षुत् तृषाकुलिता येऽपि क्षुत्तृषाकुलितास्तके । भवंत्यमुत्र भो राज्ञि मान्यते ते कथं त्वया ॥ ५३ ।। वपंति यादशं बीजं जनाः क्षेत्रे च तादशं । तद्वल्लभते भो राशि ! नान्यल्लभ्यं कदाचन ॥ ५४ ।। ये भुजंतीह सातं च स्त्रीजं भोजनसंभवम् । वस्त्रादिजं सदासारं भुजंति परजन्मनि ॥ ५५ ॥ अतो बौद्धान्गुरून्राज्ञि मानयस्व विदावृतान् । पक्षं क्षापणकं मुक्त्वा परलोकाऽसुखावहम् ॥ ५६ ॥ इत्युदीर्य स्थिते बौद्धेऽवादीत्सा मारमंजरी। भवद्भिरित्थमावेदि कथं परभवोद्भवम् ॥ ५७ ॥ इत्युक्ते राज्ञि ते प्राहुर्वयं ज्ञानपरायणाः । यथावद्विश्वमाविद्मः का वार्ताऽत्रभवादिजा ॥ ५८ ॥ राश्याऽभाणि यदीत्थं वै भवत्सुज्ञानमुत्तमम् । भोजयित्वाऽखिलान् बौद्धान् श्वो गृहीष्यामित्वदृषं ।। ५६ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ततः प्रमुदिताः सर्वेऽभूवन् राज्ञी प्रबोधनात् । समैत्य नृपतिः शंसां चक्रे तस्याः प्रमोदतः ।। ६० ।। राजन् ! हमने सुना है कि रानी चेलना जैन धर्म की परम भक्त है। वह बौद्ध धर्म को एक घृणित धर्म मानती है। बौद्ध धर्म को धरातल में पहुँचाने के लिए वह पूरा-पूरा प्रयत्न भी कर रही है। यदि यह बात सत्य है तो आप शीघ्र ही इसके प्रतीकार्थ कोई उपाय सोचें। नहीं तो बड़े भारी अनर्थ की संभावना है। बौद्ध गुरुओं के ऐसे वचन सुन महाराज ने और तो कुछ भी जवाब न दिया। केवल यही कहा-पूज्यवरो! रानी को मैं बहुत-कुछ समझा चुका। उसके ध्यान में एक भी बात नहीं आती। कृपाकर आप ही उसके पास जायें और उसे समझावें। यदि आप इस बात में विलंब करेंगे तो याद रखिये बौद्ध धर्म की अब खैर नहीं। अवश्य रानी बौद्ध धर्म को जड़ से उखाड़ने के लिए पूरा-पूरा प्रयत्न कर रही है। महाराज के ऐसे वचनों ने बौद्ध गुरुओं के चित्त पर कुछ शांति का प्रभाव डाल दिया। उन्हें इस बात से सर्वथा दिल में तसल्ली हो गई कि चलो राजा तो बौद्ध धर्म का भक्त है तथा उन्होंने शीघ्र ही राजा से कहा राजन् ! आप खेद न करें। हम अभी रानी को जाकर समझाते हैं। हमारे लिए यह बात कौन कठिन है? क्योंकि हम पिटकत्रय आदि अनेक ग्रन्थों के भली प्रकार ज्ञाता हैं। हमारी जिह्वा सदा अनेक शास्त्रों का रंगस्थल बनी रहती है। और भी अनेक विद्याओं के हम पारगामी हैं। ऐसा कहकर वे शीघ्र ही रानी चेलना के पास आये। और इस प्रकार उपदेश देने लगे चेलने ! हमने सुना है कि तू जैन धर्म को परम पवित्र धर्म समझती है। और बौद्ध धर्म से घृणा करती है। सो यह तेरा विचार सर्वथा अयोग्य है। तू यह निश्चय समझ, संसार में जीवों को हित करनेवाला है तो बौद्ध धर्म ही है। जैन धर्म से कदापि जीवोंका कल्याण नहीं हो सकता। देख! ये जितने दिगंबर मत के अनुयायी साधु हैं सो पशु के समान हैं क्योंकि पशु जिस प्रकार नग्न रहता है उसी प्रकार ये भी नग्न फिरते रहते हैं। आहार के न मिलने से पशु जिस प्रकार उपवास करते हैं उसीप्रकार ये भी आहार के अभावसे उपवास करते हैं। तथा पशु के समान ये अविचारित और ज्ञानविज्ञान रहित भी हैं । और हे रानी ! दिगंबर साधु-जैसे इस भव में दीन-दरिद्री रहते हैं परजन्म में भी इनकी यही दशा रहेगी। परजन्म में भी इन्हें किसी प्रकार के वस्त्र-भोजनों की प्राप्ति नहीं होगी। वर्तमान में जो दिगंबर क्षधा-तषा आदि से व्याकल दीखते हैं। परजन्म में भी नियम से ये ऐसे ही व्याकुल रहेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं। तथा हे रानी ! क्षेत्र में बीज बोने पर जैसा तदनुरूप फल उत्पन्न होता है। उसी प्रकार समस्त संसारी जीवों की दशा है । वे जैसा कर्म करते हैं नियम से उन्हें भी वैसा ही फल मिलता है। याद रखो यदि तुम इन भिक्षुक दिगम्बर दरिद्र Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् मुनियों की सेवा-शुश्रूषा करोगी तो तुम्हें भी इन्हीं के समान परभव में दरिद्र एवं भिक्षुक होना पड़ेगा। इसलिए अनेक प्रकार के भोग भोगनेवाले, वस्त्र आदि पदार्थों से सुखी, बौद्ध साधुओं की ही तू भक्तिपूर्वक सेवा कर। इन्हें ही अपना हितैषी मान जिससे परभव में तुझे अनेक प्रकार के भोग भोगने में आवें। पतिव्रते ! अब तुझे चाहिए कि तू शीघ्र ही अपने चित्त से जैन मुनियों की भक्ति निकाल दे। बुद्धिमान लोग कल्याण-मार्गगामी होते हैं। सच्चा कल्याणकारी मार्ग भगवान बुद्ध का ही है। बौद्ध गुरुओं का ऐसा उपदेश सुन रानी चेलना से न रहा गया। बड़ी गंभीरता एवं सभ्यता से उसने शीघ्र ही पूछा बौद्ध गुरुओ! आपका उपदेश मैंने सुना किंतु मुझे इस बात का संदेह रह गया, आप यह बात कैसे जानते हैं कि दिगम्बर मुनियों की सेवा से परभव में क्लेश भोगने पड़ते हैं, दीन-दरिद्री होना पड़ता है। और बौद्ध गुरुओं की सेवा से यह एक भी बात नहीं होती। बौद्ध गुरु-सेवा से मनुष्य परभव में सुखी रहते हैं इत्यादि । कृपाकर मुझे शीघ्र कहें--- रानी के इन वचनों को सुन बौद्ध गुरुओं ने कहा-चेलने! तुम्हें इस बात में संदेह नहीं करना चाहिए। हम सर्वज्ञ हैं। परभव की बात बताना हमारे सामने कोई बड़ी बात नहीं। हम विश्व-भर की बातें बता सकते हैं। बौद्ध गुरुओं के ऐसे वचन सुन रानी चेलना ने कहा बौद्ध गुरुओ! यदि आप अखंड ज्ञान के धारक सर्वज्ञ हैं तो मैं कल आपको भक्तिपूर्वक भोजन कराकर आपके मत को ग्रहण करूँगी। आप इस विषय में ज़रा भी संदेह न करें रानी के मुख से ये वचन सुन बौद्ध गुरुओं को परम संतोष हो गया। हर्षित चित्त हो, वे शीघ्र ही महाराज के पास आये और सारा समाचार महाराज को कह सुनाया। बौद्ध गुरुओं के मुख से रानी का इस प्रकार वचन सुन महाराज भी अति प्रसन्न हुए। उन्हें भी पूरा विश्वास हो गया कि अब रानी जरूर बौद्ध बन जायेगी। तथा रानी की भाँति-भांति से प्रशंसा करते हुए महाराज शीघ्र ही उसके पास गये और उसके मुखपर भी इस प्रकार प्रशंसा करने लगे॥४६-६०॥ त्वं धन्यासि महाराज्ञि सफलं तेऽद्यजन्म च । सफलं जीवितं तेऽद्य सद्धर्मग्रहात्प्रिये ॥ ६१ ॥ वित्तघोटकदेशादौ वाछां तेयत्र वर्त्तते । वांछयस्वाद्यचित्तस्थं तद्ददामि सुधर्मतः ॥ ६२ ॥ ततोऽन्नपान पक्वान्नमोदकं व्यंजनान्वितम् । राश्या निष्पाद्य ते सर्वे आहूता निजमंदिरे ॥ ६३ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् सन्मानितास्तया सर्वे सिंहासन विधानतः । तत्प्रशंसा करैर्वाक्यै मनोन्मानादिदानतः ॥ ६४ ॥ सा तेषां पादधावादिकारयित्वा निजे निजे । पदे तान् स्थापयामास भुक्त्यै भोजनलोलुपान् ।। ६५ ।। नानाविधं च पक्वान्नं नानामोदकमंडकम् । पायसं लापनश्रीं च प्रचुराज्यं सपूपकम् ॥ ६६ ॥ तेभ्यो व्यंजनराशि च राजभोग्यं समोदनम् । मुद्गादिकं मुमोचाशु ते भुंजंत्यतिलोलुपाः ॥ ६७ ॥ तत्परीक्षा कृते दक्षा तेषां वामांह्रिजां पराम् । उपानहमुपादायैकैकां खंड़ीचकार च ॥ ६८ ॥ तत्सूक्ष्मां शान्समादाय तत्राम्ले जतुकाकुले । निक्षिप्य मुद्गवेलायां तेभ्यस्तद्वयंजनं ददौ ॥ ६६ ॥ सुस्वादतो विशेषेण बुभुजस्ते च व्यंजनं । ततस्तत्रादिपर्यंतं जेमुस्ते साम्ल व्यंजनम् ॥ ७० ॥ निजं संचचम्य तदा सर्वे गृहीत्वा आवादिषुः प्रमादेनेति गृहाण राज्ञि त्वद्वाक्यतः सर्वैर्भुक्तं तद्धाम्नि वेगतः । उररीकुरु सद्धर्मं बौद्ध सत्सात सिद्धये ॥ ७२॥ इत्युक्ते सा वचोऽवादीद्गंतव्यं भो निजे मते । इदानीं भगवद्भिश्चा गमिष्यामि भवद्गृहम् ॥ ७३ ॥ करिष्यामि भवद्वाक्यं तत्र नात्रविचारणा । इति प्रोक्ते गृहं गंतुकामाः प्राणहितां निजां ॥ ७४ ॥ वामां न लोकयंति स्म सर्वे व्याकुलमानसाः । पृष्टेति सा क्व चैकैका राज्ञि प्राणहिता गता ।। ७५ ।। हास्यं नो गुरुभिः साकं विधेयं नृपवल्लभे । पादत्राणमतो देहि हास्यं योग्ये शुभं खलु ॥ ७६ ॥ पूगपत्रकं । वृषं ॥ ७१ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् आकर्णेति मृगाक्षी साऽभाणीद्भो बौद्धनायकाः । मत्वा बोधेन गृहणंतु तां भवन्तश्च ज्ञानिनः ॥ ७७ ॥ नास्ति राज्ञीदृशं ज्ञानमस्मत्सु च तदा जगौ । यदीदृशं न विज्ञानं जानीध्वे मुग्धमानसाः ॥ ७८ ॥ प्रिये ! आज तुम धन्य हो । गुरुओं के उपदेश से तुमने बौद्ध धर्म धारण करने की प्रतिज्ञा कर ली । शुभे ! ध्यान रखो बौद्ध धर्म से बढ़कर दुनिया में कोई भी धर्म हितकारी नहीं । आज तेरा जन्म सफल हुआ। अब तुम्हें जिस बात की अभिलाषा हो, शीघ्र कहो। मैं अभी उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूँ। तथा इस प्रकार कहते-कहते महाराज ने रानी चेलना को उत्तमोत्तम पदार्थ बनाने की शीघ्र ही आज्ञा दे दी । १७३ महाराज की आज्ञा पाते ही रानी चेलना ने शीघ्र ही भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया । लड्डू, खाजे आदि उत्तमोत्तम पदार्थ तत्काल तैयार हो गये। जिस समय महाराज ने देखा कि भोजन तैयार है, शीघ्र ही उन्होंने बड़े विनय से गुरुओं को बुलावा भेज दिया। और राजमंदिर में उनके बैठने के स्थान का शीघ्र प्रबन्ध भी करा दिया । गुरुण इस बात की चिंता में बैठा ही था कि निमंत्रण आवे और कब हम राजमंदिर में भोजनार्थं चलें । ज्योंही निमंत्रण- समाचार पहुँचा । शीघ्र ही सभी ने अपने वस्त्र पहने । और राजमंदिर की ओर चल दिये । राजमंदिर में प्रवेश करते समय रानी चेलना ने उन्हें देखा तो उनका बड़ा भारी सम्मान किया। उनके गुणों की प्रशंसा की । एवं जब वे बौद्ध गुरु अपने-अपने स्थानों पर बैठ गये । रानी चेलना ने नम्रता से उनका पाद प्रक्षालन किया । तथा उनके सामने उत्तमोत्तम सुवर्णमय थाल रखकर भाँति-भाँति के लड्डू, खीर, श्रीखंड, राजाओं के खाने योग्य भात, मूंग के लड्डू इत्यादि स्वादिष्ट पदार्थों को परोस दिया। और भोजन के लिए प्रार्थना भी कर दी । रानी की प्रार्थना सुनते ही गुरुओं ने भोजन करना प्रारम्भ कर दिया। कभी तो वे खीर खाने लगे । और कभी उन्होंने लड्डुओं पर हाथ जमाया। भोजन को उत्तम एवं स्वादिष्ट समझ वे मन-ही-मन अति प्रसन्न होने लगे । और बार-बार रानी की प्रशंसा करने लगे । । जिस समय रानी ने बौद्ध गुरुओं को भोजन में अति मग्न देखा शीघ्र ही उसने अपनी प्रिय दासी बुलाई। और यह आज्ञा दी । तू अभी राजमंदिर के दरवाजे पर जा, और गुरुओं के बाएँ पैरों के जूते लाकर शीघ्र उनके छोटे-छोटे टुकड़े कर मुझे दे रानी की आज्ञा पाते ही दूती चल दी । उसने वहाँ से जूता लाकर और उनके महीन टुकड़े कर शीघ्र ही रानी को दे दिये । तथा रानी ने उन्हें शीघ्र ही किसी निकृष्ट छाछ में डाल दिया एवं उनमें खूब मसाला मिलाकर शीघ्र थोड़ा-थोड़ा कर गुरुओं के सामने परोस दिया । जिस समय मधुर भोजनों से उनकी तबीयत अकुला गई तब उन्होंने यह समझा कि यह कोई अद्भुत चटपटी चीज है शीघ्र ही उन छाछ मिश्रित टुकड़ों को खा गये । एवं भोजन के अन्त Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् में रानी द्वारा तांबूल, इलायची आदि चीजों को खाकर और सब-के-सब रानी के पास आकर इस प्रकार उसे उपदेश देने लगे सुन्दरी ! देख तेरी प्रार्थना से हम सभी ने राजमंदिर में आकर भोजन किया है। अब तू शीघ्र ही बौद्ध धर्म को धारण कर। शीघ्र ही अपनी आत्मा बौद्ध धर्म की कृपा से पवित्र बना। अब तुझे जैन धर्म से सर्वथा सम्बन्ध छोड़ देना चाहिए। बौद्ध गुरुओं का ऐसा उपदेश सुन रानी ने विनय से उत्तर दिया-श्री गुरुओ! आप अपनेअपने स्थानों पर जाकर विराजें। मैं आपके यहाँ आऊँगी। और वहीं पर बौद्ध धर्मधारण करूँगी। इस विषय में आप ज़रा भी सन्देह न करें। रानी चेलना के ऐसे विनय वचन सुन वे सब गुरु अति प्रसन्न हुए। और अपने-अपने मठों को चल दिये। जिस समय वे दरवाजे पर आये। और ज्योंही उन्होंने अपने बाएं पैर के जूतों को न देखा वे एकदम घबरा गये। आपस में एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। एवं कुछ समय इधर-उधर अन्वेषण कर वे शीघ्र ही रानी के पास आये। और रानी से जूतों के बाबत कहा। एवं रानी को डाँटने भी लगे कि तुझे गुरुओं के साथ हँसो नहीं करनी चाहिए। बौद्ध गुरुओं का यह चरित्र देख रानी हँसने लगी। उसने शीघ्र ही उत्तर दिया-गुरुओ! आप तो इस बात की डींग मारते थे कि हम सर्वज्ञ हैं। अब आपका यह सर्वज्ञपना कहाँ गया? आप ही अपने ज्ञान से जानें कि आपके जूते कहाँ हैं। रानी के ऐसे वचन सुन बौद्ध बड़े छके। उनके चेहरों से प्रसन्नता तो कोसों दूर किनारा कर गई। अब रानी के सामने उनसे दूसरा तो कोई बहाना न बन सका। किंतु लाचारी से यही जवाब देना पड़ा-सुन्दरी! हम लोगों में ऐसा ज्ञान नहीं कि हम इस बात को जान लें कि हमारे जते कहाँ हैं ? कृपा कर आप ही हमारे जते बता दीजिए। बौद्ध गुरुओं के ऐसे वचन सुन रानी चेलना का शरीर मारे क्रोध के भभक उठा कुछ समय पहले जो वह अपने पवित्र धर्म की निंदा सुन चुकी थी। उस निंदा ने उसे और भी क्रोधित बना दिया। बौद्ध गुरुओं को बिना जवाब दिये उससे नहीं रहा गया, यह कहने लगी॥६१-७॥ दिगंबरगति रम्यां कथं भो वंचनोद्यताः । अलीकभाषिणो यूयं सर्वमुग्धप्रतारकाः ।। ७६ ।। न जानीमो गति राज्ञि तेषां ज्ञानेन निश्चितं । उपानहो द्रुतं देहि यतोऽटामः स्वमंदिरम् ।। ८० ॥ भावत्कं वस्तु चास्त्येव भवत्पार्वेषु सौगताः । अस्माकं सन्निधौ नास्ति भवत्सु खलु विद्यते ॥ ८१॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १७५ भो राज्ञि! चविताऽस्माभिः किं पुनः पुनरादरात् । भवदाराच्च वर्त्ततेति प्रतिपाद्यते त्वया ॥ ८२॥ भविष्यंति तथैवात्र दापयामि कुतो द्रुतं । इत्युक्ते ह्रियमाणास्ते चक्रु रन्योन्य लोकनं ।। ८३ ॥ पादत्राणस्य किं जातं भक्षणं कृतछद्मना । वितयेति च कोपेन वमितं तत्र सौगतः ।। ८४ ।। ददृशुश्चर्मखंडानि तत्र ते चांगमे जयाः ।। ललज्जिरेऽजिनाशित्वान्निदयंतः स्वभोजनं ।। ८५॥ जग्मुस्ततो निजावासं मन्यमानाः स्ववंचनम् । बौद्धा विबुद्धितां नीताः स्फीतलज्जापरायणाः ।। ८६ ॥ श्रेणिकाग्रे निरूप्याशु महिषीसंभवं तदा । आसते निजसद्राम्नि ते स्मरंतः पराभवं ।। ८७ ।। बौद्ध गुरुओ! जब तुम जिन धर्म का स्वरूप ही नहीं जानते तो तुम्हें उसकी निंदा करनी सर्वथा अनुचित थी। बिना समझे बोलनेवाले मनुष्य पागल कहे जाते हैं। तुम लोग कदापि गुरुपद के योग्य नहीं हो। किंतु भोले-भाले प्राणियों के वंचक असत्यवादी, मायाचारी एवं पापी हो। रानी के मुख से ऐसे कटु वचन सुनकर भी बौद्ध गुरुओं के मुख से कुछ भी जवाब न निकला। वे बार-बार उससे यही प्रार्थना करने लगे--कृपया आप हमारे जूते दे दें, जिससे हम आनंदपूर्वक अपने-अपने स्थान चले जायें। इस प्रकार बौद्ध गुरुओं की अब प्रार्थना विशेष देखी तो रानी ने जवाब दिया बौद्ध गुरुओ! आपकी चोज आपके ही पास है। और इस समय भी वह आपके ही पास है। आप विश्वास रखें आपकी चीज किसी दूसरे के पास नहीं। रानी चेलना के ये वचन सुनकर बौद्ध गुरु बड़े बिगड़े। वे कुपित हो, इस प्रकार रानी से कहने लगे-रानी, यह तू क्या कहती है ? हमारी चीज हमारे पास है, भला बता तो वह चीज कहाँ है ? क्या हमने उसे चबा ली? तुझे हम साधुओं के साथ कदापि ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। गुरुओं के ऐसे वचन सुन रानी ने जवाब दिया। गुरुओ! आप घबराइए नहीं, आपकी चीज आपके पास है, मैं अभी उसे निकालकर देती हूँ। रानी के इन वचनों ने बौद्ध गुरुओं को बुद्धिहीन बना दिया। वे बार-बार सोचने लगेयह रानी क्या कहती है ? यह बात क्या हो गई ? मालूम होता है इस निर्दय रानी ने हमें जूतों का भोजन करा दिया। तथा ऐसा विचार करते-करते उन्होंने शीघ्र ही क्रोध से वमन कर दिया। फिर क्या था? जूतों के टुकड़े तो उनके पेट में अभी विराजमान ही थे। ज्योंही वमन में उन्होंने जतों के टुकड़े देखे, उनके होश उड़ गये। अब वे बार-बार रानी की निंदा करने लगे तथा Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् रानी द्वारा किये हए पराभव से लज्जित एवं अधोमुख हो वे शीघ्र ही महाराज की सभा में गये और जो-जो रानी ने उनका अपमान किया था, सारा महाराज को जा सुनाया। एवं राजमंदिर में अति अनादर को पा, वे चुपचाप अपने-अपने स्थानों को चले गये। रानी के सामने उनके ज्ञान की कुछ भी कद्र नहीं हुई ॥७६-८७।। अन्यदा भूरिभूमीश सेवितांह्रिः नराधिपः ।। प्रशंसां स्वगुरोश्चक्रे मृगाक्ष्यग्रे स्वबुद्धितः ।। ८८ ॥ पद्मनेत्रे शुभांगे च ज्ञानिनो विश्ववेदकाः । अस्मदीयाः परां काष्टां प्राप्ताश्च गुरवः पराः ।। ८६ ।। कदा विदंति संप्रश्ने राज्ञि ध्यानपरायणाः । आसते ते यदा सर्वे तदात्मानं शिवालयं ॥ १० ॥ नयंति परमं तत्त्वं गमयंति स्फुरत्प्रभाः । तदा सा महिषी प्राह तथास्थान् दर्शयस्वमे ।। ६१ ।। अंगीकरोमि तद्धर्मं मत्वा तत्त्वं च सौगतं । प्रेक्षावंतो न गृह्णत्यपरीक्ष्य सुकृतं यतः ॥ ६२ ॥ पक्षपाताच्च गृह्णति ये वृषं युक्तिवर्जितम् । परीक्षाक्षममित्याहुस्तान् शठान्शठसंगतान् ।। ६३ ॥ अतः परीक्ष्य नाथाद्याकर्ण्य तत्वं च सौगतम् । लास्यामि ते वृषं स्वामिन् दृष्ट्वा ___ तान् घ्यानसंस्थितान् ॥ १४ ॥ ततस्तदने भूपालो निरूप्य वाक्प्रबंधनं । कार्यं तथा भवद्भिश्च पुराबहिश्च मंडपे ॥६५॥ ततस्तन्मंडपे सर्वे विधाय वातधारणम् । नेत्रोन्मीलनसंत्यक्ता निःश्वासा अक्रियाः पुनः ॥ ६६ ॥ उदीर्णसदृशास्तस्थुः करव्यापारदूरगाः । वक्त्रभ्र भंगनिर्मुक्ता व्याहारादिपराङ मुखाः ॥ १७ ॥ तथास्थान्सा परिज्ञाया जगाम शिविकां पराम् । आरूह्य तान्विलोक्याशु पप्रच्छ परमं वृषम् ।। ६८ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १७७ कदाचित् राजगृह नगर में एक विशाल बौद्ध साधुओं का संघ आया। संघ के आगमन का समाचार एवं प्रशंसा महाराज के कानों में भी पड़ी। महाराज अति प्रसन्न हो शीघ्र ही रानी चेलना के पास गये। और उन साधुओं की प्रशंसा करने लगे। प्रिये मनोहरे! हमारे गुरु अतिशय ज्ञानी हैं, तप की उत्कृष्ट सीमा को प्राप्त हैं। समस्त संसार उनके ज्ञान में झलकता है। और परम पवित्र हैं। मनोहरे ! जब कोई उनसे किसी प्रकार का प्रश्न करता है तो वे ध्यान में अतिशय लीन होने के कारण बड़ी कठिनता से उसका जवाब देते हैं। ध्यान से वे अपनी आत्मा को साक्षात् मोक्ष में ले जाते हैं। एवं वे वास्तविक तत्त्वों के उपदेशक हैं और दैदीप्यमान शरीर से शोभित हैं। महाराज के मुख से इस प्रकार बौद्ध साधुओं की प्रशंसा सुन रानी चेलना ने विनय से उत्तर दिया कृपानाथ ! यदि आपके गुरु ऐसे पवित्र एवं ध्यानी हैं तो कृपा कर मुझे भी उनके दर्शन कराइये। ऐसे परम पवित्र महात्माओं के दर्शन से मैं भी अपने जन्म को पवित्र करूंगी। आप इस बात का विश्वास रखें यदि मेरी निगाह पर बौद्ध धर्म का सच्चापन जग गया और वे साधु सच्चे साध निकले तो मैं तत्काल बौद्ध धर्म को धारण कर लंगी। मझे इस बात का कोई आग्रह नहीं कि मैं जैन धर्म की ही भक्त बनी रहूँ। परन्तु बिना परीक्षा लिये दूसरे के कथन मात्र से मैं जैन धर्म का परित्याग नहीं कर सकती। क्योंकि हेयोपादेय के जानकार जो मनुष्य बिना समझे-बुझे दूसरे के कथन मात्र से उत्तम मार्ग को छोड़ दूसरे मार्ग पर चल पड़ते हैं वे शक्तिहीन मूर्ख कहे जाते हैं। और किसी प्रकार वे अपनी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकते हैं। महारानी के ऐसे निष्पक्ष वचनों से महाराज को रानी का चित्त कुछ बौद्ध धर्म की ओर खिचा हुआ दीख पड़ा। एवं रानी के कथनानुसार उन्होंने शीघ्र ही एक मंडप तैयार कराया और वह ग्राम के बाहर शीघ्र ही थोड़े ही समय में बनकर तैयार हो गया। मंडप तैयार होने पर इधर बौद्ध गुरुओं ने तो मंडप में समाधि लगाई। दृष्टि बंद कर, श्वास रोककर, काष्ट की पुतली के समान वे निश्चेष्ट बैठ गये। उधर रानी को भी इस बात का पता लगा वह शीघ्र पालको तैयार कराकर उनके दर्शनार्थ आई। एवं किसी बौद्ध गुरु से बौद्ध धर्म के विषय में जानने के लिए वह प्रश्न करने लगी॥८८-६८॥ वटु कश्चित्तदाऽवादीन्मातः सिद्धिं गता यतः । एतेषां देहिनो बौद्धा न वदंति लयं गताः ।। ६६ ।। तन्मायानिरासार्थं मंडपेऽग्निमदीपयत् । सखीभिः कुशला तावदृष्ट्वा ते मंडपं ज्वलत् ॥१०॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्रोशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् नाशयामासुरुन्निद्राश्चकिताश्चलसानसाः । राज्ञो निरूपयामासासुर्व त्तांतं विस्मयप्रदं ॥१०१॥ ततो मृगेक्षणा वेगादागत्य निजमंदिरं । हसंती कारयामास जिनधर्मप्रभावनां ॥१०२।। ततस्तां भूपतिः प्राप्या वोचदामर्चमानसः । कांते ? ऽकारि त्वया किं तदुष्टत्वं श्रेष्ठनिंदितं ॥१०३॥ विधीयते न भक्तिश्चेन्मारणे का मतिस्तव ।। किं च जैनेमते धर्मो दयाप्राधारन्यपूर्वकः ।।१०४।। हन्यमानेषु बौद्धेषु कृपा क्वास्ते मृगेक्षणे । वयं जैना वयं जैना इति किं प्रतिपाद्यते ।।१०।। एकिंद्रियादिजंतूनां रक्षणं जैनशासने । कथं विधीयते हिंसा पंचाक्षाणां च संकदा ।।१०६।। नाममात्रेण जैनत्वं त्वयास्ते प्राणवल्लभे । ननु साक्षात् त्रिशुद्धया च जैनत्वं जंतुरक्षकं ।।१०७।। आकर्पोति प्रहस्याशुजगौ वाचं शुभानना। शृणु वृत्तांतमेकं च भो कांत ! स्मयदायकं ॥१०८।। रानी के प्रश्न को भली प्रकार सुनकर भी किसी भी बौद्ध गुरु ने उत्तर नहीं दिया। किन्तु पास ही ब्रह्मचारी बैठा था, उसने कहा-मात! यह समस्त साधुवृन्द इस समय ध्यान में लीन हैं। समस्त साधुओं की आत्मा इस समय सिद्धालय में विराजमान हैं। देहयुक्त भी इस समय वे सिद्ध हैं। इसलिए इन्होंने आपके प्रश्न का जवाब नहीं दिया है। ब्रह्मचारी के ऐसे वचन सुन रानी चेलना ने और कुछ भी जवाब नहीं दिया। उन्हें मायादारी समझ, माया को प्रकट करने के लिए उसने शीघ्र ही मंडप में आग लगा दी। और उनका दृश्य देखने के लिए एक ओर खड़ी हो गई। एवं कुछ समय बाद राजमंदिर में आ गई। फिर क्या था ? अग्नि जलते ही बौद्ध गुरुओं का ध्यान न जाने कहाँ चला गया। कुछ समय पहले तो वे निश्चल ध्यानारूढ़ बैठे थे, वे अब इधर-उधर व्याकुल हो दौड़ने लगे। और रानी का सारा कृत्य उन्होंने महाराज को जा सुनाया। बौद्ध गुरुओं के ये वचन सुन अबकी तो महाराज कुपित हो गये। वे यह समझ कि रानी ने बड़ा अनुचित काम किया, शीघ्र ही उसके पास आये और इस प्रकार कहने लगे Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १७९ सुन्दरी ! मंडप में जाकर तूने यह अति निंद्य एवं नीच काम क्यों कर डाला? अरे! यदि तेरी बौद्ध धर्म पर श्राद्ध नहीं है। बौद्ध साधुओं को तू ढोंगी साधु समझती है तो तू उनकी भक्ति न कर । यह कौन बुद्धिमानी थी कि मंडप में आग लगा तूने उन बेचारों के प्राण लेने चाहे । कांते! जो तू अपने जैन धर्म की डींग मार रही है, सो यह तेरी डींग अब सर्वथा व्यर्थ मालम पड़ती है। क्योंकि जैन सिद्धान्त में धर्म दया-प्रधान माना गया है। दया उसी का नाम है जो एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिपर्यंत जीवों की प्राण-रक्षा की जाय। किंतु तेरे इस दुष्ट बर्ताव से उस दयामय धर्म का पालन कहाँ हो सका? तूने एकदम पंचेन्द्रिय जीवों के प्राण विघात के लिए साहस कर डाला यह बड़ा अनर्थ किया। अब तेरा हम जैन हैं, हम जैन हैं, यह कहना आलाप मात्र है इस दुष्ट कर्म से तुझे कोई जैनी नहीं बतला सकता। महाराज को इस प्रकार अति कुपित देख रानी चेलना ने बड़ी विनय एवं शांति से इस प्रकार निवेदन किया कृपानाथ ! आप क्षमा करें। मैं आपको एक विचित्र आख्यायिका सुनाती हूँ। आप कृपया उसे ध्यानपूर्वक सुनें। और मेरा इस कार्य में कितने अंश अपराध हुआ है। उस पर विचार करें ॥६-१०८॥ वत्सदेशोऽस्ति विख्यातो विशिष्टजनपूरित । समस्ति निगमैः पूर्णो विस्तीर्णो गुणिभिर्जनः ॥१०६।। पुरी नरकृतावासा कौशांबी तत्र राजते । राजद्राजनिकायाढ्या शुभाढ्यदृढपूरिता ॥११०॥ तच्छास्तावृषपाकेन वसुपालोबभूव च । वसुधारप्रदानेन कल्पवृक्षायते च यः ॥११॥ यशस्विनी ति सन्नाम्ना महिषी योषितां गुणैः । यशस्विनी सुविख्याता तस्याभून्मृगलोचना ॥११२।। श्रेष्ठी सागरदत्ताख्या आस्ते सागरवर्द्धनी । गंभीरो गणवान्वीरो राजमान्यो विदांवरः ॥११३।। भार्या वसुमती तस्य तन्मनः पद्मचंद्रमा । चारुवक्त्रा विचारज्ञा तन्वंगी कठिनस्तनी ॥११४।। तत्रैवास्ते धनी चान्यः श्रेष्ठी श्रेष्ठक्रियाग्रणीः । समुद्रदत्त इत्याख्य: कांता सागरदत्तिका ॥११॥ एकदा श्रेष्ठिनौ द्वौ च हसंतौ तिष्ठतो मुदा । एकत्रस्नेहवृद्धयर्थं तदाख्यद्दिवतीयो वणिक् ॥११६॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् श्रेष्ठिन् सागरदत्ताख्य यदि पुत्रो भवेत्तव । भागधेयात्तथा पुत्री भवेन्मे दैवयोगतः ॥११७॥ अन्योन्यं भवितव्यो वै विवाहो निश्चयेन भो। विपर्ययेऽपि कर्त्तव्यं तथैव स्नेहसिद्धये ॥११८॥ इसी जम्बूद्वीप में मनोहर-मनोहर गांवों में शोभित, धनिक एवं विद्वानों से भूषित, एक वत्स देश है । वत्स देश में एक कौशांबी नगरी है। जो कौशांबी उत्तमोत्तम बाग-बगीचों से, देवतुल्य मनुष्यों से स्वर्गपुरी की शोभा को धारण करती है। कौशांबीपुरी का स्वामी जो नीतिपूर्वक प्रतापालक, कल्पवृक्ष के समान दाता जिसका नाम राजा वसुपाल था। राजा वसुपाल की पटरानी का नाम अश्विनी था। रानी अश्विनी स्त्रियों के प्रधान गुणों की आकर, मृगनयना, चन्द्रवदना एवं रमणी रत्न थी। सागरदत्त अपार धन का स्वामी था। अनेक गुणयुक्त होने के कारण राज्य-मान्य और विद्वान था। सागरदत्त की स्त्री का नाम वसुमती था। वसुमती रात्री विकसी कमलों को चाँदनी के समान सदा सागरदत्त के मन को प्रसन्न करती रहती थी। मुख से चन्द्र शोभा को भी नीचे करनेवाली थी। एवं प्रत्येक कार्य को विचारपूर्वक करती थी। । उसी समय कौशांबीपुरी में समुद्रदत्त नाम का श्रेष्ठ भी निवास करता था। समुद्रदत्त सम्पन्न धनी था। धर्मात्मा एवं अनेक गुणों का भंडार था। श्रेष्ठि समुद्रदत्त की प्रिय भार्या सागरदत्ता थी जो कि अतिशय रूपवती, गुणवती एवं पतिभक्ता थी। ___ कदाचित् सेठी सागरदत्त और समुद्रदत्त आनंदपूर्वक एक स्थान में बैठे थे। परस्पर में और भी स्नेह वद्धयर्थ सेठी समद्रदत्त ने सागरदत्त से कहा-प्रिय सागरदत्त! आप एक काम करें। यदि भाग्यवश आपके पुत्र और मेरे पुत्री अथवा मेरे पुत्र और आपके पुत्री होवे तो उन दोनों का आपस में विवाह कर देना चाहिए जिससे हमारा और आपका स्नेह दिनोंदिन बढ़ता ही चला जाय। समुद्रदत्त के ऐसे वचन सुन सागरदत्त ने कहा-जो आप कहते हैं, सो मुझे मंजूर है। मैं आपके वचनों से बाहर नहीं हूँ॥१०६-११८।। प्रतिपन्नं तथा ताभ्यां तदा स्नेहकृते मुदा । कियत्काले सुतो जातो वसुमत्यां च सागरात् ॥११६॥ वसुमित्राभिधः सर्परूपः साध्वसदायकः ।। अन्ययोस्तनुजा जाता नागदत्ता च देवत: ।।१२०॥ कनत्कनकदेहाभा विकसत्पद्मलोचना । संपूर्णविधुसद्वक्त्रा सद्रूपा सद्गुणाकुला ॥१२१।। संपूर्णे यौवने जातस्तयोर्वाक्यनिबंधनात् । विवाहश्च महाभूत्या नानाक्षणपरात्मनोः ।।१२२।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेणिक पुराणम् १८१ अन्यदा यौवनैः पूर्णा कनत्कनककंकणाम् । हारिहारसमाकीर्णां विस्तीर्णवसनावहाम् ॥१२३॥ नागदत्तां समालोक्याऽरोदीत्सागरदत्तिका । हा हा पुत्रि! क्व सौभाग्यं हारूपं हा कला क्व च ॥१२४॥ हा सुते देवकन्याभे गतिस्ते क्व मनोरमा । क्व नागो भीषणो रूपीपादहस्तातिगो शुभः ॥१२५॥ दुर्दमं चेष्टितं ज्ञेयं विधेर्लोके सुरेश्वरैः । अन्यथा चितितं पूर्वं विधिना चान्यधा कृतं ॥१२६॥ हाकार मुखरां वाष्प पूरास्यां वीक्ष्य मातरं । रुदंती तनुजा वोचद्विलापः किं विधीयते ॥१२७॥ कुछ दिन बाद श्रेष्ठि सागरदत्त के भाग्यानुसार एक पुत्र जो कि सर्पकी आकृति का धारक एवं भयावह उत्पन्न हुआ था। और उसका नाम वसुमिन रखा गया। तथा श्रेष्ठ समुद्रदत्त की सेठानी सागरदत्ता के यहाँ एक पुत्री उत्पन्न हुई। जो पुत्री चन्द्रवदना, मनोहरा, सुवर्ण वर्णा एवं अनेक गुणों की आकर थी। और उसका नाम नागदत्ता रखा गया। कदाचित् कुमार और कुमारी ने यौवनावस्था में पदार्पण किया। इन्हें विवाह के सर्वथा योग्य जान बड़े समारोह से दोनों का विवाह किया गया। एवं विवाह के बाद वे दोनों दंपती सांसारिक सुख का अनुभव करने लगे। माता का पुत्री पर अधिक प्रेम रहता है। यदि पुत्री किसी कष्टमय अवस्था में हो तो माता अति दु:ख मानती है। कदाचित् पुत्री नागदत्ता पर सागरदत्ता की दृष्टि पड़ी। उसे हार आदि उत्तमोत्तम भूषणों से भूषित, कमलाक्षी कनकवर्णी देख वह इस प्रकार मन-ही-मन रुदन करने लगी। पुनी! कहाँ तो तेरा मनोहर रूप, सौभाग्य, उत्तम कुल एवं मनोहर गति ? और कहाँ भयंकर शरीर का धारक, हाथ-पैर रहित एवं अशुभ तेरा पति नाग? हाय दुर्दैव ! तुझे सहस्र बार धिक्कार है। तूने क्या जानकर यह संयोग मिलाया। अथवा ठीक है तेरी गति विचित्र है। बड़े-बड़े देव भी तेरी गति के पते लगाने में हैरान हैं। तब हम कौन चीज हैं। हाय, विचारा तो कुछ और था, हो कुछ और ही गया। माता को इस प्रकार रुदन करती देख पुत्री नागदत्ता का भी चित्त पिघल गया उसने शीघ्र ही विनय से सांत्वनापूर्वक कहा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् मातः ! आज क्या हुआ? तू मुझे देख अचानक ही क्योंकर विलाप करने लग गई। कृपा कर इसका कारण शीघ्र मुझे कह-॥११६-१२७॥ तदा सा वचनं प्राह नागदत्ते तवेदृशीं । भोगादिरिहितावस्थां प्रेक्ष्य रोदिमि भर्त जां ।।१२८॥ प्रहस्य तनुजावोचच्छु त्वा मातृवचस्तदा। मारोदिषि प्रवक्ष्येऽहं चरित्रं भर्त जशुभे ॥१२६॥ ममेशोऽहिन् प्रविश्याशु मातः पेटरकं मुदा । सपीभूत्वा समास्ते च सुखेन सुखसंगतः ॥१३०॥ पेटारकाद्विनिसृत्य क्षणदायां नरोत्तमः । भूत्वा भूनक्तिसद्भोगान्मया साकं निरंतरं ॥१३१॥ माता बंभण्यते पुत्रि पेटारकं क्षिपोज्झितं । देहि मे लोकनायैव कदाचिन्नागदत्तया ॥१३२॥ तस्यै पेटारके दत्ते तया दग्धं च तन्मदा।। ततः प्रभृति राजेंद्र नरो भूत्वा स्थितः सदा ॥१३३।। तद्वद्राजंश्च बौद्धानां सिद्धस्थाने गते नरि । शरीरदहने दोषो वर्त्तते कश्च कथ्यतां ॥१३४।। शरीरदहनात्सर्वे सिद्धत्वपदमाश्रिताः । आसते शिवमास्थानं देहिनः सौगताः खलु ।।१३।। पुनरागमने राजन्नशर्मभवसंभवम् । रागद्वेषोद्भवं नाथ ते भुंजंति निरंकुशाः ॥१३६॥ कायजं चैंद्रियं शर्म कर्माश्रवणकारणम् । कर्मतो भ्रमणं राजन् संसारे पार वजिते ॥१३७।। संसारासातनाशार्थं देहो नाश्यो मनीषिणा । अतो विधीयते नाशो मया तेषां शुभावहः ॥१३८॥ विषादो नो विधातव्यस्त्वा राजन्निरंतरं । अतः कूटतरं विद्धि सर्वमेतन्नराधिप ॥१३९।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १८३ क्वैतेषां सिद्धसंस्थाने गमनं प्राणिदुर्लभं । अनृतं भाति मे चित्ते विना जैनं न संशयः ॥१४०॥ पुत्री के इन विनय वचनों ने तो सागरदत्ता को रुदन में और अधिक सहायता पहुँचाई अब उसकी आँखों से अविरल आँसुओं की झड़ी लग गई। प्रथम तो उसने नागदत्ता के प्रश्न का कुछ भी जवाब न दिया। किंतु जब उसने नागदत्ता का अधिक आग्रह देखा तो बडे कष्ट से वह कहने लगी-पुत्री ! मुझे और किसी की ओर से दुःख नहीं किंतु स युवा अवस्था में तुझे पतिजन्य सुख से सुखी न देख मैं रोती हूँ। यदि तेरा पति कुरूप भी होता, पर मनुष्य तो होता, मुझे कुछ दुःख न होता परंतु तेरा पति नाग है। वह न कुछ कर सकता और न धर ही सकता है इसलिए मेरे चित्त को अधिक संताप है। माता के ये वचन सुन प्रथम तो नागदत्ता हसने लगी, पश्चात् उसने विनय से कहा मात! तू इस बात के लिए ज़रा भी खेद मत कर। यदि तू नहीं मानती है तो मैं अपना सारा हाल तुझे सुनाती हूं। तू ध्यानपूर्वक सुन–मेरे शयनागार में एक संदूक रखा है जिस समय दिन हो जाता है उस समय तो मेरा पति नाग बन जाता है। और दिन-भर नागरूप में मेरे साथ खेल-किलोल करता है। और जब रात हो जाती है तो वह उस संदूक से निकल उत्तम मनुष्यआकार बन जाता है। एवं मनुष्य रूप से रात-भर मेरे साथ भोग भोगता है। पुत्री के मुख से यह विचित्र घटना सुन सागरदत्ता आश्चर्य करने लगी उसने शीघ्र ही नागदत्ता से कहा नागदत्ते ! यदि यह बात सत्य है तो तू एक काम कर उस संदूक को तू किसी परिचित एवं अपने अभीष्ट स्थान में रख । और यह वृत्तांत मुझे दिखा। तब मैं तेरी बात मानूंगी पुत्री नागदत्ता ने अपनी माता को आज्ञा स्वीकार कर ली। तथा किसी निश्चित दिन नागदत्ता ने उस संदूक को ऐसे स्थान पर रखवा दिया जो स्थान उसकी माँ का भी भली प्रकार परिचित था। और माँ को इशारा कर वह मनुष्याकार अपने पति के साथ भोग भाने लगी। बस फिर क्या था? हे महाराज ! जिस समय सागरदत्ता ने उस संदूक को खुला देखा, तो उसने उसे खोखला समझ शीघ्र जला दिया। और वह वसुमित्र फिर सदा के लिए मनुष्याकार बन गया। उसी प्रकार हे दीनबंधो! किसी ब्रह्मचारी से मुझे यह बात मालम हुई कि बौद्ध गुरुओं की आत्मा इस समय मोक्ष में हैं। ये इनके शरीर इस समय खोखले पड़े हैं। मैंने यह जान कि बौद्ध गुरुओं को अब शारीरिक वेदना न सहनी पड़े, आग लगा दी क्योंकि इस बात को आप भी जानते हैं। जब तक आत्मा के साथ इस शरीर का संबंध रहता है। तब तक अनेक प्रकार के कष्ट उठाने हैं। किंतु ज्योंही शरीर का संबंध छट जाता है त्योंही सब दःख भी एक ओर किनारा कर जाते हैं। फिर वे आत्मा से कदापि संबंध नहीं करते पाते। नाथ ! शरीर के सर्वथा जल जाने से अब समस्त गुरु सिद्ध हो गये। यदि उनका शरीर कायम रहता तो उनकी आत्मा सिद्धालय से लौट आती। और संसार में रहकर अनेक दुःख भोगती। क्योंकि संसार में जो इन्द्रियजन्य सुख भोगने में आते हैं उनका प्रधान कारण शरीर है यह बात अनुभवसिद्ध है कि इन्द्रिय सुख से अनेक पडते Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कर्मों का उपार्जन होता है । और कर्मों से नरकादि गतियों में घूमना पड़ता है । जन्म-मरण आदि वेदना भोगनी पड़ती है इसलिए मैंने तो उन्हें सर्वथा दुःख से छुड़ाने के लिए ऐसा किया था । १८४ नरनाथ ! आप स्वयं विचार करें इसमें मैंने क्या जैन धर्म के विरुद्ध अपराध कर डाला ? प्रभो ! आपको इस बात पर ज़रा भी विषाद नहीं करना चाहिए। आप यह निश्चय समझें बौद्ध गुरुओं का वह ध्यान नहीं था । ध्यान के बहाने से भोले जीवों को ठगना था । मोक्ष कोई ऐसी सुलभ चीज नहीं जो हरेक को मिल जाय । यदि इस सरल मार्ग से मोक्ष मिल जाय तो बहुत जल्दी सर्वजीव सिद्धालय में स्थित हो जायेंगे। आप विश्वास रखें मोक्ष प्राप्ति की जो प्रक्रियाँ जिनागम में वर्णित हैं वही उत्तम और सुखप्रद हैं। नाथ ! अब आप अपने चित्त को शांत करें । और बौद्ध साधुओं को ढोंगी साधु समझें ।। १२८-१४० ।। प्रत्युत्तर विधौ आमर्ष भूपोऽशक्तस्तूष्णी स्थितस्तदा । विधायाशुभपाकतः ॥ १४१॥ विविधचित्ते ईक्षे दैवाद्गुरुं कुर्वेऽस्याः पूजां च विपर्ययाम् । इति चित्ते विधायास्थाद्गृहे भुंजन् शुभाशुभं ॥। १४२ ।। कदाचित्सेनया साकं वने स तूर्यनादेन मृगांत कृतेऽगमत् । कुर्वन्भुवनमाकुलम् ।।१४३॥ गूढात्मपदवेदकम् । मनोयोग प्ररुंधकं ।। १४४। त्रियोगकं । शुभयोगप्ररूढं वै त्यक्ताशुभवियोगं च मित्रशत्रुसमानत्वं मन्यमानं मुनि मुख्यत्वमापन्नमनंतगुणयोगकं सहस्रहार्थं शीलशालिनमुन्नतं । पष्णिकाय सुजीवानां रक्षकं शिक्षपक्षकं ॥ १४६ ॥ नानद्धिबुद्धिसंपन्न सत्सप्तभंगसंरूढ शीतातापनयोगस्थं संदृश्य श्रेणिकोऽपृच्छन्नरं ।। १४५ ।। भव्यार्थकृतदेशनं । सप्तत्वप्ररूपकं ॥ १४७॥ यशोधरयतीश्वरं । कंचिदितिस्फुटं ॥ १४८ ॥ कोऽयमंशुकसंत्यक्तः स्नानसंस्कारवर्जितः । मुंडमूर्द्ध नेति संप्रश्ने सोऽवादीद्वेत्सि किं नवा ॥ १४९ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १८५ चेलनाया गुरुः राजन्नयं चोद्भुतदेहकः । आकर्ण्यतिविकुप्याशु चिंतयामास मानसे ॥१५०॥ मद्गुरोरनया पूर्वमुपसर्गः कृतः खलु । राज्ञा ददामि तद्वैरं गुरोस्तद्वैरहानये ॥१५१॥ प्रशंस्य वचनै रम्यैर्मुमोच निजकुर्कुरान् । शतपंचप्रमान् दुष्टान् दीर्घदंष्ट्रान्हरिप्रमान् ॥१५२॥ ध्यानस्थं तं समासाद्य बभूवुः क्रोधवजिताः । चक्र : प्रदक्षिणां सर्वे सच्छ्रद्धा इव सन्नताः ॥१५३॥ नत्वा तत्पन्दपद्मांते तस्थुस्ते कीलिता इव । महामंत्रण नागा वा क्रु द्धाः कंपितविग्रहाः ॥१५४॥ रानी के इन युक्तिपूर्ण वचनों ने महाराज को अनुत्तर बना दिया। वे कुछ भी जवाब न दे सके।कित गरुओं का पराभव देख उनका चित्त शांत न हआ। दिनोंदिन उनके चित्त में ये विचार तरंगें उठती रहतीं कि इस रानी ने बड़ा अपराध किया है। मेरा नाम भी श्रेणिक नहीं जो मैं इसे बौद्ध धर्म की भक्त और सेविका न बना दूं। आज जो यह जिनेन्द्र का पूजन और उनकी भक्ति करती है सो जिनेन्द्र के बदले इससे बुद्धदेव की भक्ति कराऊँगा। तथा अशुभ कर्म के उदय से कुछ दिन ऐसे ही संकल्प-विकल्प वे करते रहे। कदाचित् महाराज को शिकार खेलने का कौतूहल उपजा। वे एक विशाल सेना के साथ शीघ्र ही वन की ओर चल पड़े। जिस वन में महाराज गये उसी वन में महामुनि यशोधर खड्गआसन से ध्यानारूढ़ थे। मुनि यशोधर परम ज्ञानी, आत्मस्वरूप के भली प्रकार जानकार एवं परम ध्यानी थे। उनकी आत्मा सदा शुभ योग की ओर झुकी रही थी अशुभ योग उनके पास तक भी नहीं फटकने पाता था। उनका मन सर्वथा वश में था। मित्र शत्रुओं पर उनकी दृष्टि बराबर थी। कालिक योग के धारक थे। समस्त मुनियों में उत्तम थे। अनंत अक्षय गुणों के भंडार थे। असंख्याती पर्यायों के युगपत् जानकार थे। दैदीप्यमान निर्मल ज्ञान से शोभित थे। भव्य जीवों के उद्धारक और उत्तम उपदेश के दाता थे। स्यादस्ति,स्यान्नास्ति इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप जीवादि सप्त तत्त्व उनके ज्ञान में सदा प्रतिभाषित रहते थे। एवं बड़े-बड़े देव और इन्द्र आकर उनके चरणों को नमस्कार करते थे। महाराज की दृष्टि मुनि यशोधर पर पड़ी। उन्होंने पहले किसी दिगम्बर मुनि को नहीं देखा था इसलिए शीघ्र ही उन्होंने किसी पार्श्वचर से पूछा देखो भाई ! नग्न, स्नानादि संस्कार रहित एवं मुडमड़ाये यह कौन खड़ा है, मुझे शीघ्र कहो। पार्श्वचर बौद्ध था उसने शीघ्र ही इन शब्दों में महाराज के प्रश्न का जवाब दिया Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कृपानाथ! क्या आप नहीं जानते ? शरीर नराये खड़ा हुआ, महाभिमानी यही तो रानी चेलना का गुरु है। बस, वहाँ कहने मात्र की ही देरी थी, महाराज इस फिराक में बैठे ही थे कि कब रानी का गुरु मिले और कब उसका अपमान कर मैं रानी से बदला लूं। ज्योंही महाराज ने पार्श्वचर के वचन सुने अति क्रोध से उनका शरीर उबल उठा। वे विचारने लगे अहा ! रानी से बैर का बदला लेने का आज सुअवसर मिला है। रानी ने मेरे गुरुओं का बड़ा अपमान किया है। उन्हें अनेक कष्ट पहुँचाये हैं। मुझे आज यह रानी का गुरु मिला है। अब मुझे भी इसे कष्ट पहुँचाने में और इसका अपमान करने में चूकना नहीं चाहिए। तथा ऐसा क्षणेक विचार कर महाराज ने शीघ्र ही पाँच सौ शिकारी कुत्ते, जो लंबी-लंबी डाड़ों के धारक, सिंह के समान ऊँचे एवं भयंकर थे, मुनिराज पर छोड़ दिये। मुनिराज परम ध्यानी थे, उन्हें अपने ध्यान के सामने इस बात का जरा भी विचार नहीं था कि कौन दुष्ट हमारे ऊपर क्या अपकार कर रहे हैं ? इसलिए ज्योंही कुत्ते मुनिराज के पास गये। और ज्योंही उन्होंने मुनिराज की शांत मुद्रा देखी, सारी करता उनकी शांति में पलट गई। मंत्रकीलित सर्प-जैसा शांत पड़ जाता है मंत्र के सामने उसकी कुछ भी करामात नहीं चलती उसी प्रकार कुत्ते भी शांत हो गये। मुनिराज की शांत मुद्रा के सामने उनकी कुछ भी हिम्मत नहीं चली। वे मुनिराज की प्रदक्षिणा लेने लगे। और उनके चरण-कमलों में बैठ गये ॥१४१-१५४॥ तथास्थांस्तान् विलोक्यासौक्रु द्धोऽवादीद्वचस्तदा । धूर्तोऽयं मंत्रवादज्ञोनानादेशावलोकिक: ॥१५५॥ अनेन कीलिताः सर्वे शनकामेऽद्यनिश्चितम् । दर्शयामि फलंतस्य तस्यैवाशुभकर्मणः ॥१५६॥ इति संभाष्य चोत्क्षिप्य कृपाणं मुनिसूदने । मार्गेऽटन् शकुनघ्नं च नागमैले समुत्फणं ॥१५७।। अनिष्टं तं परिज्ञाय मारयामाग दुष्टधीः । शुभेः कंठे महापापी न्यक्षिपन्मुतसर्पकं ॥१५८।। तदातिरौद्रभावेन बबंध क्षितिनायकः । महातमः प्रभाख्यस्य निरयस्यायुरंतदं ।।१५।। त्रयस्त्रिशत्समुद्रायुर्धनुः पंचशतोच्छ तिः । यत्रास्ते परमं दुःखं कविवाचामगोचरं ।।१६०॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अहो साधूपसर्गेणाशर्म नानाविधंभवेत् । किल्विषं परमं नित्यं श्वभ्रादिगतिदायकं ।। १६१॥ फलंति विपदोऽमुत्र साधु पीड़ा न संशयः । न विदंति मदालीढा अमुत्र च हिताहिते ॥ १६२ ॥ महाराज भी दूर से यह दृश्य देख रहे थे । ज्योंही उन्होंने कुत्तों को क्रोध रहित और प्रदक्षिणा करते हुए देखा क्रोध के कारण उनका शरीर पजल हो गया । वे सोचने लगे - यह साधु नहीं है, धूर्त्तवंचक कोई मंत्रवादी है । मेरे बलवान कुत्ते इस दुष्ट ने मंत्र से कीलित कर दिये हैं । अस्तु, मैं अभी इसके कर्म का मज़ा चखाता हूँ। तथा ऐसा विचार कर उन्होंने शीघ्र ही म्यान से तलवार निकाली और मुनि के मारणार्थ बड़े वेग से उनकी ओर झपटे । मुनि को मारने के लिए महाराज जा ही रहे थे कि अचानक ही उन्हें एक सर्प, जो कि अनेक जीवों का भक्षक एवं फण ऊँचा किये था, दीख पड़ा एवं उसे अनिष्ट का करनेवाला समझ, शीघ्र महाराज ने मार डाला। और अति क्रूर परिणामी हो पवित्र मुनि यशोधर के गले में डाल दिया । १८७ जैन सिद्धांत में फल प्राप्ति परिणामाधीन मानी है । जिस मनुष्य के जैसे परिणाम रहते हैं । उसे वैसे ही फल की प्राप्ति होती है। महाराज श्रेणिक के उस समय अति रौद्र परिणाम थे । उन्हें तत्काल ही, जिस महातम प्रभा नरक में तेंतीस सागर की आयु, पाँच सौ धनुष का शरीर एवं विद्वानों के वचन के अगोचर घोर दुःख है, उस महातम प्रभा नाम के सप्तम नरक का आयु बन्ध बँध गया । यह बात ठीक भी है जो मनुष्य बिना विचारे दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं। विशेषकर साधु महात्माओं को उन्हें घोर से घोर दुःखों का सामना करना पड़ता है । महात्माओं को कष्ट देनेवाले मनुष्यों को इस बात का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, वे शीघ्र ही अनर्थ कर बैठते हैं। महाराज श्रेणिक ने मदोन्मत्त हो तुरन्त ऐसा काम कर दिया । इसलिए उन्हें इस प्रकार कष्टप्रद आयुबन्ध बँध गया ।। १५५-१६२ ।। यथायथा विकुर्वंति शुभं कर्माशुभं तथा । इह सर्वे जनास्तत्र भुंजंति च तथा तथा ।। १६३ ।। अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म च यैस्तकैः । आदत्त मृणवद्ज्ञेयं न कांता सुतबांधवैः ॥१६४॥ इति मत्वाऽशुभं कार्यं कार्यर्थं कार्यकोविदैः । वैरतः प्राणनाशेऽपि नाहितं हितमिच्छुभिः ॥ १६५ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् किल्विषं तीव्रमादायाजगाम निजपत्तनं । सहसन्विविधैर्वाक्य बौद्धाग्रे तन्न्यवेदयत् ॥१६६।। जहर्षुः खलरूपास्ते श्रुत्वा मुनि निबंधनं । ज्वलनात्कुक्कुरा वाहो मातंगाः पशुपातनात् ।।१६७॥ चतुर्थे घस्र एवासाऽवाप्यराज्ञी गृहं निशि । रममाणस्तदा राज्या च कथद्वचनं नृपः ॥१६८।। सर्पस्य कंठनिक्षेपं गुरोः श्रुत्वा रुरोद सा । अहो विरूपकं जातं त्वयात्मा दुर्गतौ कृतः ॥१६॥ धिग्धिग्जन्मममात्रैव स्थिति धिग्रराजमंदिरे । वज्र न पतितं किं मे मूद्धिन जन्मनि दुःसहं ॥१७०॥ यौवने मरणं कि वाऽभूद्यत्पाणिपीड़नम् । अनेन भविता नैवमत्त इत्थं वनो भवेत् ॥१७१॥ किं करोमि क्व गच्छामि क्व तिष्ठामि कथंचन । अस्त्वत् पयो ममात्रैव स्थित्यालं पशुवत्सदा ॥१७२॥ वरं वने स्थितिर्मेऽद्य रणेवासोऽद्रिमस्तके । वरं च मरणं ज्ञेयं धर्महीने गृहे न च ॥१७३॥ इत्यादिविविधालापमुखरां रतिदायिनी। तां वीक्ष्याऽसौऽभणद्रांज्ञि वृथा शोकं च माकृथाः ॥१७४॥ त्यक्त्वा नागं क्षणार्द्धन भविष्यति गतः स च । अशक्तो गंतुमुत्क्षिप्य नागं किं किं च लप्यते ॥१७॥ तदा तया बचोऽभाणि राजन्नित्थं कदाचन । गुरवो भवितारो मे यदि मागधमंडन ॥१७६॥ चलंति मंदरा दैवाद्वरा वा स्थानतः पुनः । समुद्रालंघयत्याज्ञां यतयो न व्रतं स्थिताः ॥१७७॥ अचलाः क्षमयाऽभवन्गंभीरा नीरनाथवत् । असंगा वायुवद्ज्ञेया अग्निवत् कर्मदाहकाः ॥१७८॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् निर्लेपा अभ्रवद्राजन् स्वच्छचित्ता जलादिवत् । जलदा इव ते संति परोपकृतये रताः ॥ १७६ ॥ ज्ञानिनो ध्यान संरूढा दृढवैराग्यपारगाः । संसारभयसंत्रस्ताः स्वामिन् मद्गुरवो मताः ॥ १८० ॥ न प्रच्यवंति सद्धयानादुपसर्गात्कथंचन । गुरवो गुरुतापन्नाः संसारच्छेदकारकाः ॥ १८९॥ अपवादेन तेषां च बध्नंति प्राणिनोऽशुभं । निरयोदर्कनाढ्यं विचारो नात्रभूपते ।।१८२।। भावत्का गुरवो राजन्परीषहभराक्षमाः । लिप्तोपधि सुसर्वांगा व्रताभरणदूरगाः ॥१८३॥ अदंति सर्वदा सर्वं पलिलं मधुमद्यकं । किल्विषाभीतिमानस्काः कथं मान्याः शुभैर्जनैः ॥ १८४ ॥ परीक्ष्य स्वर्णवद्धर्ममंगीकार्यं बुद्धोत्तमैः । निर्घर्षणादिभिश्चैव व्रतशीलदयागुणैः ।। १८५॥ इत्याकर्ण्य भयत्रस्तो जगौ भूभृन्नतांह्निकः । सत्यमेतत्प्रिये नूनं वृथा वा किं शुभानने ।। १८६ ॥ यत्रास्ते स महायोगी याव आवां वने द्रुतं । ईक्षावहे विनोदं तं निश्चलं च कृतोद्यमः । दापयामास सद्भेरीं गमनाय शिविकास्थितया राज्ञ्या चचाल तुरगस्थितः ॥ १८८ ॥ यतीश्वरं ॥ १८७॥ दशैंधनास्तदा दीप्ता यत्र तत्र चकासिरे । उच्छेदयंतः सद्ध्वांतं राज्ञी वाचश्वमानसं ।। १८ ।। अनेकदंतिवृ देन सनाथ रथवारेण वृतः गंधर्वगणगुंठित: । पत्तिपरेश्वरैः ।। १६०॥ क्रमेण निजकांतया । विप्रेर भूभृदासाद्य लुलोके किल्विषकृति कृते तं कंठसर्पगम् ॥१९१॥ १८६ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ज्योंही मुनि यशोधर को यह बात मालूम हुई कि मेरे गले में सर्प डाल दिया है तो उन्होंने अपनी ध्यानमुद्रा और भी अधिक चढ़ा दी। और महाराज श्रेणिक वहाँ से चल दिये । एवं जो-जो काम उन्होंने वहाँ मिये थे, अपने गुरुओं से आकर सब कह सुनाये। श्रेणिक द्वारा एक दिगम्बर गुरु का ऐसा अपमान सुन बौद्ध गुरुओं को अति प्रसन्नता हुई। वे बार-बार श्रेणिक की प्रशंसा करने लगे। किंतु साधु होकर उनका यह कृत्य उत्तम नहीं था। साधु का धर्म मानापमान, सुख-दुःख में समान भाव रखना है। अथवा ठीक ही था, यदि वे साधु होते तो वे साधुओं के धर्म जानते। किंतु वहाँ तो वेष साधु का था। आत्मा के साथ साधुत्व का कोई संबंध न था। इस प्रकार तीन दिन तक तो महाराज इधर-उधर लापता रहे। चौथे दिन वे रानी चेलना के राजमंदिर में गये। जो-कुछ दुष्कृत्य वे मुनि के साथ कर आये थे, सारा रानी से कह सुनाया और हँसने लगे। ___महाराज द्वारा अपने गुरु का यह अपमान सुन रानी चेलना अवाक रह गई। मुनि पर घोर उपसर्ग जान उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। वह कहने लगी-हाय, बड़ा अनर्थ हो गया। राजन् ! आपने अपनी आत्मा को दुर्गति का पात्र बना लिया। अरे मेरा जन्म सर्वथा निष्फल है। मेरा राजमंदिर में भोग भोगना महापाप है। हाय मेरा इस कुमार्गी पति के साथ क्योंकर संबंध हो गया। युवती होने पर मैं मर क्यों नहीं गई । अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कहाँ रहूँ, हाय यह मेरा प्राणपखेरू क्यों नहीं जल्दी बिदा होता। प्रभो, मैं बड़ी अभागिनी हूँ। मेरा अब कैसे भला होगा? छोटे गाँव, वन, पर्वतों में रहना अच्छा किंतु जिन धर्म रहित अति वैभवयुक्त भी इस राजमंदिर में रहना ठीक नहीं। हाय दुर्दैव ! तूने मुझे अभागिनी पर ही अपना अधिकार जमाया। रानी चेलना का रुदन सुन महाराज के चेहरे से प्रसन्नता कोसों दूर उड़ गई। उस समय उनसे और कुछ न बन सका । वे इस रीति से रानी को समझाने लगे प्रिये ! तू इस बात के लिए ज़रा भी शोक न कर, वह मुनि गले से सर्प फेंक कभी का वहाँ से भाग गया होगा। मृत सर्प को गले से निकालना कोई कठिन नहीं। महाराज के ये वचन सुन रानी ने कहा नाथ ! आपका यह कथन भ्रम मात्र है। मेरा विश्वास है, यदि वे मेरे सच्चे गुरु हैं तो कदापि उन्होंने अपने गले से सर्प न निकाला होगा। कृपानाथ ! अचल मेरु पर्वत भी कदाचित् चलायमान हो जाय । मर्यादा का त्यागी भी समुद्र में अपनी मर्यादा छोड़ दे। किंतु जब दिगम्बर मुनि ध्यानकतान हो जाते हैं। उस समय उन पर घोरतम भी उपसर्ग क्यों न आ जाय, कदापि अपने ध्यान से विचलित नहीं होते। प्राणनाथ ! क्षमा भूषण से भूषित दिगम्बर मुनि तो अचल पृथ्वी के समान होते हैं और समुद्र के समान गंभीर, वायु के समान निष्परिग्रह, अग्नि के समान कर्म-भस्म करनेवाले, आकाश के समान निर्लेप, जल के समान स्वच्छ चित्त के धारक एवं मेघ के समान परोपकारी होते हैं। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १६१ प्रभो! आप विश्वास रखें जो गुरु परम ज्ञानी, परम ध्यानी, दृढ़ वैरागी होंगे, वे ही मेरे गुरु होंगे। किंतु इनसे विपरीत परिषहों से भय करनेवाले, अति परिग्रही, व्रत-तप आदि से शून्य, मधु, मांसमदिरा के लोलुपी एवं महापापी जो गुरु हैं सो मेरे गुरु नहीं। जीवन-सर्वस्व ! ऐसे गुरु आपके ही हैं। न जाने जो परम परीक्षक एवं अपनी के हितैषी हैं, वे कैसे इन गुरुओं को मानते हैं ? उनको पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं ? रानी के ऐसे युक्तिपूर्ण वचन सुन राजा का चित्त मारे भय के काँप गया। उस समय और कुछ न कहकर उनके मुख से ये ही शब्द निकले प्रिये ! इस समय जो आपने कहा है, बिलकुल सत्य कहा है। अब विशेष कहने की आवश्यकता नहीं। अब एक काम करो, जहाँ पर मुनिराज विराजमान हैं वहाँ पर हम दोनों शीघ्र चलें और उन्हें जाकर देखें। रानी तो जाने को तैयार ही थी, उसने उसी समय चलना स्वीकार किया। एवं इधर रानी तो अपनी तैयारी करने लगी। उधर महाराज ने मुनि दर्शनार्थ शीघ्र ही नगर में ढोंढी पिटवा दी। तथा जिस समय रानी पीनस में बैठी वन की ओर चलने लगी। महाराज भी एक विशाल सेना के साथ उसके पीछे घोड़े पर सवार हो चल दिये। और रात में अनेक हाथी-घोड़ों से वेष्टित वे दोनों दंपती पलस्यायत में मुनिराज के पास जा दाखिल हो गये ।।१६३-१९१।। उपसर्गे च यो धीमान् ध्यायतीति मानसे । उपकारपरो मेऽद्य नृपोऽभुद्वापरो नहि ॥१६२।। उदीरणया सोढव्या शीताद्याः सुपरीषहाः । यतिभिस्ते स्वयं सर्वे कृताभूपेन किं रिपुः ॥१६३॥ मत्तो देहादिकं भिन्नं कर्मकारणसंभवं । तदुःखे मे कथं दुःखं चिद्रूपस्य परात्मनः ॥१६४॥ अहो ! इदं वपुनित्यं बीभत्सं भीतिदायकं । सर्गनाशि कथं धत्ते मतिमांस्तत्र सन्मतिं ॥१६५।। पात्यंगं पदमेकं च सार्द्धनति परत्र तत् । भूषणं पोषणं तस्य को दधाति शुभेच्छया ॥१६६।। व्याधिदेहं तुदत्येव न मां मूर्त चिदात्मकम् ।। शुद्धं पथाकुटीरं च ज्वलते न नभोऽग्निकः ।।१६७॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् चिद्रूपं केवलं शुद्धं निराबाधं निरंजनं । निः कलंक रजोमुक्तं वेम्यहं योगयोगतः ।।१६८।। वपूविण्मयमा बद्धमजिनरस्थिपंजरं । पूतिगंधं विमांसाढ्यं समस्ति मम पापदं ॥१६६॥ अनयोः सर्गमावेद्य यद्धितं तद्धितेच्छुभिः । ध्येयं ध्येयं विशुद्धात्म कोविदैश्चिल्लयंगतः ॥२००।। परीषहे समापन्ने मनोनास्यविचंचलम् । अभूत्तस्य सहिष्णुत्वं परोषहजयं तपः ।।२०१॥ तादृशं कीटिकालुप्त हृदयं कुणपं यथा । सुस्थिरं वीक्ष्य चापन्नौ तस्यांते दंपती मुदा ॥२०२॥ त्रिः परीत्य प्रणम्याशु चेलिनीभक्तिरंजिता ।। ससंवेगादिसम्यक्ता वृषाभरणभूषिताः ॥२०३॥ उत्क्षिप्य स्वभुजाभ्यां च मुनेः कंठाद्भ जंगमं ।। खंडपुंजविधानेन दूरीचक्रे पिपीलिकाः ।।२०४॥ प्रक्षाल्य मुनिसद्गात्रं निर्मलं कोष्णवारिणा। सुश्री खंडैविलिप्याशु तत्तापहतये सिका ॥२०॥ ततः समय॑ तत्पादमाक्षिपं सविधौ यतेः । आसतुस्तौ परं प्रीतौ सुस्मयापन्नमानसौ ॥२०६॥ सूर्योदये विषण्णं तं पूर्णयोगं च चवितम् । पिपीलिकाभिरत्यंतं राज्ञी रंजितमानसा ॥२०७॥ यह नियम है मुनियों पर जब उपसर्ग आता है तब वे अनित्य आदि बारह भावनाओं का चिंतन करने लग जाते हैं। ज्योंही मुनि यशोधर के गले में सर्प पड़ा वे इस प्रकार भावना भाने लगे राजा ने जो मेरे गले में सर्प डाला है सो मेरा बड़ा उपकार किया है। क्योंकि जो मनि अपनी आत्मा से समस्त कर्मों का नाश करना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे अवश्य कर्मों की उदीरणा के लिए परीषह सहे। यह राजा मेरा बड़ा उपकारी है। इसने अपने-आप परीषहों की सामग्री मेरे लिए एकत्रित कर दी है। यह देह मुझसे सर्वथा भिन्न है। कर्म से उत्पन्न हुआ है। और मेरी आत्मा समस्त कर्मों से रहित पवित्र है, चैतन्यस्वरूप है। शरीर में क्लेश होने पर भी मेरी आत्मा क्लेशित नहीं बन सकती। यद्यपि यह शरीर अनित्य है, महा अपवित्र है, मल-मत्र का घर है, घृणित है, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १९३ तथापि न मालम विद्वान लोग क्यों इसे अच्छा समझते हैं ? इन-फुलेल आदि सुगंधित पदार्थों से क्यों इसका पोषण करते हैं। यह बात बराबर देखने में आती है कि जब आत्माराम इस शरीर से बिदा होता है उस समय कोस-दो कोस की तो बात ही क्या है पगभर भी यह शरीर उसके साथ नहीं जाता। इसलिए यह शरीर मेरा है ऐसा विश्वास सर्वथा निर्मूल है। मनुष्य जो यह कहते हैं कि शरीर में सुख-दुःख होने पर आत्मा सुखी-दुःखी होती है यह बात भी सर्वथा नियुक्तिक है क्योंकि जिस प्रकार झोंपड़े में अग्नि लगने पर झोंपड़ा ही जलता है तदन्तर्गत आकाश नहीं जलता उसी प्रकार शारीरिक सुख-दुःख मेरी आत्मा को सुखी-दुःखी नहीं बना सकते। मैं ध्यान-बल से आत्मा को चैतन्य स्वरूप शुद्ध निष्कलंक समझता हूँ। और मेरी दृष्टि में शरीर जड़, अशुद्ध चर्मावृत, मल-मूत्र आदि का घर, अनेक क्लेश देनेवाला है। मुझे कदापि इसे अपनाना नहीं चाहिए। तथा इस प्रकार भावनाओं का चिंतन करते हुए मुनिराज, जैसे उन्हें राजा छोड़ गया था वैसे ही खड़े रहे । और गंभीरतापूर्वक परीषह सहते रहे। सत्य-सिद्धांत पर आरूढ़ रहने पर मनुष्य कहाँ तक दास नहीं बनते हैं। जिस समय राजा रानी ने मुनि को ज्यों-का-त्यों देखा अपार आनंद से उनका शरीर रोमांचित हो गया। उन दोनों ने शीघ्र ही समान भाव से मुनिराज को नमस्कार किया एवं उनकी प्रदक्षिणा की। मुनि के दुःख से दुःखित किंतु उनके ध्यान की अचलता से हर्षित चित्त एवं प्रशम, संवेग आदि सम्यक्त्व गुणों से भूषित, रानी चेलना ने शीघ्र ही मुनि के गले से सर्प निकाला। पास में कुछ चीनी फैलाकर शीघ्र ही चींटियाँ दूर की। चींटियों ने मुनिराज का शरीर खोखला कर दिया था इसलिए रानी ने एक मुलायम वस्त्र से अवशिष्ट चींटियों को भी दूर कर उसे गरम पानी से धोया। और संताप की निवृत्ति के लिए उस पर शीतल चन्दन आदि का लेप कर दिया एवं मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर मुनिराज की ध्यानमुद्रा पर आश्चर्य करनेवाले, उनके दर्शन से अतिशय संतुष्ट, वे दोनों दंपती आनंदपूर्वक उनके सामने भूमि पर बैठ गये ॥१९२-२०७॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य पूजयित्वा पदाम्बुजं । आरेभे तद्गुणालीढं स्तवं सा पापशांतये ॥२०८॥ नाथाद्य मित्रशत्रूणां समत्वं त्वयि वर्त्तते । नागपुष्पस्रजां साम्य मशर्मतरदायिनां ॥२०६॥ संसारजलधेः पारं नीतोऽसि स्वयमेव च। अन्येषां प्रापणे दक्षस्त्वमेव ' काष्टयानवत् ॥२१०॥ त्वत्तः प्राप्नोति जीवानां निकायः सातमुल्वणम् । एधसे शर्मणा स्वामिन्नात्मजेन भवापह ।।२११।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अहोधीरत्वमेवात्र शूरत्वं शुभभावना । परीषहजयत्वं च समस्ति ज्ञाननायक ॥२१२।। क्षमयस्व कृपां कृत्वाऽपराधं में महामते । न ते स्तौ रागकोपौ च मित्रे शत्रौ हितेऽहिते ॥२१३॥ प्रार्थयेऽहं तथाषीह मम मानसशुद्धये । स्वामिन्गुणगणाराम वारिवारिदशारद ॥२१४।। सेति संस्तुत्य सद्भक्त्या नेमतुस्तौ पदांबुजं । तेनोभाभ्यां सुनम्राभ्यां धर्मवृद्धिरदायि च ॥२१५।। मागधेश ! वृषवारविभागात् प्राप्यतेऽभ्युदयसंगमभारः । जन्मलाभकुलिता सुकुले स्यात् तस्य वृद्धिरुभयोर्भव हान्य ।।२१६॥ क्वेदं पवित्रं मुनिदर्शनं तयोः, ___ क्व भूपतिः सौगतधर्मवंचितः । क्व चेलना बौद्धपरीक्षणं सदा, क्व कोपभारो नृपतेजिने मते ॥२१७।। यह नियम है दिगंबर साधु रात में नहीं बोलते इसलिए जब तक रात्रि रही मुनिराज ने किसी प्रकार वचनालाप नहीं किया। किंतु ज्योंही दिन का उदय हुआ। और अंधकार को तितरबितर करते हुए ज्योंही प्राची दिशा में सूर्योदय हो गया त्योंही रानी ने शीघ्र ही मुनिराज के चरणों का प्रक्षालन किया। एवं परम ज्ञानी, परम ध्यानी, जर्जर शरीर के धारक, मुनिराज की फिर से तीन प्रदक्षिणा दीं। और उनके चरणों की भक्ति-भाव से पूजा कर अपने पाप की शान्ति के लिए वह इस प्रकार स्तुति करने लगो प्रभो! आप समस्त संसार में पूज्य हैं। अनेक गुणों के भंडार हैं। आपकी दृष्टि में शत्रुमित्र बराबर हैं। दीनबंधो! सुमार्ग से विमुख जो मनुष्य आपके गले में सर्प डालनेवाले हैं। और जो आपको फूलों के हार पहिनानेवाले हैं आपकी दृष्टि में दोनों ही समान हैं। कृपासिंधो! आप स्वयं संसार-समुद्र के पार पर विराजमान हैं। एवं जो जीव दुःखरूपी तरंगों से टकराकर संसाररूपी बीच समुद्र में पड़े हैं, उन्हें भी आप ही तारनेवाले हैं। जीवों के कल्याणकारी आप ही हैं। करुणासिंधो! अज्ञानवश आपकी जो अवज्ञा और अपराध बन पड़ा है, आप उसे क्षमा करें। कृपानाथ ! यद्यपि मुझे विश्वास है आप राग-द्वेष रहित हैं। आपसे किसी का अहित नहीं हो Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १६५ सकता। तथापि मेरे चित्त में जो अवज्ञा का संकल्प बैठा है, मुझे संताप दे रहा है। इसीलिए यह मैंने आपकी स्तुति की है। प्रभो! आप मेघतुल्य, जीवों के परोपकारी हैं । आप ही धीर और वीर हैं। एवं शुभ भावना भावनेवाले हैं। इस प्रकार रानी द्वारा भली प्रकार मुनि की स्तुति समाप्त होने पर राजा-रानी ने भक्तिपूर्वक फिर मुनिराज के चरणों को नमस्कार किया और यथास्थान बैठ गये। एवं मुनिराज ने भी अतिशय नम्र दोनों दंपती को समान भाव से धर्म-वृद्धि दी। तथा इस प्रकार उपदेश देने लगे-विनीत मगधेश ! संसार में यदि जीवों का परम मित्र है तो धर्म ही है। इस धर्म की कृपा से जीवों को अनेक प्रकार के ऐश्वर्य मिलते हैं। उत्तम कुल में जन्म मिलता है। और संसार का नाश भी धर्म की ही कृपा से होता है। इसलिए उत्तम पुरुषों को चाहिए कि वे सदा उत्तम धर्म की आराधना करें॥२०८-२१७।। क्व नागरोपो मुनिकंधरोद्भवः क्व चेलनायाः कथनं च भिक्षुजं । क्व रात्रिमध्ये मुनिपार्श्वगंतृता ___ क्व धर्मवृद्धिर्मुनिवक्त्रनिर्गता ।।२१८।। दत्ताया मुनिनायकेन शिवदा तीर्थादिमूलं प्रभो चक्रेशप्रमुखादिशर्मजनिनी धर्मादिवृद्धिःपरा। राज्ञो भारतभावितीर्थपतिता सत्सूवने दूतिका दंपत्योर्युगपढ्षोन्मुखतयोः संसारभीतात्मनोः ॥२१६॥ देखो भाग्य का महात्म्य कहाँ तो परम पवित्र मुनि यशोधर का दर्शन ? और बौद्ध धर्म का परम भक्त कहाँ मगधेश राजा श्रेणिक ? तथा कहाँ तो रानी चेलना द्वारा बौद्ध धर्म की परीक्षा? और कहाँ महाराज श्रेणिक का परीक्षा से क्रोध ? कहाँ तो श्रेणिक का मनिराज के गले में सर्प गिराना? और कहाँ फिर रानी द्वारा उपदेश? एवं कहाँ तो रात्रि में राजा-रानी का गमन ? और कहाँ समान रीति से धर्म-वृद्धि का मिलना? ये सब बातें उन दोनों दंपती को शुभअशुभ भाग्योदय से प्राप्त हुई। मुनि यशोधर ने जो धर्म-वृद्धि दी थी वह साधारण न थी किंतु स्वर्ग-मोक्ष आदि सुख प्रदान करनेवाली थी। संसार से पार करनेवाली थी। तीर्थंकर चक्रवर्ती इन्द्र-अहमिन्द्र आदि पदों Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्री शुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् 1 की प्रदात्री थी । एवं महाराज आगे तीर्थंकर होंगे, इस बात को प्रकट करनेवाली थी । और धर्म से विमुख महाराज को धर्म-मार्ग पर लानेवाली थी ।।२१८-२१६।। इति श्री श्रेणिकभवानुबद्ध भविष्यत्पद्मनाभ पुराणे भट्टारक श्रीशुभचंद्राचार्य विरचिते मुनि संगमवर्णनो नाम नवमः सर्गः ॥ ६ ॥ इस प्रकार भविष्यतकाल में होनेवाले श्री पद्मनाभ तीर्थंकर के भवांतर के जीव महाराज श्रेणिक को भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित मुनिराज का समागम-वर्णन करनेवाला नवम सर्ग समाप्त हुआ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः नौमि तं नरनाथेश चुंबितांह्रियशोधरम् । मुनीश्वरं विशुद्धात्मवेदकं कर्मभेदकं ॥ १ ॥ समस्त मुनियों के स्वामी, कर्म रहित निर्मल आत्मा के ज्ञाता, समस्त कर्मों के नाशक, मनुष्येश्वर महाराज श्रेणिक द्वारा पूजित, मैं श्री यशोधर मुनि को नमस्कार करता हूँ॥१॥ वृषवृद्धिप्रदानेन शाम्यत्वं वीक्ष्य योगिनः । उभयोरुपरि प्राप्तो मानसे विस्मयं नृपः ॥ २ ॥ अस्याहो नागरोहादि समये परमाक्षमा। त्यक्तमात्सर्यरूपस्य विशुद्धस्य च योगिनः ॥ ३ ॥ इदानीमनया भक्तिश्चक्राणश्चंदनादिभिः । अभक्तिश्च मया चक्रे कंठे नागादिदानतः ॥ ४ ॥ तथापि दृश्यते शाम्यमद्वितीयं द्वितीयकम् । अस्योपसर्गतो जातं कथं हन्मि च किल्बिषं ।। ५ ॥ मत्समः किल्बिषी कोऽपि नास्ति योगिप्रघातनात् । अधमो मत्समो नैव भूपीठे पिशुनः परः ।। ६ ।। क्वेदं वपुः पवित्रं च यतेामव्रतादिना । अजनिष्ट जिघांसात्र ममैनः प्रचुरोऽभवत् ।। ७ ॥ कथमेनो विधास्यामि दूरं दुर्गतिदायकम् । ज्ञानादृते मया पूर्वजितं कलुषात्मना ॥ ८ ॥ तदेनोनाशसिद्धयर्थं स्वशिरश्छेदनं लघु । विधाय योगिपादाब्जं चायेऽहं पंकमग्रकः ॥ ६ ॥ अन्यथा किल्बिषं नैव क्षयं याति ममात्मनः । दध्याविति नृपश्चित्ते चिरं यावदधोमुखः ।। १० ।। ज्योंही महाराज श्रेणिक का इस ओर लक्ष्य गया कि मुनि यशोधर ने हम दोनों को समान रीति से ही धर्म-वृद्धि दी है। धर्म-वद्धि देते समय मुनिराज ने शत्रु-मित्र का कुछ भी विभाग Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् नहीं किया है। इनकी हम दोनों पर कृपा भी एक-सी जान पड़ती है। महाराज एकदम अवाक् रह गये । तत्काल उनका मन संकल्प-विकल्पों से व्याप्त हो गया । वे खिन्न हो ऐसा विचारने लगे १६८ यशोधर धन्य हैं। गले में सर्प पड़ने पर अनेक पीड़ा सहन करते हुए भी इन्होंने उत्तम क्षमा को न छोड़ा। रानी चेलना ने गले से सर्प निकाल इनकी भक्ति भाव से सेवा की। और मैंने इनके गले में सर्प डाला। इनकी अनेक प्रकार से हँसी की । एवं इनकी कुछ भी भक्ति न की । तो भी मुनिराज का भाव हम दोनों पर समान ही प्रतीत हो रहा है। हाय ! मैं बड़ा नीच नराधम हूँ । क्योंकि मैंने ऐसे परम योगी की यह अवज्ञा की। देखो, कहाँ तो परम पवित्र यह मुनिराज का शरीर ! और कहाँ मैं इसका विघातेच्छु ? हाय, मुझे सहस्र बार धिक्कार है । संसार में मेरे समान कोई वज्रपाती न होगा । अरे, अज्ञानवश मैंने ये क्या अनर्थ कर डाले ? अब कैसे इन पापों से मेरा छुटकारा होगा ? हाय, मुझे अब नियम से नरक आदि घोर दुर्गतियों में जाना पड़ेगा ! अब नियम से वहाँ के दुःख भोगने पड़ेंगे ! अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? इस कमाये हुए पाप का पश्चात्ताप कैसे करूँ ? अब पाप - निवृत्यर्थ मेरा उपाय यही श्रेयस्कर होगा कि मैं खड्ग से अपना सिर काटूं ? और मुनिराज के चरणों में गिर समस्त पापों का शमन करूँ । कृपासिंधो ! मेरे अपराध क्षमा करिये। मुझे दुर्गति से बचाइये । तथा इस प्रकार विचार करते-करते मारे लज्जा के महाराज नतमस्तक हो गये । दुःख के कारण उनकी आँखों से अश्रुबिंदु टपक पड़ी ! ॥२- १०॥ तावद्बोधबलेनासौ मत्वा तत्स्वांतजं जगौ । राजन्विरूपकं नैवं चिंतनीयं त्वया हृदि ॥ ११ ॥ इत्थं कृते नृपाधीश न याति निजकिल्बिषं । आयाति किल्बिषं धीमन् स्वहत्याऽशर्मरूपया ॥ १२ ॥ करपत्रादि घातेन ये कुर्वंति मृतिशठाः । ते वै नारकतिर्यक्षु संबोभुवति किल्बिषात् ।। १३ ।। विषहेमादिपानेन प्राणास्त्यजंति अमुत्राशभुंजिं नानाभेदं निरंकुशं ।। १४ ।। स्वघातो नैव कर्त्तव्यः पंकनाशादिसिद्धये । रूपादिप्राप्तये चैव प्राणिभिहितमिच्छुभिः ।। १५ ।। मानवाः । विधेहि पंकनाशाय निंदा गहीं नराधिप । प्रायश्चित्तं विशेषेणैनोवृ दविधिदूरकृतं ॥ १६ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् १६४ आकर्पोति जजल्पासौ मानसं मे कथंचन । अवीविदद्विकल्पं च चिरं चित्रं २ मुनिमहान् ॥ १७ ॥ तदाऽगदीन्महाराश्यवीविदः किं न सद्यते: । ज्ञानभूतिसमस्तार्थपर्यायपदवेदिकं ॥१८ ।। का वार्ता स्वांतजा राजन् सर्वं वेत्तिभवादिकं । यतिरिच्छास्ति ते चित्ते पृच्छयस्व भवादिकं ॥ १६ ॥ मनिराज परम ज्ञानी थे, उन्होंने शीघ्र ही राजा के मन का तात्पर्य समझ लिया । एवं महाराज को सांत्वना देते हुए वे इस प्रकार कहने लगे नरनाथ ! तुम्हें किसी प्रकार का विपरीत विचार नहीं करना चाहिए। पाप-विनाशार्थ जो तुमने आत्महत्या का विचार किया है, सो ठीक नहीं। आत्महत्या से रत्ती-भर पापों का नाश नहीं हो सकता। इस कर्म से उल्टा घोर पाप का बन्ध ही होगा। मगधेश ! अज्ञानवश जो जीव तलवार या विष आदि से अपनी आत्मा का घात कर लेते हैं। वे यद्यपि मरण के पहले समझ तो यह लेते हैं कि हमारी आमा कष्टों से मुक्त हो जायेगी। परभव में हमें सुख मिलेंगे। किंतु उनकी यह बड़ी भूल समझनी चाहिये । आत्मघात से कदापि सुख नहीं मिल सकता । आत्मघात से परिणाम सक्लेशमय हो जाते हैं। सक्लेशमय परिणामों से अशुभ बन्ध होता है और अशुभ बन्ध से नरक आदि घोर दुर्गतियों में जाना पड़ता है। राजन् ! यदि तुम अपना हित ही करना चाहते हो तो इस अशुभ संकल्प को छोड़ो। अपनी आत्मा की निंदा करो। एवं इस पाप का शास्त्रों में जो प्रायश्चित्त लिखा है, उसे करो। विश्वास रखो पापों से मुक्त होने का यही उपाय है। आत्महत्या से पापों की शांति नहीं हो सकती। मनिराज के ये वचन सुने तो महाराज अचम्भे में पड़ गये। वे महारानी के मुंह की ओर ताककर कहने लगे--सुन्दरी ! यह क्या बात हुई ? मुनिराज ने मेरे मन का अभिप्राय कैसे जान लिया? अहा! ये मुनि साधारण मुनि नहीं। किंतु कोई महामुनि हैं । महाराज के मुख से यह बात सुन रानी चेलना ने कहा नाथ! हाथ की रेखा के समान समस्त पदार्थों को जाननेवाले क्या इन मुनिराज की ज्ञानविभूति को आप नहीं जानते? प्राणनाथ ! आपके मन की बात मुनिराज ने अपने परम पवित्र ज्ञान से जान ली है। आप अचंभा न करें। मुनिराज को आपके अंतरंग की बात का पता लगाना कोई कठिन बात नहीं। आपके भवांतर का हाल भी ये बता सकते हैं। यदि आपको इच्छा है तो पूछिए। आप इनके ज्ञान की अपूर्व महिमा समझे। रानी चेलना से मुनिराज के ज्ञान की यह अपूर्व महिमा सुन अब तो महाराज गद्गद कंठ हो गये। अपनी आँखों से आनंदाश्रु पोंछते हुए वे मुनिराज से इस प्रकार निवेदन करने लगे॥११-१९॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तदावनिपतिः प्राह स्वामिन्निः शेषवेदकः । भवमादिश मे पूर्वं कोऽहं कस्मात्समागतः ॥ २० ॥ समाधाय निजं चित्तं शृणु श्रेणिकभूपते । कथयिष्यामि योगींद्र इति वाचकथत्तदा ॥ २१ ॥ द्वीपे जंबूपदोपेते वृत्तनिर्जितचंद्रके । मेरुः सुदर्शनो नाम्ना समस्ति स्वर्णवर्णकः ॥ २२ ॥ अवाच्यां तस्य भरतं सस्यं भाति परोन्नतं । षट्खंडखंडसंशोभिशोभिताखिलभूतलम् ॥२३॥ तत्रार्यखंडमाभाति स्मार्यलोकैः समाकुलम् । निरालंबतया नाक खंडं भ्रष्टं बुधाश्रितं ॥ २४ ॥ सरकांतिसमोद्भासी सूरकांताऽभिधो नृप । नीवृत्तत्रास्ति विख्यातः ख्यातिव्याप्तजगत्रयः ।। २५ ॥ ग्रामारम्यसुरामाभी रमणीया मनोरमाः । हेमधामपरा यत्र सुसीमानो विशंति वै ॥२६॥ सस्यभृतो मनोऽभीष्टदायिनो वित्तपूरिताः । वर्त्तते निगमा यत्र भांडागाराश्च भूपतेः ॥ २७ ॥ तत्रास्ति परया भूत्या पुरं शूरपुरं परम् । विशालाति सद्दीर्घखातिकाभिरलंकृतं ॥ २८ ॥ आपण श्रेणिकायां च कृतरत्नसुराशयः । वेष्टिता जनया दोभिर्भाति रत्नाकराविलौ ॥ २६ ॥ यत्सौध शिखरे रूढाः सातकुंभसुकुंभकाः ।। दीप्यंत आगताश्चंद्राः सेवाय तत्पराजिताः ॥ ३० ॥ यत्र प्रासाददेशेषु कृता ने जनैर्मुदा। अर्चा जिनेशिनां पापशांतये स्युः स्फुरत्प्रभाः ।। ३१ ।। रम्यसौधस्थितानां च केकिनां घनशंकिकाम् । अकांडे तन्वते धूमाः कृष्णागुरुसमुद्भवाः ।। ३२ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २०१ पूजाय केचनोत्तं गा भव्याभव्यादि संपदः । कनत्कंकणनारीभिांति देवा इवोत्तमाः ॥ ३३ ॥ ककेचना जना यत्र निर्वेद कायकादिषु । आसाद्य निर्वृतिं यांति तत्र का वर्णना परा ॥ ३४ ।। तच्छास्ता मित्रनामाभूत्प्रतापत्रस्तशात्रवः । पत्नी कांतिकलाकीर्णा श्रीमती तस्य श्रीमती ॥ ३५ ॥ तयोः सुमित्र इत्याख्यस्तनयो मयनायकः । सविवेको विशालाक्षः सुपक्षो नीतिपंडितः ।। ३६ ।। मतिसागर नामाभून्मंत्री मंत्रविचक्षणः । दयिता तस्याभवन्नूनं रूपिणी रूपचंद्रिका ।। ३७ ॥ अजनिष्ट तयोः सूनुः सुषेणः सुखसंगतः । बुद्धिविज्ञानवेत्ता च राजमार्गे परार्थकृत् ।। ३८ ।। सुमित्रो मंत्रिपुत्रेण रमते क्रीड़नैः सदा । संतापयति भूभृज्जो मंत्रिपुत्रं कदाचन ॥ ३९ ॥ मदाष्टतः सुमित्रेण तापितोऽपि सुमंत्रिजः । न ब्रूते वचनं भीतः सहमानः समाधिजं ॥ ४० ॥ कृपासिंधो ! मैं परभव में कौन था? जिस योनि से मैं इस जन्म में आया हूँ ? कृपया मेरे पूर्वभव का विस्तारपूर्वक वर्णन कहें। इस समय मैं अपने भवांतर के चरित्न सुनने के लिए अति आतुर एवं उत्सुक हूँ। अति विनयी महाराज श्रेणिक के ऐसे वचन सुन मुनिराज ने कहा राजन् ! यदि तुम्हें अपने चरित्र सुनने की इच्छा है तो तुम ध्यानपूर्वक सुनो, मैं कहता Phco इसी लोक में लाख योजन चौड़ा, द्वीपों का सिरताज, अपनी गोलाई से चंद्रमा की गोलाई को नीचे करनेवाला जंबूद्वीप है। जंबूद्वीप में सुवर्ण के रंग का सुमेरु नाम का पर्वत है। सुमेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में जो विजयाद्ध पर्वत से छह खंडों में विभक्त, भरत क्षेत्र है। भरत क्षेत्र में एक अति रमणीय स्थान जो कि स्वर्ग के निरालंब होने के कारण, पृथ्वी पर गिरा हुआ स्वर्ग का टुकड़ा ही है क्या ? ऐसी मनुष्यों को भ्रांति करनेवाला आर्यखंड है। आर्यखंड में अपनी कांति से सूर्य-कांति को तिरस्कृत करनेवाला, जगद्विख्यात, समस्त देशों का शिरोमणि सूर्यकांत देश है। सूर्यकांत देश में कुक्कुट संपात्य ग्राम है। मनोहर पुरुषों के चित्तों को अनेक प्रकार से आनन्द प्रदान करनेवाली उत्तमोत्तम स्त्रियाँ हैं। सर्वदा यह देश उत्तमोत्तम धान्य सोना-चाँदी आदि पदार्थों से शोभित, और ऊँचे-ऊँचे धनिक गृहों से व्याप्त रहता है। इसी देश में एक नगर जो कि Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् उत्तमोत्तम बावड़ी कूप एवं स्वादिष्ट धान्यों से शोभित, शूरपुर है। शूरपुर के बाजार में जिस समय रत्नों की ढेरी नजर आती है । उस समय यही मालूम होता है मानो पानी रहित साक्षात् समुद्र आकर ही इसकी सेवा कर रहा है । और जब ऊँचे-ऊँचे धनिक गृहों की शिखर पर सुवर्ण कलश देखने में आते हैं तब यह जान पड़ता है मानो चन्द्रमा इस नगर की सदा सेवा करता रहता है । वहाँ पर भक्ति भाव से उत्तमोत्तम जिनालयों में भगवान की पूजा कर भव्य जीव अपने पापों का नाश करते हैं । और मयूर जिस समय गवाक्षों से निकला हुआ । सुगंधित धुआँ देखते हैं तो उसे मेघ समझ असमय में ही नाचने लग जाते हैं । एवं वहाँ कई एक भव्य जीव संसार-भोगों से विरक्त हो सर्वदा के लिए कर्म - बन्धन से छूट जाते हैं। २०२ I सूर्यपुर का स्वामी जो नीतिपूर्वक प्रजापालक एवं शत्रुओं को भयावह था, राजा मित्र था। राजा मित्र की पटरानी श्रीमती थी । श्रीमती वास्तव में अतिशय शोभायुक्त होने से श्रीमती ही थी । महाराज मित्र के श्रीमती रानी से उत्पन्न कुमार सुमित्र था । सुमित नीतिशास्त्र का भले प्रकार वेत्ता, विवेकी सच्चरित्र और विशाल किंतु मनोहर नेत्रों से शोभित था । राजा मित्र के मंत्री का नाम मतिसागर था । जो कि नीतिमार्गानुसार राज्य की सँभाल रखता था। मंत्री मतिसागर के मनोहर रूप की खानि, रूपिणी नाम की भार्या थी । और रूपिणी से उत्पन्न पुत्र सुषेण था । सुषेण माता-पिता को सदा सुख देता था । और प्रत्येक कार्य को विचारपूर्वक करता था । राजा मित्रका पुत्र सुमित्र और सुषेण दोनों समवयस्क थे। इसलिए वे दोनों आपस में खेला करते थे। सुमित को अभिमान अधिक था। वह अभिमान में आकर सुषेण को बड़ा कष्ट देता था। अनेक प्रकार की अवज्ञा भी किया करता था ॥ २०-४० ॥ कदाचिज्जल केल्यर्थं दीर्घिकायां तौ पद्मवृ ंदसंकीर्णौ निमग्नौ सुमुखश्च महास्नेहात्कौतुकेन च वारिणी । बहुशो मज्जयत्येव सुषेणं खिन्नमानसं ॥ ४२ ॥ ससंक्लिश्यमना नैव प्रतिवाक्यं कदाचन । सुब्रूते साध्वसाद्राज्ञोऽशक्ये मौनं वरं सदा ।। ४३ ।। कालांतरेण सप्रापत्सुमुखो राज्यमुत्तमम् । राज्यस्थं परिज्ञाय सुषेणोऽतर्कयद्ह्रदि ॥ ४४ ॥ तं अहो पूर्वं यथा सैष व्यतापयच्च दुष्टधीः । तथैव मां महापापीदानीं संतापयिष्यति ।। ४५ ।। ममज्जतुः । जलमध्यतः ।। ४१ ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रणिक पुराणम् २०३ विमृश्येति निजे चित्ते जगाम विपिनं घनं । निग्रंथमुनिमासाद्य जग्राह परमं तपः ॥ ४६ ॥ नानाविधं तपः कुर्वन् द्विपक्षप्रोषधादिकं । शास्त्राध्ययनकर्मादि षड़ावश्यकतत्परः ॥ ४७ ।। एकदा भूपतिमित्रमपश्यंस्तद्गृहं गतः । कमपि पृष्टवान्वेगात्कुत्रास्ते मे सुहृत्प्रियः ॥ ४८ ॥ तेनाभाणि महाभूप जग्रहे तेन सत्तपः । वने गुरुसमीपेऽथाकर्ण्यति व्याकुलोऽभवत् ॥ ४६॥ कदाचित्स्वपुरोद्याने मत्वामित्रमुनि मुदा । आटितं परमं तोषमापेदे पंकजं यथा ॥ ५० ॥ संदाप्यानंदसद्भेरीमारुह्य गजमुन्नतम् । चचाल संपदा साकं सुमित्रो मंत्रिभिः पुनः ।। ५१ ॥ ततस्तद्वनमासाद्य समुत्तीर्यस्ववाहनात् । परीत्य तं मुनि भक्त्या नमन्नमितमस्तकः ॥ ५२ ।। भपोऽभाणीद्यते धीमन्राज्यं मे शुभायतम् । हित्वा त्वया तपस्तूर्णमंगीकार्यं तदर्द्धकम् ॥ ५३ ।। हित्वा दृष्टं शुभं राज्यं कोगृह्णाति तपः परम् । मुंच मुंच तपो मित्र समेहि मम पत्तनम् ॥ ५४ ।। इत्युक्ते मुनिनाथोऽसौ जगौ नरपते शृणु । परलोकहितायाहं जग्राह परमं तपः ॥ ५५ ॥ तपसा प्राप्यते नाकस्तपसा प्राप्यते सुखं । तपसा प्राप्यते राज्यं तपसा प्राप्यते शिवः ॥ ५६ ।। तपसा प्राप्यते वित्तं तपसा प्राप्यते यशः । न तितिक्षामि राजेंद्र तपोऽभ्युदयदायकं ।। ५७ ॥ भूपः पुनर्जगौ वाक्यं नो चेन्मम वचः कुरु । ममाहारकृते गेहया गंतव्यं यथा तथा ॥ ५८ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् एक दिन सुमित और सुषेण किसी बावड़ी पर स्नानार्थ गये । वे दोनों कमल-पत्र से मुँह ढाँक बार-बार जल में डुबकी मारने लगे । सुमित बड़ा कौतूहली था, सुषेण को बार-बार डुबाता और खूब हँसी करता था। सुमिन के बर्ताव से यद्यपि सुषेण को दुःख होता था किंतु राजमित्र के भय से वह कुछ नहीं कहता था । उदासीन भाव से उसके सब अनर्थ सहता था । २०४ कदाचित् राजमित्र का शरीरांत हो जाने से सुमित्र राजा बन गया। सुमित्र को राजा जान मंत्री पुत्र सुषेण को अति चिंता हो गई। वह विचारने लगा - - सुमित्र का स्वभाव क्रूर है वह दुष्ट मुझे बालकपन में बड़े कष्ट देता था । अब तो यह राजा हो गया, मुझे अब यह और भी अधिक कष्ट देगा । इसलिए अब सबसे अच्छा यही होगा कि इसके राज्य में न रहना । तथा ऐसा विचार कर सुषेण ने शीघ्र ही कुटुम्ब से मोह तोड़ दिया । एवं वन में जाकर जैन दिगम्बर दीक्षा धारण कर वे उग्र तप करने लगे । जब से सुषेण मुनिराज वन में गये तब से वे राजमंदिर में न आये। राजा सुमित्र भी राज्य पाकर आनंद से भोग भोगने लगे । उनको भी सुषेण की कुछ याद न आई। कदाचित् राजा सुमित्र एकान्त स्थान में बैठे थे । उन्हें अचानक ही सुषेण की याद आ गई । सुषेण का स्मरण होते ही उन्होंने शीघ्र ही किसी पार्श्वचर ( सिपाही) से पूछा- कहो भाई ! आजकल मेरे परम पवित्र मित्र सुषेण राजमंदिर में नहीं आते, वे कहाँ रहते हैं ? और क्यों नहीं आते ? महाराज के भुख से सुषेण के बाबत ये वचन सुन पार्श्वचर ने कहा कृपानाथ ! सुषेण तो दिगम्बर दीक्षा धारण कर मुनि हो गये । अब उन्होंने समस्त संसार मोह छोड़ दिया। वे आजकल वन में रहते हैं । इसलिए आपके मंदिर में नहीं आते। पार्श्वचर के मुख से अपने प्रिय मित्र सुषेण का यह समाचार सुन राजा सुमित्र बड़े दुःखी हो गये । उन्हें की अब बड़ी याद आने लगी । कदाचित् राजा सुमित्र को यह पता लगा कि मुनिराज सुषेण शूरपुर के उद्यान में आ विराजे हैं। उन्हें बड़ी खुशी हुई। मुनिराज के आगमन श्रवण से राजा सुमित्र का चित्तरूपी कमल विकसित हो गया। उन्होंने मुनिराज के दर्शनार्थ शीघ्र ही नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया । एवं स्वयं भी एक उन्नत गज पर सवार होकर बड़े ठाट-बाट से मुनि-दर्शन के लिए गये | ज्योंही राजा सुमित्र का हाथी वन में पहुँचा, वे गज से तुरन्त उतर पड़े। मुनिराज सुषेण के पास जाकर उनको तीन प्रदक्षिणा दी । अति विनय से नमस्कार किया एवं प्रबल मोह के उदय से सुषेण की मुनि-मुद्रा की ओर कुछ न विचार कर वे यह कहने लगे प्रिय मित्र ! मेरा राज्य विशाल राज्य है । शुभ पुण्योदय से मुझे यह मिल गया है। ऐसे विशाल राज्य की कुछ भी परवा न कर मेरे बिना पूछे आप मुनि बन गये यह ठीक नहीं किया । आपको आधा राज्य ले भोग भोगने थे । अब भी आप इस पद का परित्याग कर दें । भला संसार में ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो शुभ एवं प्रत्यक्ष सुख देनेवाले राज्य को छोड़ दुर्धर तपाचरण करेगा। राजा सुमित्र के मुख से ये मोहपूर्ण वचन सुन मुनिराज सुषेण ने कहा Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ श्रेणिक पुराणम् राजन् ! मैं अपनी आत्मा को शांतिमय अवस्था में लाना चाहता हूँ। परभव में मेरी आत्मा शांतिस्वरूप का अनुभव करे। इसलिए मैंने यह तप करना प्रारम्भ कर दिया है। मुझे विश्वास है कि उत्तम तप की कृपा से मनुष्यों को स्वर्ग-मोक्ष सुख मिलते हैं। इसी की कृपा से राज्य, उत्तमोत्तम विभूतियाँ, उत्तम यश एवं उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। मुनिराज सुषेण के मुख से ये वचन सुन राजा सुमित्र ने और तो कुछ न कहा किंतु इतना निवेदन और भी किया __ मुनिनाथ ! यदि आप तप छोड़ना नहीं चाहते तो कृपा कर आप मेरे राजमंदिर में भोजनार्थ जरूर आवें और मेरे ऊपर कृपा करें। राजा के ये वचन भी मोह-परिपूर्ण जान मुनिवर सुषेण ने कहा-॥४१-५८॥ राजन्निति न युक्तं मे कृताहारग्रहादिकम् । यतीनां योगयुक्तानां तपः कृतविवर्जनम् ॥ ५६ ।। मनोवचनकायैश्च यत्कृतं कारितं पुनः । अनुमोदितमेवात्र हेयं हेयं च भोजनम् ।। ६० ॥ प्रासूकं यत्स्वयं जातं गेहिनां धाम्नि निश्चितं । अनुद्दिष्टं समादेयं जेमनं यतिभिः सदा ॥ ६१ ।। तिथि न विद्यते येषां येषामामंत्रणं न च । कथ्यतेऽतिथयस्तत्र निघस्र तिथिवजिते ॥ ६२ ।। (अशनं) कृतकारितसंमोदैन्यादं गृह्नति ये शठाः । यतयो नात्र चोच्यते रसनाहतमानसाः ॥ ६३ ॥ अत इत्थं न वक्तव्यं भूप ! भिक्षादिहेतवे । अन्यद्यद्रोचते तुभ्यं कथ्यमानं करोमि तत् ॥ ६४॥ नत्वा तं योगिनं भूपो जगाम खिन्नमानसः । तत्राहूय जनान्सर्वानादिशद्भूमिपः स्फुटं । ६५ ।। यदा सुषेणनामायं लेपार्थं मुनिसत्तमः । आगच्छति भवद्गेहे स्थापनीयो न सर्वकैः ॥ ६६ ॥ तदास्मन्मंदिरे धीमान् ग्रहीष्यति च भोजनं । इत्याज्ञां भूमिपश्चक्रे सर्वेषां स्वार्थसिद्धये ॥ ६७ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ततः कतिपय घस्रं द्विपक्षपारणा कृते । प्रति श्राद्धगृहं सोऽगात्पतिगृह्णाति कोऽपि न ॥ ६८ ॥ तदेर्यापथसदृष्टि रखिन्नः खिन्नगात्रकः । समाप मंदिरं तस्य कायस्थित्य महामना ।। ६६॥ तावत्सदसि भूपस्य वैरिभूपस्य दूतकः ।। आजगाम तदा भूपो व्याकुलोऽभून्नराधिपः ॥ ७० ॥ नरनाथ ! मैं इस काम के करने के लिए भी सर्वथा असमर्थ हूँ। दिगम्बर मुनियों को इस बात की पूर्णतया मनाई है। वे संकेतपूर्वक आहार नहीं ले सकते। आप निश्चय समझिए। जो भोजन मन, वचन, कर्म द्वारा स्वयं किया, एवं पर से कराया गया, वा पर को करते देख “अच्छा है" इत्यादि अनुमोदनपूर्वक होगा, दिगंबर मुनि उस भोजन को कदापि न करेंगे। किंतु उनके योग्य वही भोजन हो सकता है जो प्रासुक होगा। उनके उद्देश्य से न बना होगा। __ और विधिपूर्वक होगा। राजन् ! दिगम्बर मुनि अतिथि हुआ करते हैं। उनके आहार की कोई तिथि निश्चित नहीं रहती। मुनि निमन्त्रण-आमन्त्रणपूर्वक भी भोजन नहीं कर सकते। आप विश्वास रखिए जो मुनि निश्चित तिथि में निमन्त्रणपूर्वक आहार करनेवाले हैं। कृतकारित अनुमोदन का, कुछ भी विचार नहीं रखते। वे मुनि नहीं, जिह्वा के लोलुपी हैं। एवं वज्र मूर्ख हैं। हाँ, यदि मेरे योग्य जैन-शास्त्र से अविरुद्ध कोई काम हो तो मैं कर सकता हूँ। मुनिराज की दृष्टि सांसारिक कामों से ऐसी उपेक्षायुक्त देख राजा सुमित्र ने कुछ भी जवाब न दिया। उसने शीघ्र ही मुनिराज के चरणों को नमस्कार किया। एवं हताश हो चुपचाप राजमन्दिर की ओर चल दिया। यद्यपि राजा सुमित्र हताश हो राजमन्दिर में तो आ गये किन्तु उनका सुषेणविषयक मोह कम न हुआ। उनके मन में मोह का यह अंकुर खड़ा ही रहा कि किस रीति से मुनि सुषेण राजमन्दिर में आहार लें। इसलिए ज्योंही वह राजमन्दिर में आया। शीघ्र ही उसने यह समझ कि मुनि सुषेण को जब अन्यत्र आहार न मिलेगा तो मेरे यहाँ जरूर लेंगे। नगर में यह कड़ी आज्ञा कर दी कि सुषेण मुनि को कोई आहार न दें। और प्रतिदिन मुनि सुषेण की राह देखता रहा। ___कई दिन बाद मुनिराज सुषेण दो पक्ष की पारणा के लिए नगर में आहारार्थ आये। वे विधिपूर्वक इधर-उधर गृहस्थों के घर गये। किन्तु राजा की आज्ञा से किसी ने उन्हें आहार न दिया। अन्त में सम्यग्दर्शनादि गुणों से भूषित, विद्वान् आहार के न मिलने पर भी प्रसन्न चित्त, मुनि सुषेण जूरा प्रमाण भूमि को निरखते राजमन्दिर की ओर आहारार्थ चल दिये। इधर मुनिराज का तो राजमन्दिर में प्रवेश हुआ। और इधर राजा सुमित्र की सभा में राजा वैर का एक दूत आ पहुँचा। दूत-मुख से समाचार सुन राजा सुमिन अति व्याकुल हो गये ॥५६-७०॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रणिक पुराणम् २०७ नापश्यत्तं नराधीशः स स्गप्रतिगृह्णाति न । विधाय विधिवद्योगी प्रत्यूहमगमत्तदा ।। ७१ ।। ततो द्विपक्षपर्यंत जग्राह प्रोषधं यतिः । पारणाय पुनर्योगी चचाल नृपमंदिरं ॥ ७२ ।। भूपदंताबलो राजस्तदा चोत्क्षिप्य बंधनं । चचाल व्याकुलीकुर्वन्स निशांतं नृपादिकं ॥ ७३ ॥ तथा समीक्ष्य योगी स कृतप्रत्यूहकोऽगमत् । वनं पुनर्द्विपक्षांतं जग्राहानशनं मुदा ॥ ७४ ॥ तृतीयपारणायां सोऽटतो हि भूपते मुंदा । राजधाम महादाहाद्वयाकुलैर्भूमिपादिभिः ॥ ७५ ॥ नादृश्यत तदा सोऽपि प्रत्यूहमकरोत्पुनः । क्षीणगात्रो विशिष्टात्मा त्वगस्थीभूतविग्रहः ॥ ७६ ।। गच्छंतं तं वनं वीक्ष्य प्राहुः केचिन्नरोत्तमाः ।। अहो दुष्टो महाभूपो दानप्रत्यूहकारकः ।। ७७ ।। स्वयं दत्तेन सद्दानमस्मै दातुं निषेधकृत् । अन्येषामिति च श्रुत्वा योगी कोपी बभूव सः ।। ७८ ॥ चित्त की घबराहट से वे मुनिराज को न देख सके। अन्य किसी ने मुनिराज को आहार दिया नहीं। इसलिए अपना प्रबल अंतराय जान मुनिराज तत्काल वन को लौट गये। एवं उन्होंने दो पक्ष का प्रोषध व्रत धारण कर लिया। जब दो पक्ष समाप्त हो गये तो फिर मुनिराज आहार को आये। और उसी तरह समस्त गृहस्थों के घर घूमकर वे राजमन्दिर की ओर गये। ज्योंही मुनिराज राजमन्दिर के पास पहुँचे त्योंही राजा सुमिन के हाथी ने बन्धन तोड़ दिया एवं जन-समुदाय को व्याकुल करता हुआ वह नगर में उपद्रव करने लगा। इसलिए इस भयंकर दृश्य से अपना भोजनांतर समझ मुनिराज फिर वन को लौट गये। उस दिन भी उनको आहार न मिला। एवं वन में जाकर फिर उन्होंने दो पक्ष का प्रोषध व्रत धारण कर लिया। प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने पर मुनिराज फिर भी दो पक्ष बाद नगर में आये। गृहस्थों के घरों में आहार न पाकर वे राजमन्दिर में आहारार्थ गये। इधर मुनिराज का तो राजमन्दिर में आगमन हुआ और उधर राजमन्दिर में बड़े जोर से आग लग गई। अग्निज्वाला देख राजा सुमित्र Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् आदि घबरा गये। उस दिन भी राजा सुमित्र की दृष्टि मुनिराज पर न पड़ी। एवं मुनिराज भी आहार का अन्तराय समझ वन की ओर चल दिये। __ मुनिराज वन की ओर जा रहे थे। उनकी देह आहार के न मिलने से सर्वथा क्षीण हो चुकी थी। ज्योंही गृहस्थों की दृष्टि मुनिराज पर पड़ी, मुनिराज का शरीर अति क्षीण देख उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे खुले शब्दों में राजा सुमित्र की निन्दा करने लगे। देखो, यह राजा बड़ा दुष्ट है इस समय यह मुनिराज के आहार में पूरा-पूरा अन्तराय कर रहा है। न यह दुष्ट स्वयं आहार देता है और न किसी दूसरे को देने देता है ।।७१-७८॥ अहो ! अनेन दुष्टेन पूर्व संतापितो महान् । तथेदानीमहं राज्ञा ताप्ये वै लेपबाधनात् ॥ ७९ ॥ रोषोद्दीपितगात्रोऽसौ निदानमकरोत्तदा । कोपांधो पावसंलग्नपादो भूमौ समापतत् ।। ८० ॥ क्षीणदोषेण मृत्वा स निदानाद्वयंतरोऽजनि । व्यंतरत्वं क्व चारित्रं कार्यं हि न निदानकं ॥ ८१ ।। कुतश्चिन्मृतमावेद्य सुषेणं मुनिपुंगवं । चकार विविधं शोकं राजन्सुमुखभूपतिः ॥ ८२॥ तद्वियोगोत्थदुःखेन सुमुखस्तापसोऽभवत् । कुतपो दुस्सहं कृत्वा मृत्वा जज्ञे सुरस्ततः ॥ ८३ ॥ स्वायुरते ततश्च्युत्वा सुमित्रचरनिर्जरः । त्वमभूर्मागधाधीश स मिथ्यात्वः कुशासनात् ।। ८४ ॥ सुषेणचर देवो यो भविता चेलनोदरे । कुणिकाख्यः सुतो राजंस्तववैरिसमः सदा ।। ८५ ॥ कर्णांजलिपुटाभ्यां स संपीयेति वचोऽमृतम् । जातिस्मस्तदा जज्ञे ज्ञातपूर्वभवावलिः ।। ८६ ॥ अहो ज्ञान महोज्ञानमहो क्षांतिरहो क्षमा । अहो धीरत्वमुत्तंगं यतेः शंसां तदाकरोत् ॥ ८७ ॥ मनुष्यों को इस प्रकार बातचीत करते हुए सुन मुनि सुषेण ईर्यापथ-ध्यान से विचलित हो गये। आहार के न मिलने से क्रोध के कारण उनका शरीर लाल हो गया। वे विचारने लगे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २०६ देखो इस राजा की दुष्टता जिस समय मैं मुनि नहीं था उस समय भी मुझे यह अनेक संताप देता था। और अब मैं मुनि हो गया, इसके साथ मेरा कुछ भी संबंध नहीं रहा तो भी यह मुझे संताप दिये बिना नहीं मानता। ऐसा नीच, चांडाल कोई राजा नहीं दीख पड़ता। तथा इस प्रकार क्रोधांध हो मुनि सुषेण ने बड़े जोर से किसी पत्थर में लात मारी। लात मारते ही वे एकदम जमीन पर गिर गये। तत्काल उनके प्राणपखेरू उड़ गये। एवं खोटे निदान से मुनि सुषेण व्यन्तर हो गये। मुनि सुषेण की मृत्यु का समाचार राजा सुमित्र ने भी सुना। सुनते ही उनका चित्त अति आहत हो गया। सुमित्र और मंत्री आदि सुषेण की मृत्यु पर अति शोक करने लगे। किसी दिन सुषेण की मृत्यु से सुमित्र के दुःख की सीमा यहाँ तक बढ़ गई कि उसने समस्त राज्य का परित्याग कर दिया। शीघ्र ही तापस के व्रत धारण कर लिये। और आयु के अंत में मरकर खोटे तप के प्रभाव से वह भी देव हो गया। मगधेश!अब देवगति की आयु को समाप्त कर राजा सुमित्र का जीव तोश्रेणिक हुआ है। और मुनि सुषेण का जीव अपने आयु-कर्म के अन्त में रानी चेलना के गर्भ में आवेगा। वह कुणक नाम का धारक तेरा पुत्र होगा। एवं तेरा पुत्र होकर भी वह तेरे लिये सदा शत्रु रहेगा। मुनिराज यशोधर के मुख से अपने पूर्वभव का हाल वास्तविक रीति से जान लिया। एवं मुनिराज के गुणों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए वे ऐसा विचार करने लगे अहा!!! मुनि यशोधर का ज्ञान धन्य है। उत्तम क्षमा भी इनकी प्रशंसा के लायक है। परीषहों के जीतने में धीरता भी इनकी लोकोत्तर है। इनके प्रत्येक गुण पर विचार करने से यही बात जान पड़ती है कि मुनि यशोधर-समान परम ध्यानी, परम ज्ञानी, मुनि प्रायः ही संसार में होगा?॥७६-८७॥ शासनं जिनचंद्रस्य सत्यं नान्यज्जगत्त्रये । तत्वं तद्गदितं सत्यं सत्यं सत्यव्रतं यतेः ॥ ८८ ॥ अहो! ये वंचका लोके रसनारसलंपटाः । परिग्रहग्रहग्रस्ता बोधयोग पराङ मुखाः ॥ ८६ ॥ नाम्ना गुरुपदं मूढा वहंतो हंतुकामुकाः । गुरवो नैवते नूनं पाखंडपदमंडिताः ॥ ६० ॥ किंचित्तत्वस्य श्रद्धानं दधत्स श्रेणिको नृपः । पाक्षिकाचारसंन्यस्तमतिर्दर्शनसन्मुखः ॥११॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ततो निश्चित्य सद्धर्म जैनं तं मनिपुंगवम् । मुहुर्मुहुः प्रणम्याशु चर्चयित्वा तदंहिकं ॥ ६२ ॥ तदुत्थगुणसंलीढमानसो वचसा किरन् । तद्गुणान्निर्ययौ तस्माच्चितयंस्तद्गुणान्मुहुः ॥ ६३ ॥ दुंदुभ्यानकनिर्दोषैर्भेरी पटहवादनैः । शंखकाहलसंनादैस्तवै बंदिमुखोद्गतैः ॥ १४ ॥ क्षालयन्भुवनं की. कर्मकारणभूतया। चेलिन्या सह संप्रापत्सुंदरं राजमंदिरं ॥ १५ ॥ जिनोक्तं धर्ममाकुर्वन्भावनां तत्वसंभवां । दधदास्ते तया सत्रं तन्वन्धर्मे महामति ॥ ६६ ॥ जिनधर्मरतं भूपं श्रुत्वा च जठराग्नयः । समेत्य व्याकुला ऊचु भॊ राजन्मगधेश्वर ।। ६७ ।। त्वयाऽकारि कथं भूप ! स्वामिन्नित्थं विचक्षण । अंगीकृतं वृषं हित्वा श्रेयोन्यदुररीकृतं ॥ ६८ ॥ जायावृषेण भो भूभृद्वंचितो जन्म लुंबिना । क्षुरत्कारकेण नैवं च युक्तं कत्तुं तवाधिप ॥ ६ ॥ दक्षा जायां स्वधर्मे च वर्त्तयंति ननु स्वयं । वर्त्तते स्त्रीवृषे धन्या न्यायोऽयं विसृतो भुवि ॥१०॥ विपर्ययः कृतो देव ! त्वया मार्गानुवेदिना। यदि ते ज्ञानिनो जैना इत्याकूतं तवास्तिवै ॥१०१।। पुनः परीक्ष्य तद्धर्मं गृहाण मगधेश्वर । नाना विज्ञानबोधेन नान्यथा तद्ग्रहोद्यमः ॥१०२॥ इति दुर्वाक्यवातेन चुच्योतवृषशाखिकः । अस्थिरोभूपते वेंगाद्वातावृक्षोमदद्विपात् ॥१०३॥ श्री जिनेन्द्र भगवान का शासन भी संसार में धन्य है। जिनागम में जो तत्त्व कहे गये हैं। और उनका जिस रीति से स्वरूप-वर्णन किया गया है, सर्वथा सत्य है। जिनोक्त जीवादि तत्त्वों Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २११ से भिन्न तत्त्व मिथ्या तत्त्व हैं । यशोधर मुनिराज अपने व्रत में सर्वथा दृढ़ हैं। साधुओं के वास्तविक लक्षण मुनि यशोधर में ही संघटित होते हैं। एवं महाराज की विचार-सीमा अब और भी चढ गई। वे मन-ही-मन यह भी कहने लगे-जो साधु भोले जीवों के वंचक हैं, विषय-लंपटी हैं। हाथी, घोड़ा, माल, खजाना, स्त्री आदि परिग्रहों के धारक हैं। वास्तविक ज्ञान-ध्यान से बहिर्भत हैं । वे नाम के हो साधु हैं, पाखंडी साधु कदापि गुरु नहीं बन सकते। वे संसार-समुद्र में डूबनेवाले हैं। इस प्रकार विचार करते-करते महाराज श्रेणिक को अपनी आत्मा का कुछ वास्तविक ज्ञान हो गया उन्होंने शीघ्र ही श्रावक के व्रत धारण कर लिये। रानी चेलना सहित महाराज श्रेणिक ने विनय से मुनिराज के चरणों को नमस्कार किया एवं मुनिराज के गुणों में संलग्न चित्त, उनकी बारम्बार स्तुति करते हुए महाराज श्रेणिक और रानी चेलना आनन्दपूर्वक अपने राजमन्दिर की ओर चल दिये। महाराज ने जिन धर्म की परम भक्त रानी चेलना के साथ बड़े ठाट-बाट से राजमन्दिर में प्रवेश किया। और अपनी कीर्ति से समस्त दिशाएँ सफेद करनेवाले महाराज भली प्रकार जिन भगवान की पूजा, आराधना एवं उनके गुणों का स्तवन करते हुए राजमन्दिर में रहने लगे। कदाचित् बौद्ध साधुओं को इस बात का पता लगा कि महाराज श्रेणिक ने किसी जैन मुनि के उपदेश से जैन धर्म धारण कर लिया है। उनके परिणाम बौद्ध धर्म से सर्वथा विमुख हो गये हैं । वे शीघ्र ही महाराज श्रेणिक के पास आये । और ऐसा उपदेश देने लगे प्रिय मगधेश! यह बात सुनने में आई है कि आपने बौद्ध धर्म का सर्वथा परित्याग कर दिया है। आप जैन धर्म के परम भक्त हो गये हैं ? यदि यह बात सत्य है तो आपने बड़ा अनर्थ एवं अविचारित काम कर दिया है। हमें सन्देह होता है कि परम पवित्र, जीवों को यथार्थ सुख देनेवाले, श्री बुद्धदेव के धर्म और यथार्थ तत्त्वों को छोड़कर, निस्सार, जीवों का अहित कारक जैन धर्म और उसके तत्त्वों पर आपने कैसे विश्वास कर लिया ? प्रजानाथ ! स्त्रियों की अपेक्षा बुद्धिबल मनुष्य का अधिक होता है। इसलिए सर्वथा संसार में यही बात देखने में आती है कि यदि स्त्री किसी विपरीत मार्ग पर चलनेवाली हो तो चतुर पुरुष अपने बुद्धिबल से उसे सन्मार्ग पर ले आते हैं। किन्तु यह बात कहीं नहीं देखी कि स्त्री के कहने से वे विपरीत मार्गगामी हो जायें आप विश्वास रखिए जो मनुष्य स्त्री की बातों में आकर अपने समीचीन मार्ग का त्याग कर देते हैं। और विपरीत मार्ग को ही सम्यग् मार्ग समझने लग जाते हैं। वे मनुष्य विद्वानों की दृष्टि में चतुर नहीं समझे जाते। स्त्री के कहने में चलनेवाला मनुष्य आबाल गोपाल निंदा-भाजन बन जाता है। राजन् ! आप बुद्धिमान हैं प्रत्येक कार्य विचारपूर्वक करते हैं। तथापि न मालूम आपने कैसे स्त्री की बातों में फंसकर अपने पवित्र धर्म का परित्याग कर दिया। हमें इस बात की कोई परवा नहीं कि आप जैन बने अथवा बौद्ध रहें। किन्तु यहाँ यह कहना हमें आवश्यकीय होगा कि आप जैन मुनियों की अपेक्षा बौद्ध साधुओं को अल्पज्ञानी समझते हैं, तो आप कृपया फिर से इस बात का निर्णय कर लें। पीछे आप बौद्ध धर्म का परित्याग कर दें। मगधाधिप! हमें पूर्ण विश्वास है कि अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के भंडार, परम पवित्र, बौद्ध साधुओं के सामने जैन धर्म सेवी मुनि कोई चीज नहीं। और न बौद्ध धर्म के सामने जैन धर्म ही कोई चीज है। याद रखिए, यदि आप यों ही बिना Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रोशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् परीक्षा किये जैन धर्म धारण कर लेंगे। और बौद्ध धर्म छोड़ देंगे तो आपको अभी नहीं तो पश्चात जरूर पछताना होगा। प्रबल पवन के सामने अचल भी वृक्ष कहाँ तक चलायमान नहीं होता। कुतर्क से मनुष्य के सद्विचार कहाँ तक किनारा नहीं कर जाते ? ज्योंही महाराज ने बौद्धों का लम्बा-चौड़ा उपदेश सुना-पानी के अभाव से जैसे अभिनव वृक्ष कुम्हला जाता है' महाराज का जैन धर्मरूपी पौधा कुम्हला गया। अब उनका चित्त फिर डांवाडोल हो गया। उनके मन में फिर से जैन धर्म एवं जैन मुनियों की परीक्षा का विचार सामने मंडराने लगा॥८८-१०३।। परीक्षायै ततो भूपो मध्येगेहं कदाचन । चर्मास्थिनिवहं क्षिप्त्वा यत्नेनादृश्यतां व्यधात् ॥१०४।। ततोऽभाणीत्स दयितां राज्यहं जैनमानसः । जातोऽस्मि मद्गृहे जैना गुरवो भावसिद्धितः ॥१०५।। भिक्षार्थं स्थापनीयास्ते धाम्नि चास्मिन्निरंजने । इत्युक्तं कोविदा मेने भूपाभिप्रायमंजसा ।।१०६।। अन्यदा मुनयस्तत्र समागूराजमंदिरं । त्रयो निघस संसिद्धय कृतेर्यापथवीक्षणाः ।।१०७॥ मुनीन्वीक्ष्या वदद्भूपो राज्ञि स्थापय भक्तितः । उदीर्येति सुनम्रांगा वुभौ सन्मुखमीयतुः ॥१०८।। तदा बभाण सा देवी वचनं मुनिपुंगवाः । त्रिगुप्तिगुप्तास्तिष्ठंतु लेपार्थं राजमंदिरे ॥१०॥ तदा मुनीश्वराः सर्वे दर्शयित्वांगुलिद्विकं । व्याघुट्य विपिने तस्थुर्मत्वा भूपतिभावकं ॥११०॥ गुणसागरनामानमागतं भोजनकृते । वीक्ष्यांगुलिन्रिकं राज्ञी दर्शयामास सनृपा ॥१११॥ प्रतिपद्य तथा योगी तस्थौ राजनमस्कृतः । प्रतिगृहीत एवं च प्रक्षालितपदाम्बुजः ।।११२।। लेपकृते गृहं प्राप्य मुनी राज्ञा समं मुदा । मत्वाऽवधि बलात्प्राह तद्गृहस्थास्थिचर्मणी ।।११३।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २१३ भूप ! नास्मिन्गृहे शुद्धि रस्ति स्थातुन योग्यता। इति संलप्य योगी स प्रत्यूहमकरोत्तदा ॥११४॥ कदाचित् महाराज ने जैन मुनियों की परीक्षार्थ राजमंदिर में गुप्त रीति से एक गहरा गड्ढा खुदवाया। उसमें कुछ हड्डी-चर्म आदि अपवित्र पदार्थ मँगाकर रखवा दिये। और रानी से आकर कहा कांते ! अब मैं जैन धर्म का परिपूर्ण भक्त हो गया हूँ। मेरे समस्त विचार बौद्ध धर्म से सर्वथा हट गये हैं। कदाचित् भाग्यवश यदि कोई जैन मुनि राजमंदिर से आहारार्थ आवे तो तू इस पवित्र मंदिर में आहार देना। उनकी भक्ति, सेवा, सम्मान भी खूब करना। रानी चेलना बड़ी पंडिता थी। महाराज की यह आकस्मिक वचन-भंगी सुन उसे शीघ्र ही इस बात का बोध हो गया कि महाराज ने जैन मुनियों की परीक्षार्थ अवश्य ही कुछ ढोंग रचा है। और महाराज के परिणाम बौद्ध धर्म की ओर फिर झुके हुए प्रतीत होते हैं। कुछ दिन के पश्चात् भली प्रकार ईर्या समिति के परिपालक, परम पवित्र तीन मुनिराज राजमंदिर में आहारार्थ आये। ज्योंही महाराज की दृष्टि मुनियों पर पड़ी वे शीघ्र ही रानी के पास गये। और कहने लगे-प्रिये ! मुनिराज राजमंदिर में आहारार्थ आ रहे हैं। जल्दी तैयार हो उनका पडगाहन करके स्वयं भी मुनियों के सामने आकर खड़े हो गये। मुनिराज यथास्थान आकर ठहर गये। ज्योंही रानी ने मुनिराजों को देखा विनम्र मस्तक हो उन्हें नमस्कार किया। तथा महाराज द्वारा की हुई परीक्षा से जैन धर्म पर कुछ आघात न पहुँचे यह विचार रानी ने शीघ्र ही विनय से कहा हे मनोगुप्ति आदि त्रिगुप्ति पालक, परमोत्तम मुनिराजो! आप आहारार्थ राजमंदिर में तिष्ठे। उनमें से कोई भी मुनि त्रिगुप्ति का पालक नहीं था। सब दो-दो गुप्तियों के पालक थे। इसलिए ज्योंही रानी के वचन सुने उन्होंने शीघ्र ही अपनी दो-दो अँगुलियाँ उठा दीं। तथा दो अँगुलियों के उठाने से रानी को यह बतला दिया कि हे रानी! हम दो-दो गुप्तियों के ही पालक हैं, शीघ्र वन की ओर चल दिये। उसी समय कोई गुणसागर नाम के मुनिराज भी पुर में आहारार्थ आये। मुनि गुणसागर को अवधिज्ञान के बल से राजा का भीतरी विचार विदित हो गया था। इसलिए वे सीधे राजमंदिर में ही घुसे चले आये। मुनिराज पर रानी की दृष्टि पड़ी। उन्हें नतमस्तक हो, रानी ने नमस्कार किया । एवं विनय से वह इस प्रकार कहने लगी Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् हे त्रिगुप्तियों के पालक परमोत्तम मुनिराज! आप राजमंदिर में आहारार्थ ठहरें। मुनि गुणसागर ने ज्योंही रानी के वचन सुने शीघ्र ही उन्होंने अपनी तीन अँगुलियाँ दिखा दीं। मुनिराज की तीनों अंगुलियाँ देख रानी अति प्रसन्न हुई। उसने शीघ्र ही महाराज को अपने पास बुलाया। महाराज ने आकर भक्ति-भाव से मुनिराज को नमस्कार किया। आगे बढ़कर रानी ने मुनिराज को काष्टासन दिया। उनका पडगाहन (प्रतिगृहीत) किया। गरम पानी से उनके चरण प्रक्षालन किये। एवं महाराज नतमस्तक हो उन्हें भोजनालय में आहारार्थ ले गये। महाराज की प्रार्थनानुसार मुनिराज भोजनालय में गये तो सही। किंतु ज्योंही वे वहाँ पहुँचे अवधि ज्ञान के बल से शीघ्र ही उन्हें गड़े हुए हड्डी और चमड़े का पता लग गया। वे तत्काल ही यह कह कि राजन्! तेरा घर अपवित्र है। वहाँ से बाहर निकले और ईर्यापथ से जीवों की रक्षा करते हुए वन की ओर चले आये ॥१०४-११४॥ हाहारवं तदा चक्रु भूपाद्यास्तद्गुणावलिम् । संसयंतश्च तज्ज्ञानं वीक्ष्याश्चर्यपरंपरां ॥११५।। केन भो राज्ञि ते पूर्वं व्याघटय मुनिपुंगवाः । वने गताः शुभे कांते इत्याचख्यौ नृपस्तदा ॥११६।। न वेद्मि भूप ! तद्धेतुमावां यावो वने द्रुतम् । मुनीस्तान्नाथ पृच्छावो हेतुं संन्यस्तधर्मकः ।।११७।। ततस्तौ परया भूत्या जग्मतुर्वनमुत्तमं । दंपती दीप्तसर्वांगौ संगोक्तंवितमानसौ ॥११८॥ ततस्तत्र वने वीक्ष्य धर्मघोषमुनिमुदा । प्रणम्य भूपति भूयो पप्रच्छेति वृषकृते ।।११।। स्वामिन्मद्धाम्नि चर्यार्थमागतस्त्वं च हेतुना । केन नास्थास्तदा प्राह योगी योगांगसाधकः ॥१२०॥ राजन्नाश्या तदा चोक्तं त्रिगुप्तिर्भवतां यदि । स्थिता तर्हि भवद्भिश्च स्थातव्यं नान्यथा मुने ॥१२१।। त्रिगुप्तिनं स्थितास्माकमतो न स्थितिसंकृता । मया स्वामिन्कथं केन का गुप्तिर्न स्थितातव ॥१२२॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ श्रेणिक पुराणम् चारों मुनियों को इस प्रकार राजमंदिर से बिना कारण लौटा देख राजा श्रेणिक आदि समस्त जन हा-हाकार करने लगे। मुनियों का अलौकिक ज्ञान देख सब मनुष्यों के मुख से उनकी प्रशंसा निकलने लगी । महाराज श्रेणिक को भी इस बात का परम दुःख हुआ । वे शीघ्र रानी के पास आये और कहने लगे प्रिये ! यह क्या हुआ ? मुनिराज अकारण ही क्यों आहार छोड़ चले गये ? कुछ समझ नहीं आ रहा है, शीघ्र कहो । महाराज के ऐसे वचन सुन रानी ने उत्तर दिया । नाथ! मैं भी इस बात को नहीं जान सकी, मुनिगण क्यों तो राजमंदिर में आहारार्थं आये और क्यों फिर बिना आहार लिये चले गये । स्वामिन् ! चलिए, हम शीघ्र ही वन चलें। और जहाँ पर वे परम पवित्र यतीश्वर विराजमान हैं। वहाँ जाकर उन्हीं से यह बात पूछें। रानी चलना की मनोहर एवं संशय-निवारक यह युक्ति महाराज को पसंद आ गई । अतिशय तेजस्वी और मुनि-दर्शनार्थ उत्कंठित वे दोनों दंपती उनके पास गये । भक्तिपूर्वक उनके चरणों को नमस्कार किया । एवं अति विनय से महाराज ने यह पूछा प्रभो ! समस्त जगत के उद्धारक स्वामिन् ! मेरे शुभोदय से आप राजमंदिर में आहारार्थं ये थे । किंतु आप बिना आहार के ही चले आये, मैं यह न जान सका क्यों तो आप राजमंदिर में आहारार्थ गये और क्यों लौट आये? कृपाकर मेरे इस संशय को दूर करें । राजा के ऐसे वचन सुन मुनिवर धर्मघोष ने कहा -- राजन् ! जब हम राजमंदिर में आहारार्थ पहुँचे थे। हमें देख रानी चेलना ने यह कहा था कि है त्रिगुप्ति पालक मुनिराज ! आप मेरे राजमंदिर में आहारार्थ विराजे । हम त्रिगुप्ति पालक थे नहीं, इसलिए हम वहाँ न ठहरे। हमारे न ठहरने का और दूसरा कोई कारण न था । मुनिराज के ऐसे वचन सुन महाराज आश्चर्य - सागर में गोता मारने लगे । वे सोचने लगे - ये परम पवित्र मुनिराज किस गुप्ति के पालक नहीं हैं ? तथा ऐसा कुछ समय सोच-विचारकर महाराज ने शीघ्र ही मुनिराज से निवेदन किया कृपानाथ ! क्या आपके तीनों ही गुप्ति नहीं हैं ? अथवा कोई एक नहीं है ? तथा वह क्यों नहीं हैं ? कृपया शीघ्र कहें - ॥११५ - १२२ ।। इत्युक्ते स जगौ योगी राजन्मानसगोपनं । न स्थितं तत्कथां वक्ष्ये शृणु श्रेणिकमद्भवां ॥ १२३॥ कलिंगविषये पुरं दंतपुरं रम्ये विस्तीर्णे नगरादिभिः । हारि वणिग्वारविराजितं ॥ १२४ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तच्छास्ता धर्मघोषोऽहं न्यायरूपेण भूतलं । पालयन्मंत्रिसामंतसेवितांह्निः प्रतापभृत् ।।१२५॥ लक्ष्मीमती शुभाकारा वल्लभा प्राणवल्लभा । ममाऽभूत्पूर्णचंद्रास्या कामवृक्षस्य मंजरी ।। १२६ ।। आवां प्रेमानुबद्धौ च गतं कालं न विद्धकः । अन्यदा सद्गुरुं प्राप्याकर्ण्य धर्ममहं नृप ॥ १२७ ॥ निर्विण्णो भव भोगेषु प्राव्राजं भवभीतधीः । विहरन्नगमं राजन् कौशांब्यां भोजन कृते ॥ १२८ ॥ तत्रास्ति गुरुडाभिख्यो राजमंत्र्यभवत्प्रिया । दत्ता गरुड़पूर्वां च तस्यचंद्रकला प्रभा ।। १२६॥ तयाहं वीक्ष्य सद्भक्त्या प्रतिगृह्यासनादिभिः । दीयते मे शुभाहारो देहाऽक्षप्रीणनक्षमः ।। १३० ॥ तंदुलं लेपकाले करात्सिक्तं पपात भूतले मम । राजन्नवलोकनहेतवे ॥१३१॥ तत्र दृष्टिगंता तदांगुष्टमहं तस्या अद्राक्षं मम मानसं । सस्मार पट्टदेव्याश्चांगुष्टं मोहवशान्नृप ॥१३२॥ ममाक्षप्रीणनक्षमः । तादृक्षोऽयं शुभोंगुष्टो इति स्मृते चकाराशु प्रत्यूहं नृपनायक ॥ १३३॥ तदा मे मानसी गुप्तिर्ना भूद्भपततः पुनः । विहरन्नत्र दैवेनाजगाम नृपमंदिरं ॥ १३४ ॥ महाराज श्रेणिक के ऐसे लालसायुक्त वचन सुनकर मुनिराज ने कहा- राजन् ! हमारे गुप्त नहीं है। यह क्यों नहीं है उसका कारण कहता हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुनें अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम नगरों से व्याप्त इसी जम्बूद्वीप में एक कलिंग नाम का देश है | कलिंग देश में अतिशय मनोहर बाजारों की श्रेणियों से व्याप्त एक दंतपुर नाम का सर्वोत्तम । नगर है। दंतपुर का स्वामी जो कि नीतिपूर्वक प्रजा का पालक मंत्री एवं बड़े-बड़े सामंतों से वेष्टित, सूर्य के समान प्रतापी था। मैं राजा धर्मघोष था । मेरी पटरानी का नाम लक्ष्मीमती Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २१७ था। रानी लक्ष्मीमती अति मनोहरा थी, समस्त रानियों में मेरी प्राणवल्लभा थी। चंद्रमुखी एवं काम-मंजरी थी। हम दोनों दंपती में गाढ़ प्रेम था। एक दूसरे को देखकर जीते थे। यहाँ तक कि हम दोनों ऐसे प्रेम में मस्त थे कि हमको जाता हुआ काल भी नहीं मालूम होता था। कदाचित् मुझे एक दिगम्बर गुरु के दर्शन का सौभाग्य मिला। मैंने उनके मुख से जैन धर्म का उपदेश सुना। उपदेश में मुनिराज के मुख से ज्योंही मैंने संसार की अनित्यता, बिजली के समान विषय-भोगों की चपलता सुनी, मारे भय के मेरा शरीर काँप गया। कुछ समय पहले जो मैं भोगों को अच्छा समझता था वे ही मुझे विष सरीखे महसूस होने लगे। मैं एकदम संसार से उदास हो गया। और उन्हीं मुनिराज के चरण-कमलों में तुरन्त जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। इसी पृथ्वी-तल में एक अति मनोहर कौशांबी नगरी है। कौशांबीपुरी के राजा का मंत्री जो कि नीति-कला में अतिशय चतुर गरुड़ वेग था। मंत्री गरुड़ वेग की प्रिय भार्या गरुड़दत्ता थी। गरुड़दत्ता परम सुंदरी, चंद्रवदना एवं पतिभक्ता थी। किसी समय विहार करता-करता मैं कौशांबी नगरी में जा पहुँचा। और वहाँ किसी दिन मंत्री गरुड़वेग के घर आहारार्थ गया। ज्योंही गरुड़दत्ता ने मुझे अपने घर आते देखा भली प्रकार मेरा विनय किया। आह्वान कर काष्टासन पर बिठाकर मेरा चरण-प्रक्षालन किया। एवं मन और इन्द्रियों को भली प्रकार संतुष्ट करनेवाला मुझे सर्वोत्तम आहार दिया। आहार देते समय गरुड़दत्ता के हाथ से एक कवल नीचे गिर गया। कवल गिरते ही मेरी दृष्टि भी जमीन पर पड़ी। ज्योंही मैंने गरुड़दत्ता के पैर का अँगूठा जमीन पर देखा मुझे शीघ्र ही अपनी प्रियतमा लक्ष्मीमती के अँगूठे की याद आई। मेरे मन में अचानक यह विकल्प उठ खड़ा हुआ। अहा ! जैसा मनोहर अँगूठा रानी लक्ष्मीमती का था वैसा ही इस गरुड़दत्ता का है। बस, फिर क्या था ? मेरे मन के चलित हो जाने से हे राजन् ! आज तक मुझे मनोगुप्ति की प्राप्ति न हुई। इसलिए मैं मनोगुप्ति रहित हूँ ॥१२३-१३४॥ राश्योक्तं ये त्रिगुप्तास्ते तिष्ठतु मम मंदिरे । अमनोगुप्ति भावेन नातिष्ठाम वयं गृहे ॥१३५।। धन्यं धन्यमिदं लोके शासनं पापनाशनं । धन्यो धन्योऽयमायोगी यथार्थलेपभाषणः ॥१३६॥ तथात्वं भुवने नास्ति यादृशं जैनशासने । इतिप्रशंस्य भूपालो नत्वोत्तस्थौ मुनीश्वरं ॥१३७॥ जिनपालमुनि प्राप्य भूपो नत्वा मुहुर्मुहुः । पप्रच्छेति महाभक्त्या शिरोघृतकृतांजलिः ॥१३८।। अस्मिन्मंदिरमासाद्य यूयं किमु स्थिता नहि । इत्याकर्ण्य जगौ योगी मेघगंभीर वाचया ॥१३॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् राजत्वाग्गोपनाभावान्नस्थितास्तवमंदिरे । केनेति चेदिति प्रश्ने प्रोवाच भगवान्पुनः ॥१४०॥ पृथिव्यां तिलकप्रायं श्रीभूमितिलकं पुरं । तिलंकाभरणाकीर्णयोषितां तिलकायितं ॥१४॥ प्रजापालाभिधो जातः राजाभूषवेदकः । तस्य जाया जयाकीर्णा धारणी गुणधारिणी ॥१४२॥ . तयोः सुता मृगांकास्या मृगाक्षी मदनप्रिया। वसुकांता गुणैः कांता कांतिकृतिततामसा ॥१४३॥ कोशांब्यामथभपालश्चंडप्रद्योतनाभिधः । चतुरंगमहासैन्यः प्रतापी जितशात्रवः ।।१४४॥ कुतश्चिद्योतनः श्रुत्वा वसुकांतां कलाधिकाम् । ययाचे ग्राम्यधर्मार्थं तद्गुणाहतमानसः ॥१४॥ प्रजापालस्ततस्तस्मै नादान्मत्वाविधर्मगं । रुषा प्रचंडनः श्रुत्वा चचाल बलमंडितः ॥१४६॥ क्रमेण तत्पुरं प्राप्य विवेष्टि बलिभिर्बलैः । घस्र घस्र तयोर्जातो रणो रणविदोः पुनः ॥१४७॥ कुंतकृतितमूर्द्धानो योयुध्यते नरास्तदा । बृहितैः प्रेर्यमाणाश्च मेघनादैश्च केकिनः ॥१४८।। महारणसमुद्रेऽस्मिन् पतइंतिमहाशिले । चलद्घोटकसंरंगत्तरंग तरले परे ॥१४६॥ व्रणोत्थलोहितोत्तुंगजले जनभयप्रदे। जलयादांसिभीताढ्ये विदीर्णमुखमस्तके ॥१५०॥ विदीर्णवक्त्रसंभासि रदनोत्तुंगसन्मणौ। पर्वतप्रायसइंति बृहितोच्चैः सुजिते ।।१५१।। पिष्टास्थि शिकते मांस कर्दमे दुर्गदुर्जनः । कातरांगिसुमंडूके खंडखंडितपर्वते ॥१५२॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम लूनबालधि सत्स दर्पोच्छ्वासितवायुके । संलूनचक्रसच्चक्रिविशिष्टवडवामुखे वेलायंते नरा दीप्ता दशदिक्सर्पिणः क्रुधा । नावायंते महायानास्तुरंगास्तरलांह्रयः ॥ १५४॥ ॥ १५३॥ असिसंघट्टसंभूत स्फुलिंगा वह्नितां गताः । खड्गाखड्गि नराः केचिन्मुष्टा मुष्टिकचाकचि ।। १५५ ।। कुंताकुंति महातीव्रं वक्त्रrafta भटास्तत्र भुजाभुजिपदापदि । मुंडामुंडिगदादि ॥ १५६॥ बाणाबाणि महातीव्रा घोटकाघोटकिस्फुटं । द्विरदाद्विरदि क्रोधाद्रथारथि नरानरि ।। १५७ ॥ शब्दा शब्दि क्रुधाक्रोधिलोष्टलोष्टिनृपानृपि । योयुध्यते च वैरेण भटाभट शिलाशिलि ।। १५८ ।। वंशावंशिभटा केचिद्वृक्षावृक्षि हलाहल । ( कुलक) ॥१५॥ इत्थं रणे तयोर्जाते प्रजापालो विषण्णधीः । प्रचंडं दुर्दमं मत्त्वा सचितोऽभूत्स्व मानसे ॥ १६० ॥ ज्योंही मुनिवर धर्मघोष के मुख से राजा श्रेणिक ने यह बात सुनी उन्हें अति प्रसन्नता हुई । वे अपने मन में कहने लगे- समस्त पापों का नाशक जिनेन्द्र शासन धन्य है । सत्यवक्ता मुनिवर धर्मघोष भी धन्य हैं। अहा ! जैसी सत्यता जैन धर्म में है, वैसी कहीं नहीं । तथा इस प्रकार मुनिराज धर्मघोष की बार-बार प्रशंसा कर महाराज ने मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । एवं वे दोनों दंपती वहाँ से उठकर मुनिवर जिनपाल के पास गये। उन्हें सविनय नमस्कार कर राजा श्रेणिक ने पूछा २१६ भगवन्! आज आप आहारार्थ मेरे मंदिर में गये थे, आपने मेरे मंदिर में आहार क्यों नहीं लिया ? मुझसे ऐसा क्या घोर अपराध बन पड़ा था ? कृपा कर मेरे इस संदेह को शीघ्र दूर करें । राजा श्रेणिक के ऐसे वचन सुन मुनिराज जिनपाल ने भी वही उत्तर दिया। जो मुनिवर धर्मघोष ने दिया था । मुनिराज से यह उत्तर पाकर महाराज फिर अचंभे में पड़ गये। मन में वे ऐसा सोचने लगे Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कि इन मुनिराज के कौन-सी गुप्ति नहीं है और वह क्यों नहीं है ? तथा कुछ समय ऐसा संकल्पविकल्प कर उन्होंने मुनिराज से पूछा प्रभो ! कृपया इस बात को खुलासा रीति से कहें। आपके कौन-सी गुप्ति न थी और क्यों नहीं थी? मेरे मन में अधिक संशय है। मुनिराज ने उत्तर दिया राजन् ! मेरे वचन गुप्ति न थी, वह क्यों न थी, उसका कारण सुनाता हूँ ? ध्यानपूर्वक सनो-इसी पृथ्वी-मंडल पर समस्त पृथ्वी का तिलकभृत एक भूमितिलक नाम का नगर है। नगर भमितिलक का अधिपति भली प्रकार प्रजा का रक्षक, अतिशय धर्मात्मा राजा प्रजापाल था। प्रजापाल की प्रिय भार्या धारिणी थी। रानी धारिणी अति मनोहरा, उत्तमोत्तम गुणों की आकर एवं कामदेव की जयपताका थी। शुभ भाग्योदय से रानी धारिणी से उत्पन्न एक कन्या थी। जो कन्या चंद्रवदना, मृगनयना, रतिरूपा समस्त उत्तमोत्तम गुणों की आकर एवं अपनी शरीर-कांति से अंधकार का नाश करनेवाली थी। और उसका नाम वसुकांता था। उसी समय कौशांबीपुरी में एक चंडप्रद्योतन नाम का प्रसिद्ध राजा राज्य करता था। चंडप्रद्योतन अतिशय तेजस्वी, वीर एवं विशाल सेना का स्वामी था। कदाचित् कुमारी वसुकांता ने यौवनावस्था में पदार्पण किया। राजा चंडप्रद्योतन को इसके युवतीपने का पता लग गया। कुमारी के गुणों पर मुग्ध हो राजा चंडप्रद्योतन ने शीघ्र ही राजा प्रजापाल से उस पुत्री के लिए प्रार्थना की। और उनके साथ बहुत-कुछ प्रेम दिखाया। किंतु राजा चंडप्रद्योतन जैन न था। इसलिए राजा प्रजापाल ने उसकी प्रार्थना न सुनी, और पुत्री के लिए साफ इनकार कर दी। राजा चंडप्रद्योतन ने यह बात सुनी। उसने शीघ्र ही सेना सजाकर भूमितिलक की ओर प्रस्थान कर दिया। कुछ दिन बाद मंजिल-दर-मंजिल करता-करता राजा चंडप्रद्योतन भूमितिलक पुर में आ पहुँचा। आते ही उसने अपनी सेना से समस्त नगर घेर लिया और लड़ाई के लिए तैयार हो गया। राजा प्रजापाल को इस बात का पता लगा उसने भी अपनी सेना सजवा ली। तत्काल वह चंडप्रद्योतन से लड़ने के लिए निकल पड़ा और दोनों दलों की सेना में भयंकर युद्ध होने लगा। मेघनाद मेघ शब्द से जैसे मयूर इधर-उधर नाचते फिरते हैं। मेघनाद (बिगुल) के शब्द सुनने से उस समय योद्धाओं की भी वही दशा हो गई। रोष में आकर वे भी इधर-उधर घूमने लगे और एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे। दोनों सेनाओं का घोर संग्राम साक्षात् महासागर की उपमा को धारण करता था। क्योंकि महासागर-जैसा पर्वतों से व्याप्त रहता है। संग्राम भी आहत हो पृथ्वी पर गिरे हुए हाथीरूपी पर्वतों से व्याप्त था। महासागर-जैसा तरंगयुक्त होता है, संग्राम भी चंचल अश्वरूपी तरंगयुक्त था। महासागर में जिस प्रकार महामत्स्य रहते हैं, संग्राम में भी पैनी तलवारों से कटे हुए मनुष्यों के मुखरूपी मत्स्य थे। महासागर-जैसा जल पूर्ण रहता है। संग्राम भी घावों से निकलते हुए रक्तरूपी जल से पूर्ण था। महासागर-जैसा मणि-रत्नों से व्याप्त रहता है, संग्राम भी मृत योद्धाओं के दाँतरूपी मणि-रत्नों से व्याप्त था। महासागर में जैसे Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २२१ भयंकर शब्द होते हैं, संग्राम में भी हाथियों के चीत्काररूपी भीषण शब्द थे। महासागर जिस प्रकार बालू सहित होता है, संग्राम भी पिसी हुई हड्डीरूपी बालू सहित था। महासमुद्र-जैसा कीचड़ व्याप्त रहता है, संग्राम भी मांसरूपी कीचड़ से व्याप्त था। महासागर में जैसे मेंढ़क और कछुवे रहते हैं, संग्राम में भी वैसे ही कटे हुए घोड़ों के पैर मेंढ़क और हाथियों के पैर कछुवे थे। महासागरजैसा खंड पर्वतयुक्त होता है। संग्राम भी मृत शरीरों का ढेररूप खंड पर्वतयुक्त था। महासागर में जैसे सर्प रहते हैं, संग्राम में भी कटी हुई हाथियों की पूंछे सर्प थीं। महासागर-जैसा पवन परिपूर्ण रहता है, संग्राम भी योद्धाओं के स्वासोच्छ्वासरूपी पवन से परिपूर्ण था। महासागर में जैसा वडवानल होता है, संग्राम में भी उसी प्रकार चमकते हुए चक्र वड़वानल थे। महासागर-जैसा बेलायुक्त होता है, उसी प्रकार संग्राम में भी समस्त दिशाओं में घूमते हुए योद्धारूपी बेला थी। सागर में जैसे नाव और जहाज होते हैं, संग्राम में भी घोड़ेरूपी नाव और जहाज थे। तथा संग्राम में खडगधारी खड़गों से युद्ध करते थे। मुष्टि-युद्ध करनेवाले मुष्टियों से लड़ते थे। कोई-कोई आपस में केश पकड़कर युद्ध करते थे। अनेक वीर पुरुष भुजाओं से लड़ते थे। पैरों से लड़ाई करने वाले पैरों से लड़ते थे। सिर लड़ानेवाले सुभट सिर लड़ाकर युद्ध करते थे। बहुत-से सुभट आपस में मख भिडाकर लडते थे। गदाधारी और तीरंदाज गदाधारी और तीरंदाजों से लडते थे। घडसवार घुड़सवारों से, गजसवारों से, रथसवार रथसवारों से एवं पयादे पयादोंसे भयंकर युद्ध करते थे। उस संग्राम में अनेक वीर पुरुष शब्द-युद्ध करनेवाले थे इसलिए वे शब्द-युद्ध करते थे। लाठी चलानेवाले लाठियों से युद्ध करते थे। एवं राजा राजाओं से युद्ध करते थे। तथा शिलायुद्ध करनेवाले शिलाओं से, बाँसयुद्ध करनेवाले सुभट बाँसों से, वृक्ष उखाड़कर युद्ध करनेवाले वृक्षों से करते थे। हल के धारक अपने हलों से युद्ध करते थे। इस प्रकार दोनों राजाओं का आपस में कई दिन तक भयंकर युद्ध होता रहा । अन्त में जब प्रजापाल ने यह देखा कि राजा चंड़प्रद्योतन जीता नहीं जा सकता तो उसे बड़ी चिंता हुई वह उसके जीतने के लिए अनेक उपाय सोचने लगा॥१३५-१६०।। सोऽन्येद्युः पुष्पला नृणां मुखान्मत्त्वामुनीश्वरं । दुर्गसंलग्न विपिने स्थितं मां जिनपालकं ॥१६॥ चचाल वंदितुं भूपः प्रजापालः सुहर्षतः । तत्र नत्वा मुनि धीरं कायोत्सर्गस्थितः प्रभुः ।।१६२।। तदेति प्रार्थयामास कश्चितं मुनिपुंगवं । प्रयच्छ भो मुने राज्ञेऽभयदानं च वैरिणः ॥१६३।। ततस्तद्वषपाकेन कया चिद्वनरक्षया । देव्योक्तं नृप मा औषी भविताते जयः खलु ॥१६४॥ तस्या अदृश्यरूपाया वचः श्रुत्वा नृपादयः । जहर्षुस्ते मुनिर्वाक्यं मत्वा निश्चितमानसाः ॥१६५।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् प्रजापालस्ततो भूत्या विवेश नगरं परम् । उत्तोरणं पताकाढ्यं कुर्वन्नादाकुलं जगत् ।।१६६।। जयवार्ता समाकर्ण्य प्रचंडश्चंडमानसः । जैन मेने प्रजापालं जिनवाक्यविनिर्णयं ॥१६७।। चंडप्रद्योतनो धीमान ससम्यक्त्वो गुणाकरः । व्याघुट्य निर्ययौ स्वस्य पुरं प्रति ससैन्यकः ॥१६॥ कदाचित् विहार करता-करता उस समय मैं भी कौशांबी में आ पहुँचा। मैंने जो वन किले के बिलकुल पास था। उसी में स्थित हो ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया। वहाँ ध्यान करते माली ने मुझे देखा । वह तत्काल राजा प्रजापाल के पास भागता-भागता पहुँचा और मेरे आगमन का सारा समाचार राजा से कह सुनाया। सुनते ही राजा प्रनापाल तत्काल मेरे दर्शन के लिए आये। मेरे पास आकर उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। राजा प्रजापाल के साथ और भी कई मनुष्य थे। उनमें से एक मनुष्य ने मुझसे यह निवेदन किया प्रभो! कृपया राजा प्रजापाल को आप शत्रुओं की ओर से अभयदान प्रदान करें। इन्हें वैरियों की ओर से कैसा भी भय न रहे। मनुष्य की राग-द्वेष परिपूर्ण बात सुनकर मैंने कुछ भी उत्तर न दिया, उस वन की रक्षिका एक देवी थी ज्योंही उसने यह समाचार सुना अपनी दिव्य वाणी से उसने शीघ्र ही उत्तर दिया राजन् प्रजापाल ! तुझे किसी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए, नियम से तेरी विजय होगी। बस, फिर क्या था? देवी तो उस समय अदश्य थी इसलिए ज्योंही राजा प्रजापाल ने ये वचन सुने अत्यधिक आनंद से उसका शरीर रोमांचित हो गया। वह यह समझ कि यह आशीर्वाद मुझे मुनिराज ने दिया है, बड़ी भक्ति से उसने मुझे नमस्कार किया। और बड़ी विभूति के साथ अपने राजमंदिर की ओर चला गया। राजमंदिर में जाकर विजय की खुशी में उसने तोरणादि लगाकर नगर में बड़ा भारी उत्सव किया। समस्त दिशा बधिर करनेवाले बाजे बजने लगे। एवं राजा प्रजापाल आनंद से रहने लगा। राजा चंडप्रद्योतन को भी इस बात का पता लगा। राजा प्रजापाल को पक्का जैनी समझ उसने तत्काल युद्ध का संकल्प छोड़ दिया। और सब सेना को साथ ले अपने नगर की ओर प्रस्थान कर दिया। नगर में जाकर उसने जैन धर्म धारण कर लिया। जिनराज के वाक्यों पर उसका पूरा-पूरा श्रद्धान हो गया और आनंद से रहने लगा ।।१६१-१६८।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २२३ स तं व्याधुटितं मत्वा प्रजापालस्तदंतिकं । विशिष्टान्प्रेषयामास सुभटान्मंत्रकोविदान् ॥१६९।। प्रणतैस्तैः सविज्ञप्त इति राजंस्त्वया कथं । व्याघुट्य गम्यते युद्धादृते चंडप्रशासन ॥१७०॥ तदा तान् प्रतिसोऽवादीन्मंत्रिणोमंत्रकोविदाः । जैनेन युयुधेनाऽहं प्राणतुल्येन धर्मिणा ॥१७१।। ये जैनेन समंजन्यं कुर्वति वृषवर्जिताः । त एव निधनं यांति सुधार्मिकपराङ मुखाः ॥१७२॥ इत्याकर्ण्य नरा: सर्वे तं व्याधुट्य न्यवेदयन् । चंडप्रद्योतनं जैनं मत्वा संतोषमाप्तवान् ॥१७३॥ प्रजापालस्ततः प्रीत्या चंडप्रद्योतनाय च। सुर्मिणे ददौभूत्या मृगाक्षीं तांघनस्तनीं ॥१७४॥ रत्नकोशतुरंगादि दंतिनः प्रीतिवृद्धये । ददतुस्तौ सुवस्त्रादि कृत्वातोषं परस्परं ।।१७५।। ततः सपरया भूत्या कौशांब्यामगमत्तया। रेमाते दंपती तुष्टौ श्लेषमीलितलोचनौ ॥१७६॥ चंडप्रद्योतनो भूप एकदा वनितांतिके । अवदद्वसुकांते भो बलवान्बलमंडितः ॥१७७॥ प्रताप्याहं महावीरः साधिताखिलभूपतिः । पितरं यदि नो वेम्यनर्थ कर्तास्मि जैनकं ॥१७॥ इत्याकर्ण्य तया वादि नाथेत्थं न कदाचन । दत्तं यतोऽभयं दानं जिनपालेन योगिना ॥१७॥ तदा रराण भूपालः कांते कमललोचने । न तोषो न च विद्वेषो योगिनां कुत्र विद्यते ॥१८०॥ एवं चेद्वल्लभे यावस्तङ्केहि मृगलोचने । इत्युदीर्य ततस्तौ च चेलतुर्वंदना कृते ॥१८॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् जिनपालमुनिं वीक्ष्य पूजयित्वा तदंह्निकं । परीत्य तौ प्रणम्याशुतिष्ठतुः सुकृतांजली ।। १८२ ॥ तदा पप्रच्छ भूभीशो भो ज्ञानिन्मोक्षमाग्रणीः । समस्तव्यस्तशीलेश विपक्षेतरशाम्यक ॥। १८३ ।। यतीनां योगनिष्ठानां युक्तं किं कस्यचित्प्रभो । अभयोत्सर्जनं कस्य नाशचिंतनमित्यपि ॥ १८४ ॥ मौनेनास्युस्तदाते च न भाषते हिताऽहिते । वादिताश्च तदा वादीद्वसुकांता सुचंद्रिका ॥१८५॥ राजन् भूपालपुण्येन दिव्यनादो विनिर्गतः । स्वयं नैष मुनेर्दोषोऽभयनाशादिसंभवः ॥ १८६॥ चित्तस्थं द्वापरं तौ च विनाश्य प्रणम्य प्रापतुस्तूर्णं पुरां पूर्णं तिष्ठतुस्तौ सुखेनैव स्वदेशे वृषवर्द्धकौ । मनोरथाम् ।।१८७।। सुदशागतौ । वयं विशिष्टदेशेषु भ्रमंतोऽत्र समागताः ।। १८८ ।। तवालयं परिप्राप्ता लेपार्थं श्रेणिकाधिप । वाग्गुप्त्यपापतो नैव वयं त्वन्मंदिरे स्थिताः ।। १८६ ।। राजा प्रजापाल को भी चंडप्रद्योतन के चले जाने का पता लगा । उसने शीघ्र ही कई मंत्री जो कि पर के अभिप्राय जानने में अतिशय चतुर थे शीघ्र ही राजा चंडप्रद्योतन के पास भेजे और सारा हाल जानना चाहा। राजा की आज्ञानुसार समस्त मंत्री शीघ्र ही कौशांबी गये । राजा चंप्रद्योतन की सभा में पहुँच उन्होंने विनय से राजा को नमस्कार किया और जो कुछ राजा प्रजापाल का संदेशा था, सब कह सुनाया। मंत्रियों के मुख से राजा प्रजापाल का यह संदेशा सुन राजा चंडप्रद्योतन ने कहा मंत्रियो ! राजा प्रजापाल अतिशय धर्मात्मा है । धर्म उसे अपने प्राणों से भी प्यारा है । मैंने राजा प्रजापाल को जैन समझ युद्ध का संकल्प छोड़ दिया । जो पापी पुरुष जैनियों के प्राणों को दुःखाते हैं, उनके साथ युद्ध करते हैं । वे शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होते हैं । और वे संसार में नराधम कहलाते हैं । राजा चंडप्रद्योतन से यह समाचार सुन मंत्री तत्काल भूमितिलकपुर को लौट पड़े। चंडप्रद्योतन का सारा समाचार राजा प्रजापाल को कह सुनाया और उनकी अनेक प्रकार से प्रशंसा करने लगे । ज्योंही राजा प्रजापाल ने यह बात सुनी उन्हें अति प्रसन्नता हुई। चंडप्रद्योतन को Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २२५ अपने समानधर्मी समझ राजा प्रजापाल ने शीघ्र ही कन्या वसुकांता का राजा चंडप्रद्योतन के साथ विवाह कर दिया। एवं हाथी-घोड़ा अति उत्तमोत्तम पदार्थ देकर राजा चंडप्रद्योतन के साथ बहुत-कुछ हित जताया। अब कन्या वसुकांता के साथ राजा चंडप्रद्योतन का विवाह हो गया तो उनको बड़ा संतोष हो गया। वे बड़े आनन्द से रहने लगे। और दोनों दंपती भली प्रकार सांसारिक सुख का अनुभव करने लगे। कदाचित् राजा चंडप्रद्योतन रानी वसुकांता के साथ एकांत में बैठे थे। अचानक ही उन्हें भूमितिलकपुर के युद्ध का स्मरण हो गया। वे रानी वसुकांता से कहने लगे प्रिये ! मैं अतिशय प्रतापी था। चतुरंग सेना से मंडित था, अपने प्रताप से मैंने समस्त भूपतियों का मान गलित कर दिया था। मेने तेरे पिता को इतना बलवान नहीं जाना था। हाय तेरे पिता के साथ युद्ध कर मैंने बड़ा अनर्थ किया। रानी वसुकांता ने जब ये वचन सुने तो वह कहने लगी नाथ! आपके बराबर मेरे पिता बलवान न थे। किंतु मुनिवर जिनपाल ने उन्हें अभयदान दे दिया था इसलिए वे आपसे पराजित न हो सके। रानी वसुकांता के ये वचन सुने तो महाराज अचम्भे में पड़ गये वे कहने लगे चंद्रवदने ! तुम यह क्या कह रही हो ? परम योगी राग-द्वेष से रहित होते हैं। वे कदापि ऐसा काम नहीं कर सकते। यदि मुनिवर जिनपाल ने राजा प्रजापाल को ऐसा अभयदान दिया हो तो बड़ा अनर्थ किया। चलो, अब हम शीघ्र उन्हीं मुनिराज के पास चलें और उन्हीं से सब समाचार पूर्छ। राजा चंडप्रद्योतन की आज्ञानुसार रानी वसुकांता चलने के लिए तैयार हो गई, वे दोनों दंपती बड़े आनंद से मुनि-वंदनार्थ गये। जिस समय वे दोनों दंपती वन में पहुँचे। और ज्योंही उन्होंने मुझे देखा बड़ी भक्ति से नमस्कार किया। तीन प्रदक्षिणा दी। एवं राजा चंडप्रद्योतन ने बड़ी विनय से यह कहा समस्त विद्वानों के पारगामी, भव्यों को मोक्ष-सुख प्रदान करनेवाले, अतिशय कठिन किंतु परमोत्तम व्रत के धारक, शत्रु-भित्रों को समान समझनेवाले, प्रभो! क्या यह आपको योग्य था कि एक को अभयदान और दूसरे का अनिष्ट चिंतन करना? कृपानाथ ! प्रथम तो मुनियों के लिए ऐसा कोई अवसर नहीं आता। यदि किसी प्रकार का आकर उपस्थित भी हो जाय तो आप सरीखे वीतराग मुनिगण उस समय ध्यान का अवलंबन कर लेते हैं। भली-बुरी कैसी भी सम्मति नहीं देते। राजा चंडप्रद्योतन के ऐसे वचन सुन-हे राजन् श्रेणिक ! मैंने तो कुछ जवाब नहीं दिया। किंतु रानी वसुकांता कहने लगी नाथ ! मेरे पिता के शभोदय से उस समय किसी वन-रक्षिका देवी ने वह आशीर्वाद दिया था। मुनिराज ने कुछ भी नहीं कहा था । आप इस अंश में मुनिराज का जरा भी दोष न समझें। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रोशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् बस, फिर क्या था? राजन् ! ज्योंही राजा चंडप्रद्योतन ने रानी वसुकांता के वचन सुने मारे हर्ष के उसका कंठ गद्गद हो गया। कुछ समय पहले जो उसके हृदय में मेरे विषय में कालुष्य बैठा था, तत्काल वह निकल भागा। दोनों दंपती ने मुझे भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। एवं वे दोनों दंपती तो कौशांबीपुरी में आनंदानुभव करने लगे। और मुझे उसी कारण से आजतक वचन गुप्ति न प्राप्त हुई ॥१६६-१८६॥ राजस्त्रिगुप्तिगुप्तानामवधिज्ञानमुत्तमं । जायते नान्यथा भूप तृतीयादिकवेदनं ॥१६०॥ वाग्गोपनं स्थितं मे नत्तदा जानाहिभूपते । वाग्गुप्ति वंचिता नूनं वयं गुप्तिद्वयावृताः ।।१६१।। चित्तगुप्तिरिति निः मृत्ताक्षिता दुर्द्धरा कृतविकल्पवारणात् । रक्षितुं न हि समर्थतां गता योगिने जितमदाश्च तां परां ॥१६२॥ दुर्द्धरं जगति मानसं मतं भ्रामितं प्रबलमोहकर्मणा । चिंतयद्बहु शुभेतरं सदा कुर्वतां स्ववशमेव योगिनः ॥१६३॥ वाग्गोपनं ये यतिपुंगवाः सदा प्रकुर्वते ते शिव धामसंपदः । लभंति वाग्वर्गणया समागता स्वकर्मराशीनवरुंधयत्यपि ॥१९४॥ त्रिगुप्तिगुप्ता भुवि ये यतीश्वरा विशुद्धिशुद्धा: स्वहितैषिणः शुभाः । सुलब्धिलुब्धा वरबोधबोधिता। जयंतु ते जैनमतानुगामिनः ॥१६५।। श्रुत्वा गुप्तिकथां यतींद्रवदनोद्गीतां विशुद्धाक्षरः, स्यूतां स्फीतमनोऽवधानकरणी हृष्टौ च तौ दंपती । कुर्वांते मुनिमार्ग साधन कथां संसार बाधापहाम्, तच्छाते जिनवीर वक्त्रगदितां शास्त्रावबोधि मुदा ।।१६६।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २२७ ___ मैं अनेक देशों में विहार करता-करता राजगह आया। आज मैं आपके यहां आहारार्थ भी गया, किंतु मैं त्रिगुप्तिपालक था नहीं। इसलिए मैंने आहार न लिया। मेरे आहार के न लेने का अन्य कोई कारण नहीं। विनीत मगधेश ! यह आप निश्चय समझें जो मुनि मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के पालक होते हैं वे नियम से अवधि-ज्ञान के धारक होते हैं। तीनों गुप्तियों में एक भी गुप्ति को न रखनेवाले मुनिराज के अवधिज्ञान, मनःपर्यज्ञान और केवलज्ञान तीनों ज्ञानों में से एक भी ज्ञान नहीं होता। साधारण जीवों के समान उनके मति, श्रुति दो ही ज्ञान होते हैं। राजन् ! मन में उत्पन्न खोटे विकल्पों के निरोध के लिए मनोगुप्ति का पालन किया जाता है। इस मनोगुप्ति का पालन करना सरल बात नहीं। इस गुप्ति का वे ही पालन कर सकते हैं जो ज्ञान-पूजा आदि अष्ट मदों के विजयी, यतीश्वर होते हैं । और शुभ एवं अशुभ संकल्पों से बहिर्भूत रहते हैं। उसी प्रकार वचनगुप्ति का पालन करना भी अति कठिन है। जो मुनिश्वर वचनगुप्ति के पालक होते हैं। उन्हें स्वर्ग-सुख की प्राप्ति होती है। अनेक प्रकार के कल्याण मिलते हैं। विशेष कहाँ तक कहा जाय वचनगुप्तिपालक मुनिराज समस्त कर्मों का नाश कर सिद्धावस्था को भी प्राप्त हो जाते हैं। तथा इसी प्रकार कायगुप्ति का पालन भी अति कठिन है। शरीर से सर्वथा निर्मम होकर विरले ही मुनिश्वर कायगुप्ति के पालक होते हैं। तीनों गुप्तियों के पालक मुनिराज निर्मल होते हैं। उन्हें तप के प्रभाव से अनेक प्रकार की लब्धियाँ मिलती हैं। उनकी आत्मा सम्यग्ज्ञान से सदा भूषित रहती हैं । एवं वे जैन धर्म के संचालक समझे जाते हैं। इस प्रकार मुनिवर धर्मघोष और जिनपाल के मुख से मनोगुप्ति और वचनगुप्ति की कथा सुन राजाश्रेणिक और रानी चेलना को अति आनंद मिला। वे दोनों दंपती परम पवित्र दोनों गुप्तियों की बार-बार प्रशंसा करने लगे। उनके मुख से समस्त बाधा रहित मुनिमार्ग की एवं केवली प्रतिपादित श्रुतज्ञान की भी अविरल प्रशंसा निकलने लगी॥१९०-१९६॥ इति श्री श्रेणिकभवानुबद्ध भविष्यत्पद्मनाभ पुराणे भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचिते गुप्तिविक कथावर्णनं नाम वशमः सर्गः ॥१०॥ इस प्रकार पदमनाभ तीर्थंकर के भवांतर के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भद्रारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित मनोगुप्ति, वचनगुप्ति दोनों गुप्तियों की कथा-वर्णन करनेवाला दशम सर्ग समाप्त हुआ। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशमः सर्गः तत उत्थाय भूमिशो नत्वा तं मणिमालिनं । प्रप्रच्छ गमने हेतुं स्वगृहाबहिरुन्नतः ॥ १ ॥ प्रोवाच मणिमाली तं वक्ष्ये स्वोदंतमुत्तमं । विस्तीर्ण वृषसद्धेतुं शृणुत्वं शुभचेतसा ॥ २ ॥ अत्रैव विषयः ख्यातो मण्यादिवतनाम भाक् । मणिभिर्नररत्नश्च देशेषु च मणीयते ॥ ३ ॥ दंतच्छदेष्वधरतायाचना पाणिपीड़ने । क्विप्प्रत्यये विनाशश्च बंधनं शुकपक्षिणि ॥ ४ ॥ मदो दंतिसमूहेषु मारकत्वं यमाह्वये । साध्वसं कामिनां यत्र कामिन्या भूत सद्रुषः ॥ ५ ॥ तस्करो भोगगंधानां हारित्वान्मारुतः पुनः । पतनं वृक्षपर्णेषु चापलत्वं च मारुते ॥ ६ ॥ नितंबे जड़ता यत्र कट्यां च कृशता शुभा । कामिन्याः प्रस्तरे यत्र मूकत्त्वं वर्त्तते खलु ॥ ७ ॥ निग्रहः करणग्रामे योगिनां योगचेतसां । कालुष्यः सरसि प्रोक्तं गजांदोलितवारिणि ।। ८ ॥ विकोशत्वं च पद्मष स्पर्धा दानादिसंभवा । व्यसनं सन्मते यत्र नान्यत्र भुविवर्त्तते ॥ ६ ॥ यति योगप्रभावेण विपिनानि घनानि च । सर्वकालफलाढ्यानि यत्र संति शुभावहे ॥ १० ॥ वसंत इव सा ब्रूते सदा च पिककामिनी। पराजिता पुरंध्रीभिः काशयंती निजां कलां ॥ ११ ॥ वने दंतिपुरंध्यश्च शिष्यंति गमनक्रियां । यत्र नार्यः सलज्जाश्च नि: काश्य पर स्थिताः ॥ १२॥ मुनिवर जिनपाल द्वारा वचनगुप्ति-कथा के समाप्त हो जाने पर राजा-रानी ने उन्हें Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २२६ भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। धर्म-प्रेमी वे दोनों दंपती मुनिवर मणिमाली के पास गये। उन्हें भक्पूिपूर्वक नमस्कार कर राजा श्रेणिक ने विनय से पूछा संसार-तारक स्वामिन् ! मेरे शुभोदय से आप राजमंदिर में आहारार्थ गये थे। किंतु आप बिना कारण आहार के बिना ही लौटे आये। यह क्या हुआ? मेरे मन में इस बात का बड़ा संशय बैठा है, कृपया मेरे इस संशय को शीघ्र मिटावें। राजा श्रेणिक के ऐसे वचन सुन मुनिराज ने कहा राजन् ! रानी चेलना ने-'हे त्रिगुप्तिपालक मुनिराज आप आहारार्थ राजमंदिर में विराजें' इस रोति से हमारा आह्वान न किया था। मेरे कायगुप्ति थी नहीं इसलिए मैं वहाँ आहार के लिए न ठहरा वह क्यों नहीं थी? उसका कारण सुनाता हूँ। आप ध्यानपूर्वक सुनें ___ इसी पृथ्वीतल में अतिशय शुभ एक मणीवत नामक देश है। मणिवत साक्षात् समस्त देशों में मणि के समान है। मणि देश में (अधरता) धन, विद्या आदि की असहायता हो, यह बात नहीं है। वहाँ के निवासी धनी एवं विद्वान धन और विद्या से बराबर सहायता करनेवाले हैं। एकमात्र अधरता है तो स्त्रियों के ओंठों में ही है। इसलिए कोई किसी से किसी चीज की याचना भी नहीं करता। यदि याचना का व्यवहार है तो वर के लिए कन्या और कन्या के लिए वर का ही है। उस देश में किसी का विनाश भी नहीं किया जाता। यदि विनाश व्यवहार है तो व्याकरण में क्विप्प्रत्यय में ही है-क्विप्प्रत्यय का ही लोप किया जाता है। वहाँ के मनुष्य निरपराधी हैं इसलिए वहाँ कोई किसी का बंधन नहीं करता यदि बंधन व्यवहार है तो मनोहर शब्द करनेवाले पक्षियों में ही है-वे ही पिंजरे में बँधे रहते हैं। मणिवत देश में कोई आलसी भी नजर नहीं आता आलसीपना है तो वहाँ के मतवाले हाथियों में ही है-वे ही झमते-झूमते मंद गति से चलते हैं। कोई किसी को वहाँ पर मारने-सतानेवाला भी नहीं है। यदि मारता-सताता है तो यमराज ही है। वहां के निवासियों को भय किसी से नहीं है केवल कामी पुरुष अपनी प्राणवल्लभाओं के क्रोध से डरते हैं-कामियों को प्रति क्षण इस बात का डर बना रहता है, कहीं यह नाराज न हो जाय। उस देश में कोई चोर नहीं है यदि चोर का व्यवहार है तो पवन में है वहीं जहाँ कि सुगंधि चुरा ले आता है। वहाँ का कोई मनुष्य जाति-पतित नहीं है यदि पतन व्यवहार है तो वृक्षों के पत्तों में है वे ही पवन के जोर से जमीन पर गिरते हैं। वृक्षों के पत्ते छोड़कर उस देश में कोई चपल भी नहीं है। किंतु वहाँ के निवासी सब लोग गम्भीर और उदार हैं। वहाँ पर कोई मनुष्य जड़ नहीं है यदि जड़ता है तो स्त्रियों के नितम्बों में है। कृशता भी वहाँ पर स्त्रियों के कटिभाग में ही है-स्त्रियों की वहाँ कमर ही पतली है और कोई कृश नहीं। वहाँ के पत्थर ही नहीं बोलते-चालते हैं मनुष्य कोई मूंगा नहीं। उस देश में कोई किसी का दमन नहीं करता एकमात्र योगीश्वर ही इन्द्रियों का दमन करते हैं। मलिन भी वहाँ कोई नहीं रहता एकमात्र मलिनता वहाँ के तलावों में है। हाथी आकर वहां के तालाबों को गेंदला कर देते हैं। उस देश में निष्कोपता कमलों में ही है, सूर्यास्त होने पर वे ही मुंद जाते हैं। किंतु वहाँ निष्कोपता खजाना न हो, यह बात नहीं। लोग उस देश में दान आदि उत्तम कार्यों में ईर्ष्या-द्वष करते हैं। किंतु इनसे अतिरिक्त और किसी कार्य में उन्हें ई-टेष नहीं। वहाँ के लोग उत्तमोत्तम व्याख्यान सूनने के व्यसनी हैं-जआ आदि का कोई व्यसन नहीं। तथा उस देश में उत्तमोत्तम मुनियों के ध्यान-प्रभाव से वृक्ष सदा फले-फूले रहते हैं। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् योग्य वर्षा हुआ करती है, उसके मनोहर बागों में सदा कोकिला बोलती रहती है। वहाँ की स्त्रियों से हथिनी भी मंद गगन की शिक्षा लेती हैं। और स्वभाव से वे स्त्रियाँ लज्जावती एवं पतिभक्ता होती है॥१-१२॥ तत्रास्ति पत्तनं रम्यं देशनाम्ना मनोहरम् । तुंगसौधाग्रशृंगेण दारयच्चंद्रमंडलं ॥ १३ ॥ भिन्ने तमसि बालानां वक्त्रचंद्ररनर्थतां। सूर्याचंद्रप्रदीपाद्याः समीयुः क्षणदाह्नि च ॥ १४ ॥ यत्र गोपुरकामिन्याश्चंद्रश्चूडामणीयते । क्षणं स्थितः क्षपायां च तारामृक्तावलीश्रितः ।। १५ ॥ तच्छास्ता मणिमाली वै बभूव भववेदकः । मूर्तीभूत इवोत्तुंगः क्षात्रो धर्मः सनातनः ॥ १६ ॥ गुणमालाभिधा राज्ञी ममाभूत्प्राणवल्लभा । मणिशेखरनामाभूत्तनुजो नयसंगतः ॥ १७ ॥ कुर्वत्राज्यं जनांस्तोषं दधद्धर्म समर्जयन् । कारणं शर्म सं जन् जातं कालं न वेम्यहं ॥ १८ ॥ कौतुकेनैकदा राश्या कचा मम मनोहराः । तया विरुलयंत्या च पलितं वीक्ष्यं तत्र च ॥ १६ ॥ इत्युक्तं यमदूतोऽय महोआरात्मसमागतः । व्याप्तं येन जगत्सर्वं सेंद्रचक्रिहरादिकम् ॥ २० ॥ राज्ञाऽभाणि क्व कांते स आटितो भयदायकः । इत्युक्ते सा सितं केशं दर्शयामास भूपतेः ॥ २१ ॥ सवधिस्थं यमं मत्वा विरज्याखिलशर्मतः । सतां त्याज्यं महाराज्यं सियुज्य मणिशेखरे ॥ २२ ॥ ज्ञानसागरमासाद्य गुरुं बहुनृपोद्भवैः । अदीक्षितसुसिद्धांत पठनोद्यतमानसः ।। २३ ॥ सकलागमवेत्ताहं भूत्वा तपसि संस्थितः । विजहार चिरं भूमि मेकाकी सिंहवत्सदा ॥ २४ ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ श्रेणिक पुराणम् इसी मणिवत देश में एक अतिशय रमणीय दारा नाम का नगर है । दारा नगर के ऊँचेऊँचे महल सदा चन्द्रमंडल को भेदन किया करते हैं । उसकी स्त्रियों के मुख चन्द्रमा की कृपा से अन्धकार सदा दूर रहता है इसलिए वहाँ दीपक आदि की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। जिस समय वहाँ की स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ जाती हैं उस समय चन्द्रमा उनका चूड़ामणि तुल्य जान पड़ता है। और तारागण चूड़ामणि में जड़े हुए सफेद मोती सरीखे मालूम पड़ते हैं । दारा नगर का स्वामी भली प्रकार नीति- कला में निष्णात क्षत्रियवंशी में राजा मणिमाली था। मेरी स्त्री जो कि अतिशय गुणवती थी, गुणमाला से उत्पन्न मेरा एक पुत्र था, उसका नाम मणिशेखर था । और वह अतिशय नीतियुक्त था। मैं भोगों में इतना मस्त था कि मुझे जाते हुए काल का भी ज्ञान न था । मैं सदा जिनधर्म का पालन करता हुआ आनंद से राज्य करता था । कदाचित् मैं आनंद से बैठा था। मेरी पटरानी मेरे केशों को सँभाल रही थी। अचानक ही उसे मेरे सिर में एक सफेद बाल दीख पड़ा। वह एकदम अचम्भे में पड़ गई । और कहने लगी - हाय, जिस यमराज ने बड़े-बड़े चत्रवर्ती नारायण प्रति नारायणों को अपना कवल बना लिया उसी यमराज का दूत यहाँ आकर भी प्रकट हो गया। बस !!! ज्योंही मैंने रानी गुणमाला के ये वचन सुने मेरी आनंद तरंगें एकदम शांत हो गईं। मेरे मुख से उस समय ये ही शब्द निकले - प्रिये ! समस्त लोक में भय उत्पन्न करनेवाला वह यमदूत कहाँ है ? मुझे भी शीघ्र दिखा | मैं उसे देखना चाहता हूँ । मेरे वचन सुनते ही रानी ने बाल शीघ्र उखाड़ लिया । और मेरी हथेली पर रख दिया । ज्योंही मैंने अपना सफेद बाल देखा । अपना काल अति समीप जान मैं उसी समय राज्य से विरक्त हो गया। जो विषयभोग कुछ समय पहले मुझे अमृत जान पड़ते थे वे ही हलाहल विष बन गये । अपने प्यारे पुत्र और स्त्रियों को भी अपना शत्रु समझने लगा। मैंने शीघ्र ही चन्द्रशेखर को बुलाया - और राज्य कार्य उसे सौंप तत्काल वन की ओर चल पड़ा। वन में आते ही मुझे मुनिवर ज्ञानसागर के दर्शन हुए। मैंने शीघ्र ही अनेक राजाओं के साथ मुनि दीक्षा धारण कर ली। जैन सिद्धान्त के पढ़ने में अपना मन लगाया । एवं जब मैं जैन सिद्धान्त का भली प्रकार ज्ञाता हो गया और उग्र तपस्वी बन गया तो मैं सिंह के समान इस पृथ्वी - मंडल पर अकेला ही विहार करने लगा - ॥१३-२४॥ विहरन्नन्यदा ध्यानसिद्धयै स्थितस्तत्र राजन्नुज्जयिन्याः श्मशानके । शवशय्यासमाश्रितः ।। २५॥ कृतकौतुकः ॥ २६ ॥ तावत्तत्र समायातः कौलिकः सिद्धमंत्रकः । वेतालाख्य महाविद्या सिद्धये कुणपं मम सद्गात्रं मत्वा मंत्रोद्यतः स च । नरभूनि पयो रम्य मानयामास तंदुलान् ॥ २७ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् चौर मूर्द्धद्वयं नीत्वा योजयन्मुनिमस्तके । रंधनाय चकाराशु चुल्लीं शीर्षसमुद्भवां ॥ २८ ।। जज्वाल ज्वलनं वेगानधयन्वरपायसं । एधांसि मुंचयन् सिद्धो विद्यासिद्धयर्थमंजसा ॥ २६ ॥ यथायथाग्निरेधेत ज्वलते च तथा तथा । मुनेः शीर्ष व्यथा तीव्रा जायते मूनि सन्मुनेः ॥ ३० ॥ तदा सस्मार योगींद्रश्चिद्रूपं शुद्धमुत्तमं । नोद्रव्यभावदुःकर्म विमुक्तं मुक्तिसंगतं ॥ ३१॥ मा कृथाऽशर्म रे जीव भक्तपूर्वं च नारकं । अनेकशो मया दुःखं तदग्नेरपि का कथा ॥ ३२॥ नरये क्षुत्प्रवर्तेत सर्वसस्योपजीविनी। लभ्येत शिकणमात्रं न नारकै नष्टशर्मकैः ॥ ३३ ॥ तप्तैलकटाहेषु निक्षिप्तास्तत्र देहिनः । भस्मीभवंति सर्वांगे सहमानाश्च वेदनां ।। ३४ ।। करपत्रादियोगेन द्विधा भवंति नारकाः । खंडशः खंडशो भूता एकीयंते च सूतवत् ॥ ३५ ॥ भूमिस्पर्शननोऽसातं सहस्रवृश्चिकस्पृशः । अधिकं देहिनां यत्र जायते देहदाहकं ॥ ३६॥ भू मृदो दैवयोगेना यांति लोकेऽत्रमध्यमे । तद्गंधान्त्ररणं यांति नराः क्रोशादिसंस्थिताः ॥ ३७ ॥ अनेकशोमयादुःखं तद्भुक्तं पूर्वमेव च । पराधीनतयाद्याहं क्षमिष्यामि समागतं ॥ ३८॥ एकाक्षविषये द्वयादिकरणे केवलं मया। अशर्माऽभोजि . चिद्रूपमजानतातचेतसा ।। ३६ ॥ अनंतानंत संसारो नित्येतरनिगोदके । स्थितः पूर्वं सुदिष्टाच्च लब्धोऽयं मानुषो भवः ॥ ४० ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् मानुषं भवमासाद्य जेतव्याश्च व्रतादिसंसिद्धयै परीषहजयं मया परीषहाः । तपः ।। ४१ ।। राजन् ! अनेक देश एवं नगरों में विहार करता-करता किसी दिन मैं उज्जयिनी नगरी में जा पहुँचा । और वहाँ की श्मशान भूमि में मुर्दे के समान आसन बाँधकर ध्यान के लिए बैठ गया । वह समय रात्रि का था इसलिए एक मंत्रवादी जो कि अनेक मंत्रों में निष्णात, वैताली विद्या की सिद्धि का इच्छुक एवं जाति का कौली था, वहाँ आया और मेरे शरीर को मृत शरीर जान तत्काल उसने मेरे मस्तक पर एक चूल्हा रख दिया एवं किसी मृत कपाल में दूध और चावल डालकर, चूल्हे में अग्नि बालकर ( जलाकर ) वह खीर पकाने लग गया। फिर क्या था ? मंतवादी तो यह समझ कि कब जल्दी खीर पके और जल्दी मंत्र सिद्ध हो, बड़ी तेजी से चूल्हे लकड़ी झोंककर आग बालने लगा। और आग बलने से जब मुझे मस्तक - मुख में तीव्र वेदना जान पड़ी तो मैं कर्म रहित शुद्ध आत्मा का स्मरण कर इस प्रकार भावना भाव निकला बस, - रे आत्मन् ! तुझे इस समय इस दुःख से व्याकुल न होना चाहिए। तूने अनेक बार भयंकर नरक -दुःख भोगे हैं। नरक -दुःखों के सामने यह अग्नि का दुःख कुछ दुःख नहीं । देख ! नरक में नारकियों को क्षुधा तो इतनी अधिक है कि यदि मिले तो वे त्रिलोक का अन्न खा जाय किंतु उन्हें मिलता कणमात भी नहीं। इसलिए वे अतिशय क्लेश सहते हैं । वहाँ पर नारकियों को गरम लोहे. की कड़ाहियों में डाला जाता है उनके शरीर के खंड किये जाते हैं उस समय उन्हें परम दुःख भोगना पड़ता है । हजार बिच्छुओं के काटने से जैसी शरीर में अग्नि भैराती (लगती ) है उसी प्रकार नरक भूमि स्पर्श से नारकियों को दुःख भोगने पड़ते हैं । यदि नरक की मिट्टी का छोटा-सा टुकड़ा भी यहाँ आ जाय तो उसकी दुर्गन्धि से कोसों दूर बैठे जीव शीघ्र मर जाएँ किंतु अभागे नारकी रात-दिन उसमें पड़े रहते हैं । T तुझे भी अनेक बार नरक में जाकर ये दुःख भोगने पड़े हैं। जब-जब तू एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि विकलेन्द्रिय योनियों में रहा है उस समय भी तूने अनेक दुःख भोगे हैं । अनेक बार तू निगोद में भी गया है । और वहाँ के दुःख कितने कठिन हैं यह बात भी तू जानता है । तुझे इस समय ज़रा भी विचलित नहीं होना चाहिए। भाग्यवश यह नरभव मिला है प्रसन्न चित्त होकर तुझे व्रतसिद्धि के लिए परीषह सहनी चाहिए। ध्यान रख ! परीषह सहन करने से ही व्रत - सिद्धि और सच्चा आत्मीय सुख मिल सकता है ।। २५-४१ ।। २३३ दह्यमाने च मे मूर्ध्नातीत्थंभावनया युतः । आसे यावत्पदारूढः पंचाना मस्तकोपरि । शिरासंकोच योगेन तावन्मे उद्भीभूय करौ तूर्णं स्थितौ लष्टि सुदंडवत् ॥ ४३ ॥ परमेष्ठिनां ॥ ४२ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् करयोगात्कपालं च पतितं दुग्धयोगतः । अग्निः शशाम वेगेन भो श्रेणिक नराधिप ॥ ४४ ।। तदा कौलेयको वीक्ष्य मत्वाकु द्धं स्वमंत्रकम् । चक्रे पलायनं भीतः पश्यन् पश्यन्नवाङ मुखं ।। ४५ ।। उदयाय तदा भानुः कथयन्निव सज्जनान् । मुनेर्महोपसर्ग च कुणपायतपातिनः ॥ ४६ ।। ननाश तामसं दूरादुच्चनीचसमानकृत् । स्तव्यग्राभेद्यमत्यंतं मिथ्यात्वं जिन भास्करात् ॥ ४७ ।। यस्योदयप्रशावेण पद्मानि विचकासिरे । जिनोदयेन भव्यानां मनांसीव स्वभावतः ॥ ४८ ॥ रथांगयुगलान्याश नंदयंति मुहुर्मुहुः । वियुक्तिरात्रितो लुब्धं संपर्कानि हरिं मुदा ।। ४६ ॥ कामिनां युगलान्याशु निदयंति वियोगिनां । दृढालिंगनतो यस्योदयं संभिन्नतामसं ॥ ५० ॥ साधुमार्गसमादर्शी विभिन्नखलतामसः । पदार्थसार्थसंस्पर्शी साधुरेब दिवाकरः ।। ५१ ।। यस्योदये हिमांशुश्च शुष्क पत्रायते तरां । लून सर्वांगसत्कांतिस्तत्रान्येषां च का कथा ।। ५२ ॥ भानुदर्शित सन्मार्गे चरंति जनताः शुभाः । जिनोपदिष्टसन्मार्गे भव्या इव हितैषिणः ॥ ५३॥ पतितं मां तदा भूप विदग्धार्द्धसुमस्तकम् । पुष्पलावी समावीक्ष्य विस्मितोऽभून्निजे हृदि ॥ ५४॥ आगत्य नगरे तूर्णमचीकथदुपासकान् । जिनदत्तादिसंमुख्यान् जिनधर्मप्रवेदकान् ॥ ५५॥ राजन् ! मैं तो इस प्रकार अनित्यत्व भावना भा रहा था। मुझे अपने तन-बदन का भी होश न था। अचानक ही जब अग्नि जोर से बढ़ने लगी तो मेरे मस्तक की नसें भी सिकुड़ने लगीं। मेरे मस्तक पर रहा कपाल बेहद रीति से हिलने लगा और भली-भाँति कोलिक द्वारा डाँटे जाने Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २३५ पर तत्काल जमीन पर गिर गया। जो-कुछ उसमें दूध, चावल आदि चीजें थीं, मिट्टी में मिल गई और शीघ्र ही अग्नि शांत हो गई। बस, फिर क्या था ? ज्योंही उस कौलिक ने यह दृश्य देखा मारे भय के उसके पेट में पानी हो गया। वह यह जान कि मंत्र मुझ पर कुपित हो गया है, वहाँ से तत्काल धर भागा और शीघ्र ही अपने घर आ गया। कुछ समय बाद रात्रि में मुर्दे के धोखे से मुनिराज पर घोर उपसर्ग हुआ है! यह बात दारा नगर-निवासी सज्जनों को मानो कहता हुआ सूर्य प्राची दिशा में उदित हो गया। जिनेन्द्ररूपी सूर्य के उदय से जैसा मिथ्यात्व अंधकार तत्काल विलय को प्राप्त हो जाता है और भव्यों के चित्तरूपी कमल विकसित हो जाते हैं। उसी प्रकार सूर्य के उदय से गाढ़ अंधकार भी बात-की-बात में नष्ट हो गया। जहाँ-तहाँ सरोवरों में कमल भी खिल गये। उस समय रात-भर के वियोगी चकवा चकवी सूर्योदय से अति आनंदित हुए। और परस्पर प्रेमालिंगन कर अपने को धन्य समझने लगे। किंतु रात्रि में अपनी प्राण-प्यारियों के साथ क्रीड़ा करनेवाले कामीजन अति दुःख मानने लगे और बार-बार सूर्य की निदा करने लगे। असली पूछिए तो सूर्य एक प्रकार का उत्तम साधु है क्योंकि साध जिस प्रकार भव्य जीवों को उत्तम मार्ग का दर्शक होता है सर्य भी पथिकों का उत्तम मार्ग का दर्शक है। साध जैसे भव्य जीवों के अज्ञानांधकार को दूर करता है सर्य भी उसी प्रकार गाढतमरूपी अंधकार को दूर करता है। साध जिस प्रकार जीव-अजीव आदि पदार्थों का विचार करता है उनके साथ संबंध रखता है। उसी प्रकार सूर्य भी अपनी किरणों से समस्त पदार्थों से संबंध रखता है। दैदीप्यमान सूर्य के तेज के सामने चन्द्रमा उस समय सूखे पत्ते के समान दिखाई पड़ने लगा। और तारागण तो लापता हो गये। श्मशान भूमि के पास एक बाग था इसलिए उस समय एक माली फूल तोड़ने के लिए वहाँ आया था, अचानक उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी। ज्योंही उसने मुझे अर्ध दग्ध मस्तकयुक्त और बेहोश देखा मारे आश्चर्य के उसका ठिकाना न रहा। वह शीघ्र ही भागकर नगर में आया और जिन धर्म के परम भक्त जो जिनदत्त आदि सेठ थे उनसे मेरा सारा हाल कह सुनाया ॥४२-५५|| आकर्येति तदा चक्र हाहाकारमुपासकाः । जग्मुः संभूय सर्वे च मुनिपुंगवसन्निधौ ॥ ५६ ॥ निरूप्य तादृशं तं च प्रणम्य मन्यमानसाः ।। करै सद्वृत्यसनीय नगरं ते बुधोत्तमाः ।। ५७ ।। योगिनं स्थापयामासासुजिनदत्तालये मुदा । व्यजने व्याधिघातार्थं । भस्मीभूतसुमस्तकं ।। ५८ ।। ततः पप्रच्छ भिषजं भेषजं जिनदत्तकः । व्याधिघातकृते साऽपि निरूप्यालीलयद्वचः ।। ५६ ।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् लक्षमलादते तेलान्न शांतिर्भविता विभोः । चिकित्सेऽहं महाव्याधि तेन श्रेष्ठिन्नचान्यथा ॥ ६० ॥ क्वास्ते तदिति संपृष्टे प्रागदीद्भिषजांवरः । गृहेऽस्ति लक्षमूलं तद्भट्टस्य सोमशर्मणः ।। ६१ ॥ दग्धव्रणविघातोत्थ व्याधयो यांति दूरतां । तैलेन तेन तस्मात्तदा नेतव्यं त्वया लघु ।। ६२ ।। ततोऽगात्तस्य स समं दृष्ट्वा तद्भामिनी शुभाम् । तुंकारी स्नेहसिद्धयर्थं भगिनीति वचो जगौ ।। ६३ । स्वसो रुजोपनोदार्थं लक्षमूलं मुनेच्दा । प्रयच्छ मूल्यमादाय श्रुत्वेति सा व्यलीलपत् ॥ ६४॥ मल्यादते गृहाण त्वं मुनेः शांतिकृते शृणु । अगदाद्गदणि शोऽमुत्र जीवस्य संभवेत् ॥ ६५ ॥ अट्टालिकायां तत्तल काचकुंभाः समासते । तत्रैकं त्वं गृहाणाणु यावत्प्रयोजनं तथा ।। ६६ ।। तत्र गत्वा गृहीत्वा तं कंठे यावन्मदा तदा। गृह्वाति क्षिप्तवान् भूमौ तैलं निः शेषमेव च ।। ६७ ।। भयकंपितगात्रेण तेनाकथि तदनके । साऽवादीदन्यमंत्रत्वमंगीकुरुसहोदर ॥ ६८ ॥ ज्योंही जिनदत्त आदि सेठों ने माली के मुख से मेरी ऐसी भयंकर दशा सुनी उन्हें परम दुःख हुआ। मारे दुःख के वे हा-हाकार करने लगे और सब-के-सब मिलकर तत्काल श्मशान भूमि की ओर चल दिये। श्मशान भूमि में आकर मुझे उन्होंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। मेरी ऐसी बुरी अवस्था देख वे और भी अधिक दुःख मनाने लगे। किस दुष्ट ने मुनिराज पर यह घोर उपसर्ग किया है ? इस प्रकार क्रुद्ध हो भव्य जिनदत्त ने मुझे शीघ्र उठाया। और व्याधि के दूर करने के लिए मुझे अपने घर ले गया। जिस समय मैं घर पहुँच गया। तत्काल जिनदत्त किसी वैद्य के घर गया। मेरी व्याधि के शान्त्यर्थ वैद्य से उसने औषधि माँगी और मेरी सारी अवस्था कह सुनाई। भव्य जिनदत्त के मुख से मुनिराज की यह अवस्था सुन वैद्य ने कहा प्रिय जिनदत्त! मुनिराज का रोग अनिवार्य है। जब तक लाक्षामल तेल न मिलेगा कदापि मैं उनकी चिकित्सा नहीं कर सकता, लाक्षामूल तेल से ही यह रोग जा सकता है। इसलिए तुम्हें Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणिक पुराणम् लाक्षामूल रस के लिए प्रयत्न करना चाहिए । वैद्यराज के ऐसे वचन सुनकर जिनदत्त ने कहावैद्यराज ! कृपया शीघ्र कहें लाक्षामूल तेल कहाँ और कैसे मिलेगा ? मैं उसके लिए प्रयत्न करूँ । वैद्यराज ने कहा - इसी नगर में भट्ट सोम शर्मा नाम का ब्राह्मण निवास करता है। लाक्षामूल तेल उसी के यहाँ मिल सकता है और कहीं नहीं । तुम उसके घर जाओ और शीघ्र वह तेल ले आओ । वैद्यराज के ऐसे वचन सुन शीघ्र ही भट्ट सोम शर्मा के घर गया । वहाँ उसकी तुंकारी नाम की शुभ भार्या को देखकर और उसे बहिन शब्द से पुकारकर यह निवेदन करने लगा - बहिन ! मुनिवर मणिमाली का आधा मस्तक किसी दुष्ट ने जला दिया है। उनके मस्तक में इस समय प्रबल पीड़ा है कृपाकर मुनि पीड़ा की निवृत्ति के लिए मूल्य लेकर मुझे कुछ लाक्षामूल तेल दे दीजिए । जिनदत्त की ऐसी प्रिय बोली सुन तुंकारी अति प्रसन्न हुई । उसने शीघ्र ही जिनदत्त से कहा प्रिय जिनदत्त ! यदि मुनि की पीड़ा दूर करने के लिए तुम्हें तेल की आवश्यकता है तो आप ले जाइए मैं आपसे कीमत नहीं लूंगी। जो मनुष्य इस भव में जीवों को औषधि प्रदान करते हैं परभव में उन्हें कोई रोग नहीं सताता । आप निर्भय हो मेरी अटारी चले जाइए। वहाँ बहुत-से घड़े तेल के रखे हैं, जितना तुम्हें चाहिए, उतना ले जाइए। तुंकारी के ऐसे दयामय वचन सुन जिनदत्त अति प्रसन्न हुआ । अटारी पर चढ़कर उसने एक घड़ा उठाकर अपने कंधे पर रख लिया और चलने लगा । घड़ा लेकर जिनदत्त कुछ ही दूर गया था अचानक ही उनके कंधे से घड़ा गिर गया । और उसमें जितना तेल था सब फैलकर मिट्टी में मिल गया । तेल को इस प्रकार जमीन पर गिरा देख जिनदत्त का शरीर मारे भय के कैंप गया। वह विचारने लगा - हाय !!! बड़ा अनर्थ हो गया । यही कठिनता से यह तेल हाथ आया था सो अब सर्वथा नष्ट हो गया । जाने अब तेल मिलेगा या नहीं ? अहा !!! अब तुंकारी मुझ पर जरूर नाराज होगी मैंने बड़ा अनर्थ किया तथा इस प्रकार अपने मन में कुछ समय संकल्प-विकल्प कर वह तुंकारी के पास गया। डरते-डरते उसे सब हाल कह सुनाया और तेल के लिए फिर से निवेदन किया । तुंकारी परम भद्रा थी उसने नुकसान पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। किंतु शांतिपूर्वक उसने यही कहा- ।।५६-६८।। - द्वितीयं काचकुंभं तमादातुं स जिघृक्षति | भूमौ निपत्य भग्नोऽसौ तावत्कुंभो द्वितीयकः ॥ ६६ ॥ पुनस्तयाः समादेशाद्गृहीतं तृतीयं बगंज खिन्नचित्तोऽसौ तां तत्सर्वं न्यवेदयत् ॥ ७० ॥ घटम् । अलीलपत्तदा सापि मा भैषीस्त्वं सहोदर । यावत्प्रयोजनं तावदंगी कुरु शुभं २३७ घटं ॥ ७१ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् यत्नतो घटमादाय स एकं विस्मितोऽभवत् । तस्याः सवधिमागत्य बभाषे शुभयागिरा ॥७२॥ रे मातस्त्वत्समा बालां नाकामवलोकयं । वृषद्धितचेतस्कां क्षांतिपूरितविग्रहां ॥ ७३ ॥ असाधारा महाक्षांतिस्त्वयि विद्येत भोस्वसः । मुनावपि वसत्क्षांते रीदृशा याहि संशयः ॥ ७४ ॥ भग्नेषु तेषु रे मात रामषीस्तकथंचन । अभूच्चित्रमिदं चित्रं न दृष्टं कुत्र भूतले ॥ ७५ ॥ अशीशममहं कोपं यतस्तत्फलमुल्वणं । अभोजमिति सावादीत् श्रेष्ठिनं कृतकौतुकं ॥ ७६ ॥ प्रिय जिनदत्त ! यदि वह तेल फैल गया तो फैल जाने दे, मेरे यहाँ बहुत तेल रखा है, जितना तुझे चाहिए उतना ले जा और मुनिराज की पीड़ा दूर करने का उपाय कर। ब्राह्मणी के ऐसे उत्तम किंतु संतोषप्रद वचन सुन जिनदत्त का सारा भय दूर हो गया। ब्राह्मणी की आज्ञानुसार उसने शीघ्र ही दूसरा घड़ा अपने कंधे पर रख लिया किंतु ज्योंही घड़ा लेकर जिनदत्त कुछ चला ठोकर खा चट जमीन पर गिर गया और घड़ा फट जाने से फिर सारा तेल फैल गया। ब्राह्मणी की आज्ञानुसार जिनदत्त ने तीसरा घडा भी अपने कंधे पर रखा कंधे पर रखते ही वह भी फट गया। इस प्रकार फिर सब हाल जाकर कह सुनाया। और कहते-कहते उसका मुख फीका पड़ गया। तीनों घड़ों के इस प्रकार फूट जाने से सेठ जिनदत्त को अति दुःखित देख तुकारी का चित्त करुणा से आर्द्र हो गया। डाँट-डपट के बदले उसने जिनदत्त से यही कहा प्यारे भाई ! यदि तीन घड़े फूट गये हैं तो फूट जाने दे। उसके लिए किसी बात का भय मत कर । मेरे घर में बहुत-से घड़े रखे हैं। जब तक तुम्हारा प्रयोजन सिद्ध न हो तब तक तुम एक एक कर सबों को ले जाओ। ब्राह्मणी के ऐसे स्नेह भरे वचन सुन जिनदत्त को परम संतोष हुआ। उसकी आज्ञानुसार उसने शीघ्र ही घड़ा कंधे पर रख लिया और अपने घर की ओर चल दिया। ब्राह्मणी के ऐसे उत्तम बर्ताव से जिनदत्त के चित्त पर असाधारण असर पड़ गया था। ब्राह्मणी के स्नेहयुक्त वचनों ने उसे अपना पक्का दास बना लिया था। इसलिए ज्योंही वह अपने घर पहुँचा घड़ा रखकर वह फिर तुंकारी के घर आया और विनयपूर्वक इस प्रकार निवेदन करने लगा प्रिय बहिन ! तू धन्य है, तेरा मन सर्वथा धर्म में दृढ़ है। तू क्षमा की भंडार है । मैंने आज तक तेरे समान कोई स्त्री-रत्न नहीं देखा। जैसी क्षमा तुझमें है संसार में किसी में नहीं। मुझसे , Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम २३९ बराबर तीन घड़े फूट गये, तेरा बहुत नुकसान हो गया तथापि तुझे जरा भी क्रोध न आया। जिनदत्त के ऐसे प्रशंसायुक्त किंतु उत्तम वचन सुन तुंकारी ने कहा भाई जिनदत्त ! क्रोध का भयंकर फल मैं चख चुकी हूँ। इसलिए मैंने कुछ शांत कर दिया है मैं जरा-जरा-सी बात पर क्रोध नहीं करती। तुंकारी के ऐसे वचन सुन जिनदत्त ने कहा।।६६-७६॥ स उवाच शुभे मातस्तत्कथां कथयस्व मां । अबीभणत्तदा सापि शृणु वृत्तांतमंजसा ।। ७७ ॥ आनंदपूरिते रम्ये आनंदाख्यसुपत्तने । सानंदजनसंपूर्णे विस्तीर्णेऽक्षीणसंपदि ॥ ७८ ॥ शिवशर्मा महादेवो धनेभ्यो वसति स्फुटं। कमलश्री सुनामाऽभूत्तस्य जाया सुलोचना ॥ ७९ ॥ तयोर्बभूवुरष्टौ च पुत्रा: पौरंदरोपमाः । भव्ययौवनलीलाढ्या धनाद्यष्टमदावहाः ॥ ८० ॥ ततस्तयोरहंभद्रा तनुजाऽसीच्छिवावहा । पित्रादीनां सदा मान्या ललिता बंधुसत्करैः ।। ८१ ॥ सरूपा सकला सारा मानिता भ्रातृजायया । मानयंति जनाः सर्वे गृहीत्वा नाम चोत्तमं ॥२॥ ततो विज्ञापयामास भूपालमिति सादरं । भवद्भिर्जनमुख्यश्च बांधवै गरैस्तथा ॥८३॥ तुंकारनिनदो राजन्न विधेयः कदाचन । मत्पुत्र्या इति चोदशं सा प्रापद्भ पतस्तदा ॥८४॥ तुंकार वचनं कोऽपि दत्ते देवाच्च मां प्रति । करोम्यनर्थसंतानं तस्य भूपसमक्षकं ॥ ८५ ।। तदा प्रभृति मन्नाम तुकारीतिकृतं जनः । इत्थं तातादिसन्मान्या स्थिता धाम्नि सकोपिका ॥८६॥ या अ' बहिन ! तुम क्रोध का फल कब चख चुकी हो, कृपा कर मुझे उसका सविस्तार समाचार सुसाओ। इस कथा के सुनने की मुझे विशेष लालसा है। जिनदत्त के ऐसे वचन सुन तुंकारी ने कहा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् भाई ! यदि तुझे इस कथा के सुनने की अभिलाषा है तो मैं कहती हूँ, तू ध्यानपूर्वक सुन इसी पृथ्वीतल में आनंदित जनों से परिपूर्ण मनोहर एवं आनंद का आकर एक आनंद नाम का नगर है। आनंद नगर में अक्षय संपत्ति का धारक कोई शिव शर्मा नामक ब्राह्मण निवास करता था। शिव शर्मा को प्रिय भार्या कमलश्री थी। कमलश्री अतिशय मनोहरा, सुवर्ण वर्णा एवं विशाल नेत्रा थी। शिव शर्मा के प्रिय भार्या कमलश्री से उत्पन्न आठ पुत्र-रत्न थे। आठों ही पुत्र इन्द्र के समान सुन्दर थे, भव्य थे और धन आदि से मत्त थे। उन आठों भाइयों के बीच में अकेली बहिन थी। मेरा नाम भद्रा था। माता-पिता का मुझ पर असीम प्रेम था। सदा वे मेरा सम्मान करते रहते थे। मेरे भाई भी मुझ पर परम स्नेह रखते थे। मैं अतिशय रूपवती और समस्त स्त्रियों में सारभूत थी। इसलिए मेरी भौजाई भी मेरा पूरा-पूरा सम्मान करती थी। पासपड़ोसी भी मुझ पर अधिक प्रेम रखते थे और मुझे शुभ नाम से पुकारते थे। मुझे तुंकार शब्द से बड़ी चिढ़ थी। इसलिए मेरे पिता ने राज-सभा में भी जाकर कह दिया राजन् ! मेरी पुत्री तुंकार शब्द से बहुत चिढ़ती है इसलिए क्या तो मंत्री, क्या नगर निवासी और बांधव कोई भी उसके सामने तुंकार शब्द न कहे। मेरे पिता के ऐसे वचन सुन राजा ने मुझे भी बुलाया। राजा की आज्ञानुसार मैं दरबार में गई। मैंने वहाँ स्पष्ट रीति से यह कह दिया कि जो मुझे तुंकारी शब्द से पुकारेगा राजाके सामने ही मैं उसके अनेक अनर्थ कर डालूंगी। तथा ऐसा कहकर मैं अपने घर लौट आई। उस दिन से सब लोगों ने चिढ़ से मेरा नाम तुंकारी ही रख दिया। और मैं क्रोधपूर्वक माता-पिता के घर रहने लगी॥७७-८६।। अथैकदा बने शुभे गुणसागरसन्मुनिम् । आटितं संपरिज्ञाया राजाद्या वंदितुं ययुः ॥ ८७ ॥ नत्वा योगीश्वरं सर्वे तस्थुस्तत्र वृषेच्छवः । मुनिवक्त्रात्ततो धर्मं शुस्र वुः सा तदायिनं ।। ८८ ।। यथायथं व्रतं सर्वे जग्रहुर्तिसिद्धये । तदा श्रेण्डिन्मया रम्यं गृहीतं श्रावकव्रतं ॥८६॥ विना तुंकारशब्देन विना कोपं मयाद्रुतम् । उररीकृतमेमात्र नियमादिकसद्वतम् ॥ १० ॥ आगत्य मंदिरे सर्वैरहं तस्थौ मदावहा । मदाष्टकै: समाकीर्णा भ्रात्रष्टकसमुद्भवैः ॥ ६१॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २४१ मत् शीलं संपरिज्ञाय मां वृणोति न कश्चन । पितृणां च तदा कष्टं जातं मद्यौवने क्षणात् ।। ६२ ।। एकदा सोमशर्माख्यो द्यूतव्यसनवंचितः । द्विजो वित्तं महाद्यूते हारयामास पापतः ॥ ६३ ।। द्यूतकृद्भिस्तदा सोऽपि याचयद्भिनिजं वसु । वृक्षे संरोप्य सल्लोष्टस्ताड्यते यष्टिमुष्टिभिः ॥ १४ ॥ श्रुत्वा मज्जनकस्तत्र गत्वा तं कैतवं प्रति । इत्याख्यद्विज मे कन्यां चेद्वरिष्यसि सत्वरं ।। ६५ ॥ मोचयामि तदा वित्तं दत्त्वैतेभ्यः शुभावहम् । सोऽवोचद्विजाधीश शिवशर्मन् धनाधिप ।। ६६ ॥ केन दोषेण सा कन्या दीयते मम पापिनः । द्यूतव्यसनशक्तस्य पीड्यमानात्मनः खलः ॥ १७ ॥ मत्पितेति वचोऽवादीन्न दोषो भपसंभवः । किंतु कोपकृतो दोषो मत्सुतायां यथाकथम् ॥ १८ ॥ त्वंकारप्रभवं शब्दं सहते सा न सुंदरी । यूयं वयं प्रकर्त्तव्यं त्वया जीवनहेतवे ।। ६६ ॥ तथेति प्रतिपन्नोऽसौ कष्टेन वसुवर्षणः । मत्पित्रा मोचितो दुःखादानीतो निजवेश्मनि ॥१०॥ महता संभ्रमेणैव कारिता पाणिपीड़नम् । सेनाहं सुखमालेभे ततो रतिसमुद्भवं ॥१०१॥ यूयं यूयमिति कृत्वा माँ स वादयते सदा । अतः सुखमवाप्ताहं प्रौढयौवनसंभवं ॥१०२॥ कदाचित् शुभ्र नाम के वन में एक परम पवित्र मुनिराज, जिनका नाम गुणसागर था, आये मुनिराज का आगमन-समाचार सुन राजा आदि समस्त लोग उनकी वंदनार्थ गये। मुनिराज के पास पहुँचकर सभी ने भक्ति-भाव से उन्हें नमस्कार किया। और सब-के-सब उनके पास भूमि पर बैठ गये। उन सभी को उपदेश-श्रवण के लिए लालायित देख मुनिराज ने उपदेश दिया। उपदेश सुनकर सभी को परम संतोष हुआ। और अपनी सामर्थ्य के अनुसार यथायोग्य सगी ने व्रत भी धारण किये। मैं भी मुनिराज का उपदेश सुन रही थी मैंने भी श्रावक व्रत धारण कर Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् लिये। किंतु व्रत धारण करते समय तुंकार शब्द से उत्पन्न क्रोध का त्याग नहीं किया था । मुनिराज के उपदेश के समाप्त हो जाने पर सब लोग नगर में आ गये। मैं भी अपने घर आ गई। मेरे भाई जैसे आठ मदयुक्त थे उनके संसर्ग से मैं भी आठ मदयुक्त हो गई। जिस बात की मैं हठ करती थी उसे पूरा करके मानती थी । यहाँ तक कि मुझे हठीली जान मेरा कोई विवाह भी नहीं करता था इसलिए जिस समय मैं युवती हुई तो मेरे पिता को परम कष्ट होने लगा । मेरी विवाह संबंधी चिंता उन्हें रात-दिन सताने लगी । उसी समय एक सोम शर्मा नाम का ब्राह्मण था । सोम शर्मा पक्का जुआरी था । कदाचित् सोम शर्मा जुआ खेल रहा था । उसने किसी बाजू पर अपना सब धन रख दिया । और तीव्र दुर्भाग्योदय से उसे वह हार गया। सब धन हारने पर सब जुआरियों ने सोम शर्मा से अपना धन माँगा तो वह न सका इसलिए जुआरियों ने उसे किसी वृक्ष से बाँध दिया। और बुरी तरह लात, डंडे, घूंसों से मारने लगे। शिव शर्मा के कान तक भी यह बात पहुँची वह भागता-भागता शीघ्र ही सोम शर्मा के पास गया और उससे इस प्रकार कहने लगा प्रिय ब्राह्मण ! यदि तुम मेरी पुत्री के साथ विवाह करना स्वीकार करो तो मैं इन जुआरियों का कर्जा निपटा दूं और तुम्हें इनके चंगुल से छुड़ा लूं । बस, हे श्रेष्ठिन् ! मेरे पिता के ऐसे हितकारी वचन सुन सोम शर्मा ने कहा ब्राह्मण सरदार ! आपकी कन्या में ऐसा कौन-सा दुर्गुण है जिससे उसके लिए कोई योग्य वर नहीं मिलता और पापी, जुआरी, दुष्टों द्वारा दंडित, मुझ न कुछ पुरुष के साथ उसका विवाह करना चाहते हैं । सोम शर्मा के ऐसे वचन सुन शिव शर्मा ने कहा प्रियवर ! मेरी पुत्री में रूप आदि का कुछ भी दोष नहीं है वह अतिशय रूपवती, सुन्दरी है । अनेक कला-कौशलों की भंडार है । किंतु उसमें क्रोध की कुछ मात्रा अधिक है । वह तुंकार शब्द को सहन नहीं कर सकती। बस, जो कुछ दोष है सो यही है । तुम अपने जीवन-सुख भोगने के लिए यही करना कि हम तुम का ही व्यवहार रखना, मैं तू का नहीं रखना । इसके अतिरिक्त दूसरा तुम्हें कोई कष्ट न भोगना पड़ेगा। शिव शर्मा के ऐसे वचन सुन और उस कष्ट को कुछ न समझ सोम शर्मा ने उसके साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया । एवं मेरे पिता ने तत्काल जुआरियों का कर्ज पटा दिया और आनंदपूर्वक उसे अपने घर ले आये। कुछ दिन बाद किसी उत्तम मुहूर्त में सोम शर्मा के साथ मेरा विवाह हो गया । मैं उसके साथ आनंदपूर्वक भोग भोगने लगी । वह मुझसे सदा तुम का व्यवहार रखता था । इसलिए मुझे परम संतोष रहता था । एवं हम दोनों दंपती का आपस में स्नेह बढ़ता ही चला जाता था ।।८७- १०२ ॥ स अन्यदा नटनाद्यं लोकयंस्तत्र संस्थितः । विविधाद्भुत सद्वेष चित्राश्चर्य सुहासकृत् ॥ १०३॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २४३ गणरात्रमतिक्रम्याजगाम धरिणीसुरः । स्थित्वा द्वाराग्रदेशेसोऽभाणीन्मधुरया गिरा ॥१०४॥ उद्घाटयत भो कांता यूयं द्वारं स्वभावतः । पौनः पुण्येन वाचालमिति कांतं प्रति क्रुधा ॥१०॥ बृहत्कालक्रमेणैव नो वच्मि च यथाकथं । वादिता मानवादेन वहंती गर्वमुल्वणं ॥१०६॥ बृहद्वेलामतिक्रम्य खिन्नचेतो वचोऽवदत् । शीघ्रं त्वंकार शब्दवाचालो रे रे मुद्घाटयत्त्वकं ॥१०७॥ सा त्वंकारं समाकर्ण्य द्वारमुद्घाट्य चांजसा । मुक्त्वा कांतं गृहं वित्तं निर्गता योषमाश्रिता ॥१०८।। भ्रातः कोपेन जीवानामिहैवाशुभमुल्वणं । पापं संपद्यते नूनमुपहास्यफलप्रदं ॥१०॥ क्रोधशत्रुर्नृणां पूर्वं ज्वलते निजविग्रहं । पुनरन्यं यथा वंसस्थितो वह्निः स्वदाहकः ॥११०॥ आमर्षान्नरयं प्राप्ताः कृष्णद्वीपायनादयः । देहज्वलनमासाद्य पूर्व कोपो महारिपुः ॥११॥ इहैवाशर्शसंदाता कोपोऽयं दुर्धरो रिपुः । अमुत्र नरयादीनां दायक: पापनायकः ॥११२।। दूरज्वलनमेवात्र त्वदने कथ्यते मया । पादाऽधो ज्वलनं कोपान्मम बंधोहितच्छृणु ॥११३॥ निर्गता पत्तने कोपाद्वहंत्यखिलभूषणम् । दिव्यस्त्री वसने पथ्या स्थूलमुक्ताफलावहा ॥११४॥ दस्थवो मां समालोक्य जग्रहर्गणरात्र के। भीम भिल्लाय वेगेन समदुनिजस्वामिने ॥११५।। कदाचित् सोम शर्मा किसी कार्यवश बाहर गये। उन्हें वहाँ कोई ऐसा स्थान दीख पड़ा जहाँ बहुत-से नृत्य आदि तमाशे हो रहे थे। वे चट वहाँ बैठ गये और तमाशा देखते-देखते उन्हें अपने समय का भी कुछ खयाल नहीं रहा। जब बहुत-सी रानि बीच चुकी, खेल भी प्रायः समाप्त Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् होने पर आ चुका, उन्हें घर की याद आई। वे शीघ्र अपने घर के द्वार पर आकर इस प्रकार पुकारने लगे प्राणवल्लभे ! कृपा कर आप दरवाजा खोलें । मैं दरवाजे पर खड़ा हूँ। मैं उस समय अर्ध निद्रित थी इसलिए दो-एक आवाज तो मैं उनकी सुन न सकी किंतु जब वे स्वभाव से बार-बार पुकारने लगे तो मैंने उनकी आवाज तो सुन ली परंतु ये इतनी रात तक कहाँ रहे ? क्यों अपने समय पर अपने घर न आये। ऐसा उन पर दोषारोषण कर फिर भी मैंने आवाज न दी, और न दरवाजा खोला। कुछ समय बाद वे मुझे 'तुम' शब्द से पुकारने लगे तो भी मैंने उत्तर न दिया प्रत्युत मैं उन पर अधिक घृणा करती चली गई और मेरा गर्व भी बढ़ता चला गया। अंत में जब सोम शर्मा अधिक घबरा गये, मेरी ओर से उन्हें कुछ भी जवाब न मिला तो उन्हें क्रोध आ गया। क्रोध के आवेश में उन्हें कुछ न सूझा वे मुझे फिर इस रीति से पुकारने लगे अरी तुकारी! दरवाजा तू क्यों नहीं जल्दी खोलती? दरवाजे पर खड़े-खड़े हमें कितना समय बीत चुका है ? रात्रि के अधिक व्यतीत हो जाने से हम कष्ट भोग रहे हैं। बस, फिर क्या था? रे भाई जिनदत्त! ज्योंही मैंने अपने पति के मुख से तुंकारी शब्द सुना मेरा क्रोध के मारे शरीर भभक उठा। मेरे पति अर्ध रात्रि के बीतने पर घर आये थे इसलिए मैं स्वभाव से ही उन पर कुपित बैठी थी किंतु तुंकारी शब्द ने मुझे बेहद कुपित बना दिया। मुझे उस समय और कुछ न सूझा किवाड़ खोल मैं घर से निकली और वन की ओर चल पड़ी। उस समय रात्रि अधिक बीत चुकी थी। नगर में चारों ओर सन्नाटा छा रहा था उस समय उल्ल, चोर आदिक ही आनंद से जहाँ-तहाँ भ्रमण करते फिरते थे। और कोई नहीं जागता था। मैं थोड़ी ही दूर अपने घर से गई थी। मेरे बदन पर कीमती भूषण, वस्त्र थे। इसलिए मुझ पर चोरों की दृष्टि पड़ी। वे शीघ्र मुझ पर बाघ सरीखे टूट पड़े। और मुझे कड़ी रीति से पकड़कर उन्होंने तत्काल अपने सरदार किसी भील के पास पहुंचा दिया। चोरों का सरदार वह भील बड़ा दुष्ट था ज्योंही उसने मुझे देखा वह अति प्रसन्न हुआ। और इस प्रकार कहने लगा॥१०३-११५॥ सोऽपि मां वीक्ष्य मूढात्मा जगाद वचनं तदा । भव मे वनिता वाले गृहाणाभीष्टवस्तु च ॥११६।। मयाऽवादी किरातेश न यूक्तं कुलयोषितां । नराणां च तथा ज्ञेयं दुःखदं शीलखंडनं ।।११७।। तीवकामानलैस्तप्तो नाकर्ण्य वचनं मम । बद्धकक्षो बभूबाशु शीलभंगाय पापधीः ।।११८॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २४५ निश्चलांगं मनः कृत्वा स्थितां मां व्रतरक्षितुं । चकार विविधां चेष्टां वस्त्रोत्क्षेपणजां स च ।।११।। मच्छीलेन समागत्य वनदेव्या निवारितः । नरजन्मनि यत्सारं व्रतानामपि भूषणम् ॥१२०॥ ततः स सार्थवाहस्य कुद्धो मूल्यं न मां ददौ । तेऽपि मां दिव्यकन्याभां वीक्ष्य मारशराहताः ।।१२१॥ ते शीलखंडने रक्ता बभूवुर्यावदुन्मुखाः । वनदेव्या तदागत्य पीड़िता यष्टिमुष्ठिभिः ।।१२२॥ तत्रापि रक्षणे हेतुर्बभूव वनदेवता । शीलप्रभावतो नूनं किंकरा हि सुरा नराः ॥१२३॥ बाले ! तुझे जिस बात की आवश्यकता हो कह, मैं उसे करने के लिए तैयार हैं। तू मेरी प्राणवल्लभा बनना स्वीकार कर ले। मैं तुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी रखूगा। तू किसी प्रकार अपने चित्त में भय न कर । भिल्ल पति के ऐसे वचन सुन मैं भौंचक रह गई। किंतु मैंने धैर्य हाथ से न जाने दिया इसलिए शीघ्र ही प्रौढ़ किंतु शांतिपूर्वक इस प्रकार जवाब दिया भिल्ल सरदार ! आपका यह कथन सर्वथा विरुद्ध और मलिन है। जो स्त्रियां उत्तम वंश में उत्पन्न हुई हैं । और जो मनुष्य कुलीन हैं कदापि उन्हें अपना शीलवत नष्ट न करना चाहिए। आप यह विश्वास रखें जो जीव अपने शीलव्रत की कुछ भी परवा न कर दुष्कर्म कर डालते हैं, उन्हें दोनों जन्मों में अनेक दुःख सहने पड़ते हैं । संसार में उनको कोई भला नहीं कहता। उस समय वह चोरों का सरदार कामबाण से विद्ध था। भला वह धर्म-अधर्म को क्या समझ सकता था। इसलिए तप्त लौह-पिंड पर जल-बूंद जैसे तत्काल नष्ट हो जाती है उसका नामोनिशान भी नजर नहीं आता। वैसे ही मेरे वचनों का भिल्लराज के चित्तपर ज़रा भी असर न पड़ा वह "कबूतरी पर जेसे बाज टूटता है" एकदम मुझ पर टूट पड़ा और मुझे अपनी दोनों भुजाओं में भरकर कामचेष्टा करने के लिए उद्यत हो गया। जब मैंने उसकी यह घृणित अवस्था देखी तो मैं अपने पवित्र शीलवत की रक्षार्थ आसन बाँधकर निश्चल बैठ गई। मैंने उसकी ओर निहारा तक नहीं। बहुत समय तक प्रयत्न करने पर भी जब उस पापी का उद्देश्य पूर्ण न हो सका तो वह अति कुपित हो गया। उसने शीघ्र ही अपने साथियों के हाथ मुझे बेच डाला और अपने क्रोध की शांति की। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् उसके साथी परम दुष्ट थे । ज्योंही उन्होंने मुझे देखा देवांगना के समान परम सुंदरी जान वे भी कामबाण से व्याकुल हो गये । और बिना समझे बूझे मेरे शीलव्रत का खंडन करना प्रारंभ कर दिया। उस समय कोई वन रक्षिका देवी यह दृश्य देख रही थी इसलिए ज्योंही वे दुष्ट मेरे पास आवे डंडों से पीट के देवी ने उन्हें ठीक कर दिया । और वह मुझे अपने यहाँ ले गई। २४६ भाई जिनदत्त ! यद्यपि मैं अतिशय पापिनी थी तो भी मैं अपने शीलव्रत में दृढ़ थी इसलिए उस भयंकर समय में उस देवी ने मेरी रक्षा की। तुम निश्चय समझो जो मनुष्य अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहते हैं देव भी उनके दास बन जाते हैं और उनके समस्त दुःख एक ओर किनारा कर जाते हैं ।। ११६- १२३ ।। बलं । पापजनाकीर्णं श्रक्कर्दमसमाकुलं ।।१२४॥ स मां रसकुलस्यैव ददौ मूल्येन किल्विषात् ! स्थिताहं तत्र पश्यंती समुदीर्णं कुदादिकं ॥ १२५ ॥ भयत्रस्तः द्वीपं समानैषीत्कृमिरागादिकं पक्षे समे भ्रातः कुरुते शिरमोचनं । निः काश्य शोणितं तस्माद्वस्त्ररंजनहेतवे ॥ १२६॥ गृह्णातीत्थं करोत्येवं पक्षे पक्षे निरंतरम् । सहगाना तथाऽहं च स्थिता तत्र स्वकिल्विषात् ॥ १२७ ॥ तुंकार शब्दमासोढुमक्षमा तात मंदिरे | क्षंतुं शक्ता सिरामोचं विचित्रा कर्मणां गतिः ॥ १२८ ॥ पुनः सलक्षमूलाख्य तैलाभ्यंगेन देहजाम् । निवारयति मे पीड़ां नारकाभ्यां शुभातिगां ॥ १२६ ॥ अथ यो धनदेवाख्यो भ्राता संप्रीतिपूरितः । उज्जयिन्याधिपेनैव प्रेषितो भूतिमंडितः ॥ १३० ॥ ततो देशाधिपस्यैव पारासरसुभूपतेः । समीपं कार्य सिध्यर्थं संक्रमात्तत्र चागतः ।। १३१ ॥ पारासरं समासाद्य प्रणम्य कृतकार्यकः । यावद्बभूव तावन्मा मवैक्षत च दुःखिनीं ॥ १३२ ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २४७ आलिंग्यस्नेहतो भ्राता मोचयित्वा यथा कथं । आदाय माँ समानीया जगाम निजपत्तनं ।।१३३।। दृष्ट्वा माँ च जनन्याद्या जहर्षुः क्षीणविग्रहां । धनदेवस्ततोऽदान्माँ मद्भत्रे सोमशर्मणे ॥१३४॥ अन्यदा मुनिमासाद्य गृहीतं कोपसव्रतं । मया सच्छीलरक्षायै वेदयंत्या च तत्फलं ॥१३॥ दृग्मल श्रुतसत्पीठो दानशारवो गुणच्छदः । यशः पुण्याव्रतावृत्तिर्मोक्षांतफलदायकः ॥१३६।। शमांबुद्धितो धर्म शाखी कोप धनंजयम् । आसाद्य वृद्धिमापन्नः क्षणेन भस्मसाद्भवेत् ।।१३७।। इति विज्ञाय भो भ्रातर्मयाऽग्राहि क्रु धावतं । श्रुत्वेति तां पुनः श्रेष्ठी प्रशंस्य स्वालयं गतः ॥१३८॥ ततः स लक्षमूलेन तैलेन मुनिपुंगवम् । निर्बणं कृतवान्भक्त्या नानागदविधानतः ।।१३।। स्वस्थीभूते मुनौ राजश्च स्ते परमोत्सवम् । गृहे गृहे जिनागारे तूर्यत्रिकसमुऋवम् ॥१४०।। जिस समय देवी मुझे अपने घर ले गई थी उस समय मेरे पास कोई वस्त्र न था इसलिए उस देवी ने मुझे एक ऐसा कम्बल जो अनेक जुओं, चींटी आदि जीवों से व्याप्त था, जगह-जगह उसमें रक्त, पीब, कीचड़ आदि लगी थी, दे दिया और मुझे वहीं रहने की आज्ञा दी। मैंने भी कम्बल ले लिया और प्रबल पायोदय से उस क्षेत्र में उत्पन्न कोदों आदि धान्यों को देखती हुई रहने लगी। इतने पर भी मेरे दुःखों की शांति न हुई प्रति पक्ष में वह देवी मेरे सिर के केशों का मोचन करती थी और अपने वस्त्र रँगने के लिए उससे रक्त निकाला करती थी। रक्त निकालते समय मेरे मस्तिष्क में पीड़ा होती थी इसलिए वह देवी उस पीड़ा को लाक्षामूल तेल लगाकर दूर करती। कदाचित् मेरा परम स्नेही भाई यौवन देव उज्जयिनी के राजा ने किसी कार्यवश बड़ी विभूति के साथ राजा पारासर के पास भेजा। वह अपना कार्य समाप्त कर उज्जयिनी लौट रहा था। मार्ग में कुछ समय के लिए जिस वन में मैं रहती थी, उसी वन में वह ठहर गया। और मुझ अभागिनी पर उसकी दृष्टि पड़ गई। ज्योंही उसने मुझे देखा बड़े स्नेह से मुझे अपने हृदय से लगाया। और बड़ी कठिनता से उस देवी के चंगुल से निकालकर मुझे उज्जयिनी ले गया। जिस समय मेरी माता आदि कुटुम्बियों ने मुझे देखा उन्हें परम दुःख हुआ। मेरे शरीर की दशा देख Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् मेरी माँ अधिक दुःख मानने लगी। मेरे मिलाप से मेरा समस्त बंधुवर्ग अति प्रसन्न हुआ। एवं कुछ दिन बाद मेरा भाई धनदेव मुझे यहाँ मेरे पति के घर पहुँचा गया। प्रिय भाई ! जब से मैं यहाँ आई हूँ तब से मैंने ज़रा-ज़रा-सी बात पर क्रोध करना छोड़ दिया। मैं क्रोध का भयंकर फल चख चुकी हूँ इसलिए और भी मैं क्रोध की मात्रा दिनोंदिन कम करती जाती हूँ। आप निश्चय समझिए यह धर्मरूपी वृक्ष सम्यग्दर्शनरूपी जड़ का धारक, शास्त्ररूपी पीड़ करयुक्त, दानरूपी शाखाओं से शोभित, अनेक प्रकार के गुणरूपी पत्तों से व्याप्त, कीतिरूपी पुष्पों से सुसज्जित, व्रतरूपी उत्तम आल-बाल से मनोहर, मोक्षरूपी फल का देनेवाला, क्षमारूपी जल से बढ़ा हुआ परम पवित्र है। यदि इसमें किसी रीति से क्रोधरूपी अग्नि प्रवेश कर जाय तो वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, तत्काल भस्म हो जाता है इसलिए जो मनुष्य अपना हित चाहते हैं उन्हें ऐसा भयंकर फल देनेवाला क्रोध सर्वथा छोड़ देना चाहिए। ब्राह्मणी तुंकारी के मुख से ऐसी कथा सुन सेठ जिनदत्त अति प्रसन्न हुआ। वह तुंकारी की बार-बार प्रशंसा करने लगा एवं प्रशंसा करता-करता कुछ समय बाद अपने घर आया। लाक्षामूल तेल एवं अन्यान्य औषधियों से जिनदत्त मेरी (मुनिराज की) परिचर्या करने लगा। कुछ दिन बाद मेरे रोग की शांति हुई। मुझे निरोग देख जिनदत्त को परम संतोष हुआ। मेरी निरोगता की खुशी में जिनदत्त आदि सेठों ने अति उत्सव मनाया। जहाँ-तहाँ जिनमंदिर में विधान होने लगे। एवं कानों को अति प्रिय उत्तमोत्तम बाजे भी बजने लगे ॥१२४-१४०।। प्रावृट् कालस्तदाऽयातो राजन्वर्षन्धनाघनम् । द्योतयन् विद्युतां वृदं गंभीर गर्जयन् ध्वनि ॥१४१।। सशाद्वला तदा भूमिर्जशेंबुबिंदुसंयुता। स्थूलमुक्ता फलाकीर्णा हरिन्मणिमया यथा ॥१४२॥ बभुस्तत्र शुभाः केकाः केकिनां तांडवात्मनां । लोकतृप्तिकेते तूर्णमाह्वयंत्य इवांबुदं ।।१४३।। हारायंते दिशां धाराबिंदु मुक्ताफलावहाः । विद्युत्संतप्तहेमाढ्या यत्र केका समाकुले ॥१४४।। अग्नीयंते पराधाराः कामिनीनां वियोगतः । पीड़ितानां वरे चित्ते ज्वलंत्यो मारदारुभिः ।।१४५।। अध्वगानां कृतालोपे पथि निर्गमनं कदा । धाराधरो न संदत्ते प्रियाविरह शंकिनां ।।१४६।। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २४६ ये ये यत्र स्थितास्ते ते तत्र तत्र महादरात् । घनाघनभयान्नूनं तिष्ठति प्रीतिपीड़िताः ॥१४७॥ परदेश प्रिया नारी बलाका कृत ताड़कम् । स्वकांतगाढसंलीनं वीक्ष्येति सा व्यतर्कयत् ।।१४८।। इयं मत्तः पराधन्या विप्रलंभभवं कदा। दुःखं न सहते चाहं विप्रलंभप्रतारिता ।।१४६।। अयोगाकारधाराभिराधरेव वर्षति । श्राद्धराक्षिप्यमाणोऽहं जिनदत्तालये स्थितः ॥१५०॥ प्रावृट्योग व्यवस्थाप्य मया स्थायि सुयोगतः । जिनार्चास्नानचैत्यादि कारयता महोत्सवं ॥१५१।। एकदा निजपुत्रस्य भयात्सव्यसनात्मनः । कुबेरदत्तसंज्ञस्य दुर्ध्यानाहत चेतसः ॥१५२॥ ताम्रकुंभं समादाय श्रेष्ठी रत्नादिसंभृतं । मुनेनिकटमानीयं तदाऽधो गुप्तगुप्तके ॥१५३॥ विष्टराधस्तले तावद्गर्भ गृहविसंस्थितः । कूबेरो निक्षिपंतं तं ददर्श श्रेष्ठिनंक्षितौ ॥१५४॥ एकदा सततः काले गते कीयति पापधीः । निः काश्य स्वर्णकलशं लोभसंभिन्नमानसः ॥१५५।। अन्यत्राभीष्ट संस्थाने धृतस्तेन च पापिना। मुनिना वीक्ष्यमाणेन तूष्णीभावश्रितात्मना ।।१५६।। अथो वयं सुखेनैव कारयंतोऽर्थकर्णनम् । प्रावृट्कालं प्रपूर्याशु विनिवर्त्य सुयोगकं ॥१५७॥ अटामो मनसः शुध्या भव्योपदेशन कृते । ईर्यापथविशुद्धाढ्या आढ्येतराः विचारकाः ॥१५८॥ तावच्छष्ठी समुत्क्षिप्य धरां कुंभं सरत्नकं । अपश्यन्व्याकुलो जज्ञे व्यामोहाहतमानसः ॥१५॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अहो क्व मे गतं वित्तं तस्करः कोऽत्र संगतः । केनारक्षिमभ प्राण प्रख्यं रक्षं सुयत्नतः ॥१६०॥ निक्षिप्तमत्र रक्षार्थमतोपि गतमीक्ष्यते । भुनक्ति कर्कटी वृत्तिर्यदि किं रक्ष्यतेऽन्यतः ॥१६१॥ अहो वृत्तं दुरंतं हि गृहीतं मुनिपुंगवैः । भविष्यति न वा चित्ते तर्कयच्चेति मूढधीः ॥१६२॥ व्यावर्त्तनकृतेश्रेष्ठी मुने राजन् समूढधीः । भृत्यान्प्रस्थापयामास काष्टासु निखिलासु च ॥१६३।। एकस्मिन्नयने श्रेष्ठी स्वयं वीक्षणहेतवे। आट तत्कपटं चित्ते मन्यमानो मुहुर्मुहुः ॥१६४॥ अटतं मुनिराजं तं निःशकं गिरि वत्स्थिरं । वीक्ष्यागत्य प्रणम्याशु वचनं स व्यलीलपत् ॥१६५।। राजन् श्रेणिक ! इधर तो मैं निरोग हुआ और उधर वर्षाकाल भी आ गया। उस समय आनंद से वृष्टि होने लगी जहाँ-तहाँ बिजली चमकने लगी। एवं प्रत्येक दिशा में मेघध्वनि सुनाई पड़ी। उस समय हरित वनस्पति से आच्छादित जल-बूंदों से व्याप्त, पृथ्वी अति मनोहर नजर आने लगी। जैसे हरित कांतमणि पर जड़े हुए सफेद मोती शोभित होते हैं वैसे हरी वनस्पति पर स्थित जल-बूंदें उस समय ठीक वैसी ही शोभा को धारण करती थीं। उस समय चारों ओर आनंद शब्द करते थे। विरहिणी कामनियों के लिए वह मेघमाला जलती हुई अग्नि ज्वाला के समान थी। और अपनी प्राणवल्लभा के अधरामृत पान के लोलुपी, क्षण-भर भी उसके विरह को सहन न करने वाले कामनियों के मार्ग को रोकने वाली थी। जिस समय विरहिणी स्त्रियाँ अपने-अपने घोसलों में आनंदपूर्वक प्रेमालिंगन करते हुए बगली बगलों को देखती थी उन्हें परम दुःख होता था। वे अपने मन में ऐसा विचार करती थी। हाय !!! यह पति विरह दुःख हम पर कहाँ से टूट पड़ा। क्या यह दुःख हमारे ही लिए था? हम कैसे इस दुःख को सहन करें। इस प्रकार जीवों को स्वभाव से ही सख-दुःख के देने वाले वर्षाकाल के आ जाने से जिनदत्त आदि ने चातर्मास के लिए मुझे उस नगर में ही रहने के लिए आग्रह किया इसलिए मैं वही रह गया एवं ध्यान में दत्तचित्त जीवों को उत्तम मार्ग का उपदेश देता हुआ मैं सुखपूर्वक जिनदत्त के घर में रहने लगा। सेठ जिनदत्त का पुत्र जो कि अति व्यसनी और दुर्थ्यांनी कुबेरदत्त था। कुबेरदत्त से जिनदत्त धन आदि के विषय से सदा शंकित रहता था। कदाचित् सेठ जिनदत्त ने एक तांबे के घड़े को रत्नों से भरकर और मेरे सिंहासन के नीचे एक गहरा गड्ढा खोदकर चुपचाप रख दिया किंतु घड़ा रखते समय कुबेरदत्त मेरे सिंहासन के नीचे छिपा था इसलिए उसने यह सब दश्य देख Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ श्रेणिक पुराणम् लिया। और कुछ दिन बाद वहाँ से उस घड़े को उखाड़कर अपने परिचित स्थान पर उसने रख दिया। कुछ दिन बाद चातुर्मास समाप्त हो गया। मैंने भी अपना ध्यान समाप्त कर दिया। एवं हेयोपादेय विचार में तत्पर ईर्या समितिपूर्वक मैं वहाँ से निकला और वन की ओर चल दिया। मेरे चले जाने के पश्चात् सेठ जिनदत्त को अपने धन की याद आ गई। जिस स्थान पर उसने रत्न भरा खड़ा रखा था तत्काल उसे खोदा। वहाँ घड़ा नहीं मिला, जब उसे घड़ा न मिला तो वह इस प्रकार संकल्प विकल्प करने लगा हाय ! मेरा धन गया? किसने ले लिया अरे मेरे प्राणों के समान, यत्न से सुरक्षित, धन अब किसके पास होगा। हाय ! रक्षार्थ मैंने दूसरी जगह से लाकर यहाँ रखा था उसे यहाँ से भी किसी चोर ने चुरा लिया ? जब बाढ़ ही खेत खाने लगी तो दूसरा मनुष्य कैसे उसकी रक्षा कर सकता है। मुनिराज के सिवाय इस स्थान पर दूसरा कोई मनुष्य नहीं रहता था। प्रायः मुनिराज के परिणामों में मलीनता आ गई हो। उन्होंने ही ले लिया हो। पूछने में कोई हानि नहीं, चलूं मुनिराज से पूछ लूं तथा ऐसा कुछ समय तक विचार कर शीघ्र ही जिनदत्त ने कुछ नौकर मेरे अन्वेषणार्थ भेजे और स्वयं भी घर से निकल पड़ा एवं कपट वृत्ति से जहाँ-तहाँ मुझे ढूंढने लगा। मैं वन में किसी पर्वत की तलहटी में ध्यानारूढ़ था। मुझे जिनदत्त की कपटवृत्ति का कुछ भी ख्याल न था। अचानक ही घूमता-घूमता वह मेरे पास आया। भक्ति-भाव से मुझे नमस्कार किया एवं कपटवत्ति से वह इस प्रकार प्रार्थना करने लगा ॥१४१-१६५।। स्वामिन्नशर्मसंपूर्णास्तूर्णं त्वद्दर्शनलोलुपाः । वर्त्तते गृहिणस्तेपां कष्टनाशं विधेहि भो ॥१६६।। व्यावर्त्तय कृपाधीश किंचित्कार्यकृते पुनः । न गंतव्यं न गंतव्यं त्वयानाथ यथा कथं ।।१६७।। तदाग्रहं समालोक्य शंबर्या कृतमुल्वणं । मत्वाभिप्रायमाचित्ते तर्कयन्मानसे तदा ॥१६८॥ अहो दुष्टमहोदुष्टं द्रविणं पापदं नृणाम् । अनिष्टपदमेवात्र दुरंतं दुःखदायकम् ।।१६६॥ अहो ! शत्रुत्वमायाति सखापि प्राणवल्लभः । नागीयते शुभा भार्या व्याघ्रीयति निजांबिका ॥१७॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ तातो मूर्खायतेतरां ॥ १७१ ॥ वधीयति सुतो रम्यो मित्रीयति सहोदरः । अविश्वासीयति भ्राता निंदीयति स्वगोत्रं च स्वसा हालाहलायते । वित्तप्रभावतो नूनं सर्वं द्वेषायते सदा ।। १७२।। वित्तसंसर्गयोगेन अहो निंद्यमहोनिद्यं मुनिश्चोरायते तराम् । वित्तं प्राणापहारकं ।। १७३॥ घ्नंति ताताः सुतं वित्तात्सु तास्तातं न संशयः । सेवकाः स्वामिनं चैव भ्रातरो भ्रातरं निजं ।। १७४ | पुनः । स्वशरीरं त्यजंत्येव नरा वित्तकृते धिग् धिग् द्रविणभेवात्र सर्वहिसामयं इति व्यूहसमूहाढ्यं मां नीत्वा स्वगृहं गतः । सोऽवादीन्नाथ तत्रैकां कथां कथयबुद्धितः ।। १७६।। खलं ।। १७५ ।। श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् बुद्ध्वांऽतः करणं तस्य जगौ योगी वणिग्वर । त्वमेवोदतं मेकं च शृणोमि गद चित्तजं ॥ १७७॥ अलीलपन्निजं भावं सूचयन्ख्यातिमुत्तमां । श्रेष्ठी स्वामिन्निजं चित्तं स्थिरी कृत्य शृणुप्रभो ॥१७८॥ वाराणस्याँ प्रफुल्लायाँ जितशत्रुनराधिपः । राजते राजराजेंद्रैः सेवितह्निः सरोरुहः ॥ १७६॥ रोगवेदकः । अगदंकार एकोऽस्ति भूपते ! धनदत्ताभिधस्तस्य धनदत्ता च वल्लभा ॥ १८०॥ भूपत्यादींश्चिकित्सते । भुंजद्भोगपुरंदरः ।।१८१ ॥ नानाभेषजभेदज्ञो भूपावतीर्णसद्वृति तयो द्वौ तनुजौ धनमित्रो धनेंदुश्च यौवनोद्भासि रम्याऽवभूतप्रीतिदौ मुने । विग्रहौ ।। १८२ ॥ पित्रा संपाट्यमानौ तौ लालनात्पठतो न हि । गदादिकमजानंतौ समूर्खो च गृहे स्थितौ ॥१८३॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् प्रभो दीनबन्ध ! जब से आपने उज्जयनी छोड़ दी है। तब से वहाँ के निवासी श्रावक बड़ा दुःख मान रहे हैं । आपके चले आने से वे अपने को भाग्यहीन समझते हैं । और अहोरात्र आपके दर्शनों के लिए लालायित रहते हैं । कृपाकर एक समय आप जरूर ही उज्जयनी चलें और उन्हें आनंदित करें पीछे आपके आधीन बात है चाहे आप जायें या न जायें । जिनदत्त की ऐसी वचन भंगी सुन मैं अवाक् रह गया। मुझे शीघ्र ही उसके भीतरी अभिप्राय का ज्ञान हो गया । धन के लिए उसका ऐसा बर्ताव सुन में अपने मन में ऐसा विचार करने लगा । यह धन बड़ा निकृष्ट पदार्थ है । यह दुष्ट जीवों को घोर पाप का संचय कराने वाला और अनेक दुःख प्रदान करने वाला है । हाय !!! जो परम मित्र है अपना कैसा भी अहित नहीं चाहता वह भी इस धन की कृपा से परम शत्रु बन जाता है । और अनेक अहित करने के लिए तैयार हो जाता है । प्राण-प्यारी स्त्री इस धन की कृपा से सर्पिणी के समान भयंकर बन जाती है । जन्मदात्री, सदा हित चाहनेवाली, माता भी धन के फेर में पड़कर भयंकर व्याघ्री बन जाती है । धन के लिए पुत्र के मारने में वह जरा भी संकोच नहीं करती। धन के फेर में पड़कर एक भाई दूसरे भाई का भी अनिष्ट चिंतन करने लग जाता है। पिता भी धन की ही कृपा से अपने को सुखी माता है । यदि कुटुम्बी धन नहीं देखते हैं तो जहाँ-तहाँ निंदा करते फिरते हैं । बहिन भी धन के चक्र में फंसकर हलाहल विष सरीखी जान पड़ती है। निर्धन भाई से मारने में उसे भी जरा भी संकोच नहीं होता । हाय !!! समस्त परिग्रह के त्यागी, आत्मिक रस में लीन, मुनिराज भी इस दुष्ट धन की कृपा से चोर बन जाते हैं । इस धन के लिए पिता अपने प्यारे पुत्र को मार देता है । पुत्र भी अपने प्यारे पिता को यमलोक पहुँचा देता है। धन के पीछे भाई भाई को मार देता है । सेवक स्वामी का प्राणघात कर देते हैं। धन के लिए जीव अपने शरीर की भी परवाह नहीं करते । हाय !!! ऐसे धन को सहस्रवार धिक्कार है । वह सर्वथा हिंसामय है । इस चक्र में फँसे हुए जीव कदापि सुखी नहीं हो सकते । तथा इस प्रकार धन की बार-बार निंदा करते हुए मुझे यह पुन: अपने घर ले गया एवं वहाँ पहुँचकर यह कहने लगा २५३ नाथ कृपाकर ! मुझे कोई कथा सुनाइये। मुझे आपके मुख से कथा श्रवण की अधिक अभिलाषा है । उसके ऐसे वचन सुन मैंने कहा जिनदत्त ! तुम्हीं कोई कथा कहो हम तुम्हारे मुख से ही कथा सुनाना चाहते हैं बस फिर क्या था ? वह तो कथा द्वारा अपना भीतरी अभिप्राय बतलाना चाहता ही था इसलिए ज्यों ही उसने मेरे वचन सुने वह अति प्रसन्न हुआ और कहने लगा प्रभो! आपकी आज्ञानुसार मैं कथा सुनाता हूँ आप ध्यानपूर्वक सुनें और मुझे क्षमा करें। जंबूद्वीप में एक अतिशय मनोहर बनारस नाम की नगरी है । बनारस नगरी का स्वामी जो नीतिपूर्वक प्रजा का पालक था राजा जितमित्र था । राजा जितमित्र के यहाँ एक अगदकाम नाम का राज वैद्य था । उसकी स्त्री धनदत्ता अतिशय रूपवती एवं साक्षात् कुबेर की स्त्री के समान थी। राज्य की ओर से वैद्य अगदंकार को जो आजीविका दी जाती थी उसी से वह Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अपना गुजारा करता था एवं इन्द्र के समान उत्तमोत्तम भोग भोगता वहाँ आनंद से रहता था। वैद्यवर अगदंकार के अतिशय सुन्दर दो पुत्र थे। प्रथम पुत्र धनमित्र था। और दूसरे का नाम धनचन्द्र था। दोनों भाई माता-पिता के लाडले अधिक थे इसलिए अनेक प्रयत्न करने पर भी वे फूटा अक्षर भी न पढ़ सके। रोग आदि की परीक्षा का भी उन्हें ज्ञान नहीं हुआ। एवं वे निरक्षर भट्टाचार्य होकर घर में रहने लगे॥१६६-१८३।। अन्यदा किल्विषात्तातस्तयोरापचपंचतां । लोपयामास तदृत्ति भूपोऽन्यस्मै ददौ च तां ॥१८४॥ ततस्तौ दुःखसंपूर्णावभिमानेन पीड़ितौ । चंपायाँ जग्मतुस्तूर्णं शिवभूतेश्च पार्वके ।।१८५।। भिषगावेदकं शास्त्रं तत्राधीत्य चिरं च तो। चिकीर्षतः पुरं गंतुं निरगातां मुदा तदा ॥१८६॥ आटतौ तौ बने घोरे व्याघ्र क्र र भयावहं । नेत्रपीड़ापरिप्राप्तमद्राष्टामगदावहौ ॥१८७॥ धनमित्र स्तदावादीद्धं व्याघ्र सुभेषजैः । करोमीक्षाक्षमं तावत्कनिष्टेन निवारितः ॥१८८।। न कर्त्तव्यं न कर्त्तव्यं त्वया भेषजमुत्तमम् । दुष्टस्य विपदायै स्यादुपकारः कृतोऽपि च ॥१८६।। इति निर्वत्तितः सोऽपि ना स्थात्तावत्क्व निष्टकः । नगमारुह्य संस्थाताऽभूच्च विज्ञानपारगः ।।१६।। मूढो ज्येष्ठो . व्यधात्तस्य नेत्रयोर्वरभेषजम् । तदा निवृत्तपीडोऽसौ बभूव वरभेषजात् ॥१६१॥ स एव तेन चाभोक्षि तस्य युक्तं महामुने । पतत्कृतोपकारस्य वद माँ पापभाजिनः ।।१६२।। कृतघ्न एव शार्दूलः श्रेष्ठिन्नात्र विचारणा । नोचितं तस्य चैतद्धि योगीत्यबीभणद्वचः ।।१६३।। शुभाशुभं कृतं घ्नंति कृतघ्नास्ते महीतले । सप्तमं नरयं यांति परमर्मप्रकाशकाः ॥१६४॥ , Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रणिक पुराणम् कथ्यमाना कथा श्रेष्ठिन् श्रोतव्यात्र मयात्वया । यथा ते यांति विश्वासं मानसं मानसं गतं ॥१६५।। कुछ दिन बाद अशुभ कर्म की कृपा से वैद्यवर अगदंकार का शरीरांत हो गया। वे धनमित्र और धनचन्द्र अनाथ सरीखे रह गये। राज्य की ओर से जो आजीविका बँधी थी राजा ने उसे भी उन्हें मुर्ख जान छीन ली। इसलिए उन दोनों भाइयों को और भी अधिक दुःख हुआ। एवं अतिशय अभिमानी किंतु अतिशय दुःखित वे दोनों भाई कुछ विद्या सीखने के लिए चम्पापुरी की ओर चल दिये। उस समय चम्पापुरी में कोई शिवभूति नाम का ब्राह्मण निवास करता था। शिवभूति वैद्य विद्या का अच्छा ज्ञाता था इसलिए वे दोनों भाई उसके पास गये। एवं कुछ काल वैद्यक शास्त्रों का भली प्रकार अभ्यास कर वे भी वैद्य विद्या के उत्तम जानकार बन गये। जब उन्होंने देखा कि हम अच्छे विद्वान् बन गए तो उन दोनों ने अपनी जन्म-भूमि बनारस आने का विचार किया एवं प्रतिज्ञानुसार वे वहाँ से चल भी दिये। मार्ग में वे आनन्दपूर्वक आ रहे थे अचानक ही उनकी दृष्टि एक व्याघ्र पर पड़ी जो व्याघ्र सर्वथा अंधा था और . आँखों के न होने से अनेक क्लेश भोग रहा था। व्याघ्र को अंधा देख धनमित्र का चित्त दया से आर्द्र हो गया। उसने शीघ्र ही अपने छोटे भाई से कहा प्रिय धनचन्द्र ! कहो तो मैं इस दीन व्याघ्र को उत्तम औषधियों के प्रताप से अभी सूझता कर दूं? यह विचारा आँखों के बिना बड़ा कष्ट सह रहा है । धनमिन की ऐसी बात सुन धनचन्द्र ने कहा नहीं भाई इसे तुम सूझता मत करो। यह स्वभाव से दुष्ट है इसके फंदे में पड़कर अपनी जान बचनी भी कठिन पड़ जायेगी। दुष्टों पर दया करने से कुछ फल नहीं मिलता। धनमित्र का काल सिर पर छा रहा था। उसने छोटे भाई धनचन्द्र की जरा भी बात न मानी और तत्काल व्याघ्र को सूझता बनाने के लिए तत्पर हो गया। जब धनचन्द्र ने देखा कि धनमित्र मेरी बात को नहीं मानता है तो वह शीघ्र ही समीपवर्ती किसी वृक्ष पर चढ़ गया और पत्तियों से अपने को छिपाकर सब दृश्य देखने लगा। धनमिन व्याघ्र की आँखों की दवा करने लगा औषधियों के प्रभाव से बात की बात में धनमित्र ने उसे सूझता बना दिया। किंतु दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते। ज्यों ही व्याघ्र सूझता हो गया उसने तत्काल ही धनमित्र को खा लिया और आनंद से जहाँ-तहाँ घूमने लगा। इसलिए हे प्रभो मुने! क्या व्याघ्र को यह उचित था जो कि वह अपने परमोपकारी दुःख दूर करने वाले धनमित्र को खा गया.? कृपया आप मुझे कहें ? सेठ जिनदत्त के मुख से ऐसी कथा सुन मुनिराज ने कहा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् जिनदत्त ! व्याघ्र बड़ा कृतघ्नी निकला निसन्देह उसने परमोपकारी धनमित्र के साथ अनुचित वर्ताव किया। तुम निश्चय समझो जो मनुष्यकृत उपकार का ख्याल नहीं करते वे घोर पापी समझे जाते हैं संसार में उन्हें नरक आदि दुर्गतियों के फल भोगने पड़ते हैं। मैं तुम्हारी कथा सुन चुका। अब तुम मेरो कथा सुनो जिससे संशय दूर हो ।। १८४ - १६५।। २५६ हस्ति हस्तिहता मित्रे विचित्रे हस्तिनागके । पत्तने पृथिवीं पाति विश्वसेनो विशिष्टधीः ॥ १६६॥ जायाऽस्य जितनागश्री: संत्रस्तहरिणीदृशा । वसुकांता सुकांतांगा पूर्णचंद्रानना परा ।। १६७।। तयोरभूत्सुतः सात वसुवृद्धिकरो वीरो निमग्न निजमानसः । वसुदत्ताभिधोऽग्रणीः ।। १६८ ।। निशांतनाथया साकं भूपो भुंक्ते सुखादिकम् । एकदा सार्थवाहेन केनचिद्भक्तिसिद्धये ॥ १६६॥ भूपतेः प्राभृतं चक्र रसालफल बीजकं । वीक्ष्य भूपोऽगदीद्वाक्यं किमेतत्प्राभृतं वद ॥ २००॥ आम्रादौ यांति सद्रोगान्पलितत्वं नराधिप । इति तस्य वचः श्रुत्वा तुतोष धरिणीपतिः ॥ २०१ ॥ मोहतो वसुकांतायै ददाविति व्यचितयत् । मया निर्व्याधिना किं वै विना राज्ञ्या च जीवितं ॥ २०२॥ महिष्येति वितर्व्याशु मया किं जीव्यमानया । भवितव्यः स्थिरः पुत्रो राज्यभारोद्धरक्षमः ॥२०३॥ ततस्तस्मै प्रदत्तं तत्तेनापि पिपृमोहतः । दत्तं पित्रै तदापृष्टं पित्रैतत्किमु भो सुत ॥२०४॥ कुतः समागतं चेति श्रुत्वा वृत्तांतमंजसा । आचख्यौ स नृपस्याग्रे तदाभूद्विस्मितोनृपः ॥२०५॥ स्त्रीषु पुत्रेषु दुर्लघ्यं दधत्स्नेहं विभेदितं । उपकारकृते राजा बीजवृद्धौ मतिं दधौ ॥ २०६ ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पूराणम् २५७ वनपालाय दक्षाय तद्बीजं च समर्पितम् । तेनोप्तं यत्नतो वेगात्पालयतांबुसेवनैः ॥२०७॥ सांद्रच्छायः क्रमेणासीत्सफलः पल्लवान्वितः । सः वृक्षः सर्वशोभाढ्यः कालात्कि २ न जायते ॥२०॥ खे गृधे सर्पमास्ये च गृहीत्वा सति गच्छति । फलस्योपरि सबिंदु विषस्य पतितं तदा ॥२०६॥ ततस्तदूष्मणा पक्वं फलमेकं मनोहरम् । वीक्ष्य तद्रक्षकस्तूर्णमादाय प्रीतिपूर्वकम् ॥२१०॥ ददौ भूपाय संवीक्ष्य सोऽपि तस्मै ददौ धनं । तत्फलं युवराजायादनाय स वितीर्णवान् ॥२११॥ चर्वणात्सोऽपि तद्भूमौ विषव्याप्तस्वविग्रहः । तदा तं तादृशं वीक्ष्य वृक्षोपरि चुकोप सः ॥२१२॥ ( समाकर्ण्य नराः केचिद्द :खजराविपीडिताः । तत्फलानि अदत्तानि बभूवुस्ते नवयौवनाः ) तदा तं खंडयामास शाखिनं फलशालिनं । सपप्रच्छ तदा वैद्यं तज्जीवनकृते लघु ॥२१३॥ विषजां विक्रियां मत्वानीय तत्फलमुल्वणं । तस्मिन्दत्ते सुखी सोऽभून्निर्मुक्त विषविग्रहः ॥२१४॥ पश्चात्तापहतो राजा पुनर्दुःखंदधौ हृदि । अपरीक्ष्य मया चैतत्कृतं किं मूढचेतसा ॥२१॥ अपरीक्ष्य च ये मूढा प्रप्लोषंति शुभाशुभं । त एव निधनं नूनं समायांति विमानसा ॥२१६॥ युक्तमतन्न वा श्रेष्ठिन् राज्ञोऽन्यस्य च दूषणे । अन्यस्य खंडनं च स्म ब्रूते नो युक्तमेव सः ॥२१७।। इसी जंबद्वीप में एक हस्तिनापुर नाम का एक विशाल नगर है किसी समय हस्तिनापुर का स्वामी अतिशय बुद्धिमान विश्वसेन राजा था। विश्वसेन की प्रिय भार्या रानी वसुकांता Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् थी। वसुकांता अतिशय मनोहरा चन्द्रवदना मृगनयनी कृशांगी एवं पूर्ण चन्द्रानना थी। राजा विश्वसेन की रानी वसुकांता से उत्पन्न एक पुत्र जो कि शुभ लक्षणों का धारक सदा, धन वृद्धि का इच्छुक, वीर, एवं सर्वोत्कृष्ट वसुदत्त था। राजा विश्वसेन ने वसुदत्त को योग्य समझ राज्यभार उसे ही दे दिया था। आनन्दपूर्वक भोग भोगते वे अपने अन्तःपुर में रहते थे। कदाचित् वे आनंद में बैठे थे उस समय कोई एक सार्थवाह मनुष्य उनके पास आया। उसने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया एवं अपनी भक्ति प्रकट करने के लिए एक आम की गुठली उनको भेंट की। राजा विश्वसेन ने गुठली तो ले ली किंतु वे उसकी परीक्षा न कर सके इसलिए उन्होंने शीघ्र ही सार्थवाह से पूछा कहो भाई यह क्या चीज है मैं इसको पहचान न सका । राजा के ऐसे वचन सुन सार्थवाह ने कहा कृपानाथ ! समस्त रोगों के नाश करने वाले आम्रफल का यह बीज है। इस देश में यह फल होता नहीं इसलिए यह अपूर्व पदार्थ जान मैंने आपकी सेवा में आकर भेंट किया है। सार्थवाह के ऐसे विनय वचनों से राजा विश्वसेन अति प्रसन्न हुए। उनका प्रेम रानी वसुकांता में अधिक था इसलिए उन्होंने यह समझ कि बिना रानी के मेरा नीरोग होना किस काम का ? चट रानी को बीज दे दिया। रानी का प्रेम पुत्र वसुदत्त पर अधिक था इसलिए उसने उठा वसुदत्त को दे दिया। जब वह आम का बीज वसुदत्त के हाथ में आया तो वे उसे जान न सके और उनका प्रेम पिता पर अधिक था इसलिए उन्होंने शीघ्र ही वह बीज पिता को दे दिया और विनय से यह प्रार्थना की कि पूज्य पिता ! यह क्या चीज है कृपाकर मुझे बताएँ ? वसुदत्त के ऐसे वचन सुन राजा विश्वसेन ने कहा प्यारे पुत्र! अमृतफल आम पैदा करने वाला यह आम का बीज है। इससे जो फल उत्पन्न होता है उससे समस्त रोग शान्त हो जाते हैं। यह फल हमें सार्थवाह ने भेंट किया है तथा ऐसा कहते-कहते उन्होंने शीघ्र ही किसी चतुर माली को बुलाया और स्त्री-पुत्र आदि के नीरोगपने की आशा से किसी उत्तम क्षेत्र में बोने के लिए उसे शीघ्र ही आज्ञा दे दी। राजा की आज्ञानुसार माली ने उसे किसी उत्तम क्षेत्र में बो दिया। प्रतिदिन स्वच्छ जल सींचना भी प्रारम्भ कर दिया। कुछ दिन बाद माली का परिश्रम सफल हो गया। वह वृक्ष उत्तमोत्तम फलों से लदबदा गया एवं वह प्रति दिन माली को आनंद देने लगा। किसी समय एक गृद्ध पक्षी आकाश मार्ग से किसी एक जहरीले सर्प को मुख में दबाये चला आ रहा था। भाग्यवश एक फल पर सर्प की विष बूंद गिर गई। विष की गर्मी से वह फल भी जल्दी पक गया। माली ने आनंदित हो फल तोड़ लिया और उसे राजा की सभा में जाकर भेंट कर दिया। राजा विश्वसेन को फल देख परमानंद हुआ। उन्होंने माली को उचित पारि Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २५६ तोषिक दे सन्तुष्ट किया एवं अपने प्रिय पुत्र को बुलाकर उसे फल खाने की आज्ञा दे दी। आम्रफल विप-बूंद से विषमय हो चुका था इसलिये ज्यों ही कुमार ने फल खाया खाते ही उसके शरीर में विष फैल गया। बात की बात में वह मूर्छित हो जमीन पर गिर गया और उसकी चेतना एक ओर किनारा कर गई। अपने इकलौते और प्रिय पुत्र वसुदत्त की यह दशा देख राजा विश्वसेन बेहोश हो गये उन्होंने वह सब कार्य आम फल का जान तत्काल उसे कटवाने की आज्ञा दे दी एवं पुत्र की रक्षार्थ शीघ्र ही राज वैद्य को बुलाया। राजवैद्य ने कुमार की नाड़ी देखी। नाड़ी में उसे विष-विकार जान पड़ा इसलिए उसने शीघ्र ही उसो आम्र फल का एक फल मँगाया और कुमार को खिलाकर तत्काल निविष कर दिया। राजा विश्वसेन ने जब आम्र फल का यह माहात्म्य देखा तो उन्हें बड़ा शोक हुआ वे अपने उस अविचारित कार्य के लिए बार-बार पश्चात्ताप (पछताना) करने लगे। और अपनी मूर्खता के लिए सहस्र बार धिक्कार देने लगे। हे जिनदत्त ! यह तुम निश्चय समझो जो हतबुद्धि मनुष्य बिना विचारे काम करते हैं उन्हें बाद में पछताना होता है। बिना समझे काम करने वाले मनुष्य निंदाभाजन बन जाते हैं। अब तुम्हीं इस बात को कहो राजा ने जो वह आम बिना विचारे कटवा दिया था वह काम क्या उसका योग्य था? मुझसे यह कथा सुन जिनदत्त ने कहा नाथ ! राजा का वह कार्य सर्वथा बेसमझ था। मैं आपको एक दूसरी कथा सुनाता हूँ आप ध्यानपूर्वक सुनें ।।१६६-२१७॥ शृणु स्वामिन्कथामेकां त्वत्तोषशुभदायिनी। जाह्नवी तटसंवासी विश्वभूत्याख्यतापसः ॥२१८॥ एकदा जाह्नवीपूरे वहतं लघुदंतिनम् । कृपार्द्रमनसा वीक्ष्य समाकार्षीच्च तापसः ॥२१६॥ फलादि निद्यसंस्तं चापोषयत्शुभलक्षणं । ववृधेऽनेकपः कालाच्चारुचिन्हः सुदंतभाक् ॥२२०॥ कदाचित्तं समालोक्य चारुचिन्हं समग्रहीत् । इच्छास्वमंदिरं भूभृत्पुपोषांकुशमादिशत् ॥२२१॥ सोऽकुशोत्थं व्रणं तावदसहिष्णुर्भयातुरः । पलाय्य तापसा वासं तापसैर्वारितो गतः ॥२२२।। वारयंस्तापसो यावद्गजोऽपि तममीमरत् । नाथ तत्तस्य युक्तं वा न वा भवति मां वद ॥२२३॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् श्रेष्ठिन्सुकृतहिंसकः । अबी भणन्मुनिर्वाचः सत्कृतं यो न जानाति भविताऽशर्मभाजनं ॥ २२४ ॥ उपकारक हंतार एकतो वधकारकाः । प्रोच्यते ते समानान मेरुसर्षप्रवद्बुधैः ।।२२५।। आख्यानकं मया कथ्यमानं शृणु वणिग्वर । चंपापुरी प्रसिद्धार्था स्वः पुरीव सुशोभना ॥ २२६ ॥ रूपादिमदमोदिनी । पण्यस्त्री देवदत्ताख्या तत्रास्ते सा कदाचिच्च शुकमेकमपोषयत् ।।२२७॥ एकदा रविवारे सा निधाय वर्त्तके सुराम् । मध्ये धामं प्रविष्टा च पक्वमालूरसुस्तनी ॥२२८ ॥ तदा काचित्प्रक्रुद्धांत: कन्यैत्य गरलं लघु । विक्षिप्य सा तिरोजाता तद्दष्टं शुकपक्षिणा ॥ २२६ ॥ देवदत्ता समागत्य ततस्तं तदऽजान ही ? यावत्पास्यति तद्भीत्या न पीत्सति कथंचन ॥ २३० ॥ पायितं च तया तावद्दिष्टांतोद्भ तसाध्वसात् शुकोऽकरत्तदा दुष्टा कोपाच्च तममीरत् ।।२३१|| किसी समय किसी गंगा किनारे एक विश्वभूति नाम का तपस्वी रहता था । कदाचित् एक हाथी का बच्चा नदी के प्रवाह में बहा चला जा रहा था । तपस्वी की अचानक ही उस पर दृष्टि पड़ गई। दयावश उसने शीघ्र ही उस हाथी के बच्चे को पकड़ लिया। वह बच्चा शुभलक्षणयुक्त था इसलिये वह तपस्वी उत्तमोत्तम फल आदि खिलाकर उसका पोषण करने लगा और चन्द रोज में ही वह बच्चा एक विशाल हाथी बन गया । कदाचित् किसी राजा की दृष्टि उस हाथी पर पड़ी उसे शुभलक्षण युक्त देख राजा ने उसे खरीद लिया और अपने महल में ले जाकर सिखाने के लिए किसी महावत के सुपुर्द कर दिया । राजा की आज्ञानुसार महावत उसे सिखाने लगा। जब वह सीखने में टालमटोल करता था तब महावत उसे मार-मार कर अंकुश से वश में करता था । इस प्रकार कुछ समय तो वह हाथी वहाँ रहा। जब उसे अंकुश बहुत दुःख देने लगा तो वह भागकर गंगा के किनारे उसी तपस्वी के पास आ गया । ज्योंही तपस्वी ने उसे देखा तो उसने भी उसे नहीं रखा मार-पीटकर वहाँ से भगा दिया। तपस्वी का ऐसा बर्ताव देख हाथी को क्रोध Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् आ गया एवं उस दुष्ट ने उस उपकारी तपस्वी को तत्काल चीरकर मार दिया । कृपानाथ ! अब आप ही कहें परोपकारी उस तपस्वी के साथ क्या हाथी का व बर्ताव योग्य था ? मैंने कहा । जिनदत्त ! वह हाथी बड़ा दुष्ट था । दुष्ट ने जरा भी अपने उपकारी की दया न की । देखो जो मनुष्य दूसरे के उपकार को भूल जाते हैं उन्हें अनेक वेदना सहनी पड़ती हैं। नरकादि गतियाँ उनके लिए सदा तैयार रहती हैं। एवं बुद्धिमान लोग स्वभाव से हिंसक और उपकारी के हिंसक में उतना ही भेद मानते हैं जितना राई और पर्वत में मानते हैं। मैं तुम्हारी कथा सुन चुका। मैं भी एक दूसरी कथा कहता हूँ तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो इस पृथ्वी पर एक चम्पापुरी नाम की सर्वोत्तम नगरी है। किसी समय कुबेरपुरी के तुल्य उस चम्पापुरी में एक देवदत्ता नाम की वैश्या रहती थी । देवदत्ता अतिशय सुन्दरी थी यदि उसके लिए देवांगना कह दिया जाता तो भी उसके लिए कम था । उसके पास एक पालतू तोता था वह उसे अपने प्राणों से भी प्यारा समझती थी । कदाचित् रविवार के दिन तोते के लिए प्याले में शराब रखकर वह तो किसी कार्यवश भीतर चली गई और इतने में ही एक लड़की वहाँ आई उसने उस शराब में विष डाल दिया और शीघ्र वहाँ से चली गई । देवदत्ता को इस बात का पता नहीं लगा वह अपने सीधे स्वभाव से बाहर आई और तोता को शराब पिलाने लगी। किंतु तोता वह सब दृश्य देख रहा था इसलिये अनेक बार प्रयत्न करने पर भी उसने शराब में चोंच तक न डाली वह चुपचाप बैठा रहा । देवदत्ता जबरन उसे शराब पिलाने लगी तो भी उसने न पिया । देवदत्ता जब और जबरन पिलाने लगी तो वह चिल्लाने लगा इसलिये देवदत्ता को क्रोध आ गया और उसने उसे तत्काल मारकर फेंक दिया। अब हे जिनदत्त ! तुम्हीं कहो देवदत्ता का वह अविचारित काम क्या योग्य था ? जिनदत्त ने उत्तर दिया उसी समय एक कुत्ता ने आकर उस विष मिश्रित शराब में मुँह डाला और बार-बार पीने लगा फिर क्या था ? उस विष मिश्रित शराब के नशे से वह कुत्ता शीघ्र ही जमीन पर गिर गया, यह देख देवदत्ता बहुत पछताई ।।२१८ - २३१।। २६१ ( तदा श्वनः समागत्य लिह्यमानो मुहुर्मुहुः । पतद्भ ू म मौ तया वीक्ष्य पश्चात्तापहता च सा ) ॥२३२॥ उरजेत्थमिदं युक्तमविचार्यं विधातु मा । तस्याभवेन्न वासौपिजगौ नोयुक्तमेव च ।।२३३॥ मज्जं कथानकं नाथ श्रोतव्यं श्रुतितोषदम् । वाराणस्यां प्रसिद्धायां जांबूनदसुधामनि ॥ २३४॥ वसुदत्ताभिधो वैश्यो धनेभ्यो वसति स्फुटं । स्वर्णमुक्ताफलादीनां व्यवहारी च तुंदुलः ||२३५|| Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् वसुदत्ताभिधा जाया तस्य चित्तापहारिणी । एकदा चाषणे नीत्वा लाभं संहृत्य सोद्यतः ॥२३६।। क्षपायां सर्वमादाय गृहं पित्सति वैश्यकः । तावद्दस्युः पलाय्याशु श्रेष्ठिन: शरणं ययौ ।।२३७।। रक्ष रक्षेति मां नाथमार्यमाणं कृपाद॑धीः । इति वाचालमावीक्ष्य वस्त्रेण पिहितस्तकैः ।।२३८।। धावंत: कोट्टपालाश्च पप्रच्छु: श्रेष्ठिनं प्रति । स्थूलोन्नतोदरं मन्यमानाश्चौराद्यवर्त्तनं ।।२३६।। पिचंडिलं समावीक्ष्य परावर्त्य च ते गताः । तत्र क्रमेण तद्वित्तं गृहीत्वा तस्करो गतः ।।२४०।। दधौ चित्ते वणिग्नाथः किमनिष्टं मया कृतं । अस्यानेनेति किं कृतं यः खलः खल एव सः ।।२४१॥ योगिन्युक्तं न वा तस्यै तत्तदा वचनं जगौ । मुनिविश्वासघाती स चौरो नारकमार्गगः ॥२४२॥ नाथ ! यदि देवदत्ता ने ऐसा काम किया तो परम मूर्खा समझनी चाहिये । मैं अब आपको तीसरी कथा सुनाता हूँ कृपया उसे ध्यानपूर्वक सुनें। इसी लोक में एक अतिशय मनोहर एवं प्रसिद्ध बनारस नाम की नगरी है। किसी समय बनारस में कोई वसुदत्त नाम का सेठ निवास करता था। वसुबत्त उत्तम दर्जे का व्यापारी धनी था सूवर्ण निर्मित मकान में रहता था और बड़ा तुंदिल (बड़ी थोंदि का धारक) था। वसुदत्त की प्रिय भार्या का नाम वसुदत्ता था। वसुदत्ता बड़ी चतुर थी। विनयादि गुणों से अपने पति को संतुष्ट करने वाली थी। और मनोहरा थी। कदाचित् उसी नगरी में एक चोर किसी के घर में चोरी के लिये गया। उस समय उस घर के मनुष्य जग रहे थे इसलिये चोर को उन्होंने देख लिया। देखते ही चोर भगा। भागते समय उसके पीछे बहुत-से मनुष्य थे इसलिये घबराकर वह सेठ सुभद्रदत्त के घर में घुस गया और सुभद्रदत्त से इस प्रकार विनय वचन कहने लगा कृपानाथ ! मुझे बचाइये मैं मरा। चोर के ऐसे वचन सुन सुभद्रदत्त को दया आ गई। उसने चोर को शीघ्र ही अपने कपड़ों में छिपा लिया। कोतवाल आदि सेठजी के पास आये। सेठजी से चोर के बाबत पूछा भी तो भी सेठजी ने कुछ जबाब न दिया। जहाँ-तहाँ सभी ने चोर देखा कहीं दिखाई नहीं दिया किंतु सेठजी की बड़ी थोंदि के नीचे ही वह छिपा रहा। इसलिये वे सब Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् के सब वापस लौट गये। जब विघ्न शांत हो गया तब चोर को जाने की आज्ञा दे दी तथा यह समझ कि चोर चला गया वे अपने किवाड़ बंद कर सो गये। किंतु वह दुष्ट उसी घर में छिप गया और दाव पाकर मालमत्ता लेकर चला गया । प्रातःकाल सेठ सुभद्रदत्त की आँख खुली। अपनी चोरी देख उन्हें परम दुःख हुआ । वे कहने लगे मैंने तो उस दुष्ट चोर की रक्षा की थी किंतु उस दुष्ट ने मेरे साथ भी यह दुष्टता की । यह बात ठीक है दुष्ट अपनी दुष्टता कदापि नहीं छोड़ते तथा ऐसा कुछ समय सोच-विचार कर वे शान्त हो गये। इसलिये हे मुनिनाथ ! आप ही कहें क्या उस चोर का सेठ सुभद्रदत्त के साथ वैसा बर्ताव ठीक था ? मैंने उत्तर दिया । सर्वथा अनुचित । उसने सेठ सुभद्रदत्त के साथ बड़ा विश्वासघात किया । वह चोर बड़ा पापी और कुमार्गी था । इसमें जरा भी सन्देह नहीं । अब मैं भी तुम्हें कथा सुनाता हूँ मुझे विश्वास है अब की कथा से तुम्हें जरूर सन्तोष होगा तुम ध्यानपूर्वक सुनो ।।२३२-२४२ ॥ मन्मुखोद्गीर्णमेकं च व्याख्यानं शृणुतोषदं । अनंगरंगसंसर्गो वंगदेशोऽत्र वर्त्तते ।। २४३|| जाती सुकंदपंकेज केतकीचंपकादिभिः । भृता चंपापुरी तत्र चंपकाभनरैर्भृता ॥२४४॥ विप्रो वेदादिसंवेत्ता सोमशर्माभिधो धनी । आस्तां द्वे वल्लभे तस्य सोमिल्लासोमशर्मिका ॥ २४५॥ सौमिल्यायाः सुभामिन्याः पराकारः सुतोऽजनि । तदा भर्त्रादि सन्मानं संगता सा सुसंगता || २४६ || विद्वेषयति सोमश्रीद्वितीया तां मर्मभिद्वचनस्यै कल है: अथास्ति सौरभेयश्वभद्रनामा शांतस्तत्र ततस्तस्मै दत्ते ग्रासं वाडवस्य गृहद्वार युपविष्टस्य श्रृंगे स बालकः प्रोतो दुष्टया तदा चीत्कारमा कुर्वन् शिशुर्म प्रोतबालं च मरणेसति दृषभं सपत्निकाम् । कोपभाषणैः ।।२४७॥ सुशीलभृत् । जनोऽखिलः || २४८ || तस्य च । सोमशर्मया ॥ २४६ ॥ क्षणांतरे । दोषवर्जितं ॥ २५० ॥ २६३ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् सदोषमिति तं मत्वा तदा प्रभृति सजनाः । तस्मै तृणादि सद्ग्रासं ददते न कदाचनं ॥२५१।। ततो निर्घाट्यमानः स सचितः क्षीणविग्रहः । सहिष्णु रकृतं दोष हृदीति समतर्कयत् ।।२५२।। अहो ! दुर्लक्ष्यमेकं च स्त्रीचरित्रं विचित्रगं । देवानां योगिनां लोकेऽन्येषांनृणां कथं न हि ।।२५३।। कुर्वते योषितो नूनं कृतास्याकृतमेव च । उक्तं चानुक्तमेवात्र तच्च ते पापपंडिताः ।।२५४।। वादयंति नरं चान्यं वदंत्यन्यं स्वयं मुखे । ईक्षतेऽन्यं विकुर्वति विक्रियां कामलक्षितां ॥२५५।। आकारयंति चान्यं चा श्लिष्यंत्यन्यं कटाक्षतः । घातयंतेऽन्यमानिद्राः करोत्क्षेपं विकुर्वते ॥२५६।। अटत्यन्यत्र दृश्यतेऽन्यत्रान्यस्मै ददत्यपि । अन्यत्र याचयंते च दुर्लक्ष्या योषितो भुवि ।।२५७।। नाम्नेयमबला लोके न तु कृत्या कदाचन । कटाक्षाक्षेपतः सर्वं चालयति चलाचलं ॥२५८। शीततां वह्निराप्नोति सोष्णतां पद्मबांधवः । उदेति पश्चिमे सूर्यो ब्रते सत्यं न योषिता ।।२५६।। मुंचंति जननी तातं बांधवं वस्तु सद्म च ।। जन्मस्थानं नरा सक्ता योषितो दोष दूषिताः ॥२६०॥ कलंकयंति सद्गोत्रं सीमंतन्यः पराङ मखाः । साहसंति स्वघातार्थं घातयंति परं क्षणात् ॥२६१।। हित्वा वने गताः पूर्वं योगिनो योगपंडिताः । प्रतापदशिनीं तद्धि समीचीनं कृतं तकः ॥२६२॥ कापट्यपात्रमैवात्रानृतवाचालपंडिताः सदोषाः प्रत्ययतीता मदनैः कवलीकृताः ॥२६३॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् रोधनं स्वर्गमार्गस्य दर्शयंत्यश्च दुर्गतिं । ससाहसाः सदा पापाः संति बाला बलोद्धताः ॥२६४॥ इसी लोक में कामदेव का रंगस्थल अतिशय मनोहर एक वंग देश है। वंग देश में एक चंपापुरी नाम की नगरी है। चंपापुरी में जातीय मुकुंद केतकी चंपा आदि के वृक्ष सदा हरे-भरे फले-फूले रहते हैं और सदा उत्तम मनुष्य निवास करते हैं। चंपापुरी में एक ब्राह्मण, जो कि भले प्रकार वेद-वेदांग का पाठी और धनी सोम शर्मा था सोम शर्मा की अतिशय रूपवती दो स्त्रियाँ थीं प्रथम स्त्री सोमिल्ला और दूसरी का नाम सोममिका था। भाग्योदय से सुन्दरी सोमिल्ला के एक अतिशय रूपवान पुत्र उत्पन्न हुआ। सोमिल्ला को पुत्रवती देख सोम शर्मा उस पर अधिक प्रेम करने लगा और सोममिका की ओर से उसका प्रेम कुछ हटने लगा। स्त्रियाँ स्वभाव से ही ईर्ष्या-द्वेष की खानि होती हैं यदि उनको कुछ कारण मिल जाय तब तो ईर्ष्या-द्वेष करने में वे जरा भी नहीं चूकती ज्यों ही सोममिका को यह पता लगा कि मेरा पति मुझ पर प्रेम नहीं करता सोमिल्ला को अधिक चाहता है मारे क्रोध के वह भभक उठी। वह उसी दिन से सोमिल्ला से मर्मभेदी वचन कहने लगी। हास्य और कलह करना भी प्रारम्भ कर दिया यहाँ तक कि सोमिल्ला के अहित करने में भी वह न डरने लगी। उसी नगरी में एक भद्र नाम का बैल रहता था। भद्र सुशील और शांत प्रकृति का धारक था इसलिये समस्त नगर निवासी उस पर बड़ा प्रेम करते थे। कदाचित् भद्र (बैल) ब्राह्मण सोम शर्मा के दरवाजे पर खड़ा था ब्राह्मणी सोममिका की उस पर दृष्टि पड़ी उसने शीघ्र ही अपनी सौत सोमिल्ला का बालक ऊपर अटारी से बैल के सींग पर पटक दिया एवं सींग पर गिरते ही रोता हुआ वह बालक शीघ्र मर गया। नगर निवासियों को बालक की इस प्रकार मृत्यु का पता लगा। वे दौड़ते-दौड़ते शीघ्र ही सोम शर्मा के यहाँ आये। बिना विचारे सभी ने बालक की मृत्यु का दोष विचारे बैल के मत्थे पर ही मढ़ दिया। जो बैल को घास आदि खिलाकर नगर निवासी उसका पालन-पोषण करते थे सो भी छोड़ दिया। और मारपीट कर उसे नगर से बाहर भगा दिया जिससे वह बैल बड़ा खिन्न हुआ और बिल्कुल लट गया। तथा किसी समय अतिशय दुःखी हो वह ऐसा विचार करने लगा। हाय !!! इन स्त्रियों के चरित्न बड़े विचित्र हैं। बड़े-बड़े देव भी जब इनका पता नहीं लगा सकते तो मनुष्य उनके चरित्र का पता लगा लें यह बात अति कठिन है। ये दुष्ट स्त्रियाँ निकृष्ट काम कर भी चट मुकर जाती हैं और मनुष्यों पर ऐसा असर डाल देती हैं मानो हमने कुछ किया ही नहीं ये मायाचारिणी महा पापिनी हैं। दूसरों द्वारा कुछ और ही कहवाती हैं और स्वयं कुछ और ही कहती हैं। ये कटाक्षपात किसी और पर फेंकती हैं इशारे किसी अन्य की ओर करती हैं। और आलिंगन किसी दूसरे से ही करती हैं। तथा वस्तु का वायदा तो इनका किसी दूसरे के साथ होता है और वे किसी दूसरे को बैठती हैं। कवियों ने जो इन्हें अबला कहकर पुकारा है सो ये नाम से ही अबला (शक्तिहीन) हैं काम से अबला नहीं। जिस समय ये कर काम करने का बीड़ा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् उठा लेती हैं तो उसे तत्काल कर डालती हैं। और अपने कटाक्षपातों से बड़े-बड़े वीरों को भी अपना दास बना लेती हैं। चाहे अतिशय उष्ण भी अग्नि शीतल हो जाय शीतल भी चन्द्रमा उष्ण हो जाय। पूर्व दिशा में उदित होने वाला सूर्य भी पश्चिम दिशा में उदित हो जाय किंतु स्त्रियाँ झूठ छोड़ कभी भी सत्य नहीं बोल सकतीं। हाय ! जिस समय ये दुष्ट स्त्रियाँ पुरुष में आशक्त हो जाती हैं उस समय अपनी प्यारी माता को छोड़ देती हैं। प्राण प्यारे पुत्र की भी परवा नहीं करतीं परम स्नेही कुटुंबीजनों का भी लिहाज नहीं करतीं। विशेष कहाँ तक कहा जाय अपनी प्यारी जन्मभूमि को छोड़ परदेश में भी रहना स्वीकार कर लेती हैं। ये नीच स्त्रियाँ अपने उत्तम कुल को भी कलंकित बना देती हैं। पति आदि से नाराज हो मरने का भी साहस कर लेती हैं। और दूसरों के प्राण लेने में भी जरा नहीं चूकतीं। अहा !!! जिन योगीश्वरों ने स्त्रियों की वास्तविक दशा विचार कर उनसे सर्वथा के लिये सम्बन्ध छोड़ दिया है। स्त्रियों की बात भी जिनके लिये हलाहल विष है वे योगीश्वर धन्य हैं। और वास्तविक आत्मस्वरूप के जानकार हैं। हाय !!! ये स्त्रियाँ छल-कपट दगाबाजी की खान हैं। विश्वास के अयोग्य हैं। चौतर्फा इनके शरीर में कामदेव व्याप्त रहता है। मोक्ष द्वार के रोकने में ये अर्गल (बेड़ा) हैं। स्वर्ग मार्ग को भी रोकने वाली हैं। नरकादि गतियों में ले जाने वाली हैं दुष्कर्म करने में बड़ी साहसी हैं। इत्यादि अपने मन में संकल्प विकल्प करता-करता वह भद्र नाम का बैल वहीं रहने लगा ॥२४३-२६४॥ इति संचित्यमानोऽसौ यावदास्ते वणिग्वर । जिनदत्तोऽथ तत्रास्ति जायातस्य जिने मतिः ॥२६।। जिनधर्मापरा चारा सुशीला सुव्रता शुभा । दानपूजन सन्मार्गरक्ता सक्ता निजे धवे ॥२६६।। अशभोदयतस्तया जनैः परनरोद्भवः ।। दोषो दत्तस्तदा सापि व्याकुलीभूतमानसा ॥२६७॥ आत्मशुद्धिकृते दिव्यगृहे तप्तसुफालकं । धारणार्थं स्थिता तावद्भद्रस्तत्र समाटितः ॥२६८॥ तप्तायः पिंडमाकृष्य दंतैर्जग्रास भद्रकः । स्वशुद्धिं दर्शयल्लोकान् शुद्धोऽभूद्बुद्धमानसः ॥२६६ ।। तदा लोकविशुद्धात्मा विज्ञायि सविशेषतः । पुनर्जयार वंचक्रुः सर्वे निश्चितमानसाः ॥२७०।। सापि शुद्धा पुनर्जज्ञे तप्तायः फलसंग्रहात् । अन्यस्य दूषणेऽन्यस्य दोषो नोयुक्त एव भोः ॥२७१।। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् अविचार्य प्रदोषादिदानं युक्तं न वा वणिक् । सोऽवादीन्नैव नाथेत्थं युक्तं च विपरीक्षतं ॥२७२।। उसी नगरी में कोई जिनदत्त नाम का सेठ निवास करता था जिनदत्त समस्त वणिकों का सरदार और धर्मात्मा था। जिनदत्त की प्रिय भार्या सेठानी जिनमती थी। जिनमती परम धर्मात्मा थी। शीलादि उत्तमोत्तम गुणों की भंडार थी और अति रूपवती थी। पतिभक्ता एवं दान आदि उत्तमोत्तम कार्यों में अपना चित्त लगाने वाली थी। सेठ जिनदत्त और जिनमती आनन्द से रहते थे। अचानक ही जिनमती के अशुभ कर्म का उदय प्रकट हो गया। उस विचारी को लोग कहने लगे कि यह व्यभिचारिणी है। निरन्तर परपुरुषों के यहाँ गमन करती है इसलिये वह मन में अतिशय दुःखित होने लगी। उसे अति दुःखी देख कई एक पुरुष उसके यहाँ आये और कहने लगे जिनमती ! यदि तुझे इस बात का विश्वास है कि मैं व्यभिचारिणी नहीं हूँ तो तू एक काम कर तपा हुआ लोहे का पिंड अपने हाथ पर रख। यदि तू व्यभिचारिणी होगी तो तू जल जायेगी नहीं तो नहीं। नगर निवासियों की बात जिनमती ने मान ली। किसी दिन वह सर्वजनों के सामने अपने हाथ में तपा हुआ लोहे का पिंड लेना ही चाहती थी कि अचानक ही वह भद्र नाम का बैल भी वहाँ आ गया। वह सब समाचार पहले से ही सुन चुका था इसलिये आते ही उसने तप्त लोहे का पिंड अपने दाँतों में दबा लिया। बहुत काल मुख में रखने पर वह जरा भी न जला एवं सभी को प्रकट रीति से यह बात बतला दी कि ब्राह्मण सोम शर्मा का बालक मैंने नहीं मारा । मैं सर्वथा निर्दोष हूँ। भद्रक की यह चेष्टा देख नगर निवासी मनुष्यों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कुछ दिन पहले जो वे बिना विचारे भद्रक को दोषी मान चुके थे वही भद्रक अब उनकी दृष्टि में निर्दोष बन गया। अब वे भद्रक की बार-बार तारीफ करने लगे। उनके मुख से उस समय जयजयकार शब्द निकले। तथा जिस प्रकार भद्रक ने उस प्रकार का काम कर अपनी निर्दोषता का परिचय दिया था। जिनमती ने भी उसी प्रकार दिया बेधड़क उसने तप्त पिंड को अपनी हथेली पर रख लिया जब उसका हाथ न जला तो उसने भी यह प्रकट रीति से बतला दिया कि मैं व्यभिचारिणी नहीं हूँ। मैंने आज तक पर-पुरुष का मुंह नहीं देखा है। मैं अपने पति की सेवा में ही सदा उद्धत रहती हैं। और उसी को देव समझती हैं। जिससे सब लोग उसकी मुक्त कंठ से तारीफ करने लगे और उसकी आत्मा को भी शांति मिली। इसलिये जिनदत्त ! तुम्हीं बताओ भद्रक और जिनमती पर जो दोषारोपण किया गया था वह सत्य था या असत्य ? जिनदत्त ने कहा कृपानाथ ! वह दोषारोपण सर्वथा अनुचित था। बिना विचारे किसी को भी दोष नहीं देना चाहिये जो लोग ऐसा काम करते हैं वे नराधम समझे जाते हैं। दीनबन्धो ! मैं आपकी कथा सुन चुका अब आप कृपया मेरी भी कथा सुनें ॥२६५-२७२॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् वृत्तांतं कथ्यमानं भो श्रोतव्यं च मया त्वया । पुरे पद्मरथे राजा वसुपालाभिधोऽग्रणीः ।।२७३।। अयोध्याधिपतेविप्रो जितशत्रोश्च संनिधि । राजकार्यकृते कश्चित्प्रेषितस्तेन सत्वरं ॥२७४।। सत्पृथिव्यामटन् विप्रो पश्यन्मानुषसंभवम् । शाखामगादिचीत्कारं कर्णयन्कर्णभीतिदं ॥२७५।। कदाचिच्छम संक्रांतः सलिलाऽभावतो द्विजः । पिपासापीडितो वृक्षतले संपतितोऽसुखी ॥२७६।। तद्धावं च परिज्ञाय कीशनाथेन दर्शितम् । जलं प्रविपुलं दृष्टं इति विप्रो व्यतर्कयत् ॥२७७।। महारण्य नराऽगम्ये स्याज्जलं सः संतोषभरः । न वेमाति विधि मत्वाऽमीमरद्वानरं द्विजः ॥२७८।। तस्याजिनस्य संकृत्य खल्लिकां पापकोविदः । प्रपूर्य वारिभिर्वेगात्समनैषीन्महीसुर ॥२७६।। पंचत्वकरणं तस्य युक्तं नो वाऽथवा मने । इत्युदीर्य विरक्तेऽसौ सुनिः प्राख्यद्वचो वरं ॥२८०॥ अधमेष्वधमत्वं च शठेषु शठता वणिक् । सर्वपापिषु पापित्वं सर्वनीचेषु नीचता ॥२८१।। विश्वासघात यै नो द्वितीयं तद्विघात । तस्य नारकसंदायि व्यपायफलभाजिनः ॥२८२॥ चिच्चमत्कार चातुर्यं वृत्तांतंशृणु मगिरा । कोशांबी नगरी भाति मारोद्दीपितविभ्रमा ॥२८३।। सोमशर्माभिधस्तत्र वाडवस्तस्य भामिनी। कपिला च कपित्थाभस्तनौ मारार्त्तविग्रहा ॥२८४॥ अटन्वनं कदाचित्सोऽपश्यन्नकुलबालकं । समादाय गृहं चागात्प्रफुल्लवदनेक्षणः ॥२८५।। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् सः । कपिलाया अपुत्रायाः कालनिर्गमनाय समर्पितस्तकेनाशु गृहीतश्च तया पुनः ॥ २८६ ॥ संज्ञा च व्यवहारं च सा शिक्षत मनोहरम् । तस्य दत्तसुनाम्नश्च पुत्र संकल्पभागिनः ॥ २८७॥ सुतोऽजनि तया दैवाद्दिनैः कतिपयैः पुनः । तौ दंपती मुदं प्राप्तौ मन्यमानौ सुसंभवं ॥२८८॥ दोलके शयनं तस्य कारयित्वा शिशोः सिका । नकुलस्य समशु बहिस्तंदुल खंडने ॥ २८६॥ सा योग्रास स्थिता तावद्बालकाभिमुखं परं । समात महिं वीक्ष्य नकुलस्तं युयोध च ॥ २६०॥ बलात्तौ क्रुद्धमानस्कौ फूचीत्कारपरायणौ । तौ युयुध्य चिरं नागं नकुलोऽमीमरंस्ततः ॥२६१॥ श्रक् लिप्तास्यं मुदा तस्या आगत्यादर्शयत्तदा । पंचत्वं मे सुतो नीतोऽनेन सा निश्चयं व्यधात् ॥२६२॥ ऋधा तं मुशलैः सा च व्याजघान मदोद्धता । ततो दोलास्थितं बालं विदारितभुजंगमं ॥ २६३॥ गृहे वीक्ष्य शुचा क्रांता विललाप चिरं हृदि । अविचारितकर्त्तव्यं तस्यायुक्तं न वा वणिक् ॥ २६४॥ २६६ इस लोक में एक पद्मरथ नाम का नगर है। किस समय पद्मरथ नगर में राजा वसुपाल राज्य करता था । कदाचित् राजा वसुपाल को अयोध्या के राजा जितशत्रु से कुछ काम पड़ गया इसलिए उसने शीघ्र ही एक चतुर ब्राह्मण उसके समीप भेज दिया । ब्राह्मण राजा की आज्ञानुसार चला। चलते-चलते वह किसी अटवी में जा निकला वह अटवी बड़ी भयावह थी । अनेक क्रूर जीवों से व्याप्त थी । कहीं पर वहाँ पानी भी नजर नहीं आता था । चलते-चलते वह भी थक चुका था । प्यास से भी अधिक व्याकुल हो चुका था इसलिये प्यास से व्याकुल हो वह उसी अटवी में किसी वृक्ष के नीचे पड़ गया और मूर्च्छित-सा हो गया । भाग्यवश वहाँ एक बन्दर आया । ब्राह्मण की वैसी चेष्टा देख उसे दया आ गई वह यह समझ कि प्यास से इसकी ऐसी दशा हो रही है, शीघ्र ही उसे एक विपुल जल से भरा तालाब दिखाया और एक ओर हट गया । ज्यों ही ब्राह्मण ने विपुल जल से भरा तालाब देखा तो उसके आनन्द का ठिकाना न रहा वह शीघ्र उसमें उतरा अपनी प्यास बुझाई और इस प्रकार विचार करने लगा । यह अटवी विशाल अटवी है। शायद आगे इसमें पानी मिले या न मिले इसलिये यहीं से पानी ले चलना ठीक है । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् मेरे पास कोई पात्र है नहीं इसलिये इस बंन्दर को मारकर इसकी चमड़ी का पात्र बनाना चाहिये । बस फिर क्या था ? विचार के साथ ही उस दुष्ट ने शीघ्र ही उस परोपकारी बन्दर को मार दिया और उसकी चमड़ी में पानी भरकर अयोध्या की ओर चल दिया । कृपानाथ ! अब आप ही कहें क्या उस दुष्ट ब्राह्मण का परोपकारी उस बंदर के साथ वैसा बर्ताव उचित था ? मैंने कहा २७० सर्वथा अनुचित | वास्तव में वह ब्राह्मण बड़ा कृतघ्नी था । उसे कदापि उस परोपकारी बंदर के साथ वैसा बर्ताव करना उचित न था । जिनदत्त ! तुम निश्चय समझो जो पापी मनुष्य किये उपकार को भूल जाते हैं संसार में उन्हें अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं कोई मनुष्य उन्हें अच्छा नहीं कहता। अब मैं भी तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो इस जंबूद्वीप में एक कौशांबी नाम की विशाल नगरी है। कौशांबी नगरी में कोई मनुष्य दरिद्र न था सब धनी सुखी एवं अनेक प्रकार के भोग भोगनेवाले थे। उसी नगरी में किसी समय एक सोम शर्मा नाम का ब्राह्मण निवास करता था । उसकी स्त्री का नाम कपिला था । कपिला अतिशय सुन्दरी थी मृग नयनी थी काम मंजरी एवं रति के समान मनोहरा थी । कदाचित् सोम शर्मा को किसी कार्यवश किसी वन में जाना पड़ा। वहाँ एक अतिशय मनोहर नौले का बच्चा उसे दीख पड़ा । और तत्काल उसे पकड़ अपने घर ले आया । कपिला के कोई सन्तान न थी । बिना सन्तान के उसका दिन बड़ी कठिनता से कटता था इसलिये जब से उसके घर में वह बच्चा आ गया पुत्र के समान वह उसका पालन करने लगी। और उस बच्चे से उसका दिन भी सुख से व्यतीत होने लगा। दुर्भाग्य के अन्त हो जाने पर कपिला के एक पुत्र उत्पन्न हुआ । पुत्र की उत्पत्ति से कपिला के आनन्द का ठिकाना न रहा । सोम शर्मा और कपिला अब अपने को परम सुखी मानने लगे । और आनन्द से रहने लगे । कपिला का पति सोम शर्मा किसान था । इसलिए किसी समय कपिला को धान काटने के लिए खेत पर जाना पड़ा। वह बच्चे को पालने में सुलाकर और नौले को उसे सुपुर्द कर शीघ्र ही खेत को चली गई। उधर कपिला का तो खेत पर जाना हुआ और इधर एक काला सर्प बालक के पालने के पास आया । ज्यों ही नौला की दृष्टि काले सर्प पर पड़ी वह एकदम सर्प पर रूर पड़ा और कुछ समय तक चू चू फू-फू शब्द करते हुए घोर युद्ध होने लगा । अन्त में अपने पराक्रम से नौला ने विजय पा ली और उस सर्पराज को तत्काल यमलोक का रास्ता बता दिया तथा वह बलिक के पास बैठ गया । I कपिला अपना कार्य समाप्त कर घर आई । कपिला के पैर की आहट सुन नौला शीघ्र ही कपिला के पास आया और कपिला के पैरों में गिर उसकी मिन्नत करने लगा । नौले का सर्वांग उस समय लोहू-लुहान (रक्तमय ) था इसलिए ज्यों ही कपिला ने उसे देखा इसने अवश्य मेरे पुत्र को मारकर खाया है यह समझ मारे त्रोध के उसका शरीर भभक उठा और बिना विचारों उस दिन नौले को मारे मूसलों के देखते-देखते यमपुर पहुँचा दिया। किंतु ज्यों ही उस बालक के पास आई। और ज्यों ही उसने बालक को सकुशल देखा उसके शोक का ठिकाना न Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २७१ रहा। नौले की मृत्यु से उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई और माथा धुनने लगी। जिनदत्त ! कहो उस ब्राह्मगी का वह अवि वारित कार्य योग्य था या अयोग्य? मेरे ऐसे वचन सुन जिनदत्त ने कहा ॥२७३-२६४॥ अबीभणत्तदा श्रेष्ठी नोचितं सोचितं प्रभो। आख्यानकं प्रवक्ष्यामि वृद्धाख्यानप्रसिद्धितः ॥२६॥ काशीदेशे शुभावेशे वाराणस्यां पुरि प्रभो । सोमशर्माभिधो विप्रः सोमा तस्यास्तिभामिनी ॥२६६।। छद्मना निज भर्तारं वंचयंती विशेषतः ।। पतिव्रतत्वमारीच्च तन्वती पापपंडिता ॥२६७।। विश्वासयति भर्तारं सा शुभाचरणः सदा । कटाक्षाक्षेपमात्रेण रंजयंती सुलोचना ॥२६८।। गते भर्तरि सद्ग्रामे तया गोपालकैः सह । यभनं कारितं पापात्पंचाक्षप्रीतिकारणम् ॥२६६॥ आगते सति सद्ग्रामे तेन दृष्टया तदीक्षित । विरज्य वेणुयष्टौ च स्वर्णं निक्षिप्य वाडवः ।।३००॥ गृहान्निर्गत्य यात्रार्थं चचाल दृढयष्टिकः । वटुकस्तं प्रणम्याशु मिलित्वा शिष्यतां गतः ॥३०॥ सवित्तां तां परिज्ञाय चचाल वाडवैः सम । एकदा तौ सुषुपतुः कुंभकार गृहे निशि ॥३०२।। प्रातः प्रागत्य सन्मार्ग कियंतं वटुकोऽब्रवीत् । अदत्तं तृणमायातं मूर्द्ध वलग्नं च तद्गृहात् ॥३०३॥ हा हाऽनिष्ट मिदं जातं परतृणसमाश्रयात् । तदेनोऽहं कथं विप्र तितिक्षे क्षिप्तमानसः ॥३०४॥ यस्मादागतमेतद्धि तत्र मुंचामि निश्चितं । इत्युदीर्य सरंध्रेण व्यावृतो विप्रवंचकः ॥३०५।। एकस्मिन् पत्तने विप्रो बुभुजे जेमनं गृहे । ज्ञेयं वटुकसंभुक्त्यै रक्षयत्वरभोजनं ॥३०६।। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तस्थौ मठे महीदेध एकस्मिन्निशिवंचकः । वटुकश्चागतस्तत्र तदा विनतमस्तकः ॥३०७।। भोक्तुं प्रस्थापितस्तेन वटुकः कृपया निशि । कियदंतरमासाद्य व्याघुट्य बटुको जगौ ।।३०८।। कुर्कुराः शब्दवाचालाश्चविष्यंति च मां प्रभो। नयामीति स्थितस्तत्र पर वंचनमानसः ॥३०६।। तदा तद्रक्षणायैव विप्रस्तस्मै ददौ च तां । स आदाय जगामेत्थं वृद्धस्तेन च वंचितः ।।३१०॥ स्वामिस्तस्योचितं नो वा तदा प्राख्यद्यमी हसन् । न युक्तं युक्तमेकं च व्याख्यानं कथयामि वः ॥३११।। कृपानाथ ! ब्राह्मणी का वह काम सर्वथा अयोग्य था। बिना विचारे जो मदान्ध हो काम कर डालते हैं उन्हें पीछे बहुत पछताना पड़ता है। मैं भी पुन: आपको कथा सुनाता हूँ आप ध्यानपूर्वक सुनिये। इसी द्वीप में एक विशाल बनारस नाम की उत्तम नगरी है। किसी समय बनारस में एक सोम शर्मा नाम का ब्राह्मण निवास करता था। सोम शर्मा की स्त्री का नाम सोमा था सोमा अतिशय व्यभिचारिणी थी। पति से छिपाकर वह अनेक कटु दुष्कर्म किया करती थी। किंतु अपने मिष्ट वचनों से पति को अपने दुष्कर्म का पता नहीं लगने देती थी। और बनावटी सेवा आदि कार्यों से उसे सदा प्रसन्न करती रहती थी। कदाचित् सोम शर्मा तो किसी कार्यवश बाहर चला गया और सोमा अपने यार-गोपालों को बुलाकर उनके साथ सुखपूर्वक व्यभिचार करने लगी। किंतु कार्य समाप्त कर ज्यों ही सोमशर्मा घर आया और ज्यों ही उसने सोमा को गोपालों के साथ व्यभिचार करते देखा तो उसे परम दुःख हुआ। वह एकदम घर से विरक्त हो गया। एवं बाँस की लाठी में कुछ सोना छिपाकर तीर्थ-यात्रा के लिए निकल पड़ा मार्ग में वह कुछ दूर पहुँचा था अचानक ही उसकी एक मायाचारी बालक से भेंट हो गई। बालक ने विनयपूर्वक सोम शर्मा को प्रणाम किया। उसका शिष्य बन गया एवं यह विचार कि इस सोम शर्मा के पास धन है वह सोम शर्मा के साथ चल भी दिया। मार्ग में चलते-चलते उन दोनों को रात हो गई इसलिये वे दोनों किसी कुम्हार के घर ठहर गये वहाँ रात बिताकर सबेरे चल भी दिये। चलते समय बालक महादेव के सिर से कुम्हार का छप्पर लग गया और एक तृण उसके सिर से चिपका चला गया। वे कुछ ही दूर गए थे कि Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २७३ बालक ने अपना सिर टटोला उसे एक तृण दिखाई दिया। तथा तुण देख वह मायाचारी बालक ब्राह्मण से इस प्रकार कहने लगा गुरो ! चलते समय कुम्हार के छप्पर का यह तृण मेरे लिपटा चला आया है। मैं इसे वहाँ पर पहुँचाना चाहता हूँ। उत्तम किंतु कुलीन मनुष्यों को पर-द्रव्य ग्रहण करना महापाप है। मैं बिना दिये पर-पदार्थ-जन्य पाप को सहन नहीं कर सकता कृपाकर आप मुझे आज्ञा दें मैं शीघ्र लौटकर आता हूँ। तथा ऐसा कहता-कहता चल भी दिया। ब्राह्मण ने जब देखा बटुक चला गया तो वह भी आगे किसी नगर में जाकर ठहर गया। उसने किसी ब्राह्मण के घर भोजन किया एवं उस ब्राह्मण को अपने शिष्य के लिए भोजन रख छोड़ने की भी आज्ञा दे दी। कुछ समय पश्चात ढूंढ़ता-ढूंढ़ता वह बालक भी सोम शर्मा के पास आ पहुँचा । आते ही उसने विनय से सोम शर्मा को नमस्कार किया और सोम शर्मा की आज्ञानुसार वह भोजन करके चल दिया। वह बटुक चित का अति कटुक था इसलिए ज्यों ही वह थोड़ी दूर पहुँचा तत्काल उसने ब्राह्मण का धन लेने के लिए बहाना बनाया और पीछे लौटकर इस प्रकार विनयपूर्वक निवेदन करने लगा। प्रभो ! मार्ग में कुत्ते अधिक हैं। मुझे देखते ही वे भौंकते हैं। शायद वे मुझे काट खांय इसलिए मैं नहीं जाना चाहता फिर कभी देखा जायेगा। किंतु वह ब्राह्मण परम दयाल था उसे उस पर दया आ गई इसलिए उसने अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी और जिसमें सोना रख छोड़ा था वह लकड़ी शीघ्र उसे दे दी और जाने के लिए प्रेरणा भी की। बस फिर क्या था? बालक की निगाह तो उस लकड़ी पर ही थी। संग भी वह उसी लकड़ी के लिए लगा था इसलिए ज्यों ही उसके हाथ लकड़ी आई वह हमेशा के लिए ब्राह्मण से बिदा हो गया फिर वृद्ध ब्राह्मण की ओर उसने झाँककर भी न देखा। कृपानाथ। आप ही कहें वृद्ध परमोपकारी उस ब्राह्मण के साथ क्या उस बालक का वह बर्ताव योग्य था? मैंने कहा जिनदत्त ! सर्वथा अयोग्य । उस बालक को कदापि सोम शर्मा ब्राह्मण के साथ वैसा बर्ताव नहीं करना चाहिये था अस्तु अब मैं भी तुम्हें एक अतिशय उत्तम कथा सुनाता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो ॥२६५-३११।। कौशांब्यां स्वर्णशालायां गंधर्वानीकभूपतिः । तस्य वाडिधा मांगार देव नामा वसेत्सुखी ॥३१२॥ स चैकदा मुदा राजकीयं रत्नं मनोहरम् । पद्मरागसुसंस्कारकृते धाम्न्या निनाय च ।।३१३॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तदातदालययोगी ज्ञानसागरनामभाक् । चर्यार्थमाजगामाशु वणिग्वर प्रतिगृहेक्षणः ॥३१४॥ प्रतिगृह्य प्रणम्याशु स्थापयामास तं गुरुम् । सत्कर्ममपश्यंस्तदा रुक्मकारो व्याकुलमानसः ॥३१५॥ मुनि बिहाय चान्येषामभावान्मणिमुत्तमं । मुनि ययाचे क्रूरात्मा किरन्मर्मवचस्तदा ॥३१६॥ वैपरीत्यं परिज्ञाय मुनिर्योगं दधौ हृदि। एकत्वं भावयन्योगी शुद्धचिद्रूपभावुकः ॥३१७॥ यष्टिमुष्टयादिघातेन बबंधे रुक्मकारकः । मुनि दुर्वाक्यबाक्येन पीडयन् विधिवंचितः ॥३१८॥ रुषा मुमोच तस्यैव काष्ठं निष्ठुरमानसः । दूरतः सखि कंठे तदस्पृशन्मणिमंडिते ॥३१६॥ उच्चचाल मुखाद्रत्नं पतितं च महीतले । विलोक्य स चकाराशु स्वनिंदां तापपीडितः ॥३२०॥ दत्वा मणिं स भूपाय निंदागर्दासमुन्मुखः । दिदीक्षे सविधौ तस्य भूमिस्पृक् पापभीतधीः ॥६२१॥ इत्थं वणिग्भवेद्युक्तं नो वा तस्याविचारितम् । अदभ्रश्वभ्रसंदायि तत्कर्माऽशर्मशायि च ॥३२२॥ स्वामिस्तन्नोचितं तस्य प्रशस्य विधिवजितः । कथां सुकथ्यमानां तां वक्ष्यामीति वचो जगौ ॥३२३॥ धन-धान्य उत्तमोत्तम पदार्थों से व्याप्त इसी पृथ्वीतल में एक कौशांबी नगरी है। किसी समय उस नगरी का स्वामी राजा गंधर्वानीक था। राजा गंधर्वानीक के मणि आदि रत्नों का साफ करने वाला कोई गारदेव नाम का मनुष्य भी उसी नगरी में निवास करता था। कदाचित् वह राजमंदिर से एक पद्मराग मणि साफ करने के लिए लाया और उसे आँगन में रख वह साफ ही करना चाहता था उसी समय कोई ज्ञानसागर नाम के मुनिराज उसके यहाँ आहारार्थ आ गये। मुनिराज को देख गारदेव ने अपना काम छोड़ दिया मुनिराज को विनयपूर्वक नमस्कार किया। प्रासुक जल से उनका चरण-प्रक्षालन किया। एवं किसी उत्तम काष्ठासन पर बैठने की प्रार्थना की। प्रार्थनानुसार इधर मुनिराज तो काष्ठासन पर बैठे और उधर एक नीलकंठ आया Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २७५ एवं आँख बचाकर उस पद्मराग मणि को लेकर तत्काल उड़ गया तथा मुनिराज आहार ले वन की ओर चल दिये। मुनिराज को आहार देकर जब गारदेव को फुर्सत मिली तो उसे मणि के साफ करने की याद आई । वह चट आँगन में आया। उसे वहाँ मणि मिली नहीं इसलिए परम दुःखी हो वह इस प्रकार विचारने लगा ___ मेरे घर में सिवाय मुनिराज के दूसरा कोई नहीं आया यदि मणि यहां नहीं है तो गई कहाँ ? मुनिराज ने ही मेरी मणि ली होगी और लेने वाला कोई नहीं। तथा कुछ समय ऐसा संकल्प विकल्प कर वह सीधा वन को चल दिया और मुनिराज के पास आकर मणि का तकादा करता हुआ अनेक दुर्वचन कहने लगा। जब मुनिराज ने उसके ऐसे कटुक वचन सुने तो अपने ऊपर घोर उपसर्ग समझ वे ध्यानारूढ़ हो गये गारदेव के प्रश्नों का उन्होंने जवाब तक न दिया। किंतु मुनिराज से जवाब न पाकर मारे क्रोध के उसका शरीर भभक उठा उस दुष्ट को उस समय और कुछ न सूझी मुनिराज को ही चोर समझ वह मुक्के-धूंसे, डंडों से मारने लगा और कष्टप्रद अनेक कुवचन भी कहने लगा। इस प्रकार मार-धाड़ करने पर भी जब उसने मुनिराज से कुछ भी जवाब न पाया तो वह हताश हो अपने नगर को चल दिया। वह कुछ ही दूर गया कि उसे फिर मणि की याद आई वह फिर मदान्ध हो गया इसलिए उसने वहीं से फिर एक डंडा मुनिराज पर फेंका। दैवयोग से वह नीलकंठ भी उसी वन में मुनिराज के समीप किसी वृक्ष पर बैठा था। इसलिए जिस समय वह डंडा मुनि की ओर आया तो उसका स्पर्श नीलकंठ से भी हो गया। डंडे के लगते ही नीलकंठ भगा और जल्दी में पद्मराग मणि उसके मुंह से गिर गई। पद्मराग मणि को इस प्रकार देख गारदेव अचंभे में पड़ गया। अब वह अपने अविचारित काम पर बार-बार घृणा करने लगा। मणि को उठा वह नगर चला गया। साफ कर उसे राजमंदिर में पहुँचा दी और संसार से सर्वथा उदासीन हो उसी वन में आया। मुनिराज के चरणकमलों को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अपने पापों की क्षमा मांगी। एवं उन्हीं के चरणों में दीक्षा धारण कर दुर्धर तप करने लगा। सेठ जिनदत्त ! कहो। क्या उस गारदेव का बिना विचारे किया वह काम योग्य था? निश्चय समझो बिना विचारे जो काम कर डालते हैं उन्हें निस्सीम दुःख भोगने पड़ते हैं । मेरी यह कथा सुन जिनदत्त ने कहा कृपासिंधो! गारदेव का वह काम सर्वथा निंदनीय था। अविचारित काम करने वालों की दशा ऐसी ही हुआ करती है। नाथ ! मैं आपकी कथा सुन चुका कृपाकर आप भी मेरी कथा सुनें ॥३१२-३२३॥ पलासकूटसद्ग्रामे सुनामनरसंकीर्णे धामधामविभूषिते । रौद्रदत्तोऽस्ति वाडवः ॥३२४॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अटव्यामेकदा सोऽटन्नालोक्यं द्वीपिनं परं । धावंतं सन्मुखं भीत्या रुरोह वरशाखिनं ॥३२५।। द्वीपी सोऽस्तंलभमानोऽपि परावृत्त्य जगाम च । उत्तीर्य वाडवस्तस्माद्गच्छंस्तं वीक्ष्य सस्मितः ॥३२६।। स्वंभादियोग्यमावेद्य समागत्य स्वमंदिरम् ।। आदाय परशु' गत्वा तत्र चिच्छेद शाखिनं ॥३२७।। आत्मनो रक्षणं यस्मात्तस्य छेदः कथं प्रभो । युक्तस्तस्य भवेन्नो वा कृतघ्नः सदृशात्मनः ॥३२८॥ उताचेत्थं वचो योगी वणिक् किल्बिषभाग्भवेत् । स नारयगति यात्युपकारकृद्विघातनात् ॥३२६।। नानावृद्ध विवृद्धां स कथामेकामबीभणत् । पताका तोरणोपेता परा द्वारवती पुरी ॥३३०॥ विपक्षपक्षसंभेदी विष्णुर्व्यापितसद्यशाः । पातितां सत्यभामाभीरुक्मिणीभिश्च मंडितः ।।३३१॥ पुष्पलाविमुखाच्छु त्वैकदा मुनि समागमं । वैकुंठो कुंठयत्कार्यं ददौ तस्मै धनादिकं ॥३३२।। चचाल चतुरैः संघश्चतुरंग बलान्वितः ।। बंदितुं मुनिनाथस्य भक्तितो विष्टरश्रवाः ।।३३३॥ प्रागत्य तत्र तं वीक्ष्य ज्ञानसागर सन्मुनिम् । ववंदे मुनिबक्त्रंदोः पपौ धर्मामृतं स कः ॥३३४॥ हृषीकेशो मुनि वीक्ष्य व्याधिस्थं कर्मवासितं । भिषजं स्वं पप्रच्छाशु व्याधिहानि कृते मुदा ॥३३५।। सोऽवादीद्रत्नकापिष्ट प्रयोगं विष्णुभूपतेः । संतुष्टो नगरं प्राप्तो भेषजं समचीकरत् ।।३३६॥ आहारार्थ स्थापकानन्यान्निवार्य वरभेषजं । रुक्मिण्य दत्तवान् भूपो मुन्योषधकृते तदा ॥३३७॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् लेपस्थालाभतो योग्यन्येषां धाम्नि विष्णुधानि समापन्नो जेमनं गतस्ततः । विधिपूर्वकं ॥ ३३८ ॥ रत्नका पिष्टपिंडानि रुक्मिणी निभानवे । ददौ सुभेषजं चान्यद्भक्तिभारभरांगिका ॥ ३३६ ॥ ततः क्रमेण नीरोगोऽजनि योगी कियद्दिनः । एकदा माधवो वीक्ष्य भिषजामुनिभाजगे ॥ ३४० ॥ नीरोगत्वं मुनेर्जातं तदा प्राख्यत्तपः श्रितः । कर्मणामभवन्विष्ठो नीरोग: शमनान्मम ॥३४१ ॥ कर्मणामुदये राजन् शर्माऽशर्माणि देहिनां । जायंते तत्क्षये मोक्षस्तत्र नास्तिसुखासुखं ।। ३४२॥ दक्षश्चक्रवर्त्त्यपि । अंतरंगविधौ कोऽपि न बहिर्निमित्तमात्रं भो अन्यन्नाभ्यंतरे विधौ ॥ ३४३ ॥ तत्सूक्ति स समाकर्ण्य दुष्टो वैद्यस्तु क्रुद्धवान् । मन्यमानः स्वनैरर्थ्यं वृष्टि लिंबे क्षुवन्नृपः ॥ ३४४॥ कोपादुद्ध तदुर्भावो द्वितीयायुबंबंध च । कालेन स मृति चाप्य वने कीशोऽभवद्विधेः ॥ ३४५।। २७७ इसी पृथ्वीतल में अनेक उत्तमोत्तम घरों से शोभित, देव-तुल्य मनुष्यों से व्याप्त, एक पलाशकूट नाम का सर्वोत्तम नगर है । किसी समय पलाशकूट नगर में कोई रौद्रदत्त नाम का ब्राह्मण निवास करता था । कदाचित् किसी कार्यवश रौद्रदत्त को एक विशाल वन में जाना पड़ा। यह वन में पहुँचा ही था कि एक गेंडा उसकी ओर टूटा। उस समय रौद्रदत्त को और तो कोई उपाय न सूझा समीप में एक विशाल वृक्ष खड़ा था उसी पर वह चढ़ गया। जिस समय गेंड़ा उस वृक्ष के पास आया तो वह शिकार का मिलना कठिन समझ वहाँ से चल दिया । अपने विघ्न को शांत देख रौद्रदत्त भी नीचे उतर गया । वह वृक्ष अति मनोहर था। उसकी हर एक लकड़ी बड़े पायेदार थी । इसलिए उसे देख रौद्रदत्त के मुख से पानी आ गया । वह यह निश्चय कर कि इसकी लकड़ी अन्यतम है इसकी स्तम्भ आदि कोई चीज बनवानी चाहिए। शीघ्र ही वह घर गया। हाथ में फरसा ले वह फिर वन को चला गया और बात की बात में वह वृक्ष काट डाला । कृपानाथ ! आप ही कहें क्या आपत्तिकाल में रक्षा करनेवाले उस वृक्ष का काटना रौद्रदत्त के लिए योग्य था ? मैंने कहा जिनदत्त ! सर्वथा अयोग्य था । रौद्रदत्त को कदापि वह वृक्ष काटना नहीं चाहिये था जो मनुष्य पर कृत उपकार को नहीं मानते वे निरन्तर पापी माने जाते हैं, कृतघ्नी मनुष्यों को संसार Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येणविरचितम् में अनेक वेदना भोगनी पड़ती है। मैं तुम्हारी कथा सुन चुका अब मैं भी तुम्हें एक अत्युत्तम कथा सुनाता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो इसी पृथ्वीतल में उत्तमोत्तम तोरण पताका आदि से शोभित, समस्त नगरियों में उत्तम कोई द्वारावती नाम की नगरी थी। किसी समय द्वारावती के पालक महाराज श्रीकृष्ण थे। महाराज श्रीकृष्ण परम न्यायी थे। न्याय से राज्य के चारों ओर उनकी कीति फैली हुई थी और सत्यभामा, रुक्मिणी आदि कामिनियों के साथ भोग भोगते वे आनंद से रहते थे। कदाचित् राज्य सिंहासन पर बैठे वे आनन्द में मग्न थे इतने ही में एक माली आया उसने विनयपूर्वक महाराज को नमस्कार किया, और उत्तमोत्तम फल भेंटकर वह इस प्रकार निवेदन करने लगा। प्रभो! प्रजापालक ! एक परम तपस्वी वन में आकर विराजे हैं। माली के मुख से मुनिराज का आगमन सुन महाराज श्रीकृष्ण को परमानंद हुआ। वे जिस काम को उस समय कर रहे थे उसे शीघ्र ही छोड़ दिया। उचित पारितोषिक दे माली को प्रसन्न किया । अनेक नगर निवासियों के साथ चतुरंग सेना से मंडित महाराज ने वन की ओर प्रस्थान कर दिया। वन में आकर मुनिराज को देख भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। और कुछ उपदेश श्रवण की इच्छा से मुनिराज के पास भूमि में बैठ गये। उस समय मुनिराज का शरीर व्याधिग्रस्त था इसलिये उस व्याधि के दूर करणार्थ राजा ने यही प्रश्न किया। प्रभो! इस रोग की शांति का उपाय क्या है ? किस औषधि के सेवन करने से इस रोग का नाश हो सकता है, कृपया मुझे शीघ्र बतावें राजा श्रीकृष्ण के ऐसे वचन सुन मुनिराज ने कहा नरनाथ ! यदि रत्नकापिष्ट (१) नाम का प्रयोग किया जाय तो यह रोग शान्तहो सकता है और इस रोग की शान्ति का कोई उपाय नहीं। मुनिराज के मुख से ऐसे औषधिक वचन सुन राजा श्रीकृष्ण को परम सन्तोष हआ। मनिराज को विनयपूर्वक नमस्कार कर वे द्वारावती में आ गये और मुनिराज के रोग दूर करने के लिए उन्होंने सर्वत्र आहार की मनाई कर दी। दूसरे दिन वे ही ज्ञानसागर मुनि आहारार्थ नगर में आये। विधि के अनुसार वे इधरउधर नगर में घूमे किंतु राजा की आज्ञानुसार उन्हें किसी ने आहार न दिया। अन्त में वे राजमंदिर में आहारार्थ गये। ज्यों ही राजमंदिर में मुनिराज ने प्रवेश किया रानी रुक्मिणी ने उनका विधिपूर्वक आह्वान किया पडगाहन आदि कार्य कर भक्तिपूर्वक आहार भी दिया। रत्नकापिष्ट चूर्ण एवं अन्यान्य औषधियों के ग्रास भी दिये। एवं आहार ले चुकने पर मुनिराज वन को चले गये। इस प्रकार औषधियों के प्रयोग करने से मुनिराज का रोग सर्वथा नष्ट प्राय हो गया वे शीघ्र ही नीरोग हो गये। किसी समय किसी वैद्य के साथ महाराज श्रीकृष्ण वन में गये। जहाँ पर परम पवित्र मुनिराज विराजमानथे उसी स्थान पर पहुँच उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। और मुनिराज के सामने ही वैद्य ने यह कहा प्रजानाथ ! मुनिराज का रोग दूर हो गया है। वैद्य के मुख से जब मुनिराज ने ये वचन सुने तो वे इस प्रकार उपदेश देने लगे। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रणिक पुराणम् नरनाथ ! संसार में जीवों को जो सुख-दुःख कल्याण और अकल्याण भोगने पड़ते हैं उनके भोगने में कारण पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म है । जिस समय ये शुभ-अशुभ कर्म सर्वथा नष्ट हो जाते हैं उस समय किसी प्रकार का सुख-दुःख भोगना नहीं पड़ता । कर्मों के सर्वथा नष्ट हो जाने पर परमोत्तम सुख मोक्ष मिलता है। राजन् ! शुभ-अशुभ कर्मरूपी अंतरंग व्याधि के दूर करने में अतिशय पराक्रमी चक्रवर्ती भी समर्थ नहीं हो सकते । ये औषधि आदिक व्याधि की निवृत्ति में बाह्य कारण हैं। उनसे अंतरंग रोग की निवृत्ति कदापि नहीं हो सकती । मुनिराज तो वीतराग भाव से ये उपदेश दे रहे थे उन्हें किसी से उस समय द्वेष न था किंतु वैद्यराज को उनका यह उपदेश हलाहल विष सरीखा जान पड़ा। वह अपने मन में ऐसा विचार करने लगा यह मुनि बड़ा कृतघ्नी है। रोग की निवृत्ति का उपाय इसने शुभाशुभ कर्म की निवृत्ति ही बतलाई है मेरा नाम तक भी नहीं लिया। इस मुनि के वचनों से यह साफ मालूम होता है हमने कुछ नहीं किया । जो कुछ किया है कर्म की निवृत्ति ने ही किया है तथा इस प्रकार रौद्र विचार करते-करते वैद्य ने उसी समय आयुबंध बाँध लिया और आयु के अन्त में मरकर वह वानर योनि में उत्पन्न हो गया ।। ३२४-३४५।। तत्र एकदा विपिने स एव मुनिसत्तमः । पत्यं केन स्थितो ध्याने निमीलितनिजेक्षणः || ३४६ ॥ शाखामृगः समालोक्य दैवात्तं मुनिपुंगवम् । सस्मार पूर्ववृत्तांतं राजाग्रे तीक्ष्णकाष्टेन जंघा स मुनेर्विव्याध मर्कटः । त्यक्तगात्रात्मसंगस्य निर्ममत्त्वपरारूढं विशुद्ध मन चेत स्कं नासाग्रदत्तसुन्नेत्रं विश्वस्तध्यानयुग्यं दिविष्टां पवित्र च मानभंगजम् ॥३४७॥ निर्गतानेकदुर्मतेः ।। ३४८॥ शाम्यकोटिपराश्रितम् । चाष्टसत्पदम् ।।३४६ ॥ पदपूरितम् । सुध्यानपदसाधकम् ॥ ३५० ॥ उत्कीर्णमिव पाषाणे विगतांहिकरक्रियाम् । तं मुनिं वीक्ष्य निर्विण्णः कीशः शांतिं जगाम च ।। ३५१ ।। काष्टमुत्पाद्य वेगेन पूर्वानुभवभेषजैः । निर्व्रणं तं विधायाशु पूजयामास पुष्पकैः || ३५२ || २७६ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् प्रणम्य मुनिवाक्येन ससम्यक्त्वमणुव्रतम् । कीशो जग्राह स्वं निंदन् विभिन्नमदमंडलः ॥ ३५३॥ अविचार्य प्रकोपादि कुर्वते ये नराधमाः । तिरश्चां ते गतिं यान्ति नारकीयां च भो वणिक् ।। ३५४ || हस्तमर्षणमाप्नोति योऽविचार्य क्रियोद्यतः । इहैवायशसः स्थानममुत्राशर्मभाग्भवेत् ।। ३५५।। अविचार्याधमो वक्त्ययुक्तं युक्तिविमुक्तधीः । हास्यास्पदं भवेन्नूनं नरो नारकवांछकः ।।३५६।। क्व वैद्यो दैत्यशत्रोश्च मान्यः शास्त्रांगपारगः । वानरीगतिः सर्वमिदं ज्ञातसत्फलम् ॥। ३५७।। तस्य युक्तं न वा श्रेष्ठिन्नुपसर्गविधानकम् । सोऽवोचन्नोचितं नाथ परीक्षा वर्जितात्मनः || ३५८ | क्व कदाचित् विहार करते-करते मुनिराज, जिस वन में यह वानर रहता था उसी वन में पहुँचे और पर्यंक आसन मांड़कर नासाग्र दृष्टि होकर ध्यानैकतान हो गये। किसी समय मुनिराज पर बन्दर की दृष्टि पड़ी। मुनिराज को देखते ही उसे जाति-स्मरण हो गया । जातिस्मर के बल से उसने अपने पूर्व भव का सब समाचार जान लिया । राजा श्रीकृष्ण के सामने मुनिराज के उपदेश से जो उसे अपना पराभव समझा था वह पराभव भी उसे उस समय स्मरण हो आया । और मारे क्रोध के उस पापी ने पवित्र किंतु ध्यान रस में लीन मुनि ज्ञानसागर के ऊपर एक विशाल काष्ठ पटक दिया। उन्हें अनेक प्रकार पीड़ा भी देने लगा। किंतु मुनिराज जरा भी ध्यान से विचलित न हुए । चिरकाल तक प्रयत्न करने पर भी जब बंदर ने देखा कि मुनिराज ममता रहित, समता रस में लीन, निर्मल ज्ञान के धारक, हलन चलन क्रिया से रहित, परम पद मोक्ष पद के अभिलाषी परम किंतु उकृष्ट धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के आचरण करने वाले, ध्यान बल से परम सिद्धि प्राप्ति के इच्छुक, पाषाण में उकली हुई प्रतिमा के समान निश्चल, और हाथ-पैर की समस्त चेष्टाओं से रहित हैं तो उसे भी एकदम वैराग्य हो गया। कुछ समय पहले जो उसके परिणामों में रौद्रता थी वह मुनिराज की शान्त मुद्रा के सामने शान्तिरूप में परिणत हो गई । वह अपने दुष्कर्म के लिए अधिक निन्दा करने लगा। मुनिराज पर जो काठ डाला था वह भी उसने उठा के एक ओर रख दिया । वह पूर्वभव में वैद्य था इसलिये मुनिराज पर काष्ठ पटकने से जो उनके शरीर में घाव हो गए थे उत्तमोत्तम औषधियों से उन्हें भी उसने अच्छा कर दिया । अब वह मुनिराज की शुद्ध हृदय से भक्ति करने लगा और यह प्रार्थना करने लगा । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ श्रेणिक पुराणम् प्रभो ! अकारण दीनबन्धों ! मेरे इन पापों का छुटकारा कैसे होगा ? मैं अब कैसे इन पापों से बलूंगा ? कृपाकर मुझे कोई ऐसा उपाय बतावें जिससे मेरा कल्याण हो । मुनिराज परम दयालु थे उन्होंने वानर को पंच अणुवत का उपदेश दिया और भी अनेक उपदेश दिये । वानर ने भी मुनिराज की आज्ञानुसार पंच अणुव्रत पालने स्वीकार कर लिये अहंकार क्रोध आदि जो दुर्वासनायें थीं उन्हें भी उसने छोड़ दिया । और हर समय अपने अविचारित काम के लिए पश्चात्ताप करने लगा । सेठ जिनदत्त ! तुम निश्चय समझो जो नीच पुरुष बिना विचारे क्रोध, मान-माया आदि कर बैठते हैं । उन्हें पीछे अधिक पछताना भोगना पड़ता है वे तिर्यंच नरक आदि गतियों में जाते हैं । वहाँ उन्हें अनेक दुस्सह्य वेदनायें सहनी पड़ती हैं। अविचारित काम करने वाले इस लोक में भी राजा आदि से अनेक दण्ड भोगते हैं। उनकी सब जगह निंदा फैल जाती है । परलोक में भी उन्हें सुख नहीं मिलता। अबुद्धिपूर्वक काम करने वालों की सब जगह हँसी होती है । देखो अनेक शास्त्रों का भले प्रकार ज्ञाता, राजा श्रीकृष्ण के सम्मान का शाजन वह वैद्य तो कहाँ ? और कहाँ अशुभ कर्म के उदय से उसे बन्दर योनि की प्राप्ति ? यह सब फल अज्ञानपूर्वक कार्य करने का है । जिनदत्त ! यह कथा तुम ध्यानपूर्वक सुन चुके हो तुम्हीं कहो क्या उस बन्दर का वह कार्य उत्तम था ? जिनदत्त ने कहा ।।३४६-३५८।। अबीभणत्कथां कम्रां मुनेः सद्भावसूचिकाम् । वदतमिति तत्पुत्रः स्वतातं वीक्ष्य लोभतः || ३५६ ।। कुंभं कुबेरदत्तश्च निष्कास्य स्थानतोऽन्यतः । न्यक्षिपत् जनकस्याग्रे विवादविधिहानये ॥३६०॥ स्वामिन्मज्जनकेनैव लक्ष्मीलोभेन किं कृतम् । मुनिश्चौरः कृतो वेगाद्विग् लक्ष्मीं दुखभाजनं ॥ ३६१॥ लोभमूलानि पापानि लोभमूला च वेदना । लोभमूलो महाद्वेषो लोभमूलो ह्यनिष्टता ॥३६२॥ व्याघ्राम्रबीजे कलभः शुकश्च सुतुंदिलो वै वृषभो द्विजश्च । नागारिवेश्या च सुवर्णकारो गजोभिषक्ताः च कथा: प्रचक्रुः ।। ३६३। दीक्षां शिवबद्धकक्षां स्यांगजस्तं विधिवद्ययाचे । वरशर्ममत्त्वा लज्जाकुलास्यो हृदि निर्वृतोऽभूत् ।।३६४।। मां देहि श्रेष्ठीतिदृष्ट्वा Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् चिरं विनिंद्य तौ निजं समस्तवस्त्ववाङ मुरवौ । सुदीक्षितौ सुशिष्यतांगतौ विशुद्धमानसौ । पुराणपाठपूरितौ पवित्रचित्रयोगिनौ । बमूवतुस्त्रि गुप्तिगुप्त विग्रहौ स्वनिग्रहौ ॥३६५।। भूपायते यतिवरा वरधर्ममार्गवर्गे वयं स्थितिकृतस्तवपुण्ययोगात् । पृष्टा इति प्रणतमौलिविवद्धदीप्त्या ॥३६६।। गप्त्या ये यतयः खलगुप्ताम् । आजग्मुरेव वरधाम्नि सुपट्टराज्याः ते तिष्ठंतु गृहे मम दीप्ताः । तस्मादंगविगोपनभावान्नास्थामोऽवधिबोध विहीनाः ॥३६७॥ श्रुत्वा कारणमुत्तमं नरपतिः संतुष्टस्वांतस्तया । साकं शक्यवृषं सुदर्शनसमं लब्ध्वा रसं वाक्यजं । नत्वा सन्मुनिपादपंकजयुगं स्मृत्वा गुणं तद्भवं । प्रापत्यत्तनमुत्तमं सह बले: श्रेयः कथालालसः ॥३६८।। मुनिनाथ! बन्दर का वह अविचारित काम सर्वथा अयोग्य था। बिना विचारे अभिमानादि वशीभूत हो नीच काम करने वाले मनुष्यों को ऐसे ही फल मिलते हैं। इसके अनन्तर हे मगध देश के स्वामी राजा श्रेणिक ! सेठ जिनदत्त मेरी कथा के उत्तर में दूसरी कथा कहना ही चाहता था कि उसके पास उसका पुत्र कुबेरदत्त भी बैठा था और सब बातों को बराबर सुन रहा था इसलिए उसने विवाद की शान्त्यर्थ शीघ्र ही वह रत्न-भरित घड़ा दूसरी जगह से निकालकर मेरे देखते-देखते अपने पिता के सामने रख दिया। और विनयपूर्वक इस प्रकार प्रार्थना करने लगा। प्रभो ! समस्त जगत के तारक स्वामिन् ! मेरे पिता ने बड़ा अनर्थ कर डाला। इस दुष्ट धन के फंदे में फंसकर आपको भी चोर बना दिया। हाय ! इस धन के लिए सहस्र बार धिक्कार है। दीनबन्धो। यह बात सर्वथा सत्य जान पड़ती है संसार में जो घोर से घोर पाप होते हैं वे लोभ से ही होते हैं। संसार में यदि जीवों का परम अहित करने वाला है तो यह लोभ ही है। प्रभो। किसी रीति से अब मेरा उद्धार कीजिये। मुक्ति में असाधारण कारण मुझे जैनेश्वरी दीक्षा दीजिये। अब मैं क्षण-भर भी भोग भोगना नहीं चाहता। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २८३ जिनदत्त भी रत्नों के घड़ा को और पुत्र को संसार से विरक्त देख अति दुःखित हुआ अपने अविचारित काम पर उसे बहत लज्जा आई संसार को असार जान उसने भी धन से सम्बन्ध छोड़ दिया। अपनी बार-बार निन्दा करने वाले समस्त परिग्रह से विमुख उन दोनों पिता पुत्र ने मुझसे जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। एवं अतिशय निर्मल चित्त के धारक, भली प्रकार उत्तमोत्तम शास्त्रों के पाठी, परिग्रह से सर्वथा निस्पृह, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति के धारक, वे दोनों दुर्धर तप करने लगे। __ इस प्रकार हे मगधदेश के स्वामी श्रेणिक ! अनेक देशों में विहार करते-करते हम तीनों मुनि राजगृह में भी आये। उक्त दो मुनियों के समान मैं त्रिगुप्ति पालक न था मेरे अभी तक कायगुप्ति नहीं हुई इसलिए मैंने राजमंदिर में आहार न लिया। आहार न लेने का और कोई कारण नहीं। इस रीति से तीनों महाराजों के मुख से भिन्न-भिन्न कथा के श्रवण से अतिशय सन्तुष्ट चित्त मोक्ष सम्बन्धी कथा के परम प्रेमी महाराज श्रेणिक मुनिराज को नमस्कार कर राजमन्दिर में गये। राजमन्दिर में जाकर सम्यग्दर्शन पूर्वक जैन-धर्म धारण कर मुनिराजों के उत्तमोत्तम गुणों का निरन्तर स्मरण करते हुए रानी चेलना और चतुरंग सेना के साथ आनन्दपूर्वक राजमन्दिर में रहने लगे।।३५६-३६८॥ इति श्रेणिकभवानबद्धभविष्यत्पत्मनाभपुराणे मुमुक्षु श्री शुभचंद्राचार्य विरचिते कायगप्तिकथा वर्णनं नामैकादशः सर्गः ॥११॥ इस प्रकार श्री पद्मनाभ भगवान के पूर्वभव के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में मुमुक्ष श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित काय-गुप्ति कथा का वर्णन करनेवाला ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुआ। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशमः सर्गः नौमि तं जिन सद्धर्म सत्सिद्धांतभास्करम् । यस्य प्रसादतः प्राप्तं श्रेणिकेन सुखं परम् ॥ १ ॥ कुर्वतौ परमं धर्म भुक्तौ राज्यं च दंपती । गतं कालं न वित्तस्तौशर्माब्धिवशवत्तिनौ ॥ २ ॥ यजतौ जिनपादाब्जं ध्यायंतौ मुनिपुंगवम् । कृपाकृतितपापांगौ तिष्ठतस्तौ च दंपती ॥ ३ ॥ कदाचित्प्रथमं शास्त्रं त्रिषष्ठिस्मृतिगोचरं । अन्यदालोकसंस्थान व्याख्यानं शृणुतस्तकौ ॥ ४ ॥ अष्टोत्तरशतभिन्नमहिंसावतंमुत्तमम् । तथ्यवाचादिभेदं वा कर्णयंत निजेच्छया ॥ ५ ॥ द्रवति द्रोष्यति द्रव्यमदुद्रवदिति स्फुटम् । सद्भेदं सप्तभंगाढ्यं तौ च शुश्रवतु: सदा ।। ६ ।। अपूर्वपाठपारीणौ धुरिणौ धर्मसंपदः । विपदः प्रतिकूलौ तौ रेमाते रतिमार वत् ।। ७ ॥ दशांगभोगभोगाढ्यौ दााढ्यजनसेवितौ । रतिसंतृप्तसर्वांगौ शचीद्राविवरेजतुः ॥ ८ ॥ सुषेणचरदेवोऽथ तस्या ब्रूणेऽभवत्सुतः । समैधे जठरे तस्याः क्रमेण गजसद्गतेः ॥ ६ ॥ आपांडवदना क्षीणविग्रहा कलभाषिणी। ईषन्निद्रा समालभ्या जज्ञे सा भ्र णभावतः ।। १० ।। जिस परमोत्तम धर्म की कृपा से मगध देश के स्वामी महाराज श्रेणिक को अनुपम सुख मिला। पापरूपी अन्धकार को सर्वथा नाश करनेवाले उस परम धर्म के लिए नमस्कार है। महाराज श्रेणिक को जैन धर्म में जो सन्देह थे, सो सब हट गये थे इसलिए भली प्रकार जैन धर्म के पालक राज्य-सम्बन्धी अनेक भोग भोगने वाले शुभ मार्ग पर आरूढ़ राजा श्रेणिक Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २८५ और रानी चेलना सानन्द राजगृह नगर में रहने लगे। कभी वे दोनों दंपती जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने लगे कभी मुनियों के उत्तमोत्तम गुणों का स्मरण करने लगे। कभी उन्होंने सठि महापुरुषों के पवित्र चरित्र से पूर्ण प्रथमानुयोग शास्त्र का स्वाध्याय किया। कभी लोक की लम्बाई-चौड़ाई आदि बतलाने वाले करणानुयोग शास्त्र को ये पढ़ने लगे। कभी-कभी अहिंसादि श्रावक और मुनियों के चरित्र को बतलाने वाले चरणानुयोग शास्त्र का उन्होंने श्रवण किया और कभी गुण द्रव्य और पर्यायों का वास्तविक स्वरूप बतलाने वाले स्यादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादि सप्तभंगनिरूपक द्रव्यानयोग शास्त्रों को विचारने लगे। इस प्रकार अनेक शास्त्रों के स्वाध्याय में प्रवीण धर्म-संपदा के धारक समस्त विपत्तियों से रहित रति और कामदेव तुल्य भोग भोगने वाले बड़े ऋद्धि धारक मनुष्यों से पूजित रतिजन्य सुख के भी भले प्रकार आस्वादक वे दोनों दंपती इन्द्र-इन्द्राणी के समान सुख भोगने लगे और भोगों में वे इतने लीन हो गये कि उन्हें जाता हुआ काल भी न जान पड़ने लगा। बहुत काल पर्यंत भोग भोगने पर रानी चेलना गर्भवती हुई। उसके गर्भ में सुषेणचर नामक देव ने आकर जन्म लिया । गर्भभार से रानोचेलना का मुख फीका पड़ गया। स्वाभाविक कृश शरीर और भी कृश हो गया। वचन भी वह धीरे-धीरे बोलने लग गई, गति भी मन्द हो गई। और आलस्य ने भी उस पर पूरा-पूरा प्रभाव जमा लिया॥१-१०॥ दुष्टदोहलकोद्भूत भावनातो बभूव सा । कृशांगा क्षीणभूषाढ्या निशांते द्यौवितारिकाः ॥ ११ ॥ तदप्राप्तां च तां वीक्ष्य गतदीप्तिनराधिपः ।। गदतिस्म शुभे भद्रे विशिष्टनयनोत्सवे ॥ १२ ॥ काऽस्ति ते हृदि चिंता च सर्वगात्रविदाहिनी । इति संवादिता राज्ञी न ब्रूते च यथाकथम् ॥ १३ ॥ महाग्रहेण भूपेन पुनः संवादिता जगौ। मृगाक्षी गंदमामंदाक्षरासंवाष्पवादिनी ॥ १४ ॥ नाथ किं जीवनेनैव मम दुर्मानसात्मनः । दुभ्रूणधारणाज्ज्ञज्ञे दुर्वांछा प्राणहारिणी ॥ १५॥ वचनैः कथितुं शक्यां नो कथं कथयामि ताम् । तथाप्याख्यामि नाथाद्य . तवाग्रहवशाद्विभोः ॥ १६ ॥ वक्षः स्थलं विदार्यांशु लोहितस्येक्षितुं तव । वांछास्ति मे नराधीश कथं प्राप्या दुरावहा ।। १७ ।। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्रुत्वा विदार्य राजेशो हृदयं प्रदर्श्य पूरयामास तद्वांछां परिपूर्णे ततो मासे सुतोऽजनि तयाशुभात् । तल्लाभं भूपतिः श्रुत्वा कुतश्चित्तोषमाप च ।। १६ ।। वित्तीर्य विविधं दानं दीनानां च दयार्द्रधीः । तद्वक्त्रालोकनार्थं च प्रतस्थे स्थिरमानसः ॥ २० ॥ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् निजलोहितम् । चित्रदायिनीम् ॥ १८ ॥ तदा बालो नृपं वीक्ष्य बद्धमुष्टिर्महाभयी । कुटिलास्यो रक्तनेत्रो वक्रभ्रकुटिरुन्नतः ॥ २१॥ दष्टाधरस्तदा दुष्टो घर्षयन् रदनान्निजान् । दुर्भावभावनारूढः पूर्ववैरादभूत्क्षणात् ।। २२ ॥ तथा तं सा परिज्ञाय चेलना महिषी क्षणात् । दुःपुत्रं तं वने भीत्या तत्याज स्वहितेच्छया ।। २३ ।। कथंचिद्भूपतिर्मत्वा वनमुक्तं शरीरजम् । राज्ञानाय्य सुमोहेन धात्र्याः स च समर्पितः ॥ २४ ॥ भग्नसुत्रिवलीभंगा चकार कुणिकाख्यां च तस्य भूप मुदकृतः । ततः क्रमेण पुण्येन तत्र स ववृधे शुभः पुनः ।। २५ ।। ततः क्रमेण चेलिन्या वारिषेणः सुतोऽभवत् । कलाविज्ञानरूपाढ्यः ससम्यक्त्वः शिवावहः ।। २६ ।। हल्लस्ततो विहल्लश्च जितशत्रुः क्रमात्सुताः । तस्याऽजनि पुत्रोच्चैः पित्रोः प्रीतिविवर्द्धकाः ।। २७ ।। कतिपयैर्घस्त्रैर्गर्भोऽभूत्स्वप्नपूर्वकम् । ततः तस्याः श्रेयः प्रभावेन जनयन् जगतां मुदम् ।। २८ ।। आहारे मंदिमा जाता गतौ वाक्य निबंधने । भ्रूणप्रभावेन शरीरे पांडुतां गता ॥ २६॥ स्वल्पभूषामितस्पष्टाक्षराक्षीणसुविग्रहा तस्या माजनि 1 प्रियदर्शना ।। ३० । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २८७ कुचचूचकयोस्तस्तयाः कृष्णत्वं तत्प्रभावतः । जातशत्रुमुख कर्तुं सूचनायैव सूचकम् ।। ३१ ।। गर्भवती स्त्रियों को दोहले हुआ करते हैं। और दोहलों से सन्तान के अच्छे-बुरे का पता लग जाता है क्योंकि यदि सन्तान उत्तम होगी तो उसकी माता को दोहले भी उत्तम होंगे। और सन्तान खराब होगी तो दोहले भी खराब होंगे। रानी चेलना को भी दोहले होने लगे। चेलना के गर्भ में महाराज श्रेणिक का परम वैरी अनेक प्रकार कष्ट देने वाला पुत्र उत्पन्न होने वाला था इसलिए रानी को जितने भर दोहले हुए सब खराब ही हुए जिससे उसका शरीर दिनों-दिन क्षीण होने लगा।प्राणपति पर आगामी कष्ट आने से उसका सारा शरीर फीका पड़ गया प्रातःकाल में तारागण जैसे विच्छाय जान पड़ते हैं रानी चेलना भी उसी प्रकार विच्छाय हो गई। किसी समय महाराज श्रेणिक की दृष्टि महारानी चेलना पर पड़ी। उसे इस प्रकार क्षीण और विच्छाय देख उन्हें अति दुःख हुआ। रानी के पास आकर वे स्नेह परिपूर्ण वचनों में इस प्रकार कहने लगे। प्राण बल्लभे ! मेरे नेत्रों को अतिशय आनन्द देने वाली प्रिये ! तुम्हारे चित्त में ऐसी कौन-सी प्रबल चिंता विद्यमान है जिससे तुम्हारा शरीर रात-दिन क्षीण और क्रांति-रहित होता चला जाता है। कृपा कर उस चिंता का तारण मुझसे कहो बराबर उसको दूर करने के लिए प्रयत्न किया जायेगा। महाराज के ऐसे शुभ वचन सुन पहले तो लज्जावश रानी चेलना ने कुछ भी उत्तर न दिया किंतु जब उसने महाराज का आग्रह विशेष देखा तो वह दुःखाश्रुओं को पोंछती हुई इस प्रकार विनय से कहने लगी प्राणनाथ ! मुझ सरीखी अभागिनी डाकिनी स्त्री का संसार में जीना सर्वथा निस्सार है यह जो मैंने गर्भ धारण किया है सो गर्भ नहीं आपकी अभिलाषाओं को मूल से उखाड़ने वाला अंकुर बोया है। इस दुष्ट गर्भ की कृपा से मैं प्राण लेने वाली डाकिनी पैदा हुई हूँ। प्रभो! यद्यपि मैं अपने मुख से कुछ कहना नहीं चाहती तथापि आपके आग्रहवश कुछ कहती हूँ। मुझे यह खराब दोहला हुआ है कि आपके वक्षस्थल को विदार-रक्त देखू। इस दोहले की पूर्ति होना कठिन है इसलिए मैं इस प्रकार अति चिंतित हैं। रानी चेलना के ऐसे वचन सुन महाराज श्रेणिक ने उसी समय अपने वक्षस्थल को चीरा और उससे निकलते रक्त को रानी चेलना को दिखाकर उसकी इच्छा की पूर्ति की। नवम मास के पूर्ण होने पर रानी चेलना के पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्रोत्पत्ति का समाचार महाराज के पास भी पहुँचा । उन्होंने दीन अनाथ याचकों को इच्छा भर दान दिया और पुत्र को देखने के लिए गर्भगृह में गये। ज्यों ही महाराज अपने पुत्र के पास गये। महाराज को देखते ही उसे पूर्व भव का स्मरण हो आया। महाराज को पूर्वभव का अपना प्रबल वैरी जान मारे क्रोध के उसकी मुट्ठी बंध गई। मुख भयंकर और कुटिल हो गया। नेत्र आरक्त हो गये। मारे क्रोध के भौंहें चढ़ गई। Jain Education Intentional For Private & Personal use only Nainelibrary.org Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ओठ डसने लगा और उसकी आँखें भी इधर-उधर फिरने लगीं। रानी ने जब उसकी यह दशा देखी तो उसे प्रबल अनिष्ट का करने वाला समझ वह डर गई। अपने हित की इच्छा से निमोह हो उसने वह पुत्र शीघ्र हो वन में भेज दिया । जब राजा को यह पता लगा कि रानी ने भयभीत हो पुत्र वन में भेज दिया है तो उससे न रहा गया पुल पर मोहवश उन्होंने शीघ्र ही उसे राजमंदिर में मंगा लिया उसे पालन-पोषण के लिए किसी धाय के हाथ सौंप दिया। और उसका नाम कुणिक रख दिया । एवं वह कुणिक दिनोंदिन बढ़ने लगा। कुमार कुणिक के बाद रानी चेलना के वारिषेण नाम का दूसरा पुत्र हुआ । कुमार वारिषेण अनेक ज्ञान-विज्ञानों का पारगाभी, मनोहर रूप का धारक, सम्यग्दर्शन से भूषित और मोक्षगामी था । वारिषेण के अनंतर रानी चेलना के हल्ल, हल्ल के पीछे विदल, विदल के पीछे जितशत्रु ये तीन पुत्र और भी उत्पन्न हुए। और ये तीनों ही कुमार माता-पिता को आनंदित करने वाले हुए । २५८ इस प्रकार इन पाँच पुत्रों के बाद रानी चेलना के प्रबल भाग्योदय से सबको आनंद देने वाला फिर गर्भ रह गया गर्भ के प्रसाद से रानी चेलना का आहार कम हो गया । गति भी धीमी हो गई। शरीर पर पांडिमा छा गई। आवाज मंद हो गई। शरीर अतिकृश हो गया पेट की त्रिवली भी छिप गई । होने वाला पुत्र समस्त शत्रुओं के मुख काले करेगा इस बात को मानो बतलाये हुए ही उसके दोनों चूचक भी काले पड़ गये एवं गर्भभार के सामने उसे भूषण भी नहीं रुचने लगे ॥११- ३१॥ तस्या इति सुदुर्लभः । ततो दोहलको जज्ञे आरुह्य हस्तिनं भूत्या भ्रमिष्यामि च प्रावृषि ।। ३२ ।। तदा प्राप्ता कृशांगी सा समासीद्गजगामिनी । एकदा तां नृपो वीक्ष्य पप्रच्छ साप्राक्षीद्द ुर्धराकांक्षीऽजनि मे ग्रीष्मे गजं समारुह्य मेघवृष्टैः दुर्धरं तं परिज्ञाय ग्रीष्मे सचितो कृशकारणम् ॥ ३३ ॥ हृदिवल्लभ । भ्रमाम्यहम् ॥ ३४ ॥ वृष्टयाद्यभावतः । योषमादायास्थात्स स्थगित विग्रहः ॥ ३५ ॥ दुर्लालसं नृपं प्रेक्ष्याप्राक्षीदभयपंडितः । कथं तेऽद्य परा चिंता हृदि सर्वांग शोषिणी ॥ ३६ ॥ इति संवादितो भूपो जगौ तत्कारणं क्षणात् । श्रुत्वेति वचनं पुत्रः करिष्यामीति संजगौ ॥ ३७ ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २८९ अवलोकयितुं रात्रौ व्यंतरं पितृसद्वने । जगाम भयनिर्मुक्तोऽभयो बुद्धिमतां मतः ॥ ३८ ॥ अटन्वटतलेऽटव्यां ध्वांतसंलुप्तसत्पथि । ददर्ष दीपिका पंक्तिमभयो भयवर्जितः ॥ ३६॥ घूकफूत्कार भीताढ्यं शृगालनिनदावहं । महाफणि फटाटोपं गजमदितपादपम् ॥ ४० ॥ संदग्धार्द्धशवं भीमं मृतकोपांतमोदकम् । भग्नकुंभकपालाढ्यं मंदाग्निमदमोदितं ॥ ४१ ।। संदग्धाद्धतधामिल्य पताकं कुर्कुरस्वनं । भस्मसंभग्नसन्मार्ग नरदंतसुरत्नकम् ॥ ४२ ॥ पश्यन् श्मशानमापन्नो वटं दीपप्रकाशितम् । धूपधूमसमाकृष्ट व्यंतरं राजपुत्रकः ॥ ४३ ॥ सुगंधकुसुमै/रं जपंतं स्थिरमानसम् । उद्विग्नं चिरकालेन सोऽद्राक्षीन्नरपुंगवम् ॥ ४४ ॥ तदेति स जगौ धीरः कत्स्वं कस्मात्समागतः । किं स्थानं तव किं नाम किं जपयसि स्फुटं ॥ ४५ ॥ इति पृष्टस्तदावादीद्वटस्थो राजदारकम् । शृणु धीर समाख्यानं मज्जं सुस्मयदायकं ।। ४६ ।। किसी समय रानी के मन में यह दोहला हुआ कि ग्रीष्मकाल में हाथी पर चढ़कर बरसते मेघ में इधर-उधर घूमूं किन्तु इस इच्छा की पूर्ति उसे अति कठिन जान पड़ी। इसलिए उस चिंता से उसका शरीर दिनों-दिन अधिक क्षीण होने लगा । जब महाराज ने रानी को अति चिन्ता-ग्रस्त देखा तो उन्हें परम दुःख हुआ। चिन्ता का कारण जानने के लिए वे रानी से इस प्रकार कहने लगे। प्रिये ! मैं तुम्हारा शरीर दिनों-दिन क्षीण देखता चला जाता हूँ मुझे शरीर की क्षीणता का कारण नहीं जान पड़ता तुम शीघ्र कहो तुम्हें कौन-सी चिन्ता ऐसी भयंकरता से सता रही है। महाराज के ऐसे वचन सुन रानी ने कहा कृपानाथ ! मुझे यह दोहला हुआ है कि मैं ग्रीष्मकाल में बरसते हुए मेघ में हाथी पर चढ़ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कर घूमूं किंतु यह इच्छा पूर्ण होनी दुःसाध्य है। इसलिए मेरा शरीर दिनों-दिन क्षीण होता चला जाता है। रानी की ऐसी कठिन इच्छा सुनी तो महाराज अचम्भे में पड़ गये। इस इच्छा को पूर्ण करने का उन्हें कोई उपाय न सूझा इसलिए वे मौन धारण कर निश्चेष्ट बैठ गये। अभय कुमार ने महाराज की यह दशा देखी तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ वे महाराज के सामने इस प्रकार विनय से पूछने लगे। पूज्य पिताजी ! मैं आपको प्रबल चिन्ता से आतुर देख रहा हूँ। मुझे नहीं मालूम पड़ता अकारण आप क्यों चिन्ता कर रहे हैं ? कृपया चिन्ता का कारण मुझे भी बतावें । पुत्र अभय कुमार के ऐसे वचन सुन के महाराज श्रेणिक ने सारी आत्म कहानी कुमार को कह सुनाई और चिन्ता दूर करने का कोई उपाय न समझ वे अपना दुःख भी प्रकट करने लगे। अभय कुमार अति बुद्धिमान थे ज्यों ही उन्होंने पिताजी के मुख से चिन्ता का कारण सुना शीघ्र ही सन्तोषप्रद वचनों में उन्होंने कहा-पूज्यवर ! यह बात क्या कठिन है मैं अभी इस चिंता के हटाने का उपाय सोचता हूँ आप अपने चित्त को मलीन न करें। तथा चिन्ता दूर करने का उपाय भी सोचने लगे। कुछ समय सोचने पर उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम बिना किसी व्यंतर की कृपा से नहीं हो सकता इसलिए आधी रात के समय घर से निकले । व्यंतर की खोज में किसी श्मशान भूमि की ओर चल दिये। एवं वहाँ पहुँचकर किसी विशाल वट वृक्ष के नीचे इधर-उधर घूमने लगे। वह भयावह था। जगह-जगह वहाँ अजगर फुकार शब्द कर रहे थे, श्मशान उल्लुकों के फूत्कार शब्दों से व्याप्त था शृगालों के भयंकर शब्दों से मदोन्मत्त हाथियों से अनेक वृक्ष उजड़े पड़े थे। अद्ध-दाह मुर्दे और फटे घड़ों के समान उनके कपाल वहाँ जगह-जगह पड़े थे। मांसाहारी भयंकर जीवों के रौद्र शब्द क्षण-क्षण में सुनाई पड़ते थे। अनेक जगह वहाँ मुर्दे जल रहे थे। __ और चारों ओर उनका धुआँ फैला हुआ था। मांसलोलपी कुत्ते भी वहाँ जहाँ-तहाँ भयावह शब्द करते थे। चारों ओर वहाँ राख की ढेरियाँ पड़ी थीं। इसलिए मार्ग जानना भी कठिन पड़ जाता था। एवं चारों ओर वहाँ हड्डियाँ भी पड़ी थीं। बहुत काल अंधकार में इधर-उधर घूमने पर किसी वट वृक्ष के नीचे कुछ दीपक जलते हुए कुमार को दीख पड़े वह उसी वृक्ष की ओर झुक पड़ा और वृक्ष के नीचे आकर उसे धीर-वीर जयशील स्थिरचित्त चिरकाल से उद्विग्न एवं जिसके चारों ओर फूल रखे हुए हैं कोई उत्तम पुरुष दीख पड़ा। पुरुष को ऐसी दशापन्न देख कुमार ने पूछा ___भाई ! तू कौन है ? क्या तेरा नाम है ? कहाँ से तू यहाँ आया? तेरा निवास स्थान कहाँ हैं ? और तू यहाँ आकर क्या सिद्ध करना चाहता है ? कुमार के ऐसे वचन सुन उस पुरुष ने कहा Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २६१ राजकुमार ! मेरा वृत्तांत अतिशय आश्चर्यकारी है यदि आप उसे सुनाना चाहते हैं तो सुनें मैं कहता हूँ ।।३२-४६।। विजयार्बोत्तरश्रेण्यां पत्तने गगनप्निये । भूपतिर्वायुवेगोऽहं विद्याधरनेश्वरः ॥४७॥ एकदा मंदरे रम्ये वंदितुं श्री जिनालयान् । जगामानेक भूमीश सेवितांह्निः स्वमार्गतः ॥ ४८ ॥ विजयाओँचले तत्र युग्मश्रेणी विराजते । वालुकापुरनाथस्य सर्वविद्याधरे शिनः ॥ ४६॥ सुभद्रा तनुजा रम्या यौवन श्री विडंबिता । सुभद्रा च नितंबस्य स्फीतस्य धारिणी शुभा ॥ ५० ॥ वयस्याभिः समं दैवात्मंदिरे द्युतिसुंदरे । आजगाम मृगाक्षी सा दधती रतिसंभ्रमम् ॥ ५१ ।। प्रेक्ष्य तां विह्वलीभूतः संहतः कामसायकैः । शिथिलीभूतसर्वांगो बभूवाहं च तन्मयः ।। ५२॥ ततस्तां च समादायाटितो दिव्यं च भारतम् । चक्राणो जन्मसाफल्यं तया सार्द्ध समुत्सुकः ।। ५३ ।। खगचक्री परिज्ञाय तत्सखीवदनाद्व तम् । तां मामनुसमायातो विमानेः पूरयन्दिशः ॥ ५४॥ तेनाहं युद्धवान् दीर्घ नानाविद्याधरेशिना । विद्याभिः खंडखंडैश्च विद्यावद्भिर्बलोद्धतैः ॥ ५५ ॥ समे विद्यां विहत्यैव तामादाय गतः पुरम् । भूगोचरो बभूवाहमत्रास्थां शोकलावितः ॥ ५६ ।। द्वादशाब्दं च जाप्येनैतन्मंत्रस्य विषेत्स्यति । विद्यासमूहमेतद्धि विद्यते सूरिदेशने ॥ ५७ ॥ इत्थं कृतेऽपि विद्या नो नो सिद्धागंतुमुत्सुकः । गृहमुद्विग्नचित्तोऽहमीहे मोहितमन्मतिः ।। ५८ ।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् निरूपय । विभ्रमम् ।। ५६ ।। अभयोऽपि वचोऽवादीत्तन्मंत्रं मे ततो मंत्रं जगौ खगः कुमारं मार सबीजं लघु संलभ्य जजाप वृषपाकतः । सिषेध निखिला विद्याः सर्वं पुण्यफलं हि वै ॥ ६० ॥ तत्प्रभावात्खगस्यापि विद्याः सिद्धाः शुभोदयात् । ततस्तौ स्नेहवृद्धयर्थमन्योन्यं मर्मुदा ॥ ६१ ॥ स चोद्वसितं लब्ध्वा रुष्टः संकल्पदंतिनम् । विकुर्व्य मेघसंघातं रोहयित्वा च चेलनां ।। ६२ ।। बभ्राम नगरं राज्ञी मासं पूर्णमनोरथा । समासेदे गृहं तूर्णं त्रिवली भंगभेदिता ॥ ६३ ॥ संपूर्णाद्दोहदाद्राशी पूर्वावस्थां समत्यजत् । शुभं सुसातकुंभाभा वृक्षे वल्लीव नूतना ॥ ६४ ॥ सहासा सरसा सिद्ध सुसंगास्मरसायका । सा प्रसूत सुतं सारं गजादिसुकुमारकं ।। ६५ ।। ततो मेघकुमारं च तनुजं समजीजनत् । सप्तपुत्रैश्च सा रेजे तारका सप्तयोगिभिः ॥ ६६ ॥ अभिन्नसुखसंतानौ चेलना श्रेणिकौ परौ । रेमाते रतिसंपन्नावखिन्नौ रतिलीलया ।। ६७ ॥ विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर दिशा में एक गमन प्रिय नामक नगर है। गमन प्रिय नगर का स्वामी अनेक विद्याधर और मनुष्यों से सेवित मैं राजा वायुवेग था । कदाचित् मुझे विजयार्द्ध पर्वत पर जिनेन्द्र चैत्यालयों के वन्दनार्थं अभिलाषा हुई । मैं अनेक राजाओं के साथ आकाश मार्ग से अनेक नगरों को निहारता हुआ विजयार्द्ध पर्वत पर आ गया। उसी समय राजकुमारी सुभद्रा जो कि बालकपुर के महाराजा की पुत्री थी। अपनी सखियों के साथ विजयार्द्ध पर्वत पर आई । राजकुमारी सुभद्रा अतिशय मनोहर थी । यौवन की अद्वितीय शोभा से मंडित थी, मृगनयनी थी । उसके स्थूल किन्तु मनोहर नितम्ब उसकी विचित्र शोभा बना रहे थे एवं रति के समान अनेक विलास संयुत होने से वह साक्षात् रति ही जान पड़ती थी । ज्यों ही कमल नेत्रा सुभद्रा पर मेरी दृष्टि पड़ी मैं बेहोश हो गया कामबाण मुझे बेहद रीति से बेधने लगे। मेरा तेजस्वी शरीर भी उस समय सर्वथा शिथिल हो गया विशेष कहाँ तक कहूँ तन्मय होकर मैं उसी का ध्यान करने लगा । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २९३ सुभद्रा बिना जब मेरा एक क्षण भी वर्ष सरीखा बीतने लगा तो बिना किसी के पूछे मैं जबरन सुभद्रा को हर लाया और गमन प्रिय नगर में आकर आनन्द से उसके साथ भोग भोगने लगाा। इधर मैं तो राजकुमारी सुभद्रा के साथ आनन्द से रहने लगा और उधर किसी सखी ने बालकपुर के स्वामी सुभद्रा के पिता से सारी बोखता कह सुनाई और मेरा ठिकाना भी बतला दिया सुभद्रा की इस प्रकार हरण वार्ता सुन मारे क्रोध के उसका शरीर भभक उठा और विमान पंक्तियों से समस्त गगन मंडल को आच्छादन करता हुआ शीघ्र ही गमन प्रिय नगर की ओर चल पड़ा। बालकपुर के स्वामी का इस प्रकार आगमन मैंने भी सुना अपनी सेना सजाकर मैं शीघ्र ही उसके सन्मुख आया। चिरकाल तक मैंने उसके साथ और अनेक विद्याओं को जानकर तीक्ष्ण खड्गों धारी उसके योद्धाओं के साथ युद्ध किया अन्त में बालकपुर के स्वामी ने अपने विद्या बल से मेरी समस्त विद्या छीन ली सुभद्रा को भी जबरन ले गया। विद्या के अभाव से मैं विद्याधर भी भूमि गोचरी के समान रह गया। अनेक शोकों से आकुलित हो मैं पुन: उस विद्या के लिए यह मंत्र सिद्ध कर रहा हूँ बारह वर्ष पर्यन्त इस मंत्र के जपने से वह विद्या सिद्ध होगी ऐसा नैमित्तिक ने कहा है। किन्तु बारह वर्ष बीत चुके अभी तक विद्या सिद्ध न हुई इसलिए मैं अब घर जाना चाहता हूँ। ज्यों ही कुमार ने उस पुरुष के मुख से ये समाचार सुने शीघ्र ही पूछा भाई वह कौन-सा मन्त्र है मुझे भी तो दिखाओ देखू तो वह कैसा कठिन है ? कुमार के इस प्रकार पूछे जाने पर उस पुरुष ने शीघ्र ही वह मंत्र कुमार को बतला दिया। कुमार अतिशय पुण्यात्मा थे उस समय उनका भाग्य सुभाग्य था इसलिए उन्होंने मंत्र सीखकर शीघ्र ही इधरउधर कुछ बीज क्षेपण कर दिये और बात की बात में वह मंत्र सिद्ध कर लिया मंत्र से जो-जो विद्या सिद्ध होने वाली थी शीघ्र ही सिद्ध हो गई जिससे उसे परम संतोष हो गया एवं दोनों महानुभाव आपस में मिल-भेंट कर बड़े प्रेम से अपने-अपने स्थान चले गये। मंत्र सिद्ध कर कुमार अपने घर (राजमहल) आये विद्या बल से उन्होंने शीघ्र ही कृत्रिम मेघ बना दिये। रानी चेलना को हाथी पर चढ़ा लिया इच्छानुसार और जहाँ-तहाँघमाया। जब उसके दोहले की पति हो गई तो वह अपने राजमहल में आ गई। दोहले की पति कठिन समझ जो उसके चित्त में खेद था वह दूर हो गया। अब उसका शरीर सुवर्ण के समान चमकने लगा। नवमास के बीत जाने पर रानी चेलना के अतिशय प्रतापी शत्रुओं का विजयी पुत्र उत्पन्न हुआ। और दोहले के अनुसार उसका नाम राजकुमार रखा गया। राजकुमार के बाद रानी चेलना के मेघकमार नाम का पुत्र उत्पन्न हआ। सात ऋषियों से आकाश में जैसी तारा शोभित होती है रानी चेलना भी ठीक उसी प्रकार सात पुत्रों से शोभित होने लगी। इस प्रकार आपस में अतिशय सुखी समस्त खेदों से रहित वे दोनों दंपती आनन्दपूर्वक भोग भोगते राजगृह नगर में रहने लगे ।।४७-६७॥ एकदा नृपसामंत किरीट तटरत्नजैः । मयूखैमंडितांह्रयब्जः सुशब्दमगधैः स तः ॥ ६८ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् रत्नश्री चित्रनक्षत्र पवित्र गगनच्छवि । सिंहासनं समासीन उदयाद्रिं तमोहरः ।। ६६ ।। पयः पयोधि संरंगत्तरलोत्तुंग भंगुरैः । तरंगैरिव संवीज्यमानः खलु प्रकीर्णकः ॥ ७० ॥ संसदि श्रेणिको यावदास्ते छत्रपवित्रतः । तावत्प्रसूनलावी चा जगामद्वास्थवेदिनः ।। ७१ ।। तं प्रणम्य सभासीनं षट्कालप्रभवैर्वरैः । प्राभूतैः फलपुष्पैश्च नवीनैश्च व्यजिज्ञपत् ।। ७२॥ निःशेषपुण्य संस्थान महीभृत्यूजिताहिक । करुणा क्रांतचेतस्क शक्रचक्र विभूतिभाक् ॥ ७३ ॥ देव ! श्रेणिक ! भूपेंद्र ! राजंस्त्वद्वषनोदितः । समाट वर्द्धमानेशो भगवान्विपुलाचले ।। ७४ ।। तत्प्रभावाने जाता वनश्री: सफलाऽखिला । सपुष्पा मदनोद्दीप्ता यौवनाद्योषिता यथा ।। ७५ ।। सरांसि रसपूर्णानि सपदमानि वराणि च । निर्मलानि गभीराणि विद्वच्चेतांसीवा बभुः ।। ७६ ।। सवंशा तिलकोद्दीप्ता कुलीना मदनाकुला । सुवर्णा मन्मथारूढा वनश्री स्त्रीव संबभौ ।। ७७ ।। भृङ्गझंकार वाचाला पुष्पहास्या फलस्तनी। रक्तकामांगा वनश्रीोषितेवच ।। ७८ ॥ स्वरूप कदाचित् अनेक राजा और सामंतों से सेवित भले प्रकार बन्दीजनों से स्तुत महाराज श्रेणिक छत्र और चंचल चमरों से शोभित अत्युन्नत सिंहासन पर बैठते ही जाते थे कि अचानक ही सभा में वनमाली आया। उसने विनय से महाराज को नमस्कार किया एवं षटकाल के फल और पुष्प महाराज को भेंट कर वह इस प्रकार निवेदन करने लगा। समस्त पुण्यों के भंडार ! बड़े-बड़े राजाओं से पूजित ! दयामय चित्त के धारक ! चक्र और इन्द्र की विभूति से शोधित ! भो देव ! विपुलाचल पर्वत पर धर्म के स्वामी भगवान महावीर का समवसरण आया है। भगवान के समवसरण के प्रसाद से वनश्री साक्षात् स्त्री बन गई है क्योंकि स्त्री जैसी पुत्ररूपी फलयुक्त होती है वनश्री भी स्वादु और मनोहर फलयुक्त हो गई है। स्त्री जैसी सपुष्पा रजोधर्म युक्त होती है । वनश्री भी सपुष्पा हरे-पीले अनेक फूलों से सज्जित हो जाती है। स्त्री जैसी यौवन Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २६५ अवस्था में मदनोदीप्ता काम से दीप्त हो जाती है। वनश्री भी मदनोदीप्ता मदन वृक्ष से शोभित हो जाती है। भगवान के समवसरण की कृपा से तालाबों ने सज्जनों के चित्त की तुलना की है क्योंकि सज्जनों का चित्त जैसा रसपूर्ण करुणा आदि रसों से व्याप्त रहता है तालाब भी उसी प्रकार रसपूर्ण जल से भरे हुए हैं। सज्जनों का चित्त जैसा सपद्मा-अष्टदल कमलाकार होता है तालाब भी सपग मनोहर कमलों से शोभित हैं। सज्जन चित्त जैसा वर उत्तम है। तालाब भी वर-उत्तम है। सज्जन चित्त जैसा निर्मल होता है तालाब भी उसी प्रकार निर्मल है। सज्जनों के चित्त जैसे गम्भीर होते हैं तालाब भी इस समय गम्भीर हैं इस प्रकार से भी वनश्री ने स्त्री की तुलना की है। क्योंकि स्त्री जैसी सवंशा-कुलिना होती है वनश्री भी सवंशा बाँसों से शोभित है। स्त्री जैसी तिलकोदीप्ता तिलक से शोभित रहती है वनश्री भी तिलकोदीप्ता-तिलक वृक्ष से शोभित है। स्त्री जैसी मदनाकुला-काम से व्याकुल रहती है वनश्री भी मदनाकुला-मदन वृक्षों से व्याप्त है। स्त्री जैसी सुवर्णा मनोहर वर्ण वाली होती है वनश्री भी सुवर्णा हरे-पीले वर्णों से युक्त है। स्त्री के सर्वांग में जैसा मन्मथ काम जाज्वल्यमान रहता है वनश्री भी मन्मथ जाति के वृक्षों से जहाँ-तहाँ व्याप्त है। पद्मिनी स्त्री जैसी भौरों की जंघारों से युक्त रहती हैं वनश्री पुष्परूपी हास्ययुक्त है। स्त्री जैसी स्तन युक्त होती है वनश्री भी ठीक उसी प्रकार फलरूपी स्तनों से शोभित है॥६८-७८॥ नकुलाः सकला नागैररम्यंते प्रभावतः । मार्जारशिशवो राजन् मूषकैर्वैरदूषितैः ॥ ७६ ।। सिंहशावं करेणुश्च स्तन्यं सुतस्यामोदतः । पाययति तथा धेनु द्वीपिशावं समीपगं ॥ ८० ॥ तत्प्रभावाद्विना वैरा रभवन् जंतवोऽखिलाः । नटंति नागतुंडिकादर्दुरा नागमूनि च ।। ८१ ।। देवदेव नरेशाद्यैः पर्युपासित शासन । समाट सन्मतिः केन तत्प्रभावो हि वर्ण्यते ।। ८२ ।। आनंद प्रमदालीढां गिरं श्रुत्वा वनेशिनः । नरेशो हर्षरोमां च चर्म देही बभूव च ।। ८३ ।। उत्थाय सहसा शूर गत्वा सप्तपदानि तां । अनमत्कुकुभां शुभ्रादभ्रकीत्तिः सुमूत्तिमान् ।। ८४ ।। शारीरजं तदा तस्मै भूषणं वसनं धनं । ददौ नृपो धृतानंद इंदोरिव सारित्पतिः ।। ८५ ।। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् आनंदान्नंद भेरी स दापयामास भक्तितः । जगज्जाग्रत्कृते भूपो रक्षिताखिलः सत्क्षितिः ।। ८६ ।। केचिद्वीताश्रिता केचित्संदतोइंति दीपिताः । यथार्थ रथसंरूढाः समाजग्मुर्गे पांगणे ।। ८७ ।। ततः सांतपुरः पौरै पैः सामंत मंत्रिभिः । नाना सपर्यया युक्तश्चचाल मगधेश्वरः ॥ ८८ ॥ करेणुकर पादाब्ज समुत्थापित पांशवः । दानोदकेन ते नूनं विधाप्यंते च दंतिभिः ।। ८६ ।। कर्णजाहं वचो यत्र श्रूयते न जनैः क्वचित् । जयारव सुवाचालैरन्योन्यं मुख लोकनैः ।। १०॥ आनकादिक नादेनाकारयंतीव दिग्वधूः । सैन्याः संन्यस्त चेतस्का जिते जिताजवंजवे ।। ६१ ।। आतपत्र विभिन्नार्क दीधितिर्मगधाधिपः । क्षणेन क्षणसंपन्नः समापत्समवसृतिं ।। ६२ ।। समुत्तीर्य गजाद्भप उत्तस्थे समवसृति । पश्यन्मातापहार्यादिस्तूपशोभां च वंदितां ।। ६३ ।। परीत्य भगवंतं तं मुर्खधृतनिजांजलिः । पूजां चक्रे महामंत्ररिति पूर्तर्महीधरः ॥ ६४ ॥ क्षीरोदधिसुत्रिश्रोतो जलतुल्यैश्चचंद्रितैः । चंद्रानैर्वारिभिर्भक्त्या चायते तं विकिल्विषं ।। ६५ ।। आमोदाकृष्टषट्पादैहरिचंदन सद्रवैः । अखंडैस्तंदुलर्मुक्तामयस्तं यजतिस्म सः ।। ६६ ॥ पुष्पबाणविनाशाय पुष्पराजीवचंपकैः । चरुभिश्चारुपक्वान्नैरर्चितस्तेन सन्मतिः ॥ ६७ ॥ रत्नश्चंद्रजर्दी# दीपैदिमुखद्योतनैः । धूपयंति जिनाहि ते कृष्णागरुसुधृपतः ॥ १८ ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् सफलति जिनस्याग्रे फलैस्ते पुष्पांजलि दुदुस्तस्मै सफलांशुभिः । विपापिने ॥ ६६ ॥ नरेंद्राद्या प्रभो ! इस समय नौले आनन्द से सर्पों के साथ त्रीड़ा कर रहे हैं। बिल्ली के बच्चे वैररहित मूसों के साथ खेल रहे हैं । अपना पुत्र समझ हथिनी सिंहनी के बच्चों को आनन्द से दूध पिला रही है और सिंहनी हथिनियों के बच्चों को प्रेम से दूध पिला रही है । प्रजापालक ! समवसरण के प्रताप से समस्त जीव वैर-रहित हो गये हैं । मयूरगण सर्पों के मस्तकों पर आनन्द से नृत्य कर रहे हैं । विशेष कहाँ तक कहा जाय समय नहीं सम्भव भी काम बड़े-बड़े देवों से सेवित महावीर भगवान की कृपा से हो रहे हैं । माली के इस प्रकार अचित्य प्रभावशाली भगवान महावीर का आगमन सुन मारे आनन्द के महाराज का शरीर रोमांचित हो गया । २६७ उदयादि से जैसा सूर्य उदित होता है महाराज भी उसी प्रकार शीघ्र ही सिंहासन से उठ पड़े। जिस दिशा में भगवान का समवसरण आया था उस दिशा की ओर सात पैंड़ चलकर भगवान को परोक्ष नमस्कार किया । उस समय जितने उनके शरीर पर कीमती भूषण और वस्त्र थे तत्काल उन्हें माली को दे दिया धन आदि देकर भी माली को सन्तुष्ट किया। समस्त जीवों की रक्षा करने वाले महाराज ने समस्त नगर निवासियों को जानकारी के लिए बड़ी भक्ति और आनन्द से नगर में ड्योढ़ी पिटवा दी । ड्योढ़ी की आवाज सुनते ही नगर निवासी शीघ्र ही राजमहल के आँगन में आ गये उनमें अनेक तो घोड़ों पर सवार थे अनेक हाथी पर और अनेक रथों पर बैठे थे । सब नगर निवासियों के एक चित्त होते ही रानी पुरवासी राजा सामंत और मंत्रियों से वेष्ठित महाराज शीघ्र ही भगवान की पूजार्थ वन की ओर चल दिये । मार्ग में घोड़े आदि के पैरों से जो धूल उठती थी वह हाथियों के मद जाल से शांत हो जाती थी । 1 उस समय जीवों के कोलाहलों से समस्त आकाश व्याप्त था इसलिए कोई किसी की बात तक भी नहीं सुन सकता था । यदि किसी को किसी से कुछ कहना होता था तो वह उसकी मुँह की ओर देखता था । और बड़े कष्ट से इशारे से अपना तात्पर्य उसे समझाता था । उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो बाजों के शब्दों से सेना दिस्त्रियों को बुला रही है । उस समय सबों का चित्त कर्म विजयी भगवान महावीर में लगा था । और छत्तों का तेज सूर्य तेज को भी फीका कर रहा था । इस प्रकार चलते-चलते महाराज समवसरण के समीप जा पहुँचे । समवसरण को देख महाराज शीघ्र ही गज से उतर पड़े। मानस्तम्भ और प्रातिहार्यों की अपूर्व शोभा देखते हुए समवसरण में प्रवेश किये । वहाँ जिनेन्द्र महावीर को विशाल किंतु मनोहर सिंहासन पर विराजमान देख भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं मंत्रपूर्वक पूजा करना प्रारम्भ कर दिया। सबसे प्रथम महाराज ने क्षीरोदधि के समान उत्तम और चन्द्रमा के समान निर्मल जल से प्रभु की पूजा की। पश्चात् चारों दिशा में महकने वाले चन्दन से और अखंड तंदुल से जिनेन्द्र देव की पूजा की । कामबाण के विनाशार्थ उत्तमोत्तम चंपा आदि पुष्प और क्षुधा रोग विनाशार्थं उत्तमोत्तम स्वादिष्ट पकवान चढ़ाये । समस्त दिशा में प्रकाश करने वाले रत्नमयी दीपकों से और उत्तम धूप से भी भगवान का पूजन किया । एवं मोक्ष फल की प्राप्ति के लिए उत्तमोत्तम फल और Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अनर्घ्य पद की प्राप्त्यर्थ अर्घ्य भी भगवान के सामने चढ़ाये। जब महाराज श्रेणिक अष्ट-द्रव्य से भगवान की पूजा कर चुके तो उन्होंने सानन्द हो इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ कर दिया ॥७६-६६॥ प्रारेभे नृपतिर्नदान्नुति निर्धूतकिल्विषां । भगवन् देवदेवेश शकचक्रिनमस्कृतं ।।१००॥ न यांति गुण पारं ते योगिनो गौतमादयः । शका अपि विशक्तास्त्वद्गुणस्त्रोत्रेऽभवन्जिन ॥१०१॥ मन्ये मारस्त्वया दग्धो यतस्तद्भस्मभिर्हरः । लिप्तांगोऽभूद्धरिः स्त्रीणां वृदवासीभयात्पुनः ॥१०२।। चतुर्वकोण ब्रह्मा च चकितः पश्यति स्फुटं । दिशो दिशभयात्तस्य स्वास्थ्यं नाप्नोति कुत्र चित् ।।१०३।। त्वयि ज्ञानं यथा भातिनैवं हरिहरादिषु । उच्चस्तरत्वं स्वर्णाद्रौ नवं चान्यत्र पर्वते ॥१०४।। ३च्योतन्मदसमालीढभगझंकारकोपितः । नाक्रमति गजो गर्वी त्वत्पादाश्रितमानवं ॥१०५।। त्वद्धयानाष्टापदाद्देव दूरं याति च सद्धरिः । नृणां मदेभकुंभानां विदारविचक्षणः ॥१०६॥ पप्लोषते नरं नैव कल्यांतसमयप्रभः । उस्फुलिंगोज्वलज्वालो वह्निस्त्वत्पादसंश्रितं ॥१०७।। त्वन्नामनाग सद्दाममंत्रकीलितविग्रहः । सरीसृपो विषा तीतो भवत्येव महामुने ॥१०॥ वडवानलसंदीप्ते पीठपाठीनपूरिते । अब्धौ तरंति मानुष्यारत्त्वत्पादपोतसंस्थिताः ।।१०।। वलात्कृतमहाखङगे निस्त्रिशगजगजिते । रणे जयंति मानुष्यास्त्वन्नाम कवचावहाः ॥११०॥ कूष्टमंडलपीनादि जलोदरधरा नराः । त्वन्नाभभेषजेनैव नीरोगाश्च भवंति वै ॥१११॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् २६६ श्रृंखला बद्ध सर्वांगा निगडा पादबंधिताः । निर्बधास्तव सन्नामनिस्त्रिश कर वालतः ॥११२।। वविनायका षेऽत्र दूरं यांति तवेक्षणात् । स्थावरं जंगमं क्ष्वेडं सुधापूरसमं भवेत् ।।११३॥ यद्यत्समीहितं लोके नणां करतले गतम । भवेज्जिन महामंत्र वशीकरविधानतः ॥११४॥ आजवंजवमग्नानां देहिनां कृतेगेहिनां । त्वमेवालंबनं नाथ ! नान्यः कोऽपि जगत्त्रये ॥११५।। गणानां गणनातीत गणानां गणनां प्रभां । प्रभो ! वक्ष्ये कथंचित्ते यथार्थां बुद्धिभावतः ॥११६॥ गंभीरा गणनातीताः प्रसन्नाः परमाः पराः । बहवस्ते गुणा: संति नातो नाथाधिकास्त्वयि ॥११७॥ अतो नमो जिनेंद्राय नमस्तुभ्यं परात्मने । नमस्तुभ्यं शिवाधीश नमस्ते परमात्मने ॥११८॥ नमः कल्याणरूढा नमस्तुभ्यं महामते । नमो योगाधिनाथाय नमस्ते वीरसन्मते ।।११६॥ हे समस्त देवों के स्वामी ! बड़े-बड़े इन्द्र और चक्रवतियों से पूजित आप में इतने अधिक गुण हैं कि प्रखर ज्ञान के धारक गणधर भी आपके गुणों का पता नहीं लगा सकते। आपके गुण स्तवन करने में विशाल शक्ति के धारक इन्द्र भी असमर्थ हैं। मुझे जान पड़ता है काम को सर्वथा आपने ही जलाया है। क्योंकि महादेव तो उसके भय से अपने अंग में उसकी विभूति लपेटे फिरते हैं। विष्णु रात-दिन स्त्री समुदाय में घुसे रहते हैं। ब्राह्मण भी चतुर्मुख हो चारों दिशा की ओर कामदेव को देखते रहते हैं । और सदा भय से कंपते रहते हैं। प्रभो ! ऊँचा पना जैसा मेरु पर्वत में है अन्य किसी में नहीं। दीनबन्धो ! जो मनुष्य आपके चरणाश्रित हो चुका है यदि वह मत्त और सुगंधि से आये भौंरों की झंकार से अतिशय क्रुद्ध महाबली गज के चक्र में भी आ जाय तो भी गज उसका कुछ नहीं कर सकता। जिस मनुष्य के पास आपका ध्यानरूपी अष्टापद मौजूद है मत्त हाथियों के गंडस्थल विदारण करने में भी चतुर सिंह उसे कष्ट नहीं पहुँचा सकता। आपके चरण सेवी मनुष्य का कल्पांत कालीन और अपने फुलिंगों से जाज्वल्यमान अग्नि भी कुछ नहीं कर सकती। महाप्रभो! जिस मनुष्य के हृदय में आपकी नामरूपी नागदमनी विराजमान है। चाहे सर्प कैसा भी भयंकर हो उस मनुष्य के देखते ही शीघ्र निर्विष हो जाता है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० श्रीशभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् दयासिन्धो! जो मनुष्य आपके चरण-रूपी जहाज में स्थित है चाहे वह वड़वानल से व्याप्त, मगर आदि जीवों से पूर्ण समुद्र में ही क्यों न जा पड़े वात की बात में तैरकर पार पर आ जाता है। जिनेन्द्र ! जिन मनुष्यों ने आपका नाम रूपी कवच धारण कर लिया है वे अनेक भाले, बड़े-बड़े हाथियों के चीत्कारों से परिपूर्ण, भयंकर भी संग्राम में देखते-देखते विजय पा लेते हैं। कोढ़ जलोदर आदि भयंकर रोगों से पीड़ित भी मनुष्य आपके नामरूपी परमौषधि की कृपा से शीघ्र ही नीरोग हो जाते हैं । गुणाकर ! जिनका अंग संकलों से जकड़ा हआ है। हाथ-पैरों में बेड़ियाँ पड़ी हैं यदि ऐसे मनुष्यों के पास आपका नामरूपी अद्भुत खंग मौजूद है तो वे शीघ्र ही बन्धन रहित हो जाते हैं। प्रभो ! अनादि काल से संसार-रूपी घर में मग्न अनेक दुःखों का सामना करने वाले जीवों के यदि शरण हैं तो तीनों लोक में आप ही हैं। प्रभो ? कथंचित् गणनातीत मैं आपके गुणों की गणना करता हूँ। कृपानाथ ! गम्भीर गणनातीत प्रसन्न परम अतीत इतने गुण ही आप में हैं इनसे अधिक आप में गुण नहीं ऐसी बात नहीं है किन्तु आप में अनंतानन्त गुण भरे हुए हैं। इसलिए हे कल्याण रूप जिनेन्द्र ! आपके लिए नमस्कार है। महामुने! परम योगीश्वर वीर भगवान ! आप मेरी रक्षा करें॥१००-११९।। इति नुत्वा वरैर्वाक्यभगवंतं जिनेश्वरम् । प्रणिपत्य गौतमादींश्च गणाधीशान्नराधिपः ॥१२०॥ उपाविशन्नरे कोष्ठे धर्मामृतपिपासया । कुड्मलीकृत हस्ताब्जः पप्रच्छ श्रेयसंनृपः ॥१२१।। व्याजहार तदा वीरः शुभ सर्वांगभाषया । ताल्वोष्ठ वक्त्रवेष्टाभिर्मुक्तस्तं प्रतिसन्दृष ।।१२२।। राजन्भव्योत्तमाधीश शृणुतत्वानि पूर्वतः । सम्यग्दर्शन हेतूनि मोक्षसद्धामसत्पदम् ।। १२३।। जीवेतराश्रवा बंधः संवरो निर्जरा तथा । मोक्षश्चेति सुतत्त्वानि वेदनीयानि सब्दुधैः ।।१२४।। स्थावरेतरभेदेन तत्र जीवो द्विधा मतः । स्थावर: पंचधा प्रोक्तोम्वप्तेजोवायुशाखिनः ॥१२५।। चतः पर्याप्तिप्राणैश्चैकाक्षत्वं तत्र वर्तते । सूक्ष्मेतरविभेदेन पंचते ते द्विधा मताः ।।१२६॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३०१ पर्याप्तेतर सल्लब्ध्यपर्याप्तपद भेदतः । त्रैधं सर्वे भवंत्येवं देहिनो मगधेश्वर ॥१२७।। तत्र पृथ्वी चतुर्धास्यात् पृथ्वीजीव स्तथाधरा । पृथ्वीकायिक इत्येवं पृथ्वीकायस्ततोऽपरः ॥१२८॥ एवं योज्यं च सर्वत्र जलादिषु चतुर्षु च । घनांगुलस्यासंख्यात भागदेहाः समादिमाः ॥१२६॥ वनस्पति शरीरं च संख्यातांगुलमिष्यते । उत्कर्षतो जघन्याच्चांगुला संख्यातभागकं ॥१३०॥ शुद्धतर भुवामायुर्दादशाब्द सहस्रकम् । द्वाविंशति सहस्राण्यणपां सप्तसहस्रकं ॥१३१।। घस्रत्रिकं च तेजस्येवायौ त्रिकसहस्रकं । वनस्पत्यां सहस्त्राणां परायुर्दशसंमतम् ।।१३२॥ द्विव्युदध्यक्षभेदेन विकलास्त्रिविधाः मताः । संजीतरविभेदेन पंचाक्षा द्विविधा तथा ॥१३३॥ पंचाक्षाः संज़िनस्तत्र भियंते तुर्यधाखिलाः । नारकाःखलु तिर्यंचो जलजै जैस्त्रिविधापक्षिभेदतः॥१३४॥ कर्मजा भोगभूजाता नरा अपि द्विधा नृपः । त्रिपंचकर्मभूष्वेव जाता मोक्षाधिकारिणः ॥१३५॥ देवाश्चतुर्विधा राजन् भावना वानव्यंतराः । ज्योतिष्काः कल्पजातस्त्र भावना दशधा पुनः ।। १३६॥ अष्टधा व्यंतराः पंच विधा ज्योतिः सुरानृप । स्वर्गिणो द्विविधाः कल्पा:कल्पातीताश्चमागध ।।१३७॥ विस्तीर्णं जिननाथेन जीवतत्त्वं निरूपितं । अजीवः पंचधा प्रोक्तो. धर्मादिपदभेदतः ॥१३८।। लोकप्रदेशमात्रं च धर्मद्रव्यं प्रवर्त्तते । कारणं चैकभेदं चामूर्तं सदादिसंयुतं ॥१३६।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अधर्मद्रव्यमाज्ञातं । तादृशं स्थितिकारणं । वृक्षच्छायेव विख्यातमनंतगुणपूरितं ॥१४०।। एकोऽनंतप्रदेशी च लोकेतर विभेदतः । द्विधाकाशोऽवगाहस्य दाता मूतॊगृहादिवत् ॥१४१।। कालाणवो विसंख्याता भिन्ना रत्नादिराशिवत् । वर्त्तना हेतवः षण्णां द्रव्याणां चक्रवन्नृप ॥१४२॥ शरीरेंद्रिय सदगेह विमानोद्योतभेदतः ।। अनंताः पुद्गला लोके कर्माहारादिभेदतः ॥१४३।। मिथ्यात्वाविरती योगाः कषाया आश्रवामताः । कारणं द्रव्यभावाभ्यां द्विधा स भिद्यते पुनः ।।१४४॥ बंधोऽष्टधामतो राजन् कर्मभेदेन सोऽखिलः । द्रव्यभावविभेदेन द्विधा भिद्येत भूपते ॥१४५॥ चतुर्धा निखिलो बंधो विभावपरिणामतः । प्रथमः प्रकृतेबंध प्रदेशाख्यो द्वितीयकः ।। १४६।। स्थितेबंधस्तृतीयस्तु व्यनुभागश्चतुर्थकः । आजवंजव सद्धेतुः कृषेर्बीजं यथा नृप ।।१४७॥ अनुप्रेक्षाव्रतैर्धर्म परीषहजयस्तथा । कर्मणां संवरो द्वधा द्रव्यभाव विभेदत: ।।१४८।। निर्जरा च द्विधा हीत्थं सम्यग्दृष्ट्यादिभेदतः । तथैकादशधा ज्ञेया संख्यातद्रव्यभेदतः ।।१४६।। सविपाकाऽबिपाका च निर्जरा हि द्विधामता । आद्या साधारणा नृणामपरा च कृता नृभिः ॥१५०।। द्रव्यभावादिभेदेन कर्मणां मोचनं नृप । मोक्षः स कथ्यते सद्भिः सर्वा सात विदूरगः ॥१५१।। पुण्यपापैद्विधा भिन्नैः प्रत्येक तत्वमायुतम् । पदार्थ इति कथ्येत नवधा भव्यभूपते ।।१५२।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३०३ पदार्थं नवभिः सार्द्ध सधामव्रतमुत्तममं । अनगारव्रतं चाख्यद्भगवांस्तं विशेषतः ॥१५३॥ प्रश्नतो नृपतेश्चाख्यत्त्रिषष्टिनरगोचरं । पुराणं पूरितं पुण्यविस्तीर्ण. तत्थकथानकैः ॥१५४॥ अन्यो यो द्वापरश्चित्ते नाशयामासतः नृपः । भगवद्वाक्यतो दीपादंधकारो निकेतने ॥१५॥ इस प्रकार भगवान महावीर को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर और गौतम गणधर को भी भक्तिपूर्वक सिर नवाकर महाराज श्रेणिक मनुष्य कोठे में बैठ गये। एवं धर्मरूपी अमृत पान की इच्छा से हाथ जोड़कर धर्म बाबत कुछ पूछा--महाराज श्रेणिक के इस प्रकार पूछने पर समस्त प्रकार की चेष्टाओं से रहित भगवान महावीर अपनी दिव्य वाणी से इस प्रकार उपदेश देने लगे राजन् ! सकल भव्योत्तम ! प्रथम ही तुम सात तत्वों का श्रवण करो। सातों तत्व सम्यग्दर्शन के कारण हैं और सम्यग्दर्शन मोक्ष का कारण है। वे सात तत्व जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष हैं। जीव के मूल भेद दो हैं नस और स्थावर । स्थावर पाँच प्रकार हैं-पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति। ये पाँचों प्रकार के जीव चारों प्राण वाले होते हैं। और इनके केवल स्पर्शन इन्द्रिय होती है। ये पाँचों प्रकार के जीव सूक्ष्म और स्थल के भेद से दो प्रकार के भी कहे गए हैं। और ये सब जीव पर्याप्त अपर्याप्त और लब्ध्य पर्याप्त इस रीति से तीन के प्रकार भी हैं। पृथ्वी जीव के चार प्रकार हैं-पृथ्वी काय, पृथ्वी जीव, पृथ्वी और पृथ्वी कायिक । इसी प्रकार जलादि के भी चार-चार भेद समझ लेना चाहिये। आदि के चार जीव धनांगुल के असंख्यात वे भाग शरीर के धारक हैं। वनस्पति काय के जीवों का उत्कृष्ट शरीर परिमाण तो संख्यातांगुल है और जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग हैं। शुद्ध तर पृथ्वी जीवों की आयु बारह हजार बर्ष की है। जल जीवों की बाईस हजार वर्ष की है। तेज कायिक जीवों की सात हजार और तीन वर्ष की है। एवं वायु कायिक जीवों की तीन हजार और वनस्पति कायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष की है। विकलेन्द्रिय जीव तीन प्रकार के हैं। दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय और चौ इन्द्रिय । संज्ञी और असंज्ञी के भेद से पंचेन्द्रिय भी दो प्रकार हैं। पंचेन्द्रिय जीव, मनुष्य, देव, तिर्यंच और नारकी भेद से भी चार प्रकार के हैं। नारकी सातों नरक में रहने के कारण सात प्रकार के हैं । तिर्यंचों के तीन भेद हैं-जलचर, स्थलचर, और नभचर । भोग भूमिज और कर्म भूमिज के भेद से मनुष्य दो प्रकार के हैं । जो मनुष्य कर्म भूमिज हैं वे ही मोक्ष के अधिकारी हैं। देव भी चार प्रकार के हैं। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। भवनवासी दस प्रकार हैं-व्यत्तर आठ प्रकार, ज्योतिषी पाँच प्रकार और वैमानिक दो प्रकार हैं। इस प्रकार संक्षेप से जीवों का वर्णन कर दिया गया है । अब अजीव तत्व का वर्णन भी सुनिये। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् __ अजीव तत्व के पांच भेद हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल। उनमें धर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी जीव और पुद्गल के गमन में कारण, एक, अपूर्व और सत्ता रूप द्रव्य लक्षणयुक्त है । अधर्म द्रव्य भी वैसा ही है किन्तु इतना विशेष है कि यह स्थिति में सहकारी है। आकाश के दो भेद हैं-एक लोकाकाश दूसरा अलोकाकाश। लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है। और अलोकाकाश अनंत प्रदेशी है । लोकाकाश सब द्रव्यों को घर से समान अवगाह दान देने में सहायक है। काल द्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी एक और द्रव्य लक्षणयुक्त है। यह रत्नों की राशि के समान व लोकाकाश में व्याप्त है। और समस्त द्रव्यों के वर्तना परिणाम में कारण है। कर्म वर्गणा, आहार वर्गणा आदि के भेद से पुद्गल द्रव्य अनन्त प्रकार का है। और यह शरीर और इन्द्रिय आदि की रचना में सहकारी कारण है। आश्रव दो प्रकार है द्रव्याश्रव और भावाश्रव। दोनों ही प्रकार के आवक के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, आदि हैं। जीव के विभाव परिणामों से बन्ध होता है। और उसके चार भेद हैं-प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध। आश्रव का रुकना संवर है। संवर के भी दो भेद हैं-द्रव्य संवर और भाव संवर। और इन दोनों ही प्रकार के संवरों के कारण गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा आदि हैं। निर्जरा दो प्रकार की है-सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। सविपाक निर्जरा साधारण और अविपाक निर्जरा तप के प्रभाव से होती है। द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष के भेद से मोक्ष भी दो प्रकार का कहा गया है। और समस्त कर्मों से रहित हो जाना मोक्ष है। मगधेश ! यदि इन्हीं तत्वों के साथ पुण्य और पाप जोड़ दिये जाएँ तो ये ही नव पदार्थ कहलाते हैं। इस प्रकार पदार्थों के स्वरूप वर्णन के अनंतर भगवान ने श्रावक मुनि धर्म का भी वर्णन किया। महाराज श्रेणिक के प्रश्न से भगवान ने सठि शलाका पुरुषों के चरित्र का भी वर्णन किया। जिससे महाराज श्रेणिक के चित्त में जो जैन धर्म विषयक अंधकार था शीघ्र ही निकल गया। जब महाराज श्रेणिक भगवान की दिव्य ध्वनि से उपदेश सुन चुके तो अतिशय विशुद्ध मन से राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर को नमस्कार किया और विनय से इस प्रकार निवेदन करने लगे॥१२०-१५॥ निशम्येति तदा वाचः प्रणत्य गणनायकं । विशुद्धमनसा भूपः पप्रच्छ मुनिगौतमं ॥१५६।। भगवन् मे मते जैने महती मतिरुत्तमा । पुराणश्रवणात् श्रद्धा बभूव भवभंजिका ।।१५७॥ तथापि मे गणाधीश ! न स्याव्रतपरिग्रहः । कथं कथय योगींद्र तत्स्मयो मम मानसे ॥१५८।। इति श्रेणिकसंप्रश्नावाच गणनायकः । भोग संसर्गतो गाढ मिथ्यात्वोदयतस्तथा ।।१५६।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३०५ सर्पनिक्षेपणाद्राजन् दुश्चरित्रात्परिग्रहात् । बबंधिथेऽह पूर्व त्वं नरकायुश्च जन्मनि ॥१६०॥ बद्धदेवायुषांनृणां व्रतादानं भवेन्नप । नान्येषां दर्शनादानं जायते चतुरायुषं ॥१६१॥ मा भैषीर्भवतो भीमाद्भव्योऽसि भवनां वर । पुराणश्रुतिसंभूत विशुद्ध्या शुद्धमानसः ॥१६२॥ अधः करणमासाद्य संस्थित्यांतमुहूर्ततः । अपूर्वकरणं तूर्णं गमयित्वा गमादिवत् ॥१६३॥ अनिवृत्तिविधानेना , शम्येति करणत्रयात् । सप्तप्रकृतिसंतानमादिमं दर्शनं श्रितः ॥१६४॥ अंतर्मुहूर्ततश्चोर्ध्वं सम्यक्त्वोदयतो नृप । क्षायोपशमिकं राजन्नासादि च त्वया परं ॥१६॥ सप्तप्रकृतिनिःशेषक्षयात्क्षायिकमाप्तवान् निर्मलं निश्चलं नाशरहितं परमोदयम् ॥१६६।। श्रद्धानं सप्ततत्त्वानां जिनास्योद्गीतसत्पदा । सद्युक्तियुक्तसच्छात्र प्रोक्तानां दर्शनं मतं ॥१६७॥ भो भव्यात्र भवे भव्यं दर्शनं दुर्लभं मतं । नाप्यं कष्टशतै राजन् ! संसृतिद्रुमदाहकम् ॥१६८॥ दर्शनान्नोत्तमं किंचिद्दर्शनान्नोत्तमं सुखं । दर्शनान्नोत्तमं कर्म दर्शनान्नोत्तमं तपः ॥१६६॥ दर्शनात्साध्यते सिद्धिः दर्शनात्तीर्थनाथता । दर्शनादाप्यते नाको दर्शनात्सर्वसातता ॥१७०॥ यत्प्रभावावता यांति कुव्रतान्यपि देहिनां । तद्विना कुव्रता यांति सुव्रतानि च योगिनां ॥१७१॥ माभैपीभव्य तल्लाभागामिन्यत्र भारते । समत्युत्सर्पिणीकाले तीर्थकृत्पद्मनामभृत् ॥१७२।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तस्मादासन्नभव्योऽसि मा भयं व्रजसंसृतेः । इमानि भावितान्येवं कारणानि त्वयाऽधुना ॥१७३॥ समस्त दोषसंत्यक्तं सम्यग्दर्शनमाश्रितम् । विनयो विधिना राजंस्त्वयाऽसादिस्वभावतः ॥१७४॥ दधासि हृदयं शीले व्रतोद्योतनतत्परः । अष्टांग परिपूर्णं तच्छास्त्रं पारंगतवान्पुनः ॥१७५।। संवेगं भावयंश्चित्ते भवांग भोगसंचये । विदधासि तपस्यायां मनो मागध सादरं ॥१७६।। धर्मार्थे जिनपूजादौ स्वशक्या स्थाप्यतेधनं । समाधानं प्रचक्राण साधूनां विस्मयप्रदं ॥१७७।। वयावृत्त्यं यथोक्तं त्वं चर्करीषी सुयोगिषु । दोषातीतेषु सद्भक्ति जिनेषु जितवैरिषु ॥१७८॥ धर्माचार्येषु वर्येषु पर्युपासनमादरात् । बहुश्रुतेषु जैनेषु भक्त्या चेक्रीयषे मुदा ॥१७॥ आप्तोद्दिष्टेषु शास्त्रेषु भक्तिरातन्यते त्वया । अवश्यं करणीयेषु मतिरावश्यकेषु च ॥१८०॥ मार्गप्रभावनां नित्यं तनोषि वषसिद्धये । वात्सल्यं स्थापयन्मार्गे जिनधर्म समाश्रितान् ।।१८१॥ युग्माष्ट भावनाभिश्च बध्नासि मम महोच्छ्यं । तीर्थकृत्वं परं पुण्यं त्रैलोक्य क्षोभकारणं ॥१८२॥ अतो विसर्म्य सत्प्राणान् प्राप्य रत्नप्रभां परां। मध्यमायुष्य सो भुज्य भविष्णुस्तीर्थनायकः ।।१८३॥ पुण्यधाम्नि पुरेनाथ किमन्योऽधोगते: प्रियः । नित्यं दुर्गति मा सेवी श्रेणिकश्चेत्यवीवदत् ।। १८४।। आदिशन्मुनिनाथस्तमिति भूप! निशम्यतां । कालसौकरिकस्यात्र शुभायाश्च विदुर्गतिः ।।१८५॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३०७ तत्कुतश्चिदिति प्रश्ने गणपो वचनं जगौ । कालसौकरिकोऽत्रैव कुले नीचे स्थितोभृशं ॥१८६।। स्वपापकर्मणो योगाबद्धसप्तमनारकः । सप्तन्वोऽधुनाजातिस्मरोऽभूदिति संस्मरत् ॥१८७॥ पुण्यपापफलं नास्ति न संयोगश्च तैः सह । स्वयमेव प्रवर्तते जंतवो जलवत्सदा ॥१८८॥ यदि पुण्यादि संबंधस्तत्त्वतोऽस्ति नृणां महान् । मया लंभि कथं जन्म नरस्य गतश्रेयसा ॥१८६॥ अतः पुण्यं न पापं न लोके शर्म यथाकथं । इत्यातळ विवर्तेत हिंसादिककदंबके ॥१६॥ मद्यमांसाशने रक्तो मुनीनां घातनोद्यतः । परमायुर्बबंधापि नारकस्य पुनः स च ॥१६१॥ तथान्यकथा शुभाख्या द्विजसंजाता मुनिनाम पराङ मुखा । कोपिनी गुणसद्धर्म सदाचारान् विलोक्य सा ॥१६२॥ तद्वाकार्ताकर्णनादुष्टा कोपिनी द्वेषदूषिता । प्रवृद्धद्वेषपैशून्य रागलोभभरावहा ॥१६३॥ महानुभागसंपन्न स्त्रीवेदोदयदीपिता। तमः प्रभा महादुःख भोगिनी भविता नृप ॥१९४॥ इति गणपसुवाक्यात्तृप्तकायो नरेंद्रो निखिलनरपतींद्रैः पूजितांह्रिजिनांह्रौ। निहितवचनचेतो देहकर्मी स शर्मा समजनि जितशत्रुर्मागधः पुत्रपोत्रैः ।।१६५।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् स्थित्वा सप्तमनारकस्य विविधैः पापाढ्यजीवः परः । चायुः कर्मवित्तिभिर्युज इति प्रोद्भूतभावादिभिः ।। लब्ध्वा तीर्थपदस्य कारणपराः सद्भावना प्रोन्नतो। भूत्वा तीर्थकरस्य योग्यवृषभाग् रेजेसभायां नृपः ॥१६६॥ क्व नारकी सप्तमभूमिसंस्थितिः, __ क्व रत्नप्रभाप्राथमिके बिले स्थितिः । सुसन्मुखश्चेद्वष एक उन्नतः, करोति शर्म प्रगुणं नृणां सदा ॥१६७।। धर्मतो भवति पापसत्क्षितिर् धर्मतो भवति दुर्गतेः क्षतिः । धर्मतो भवति तीर्थनाथता, धर्ममेव कुरुतां च यत्नतः ॥१६८।। भगवान ! पुराण श्रवण से जैन धर्म में मेरी बुद्धि दृढ़ है। संसार नाश करने वाली श्रद्धा भी मुझमें है तथापि प्रभो ! मैं नहीं जान सकता मेरे मन में ऐसा कौन-सा अभिमान बैठा है। जिससे मेरी बुद्धि व्रतों की ओर नहीं झुकती। मगधेश के ऐसे वचन सुन गणनायक गौतम ने कहा राजन् ! भोग के तीव्र संसर्ग से गाढ़ मिथ्यात्व से मुनिराज के गले में सर्प डालने से दुष्चरित्र से और तीन परिग्रह से तूने पहले नरकायु बाँध रखी है इसलिए तेरी परिणती व्रतों की ओर नहीं झुकती। जो मनुष्य देव गति का बन्धन बाँध चुके हैं। उन्हीं की बुद्धि व्रत आदि में लगती है। अन्य गति की आयु बाँधने वाले मनुष्य व्रतों की ओर नहीं झुकते । नरनाथ ! संसार में तू भव्य और उत्तम है। पुराण श्रवण से उत्पन्न हुई विशुद्धि से तेरा मन अतिशय शुद्ध है। सात प्रकृतियों के उपशम से तेरे औपशमिक सम्यग्दर्शन था। अन्तर्मुहूर्त में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पाकर उन्हीं सात प्रकृतियों के क्षय से अब तेरे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है। यह क्षायिक सम्यक्त्व निश्चल अविनाशी और उत्कृष्ट है। ___ भव्योत्तम ! जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित, पूर्वा पर विरोध-रहित शास्त्रों द्वारा निरूपित निर्दोष सात तत्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहा गया है। इस सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अतिशय दुर्लभ मानी गई है। संसाररूपी विष वृक्ष के जलाने में सम्यग्दर्शन के सिवाय कोई वस्तु समर्थ नहीं। सम्यग्दर्शन से बढ़कर संसार में कोई सुख भी नहीं और न कोई कर्म और तप है। देखोसम्यग्दर्शन की कृपा से समस्त सिद्धियाँ मिलती हैं। सम्यग्दर्शन की ही कृपा से तीर्थंकरपना और Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३०९ स्वर्ग मिलता है । एवं संसार में जितने सुख हैं वे भी सम्यग्दर्शन की कृपा से बात की बात में प्राप्त हो जाते हैं। राजन् ! इस सम्यग्दर्शन की कृपा से जीवों के कुवत भी सुव्रत कहलाते हैं और उसके बिना योगियों के सुव्रत भी कुव्रत हो जाते हैं। भव्योत्तम ! तू अब किसी बात का भय प्रत कर। सम्यग्दर्शन की कृपा से आगे उत्सर्पिणी काल में तू इसी भरत क्षेत्र में पद्मनाभ नाम का धारक तीर्थंकर होगा। इसलिए तू आसन्न-भव्य है। तू अब निर्भय हो। तूने तीर्थंकर प्रकृति की कारण भावना भाली है। समस्त दोष-रहित तूने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है। और विनय गुण तुझ में स्वभाव से है। तेरा चित्त भी शीलव्रत की ओर झुका है। यह शीलवत व्रतों की रक्षार्थ छत्र के समान है। मगधेश्वर ! तू अपने चित्त में संवेग की भावना करता है। भव भोग से निवृत्त होने के लिए तप में भी मन लगाता है। शक्त्यनुसार धर्मार्थ जिन पूजा आदि में तेरा धन भी खर्च होता है। साधुओं का समाधान भी तू आश्चर्यकारी करता है। शास्त्रानुसार तू योगियों का वैयावृत्य भी करता है। समस्त कर्म-रहित जिनेन्द्र भगवान में तेरी भक्ति भी अद्वितीय है। भले प्रकार शास्त्र के जानकार उत्तमोत्तम आचार्यों की उपासना भो तू भक्ति और हर्षपूर्वक करता है। जिन प्रतिपादित शास्त्रों का तू भक्त भी है। इस समय षट् आवश्यकों में तेरी बुद्धि भी अपूर्व है। धर्म के प्रसार के लिए तू जैन मार्ग की प्रभावना भी करता है । जैन मार्ग के अनुयायी मनुष्यों में वात्सल्य भी तेरा उत्तम है। राजन् ! त्रैलोक्य क्षोभ का कारण परम पवित्र सोलह भावना भाने से तूने तीर्थंकर पद का बन्ध भी बाँध लिया है। जब तू प्राणों का त्याग कर प्रथम नरक रत्नप्रभा में जायेगा और वहाँ मध्यम आयु का भोग कर भविष्यतकाल में नियम से रत्नधामपुरी में तू तीर्थंकर होगा। मुनिनाथ गौतम के ऐसे वचन सुन महाराज श्रेणिक ने कहा नाथ ! अधोगति का प्रियपना क्या है ? श्रेणिक का भीतरी भाव समझ गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक को काल सूकर की कथा सुनाई। उसने पहले अपने पापोदय से सप्तम नरक की आयु बाँध पुनः किस रीति से उसका छेद किया सो भी कह सुनाया। इस प्रकार गौतम गणधर के वचनों से अतिशय सन्तुष्ट अनेक बड़े-बड़े राजाओं से पूजित महाराज ने जिनराज के चरण कमलों से अपना मन लगाया और समस्त कल्याणों से युक्त हो अपने पुत्र-पौत्रों के साथ शत्रु रहित हो गये। पापों से जो पहले सप्तम नरक की आयु बाँध ली थी उस आयु का अपने उत्कृष्ट भावों द्वारा महाराज श्रेणिक ने छेद कर दिया तथा तीर्थंकर नाम कर्म की शुभ भावना भाने से भविष्य में तीर्थकर प्रकृति का वन्ध वाँधकर अतिशय शोभा को धारण करने लगे। देखो भावों की विचित्रता? कहाँ तो सप्तम नरक की उत्कृष्ट स्थिति और कहाँ फिर केवल प्रथम नरक की मध्यम स्थिति ? यह सब धर्म का ही प्रसाद है। धर्म की कृपा से जीवों को अनेक कल्याण आकर Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् उपस्थित हो जाते हैं। और धर्म की कृपा से तीर्थंकर पद की भी प्राप्ति हो जाती है। इसलिए उत्तम पुरुषों को चाहिए कि वे निरन्तर धर्म का आराधन करें॥१५६-१९८॥ इति श्री श्रेणिकभवानुबद्धभविष्यत्पद्मनाभपुराणे श्रेणिक चरित्रे भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचिते क्षायकोत्पतिवर्णनं नाम द्वादशः सर्गः ॥१२॥ इस प्रकार भविष्यतकाल में होनेवाले श्री पद्मनाभ तीर्थकर के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित महाराज श्रेणिक कोक्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति • वर्णन करनेवाला द्वादश सर्ग समाप्त हुआ। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशमः सर्गः श्रीगौतमगणाधीशं गौतमं मुनिकोत्तमं । प्रणम्य स्वभावान् धीर: पप्रच्छाभयपंडितः ॥ १ ॥ ततोजगौ गणीवाचा गंभीरजलदा भया। भवत्रिकसुसंबंधंवक्ष्ये भव्य नरोत्तम ॥ २ ॥ वेणातडागपुर्यांच रुद्रदत्तो द्विजः कदा। देवपाखंडिसंमोही चचाल तीर्थ हे तवे ॥ ३ ॥ उज्जयिन्यां कदाचित्स आगमत्तीर्थमोहितः । अहंद्दासस्य सद्धाम्नि योषिज्जिनमती हृदि ॥ ४ ॥ प्रियस्य बुद्धिरूढस्य विवेश धरिणीसुरः । ययाचे जेमनं रात्रौश्रेष्ठिनं भुक्तिसिद्धये ॥ ५ ॥ अबीभणत्तदा तस्यसुकांता वामलोचना । विप्ररात्रौ ददेनैवभोजनं पाप पादकम् ॥ ६ ॥ को दोषोऽस्ति स्वसश्चेत्थं प्रश्नेऽवादीद्वचः शुभं । पतंगभृङ्गसइंशमक्षिकाजंतुघाततः ॥ ७ ॥ निंदितं सूरिभिर्भव्य भोजनं भूरि पापदम् ।। हिंसामयं च बीभत्सं नानादुर्गतिदायकम् ॥ ८ ॥ उलूकव्याघ्रसारंग नागभेरंडवृश्चिकाः । मार्जारमूषकश्वानो जायते क्षणदाशनात् ॥ ६ ॥ किं च भो विप्र! यामिन्यां मृते स्वजनबांधवे । यदि स्यात्स्नानशुद्धिर्न किं च लोकस्य शुद्धिता ॥ १० ॥ निशाभोजनसंरोधात्सुखी. भवति मानवः । तज्जन्मसंभवं कष्टं नाप्नोति च परत्रजं ॥ ११ ॥ अतो ददामि नो विप्र क्षपायां जेमनं धनम् । प्रातर्भोज्यं च दास्यामि ततस्तेन व्रतं कृतम् ॥ १२॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् प्रातस्तद्धानि संभुज्य गंगायां पश्विकेन सः । जैनेनामा चचालाशु सम्यक्त्वव्रतभासिना ॥ १३ ॥ विप्रो वीक्ष्य चदाचित्तं पिप्पलं पुष्पिताचितं । पाषाणपुंज गुंजस्थं दीर्घशाखं पक्षिणं ।। १४ । देवोऽयमिति संकृत्यं त्रिपरीत्यान मन्मूढो मुखुरस्तद्गुणादिभिः । गूढमिथ्यात्वमोहितः ॥ १५ ॥ तादृशं तं निरूप्याशु तद्बोधनकृते वणिक् । जगौ देवः किमाख्योऽयं किं माहात्म्यं वदद्विज ।। १६ ।। बोधिद्रुमाभिधो देवो विष्णुर्वास कृते निग्रहानिग्रहे शक्त इत्यवादीद्वचो परिमृज्य पदाभ्यां स पत्राण्यादाय प्रसार्य छदनान्येव तेषामुपरि पश्य पश्य द्विजाधीश प्रतापं च तुष्टे दुष्टेन किं नृणां स्याद्देवस्य द्विजेनानुतथैवास्तु समधायीति को दोषश्चेत्कदाचिच्च समीक्षेऽस्य पराभवपदं नूनं नेष्यामीति वचो उपाध्यायोत्र कर्त्तव्ये त्वमेव देव परीत्य तं ननामाशु देवोऽयं मे कराभ्यां वाडवश्विदंस्तत्पादाभ्यां स्थितः । द्विजः ।। १७ ।। वृक्षतः । संस्थितः ।। १८ ॥ इति दौष्टयं समावेद्य वणिग्मार्गे कदाचन । संप्राप्तः कपिरोमाख्य बल्लीजालं हसन् हृदि ॥ २२ ॥ तवेशिनः । वनस्पतेः ॥ १६ ॥ मानसे । सुदेवतां ॥ २० ॥ गौ । वंचने ॥ २१ ॥ वदन्निति । परामृशन् ॥ २३ ॥ परामृशन् गुदे दुष्टस्तक्षणं वेदनाऽभवत् । ततः समुत्थकं द्र्या कृतितां गो विषण्णधीः ॥ २४ ॥ हाहारवं तदा चक्रे पतितो वाडवो भुवि । वणिग्देवस्य माहात्म्यद्भुतं हृदि संस्मरन् ॥ २५ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् उपायै वणिजा स्वास्थ्यं विधाय प्रतिबोधितुम् । चक्रे द्विजस्य चोपायो नानाबोधनवाक्यतः ॥ २६ ॥ पिप्पले पादपे विप्रं! न देवत्वं कदाचन । एकेंद्रियत्व सामान्यात्सादृशत्वं च पादपैः ॥ २७ ॥ न ज्ञानं पिप्पले मित्र ! न सामर्थ्य न देवता। एकेंद्रियत्मस्त्येव केवलं पक्षिभिः श्रितं ॥ २८ ॥ काकभुक्तोज्झिताबीजादुत्पत्तिर्बोधिभूरुहः । मान्यते कथमित्थं च त्वया वृक्षो वनस्पतिः ॥ २६ ॥ एकं हि प्राक्तनं कर्म विहाय च शुभाशुभम् । कर्तुं नान्यः समर्थोऽत्र निग्रहानिग्रहं पुनः ।। ३० ।। धर्मिणां देहिनां देवा जायते किंकराः सदा। पराङ मुखा नृणां नूनं स्वजना अपि पापिनां ॥ ३१॥ इति वाक्यप्रबंधेन देव मौढ्यं निकारोत् । तस्य श्रावकसन्मुख्य आगमाज्जिनवाक्यजात् ॥ ३२ ।। गण के स्वामी मुनियों में उत्तम श्री गौतम गणधर को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर बड़ी विनय से अभय कुमार ने अपने भवों को पूछा-कुमार को इस प्रकार अपने पूर्वभव श्रवण की अभिलाषा देख गौतम गणधर कहने लगे-अभय कुमार ! यदि तुम्हें अपने पूर्ववृत्तांत सुनने की अभिलाषा है तो मैं कहता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो इसी लोक में एक वेणातड़ाग नाम की पुरी है। वेणातड़ाग में कोई रुद्रदत्त नाम का ब्राह्मण निवास करता था वह रुद्रदत्त बड़ा पाखंडी था इसलिए किसी समय तीर्थाटन के लिए निकल पड़ा और घूमता-घूमता उज्जयनी में जा निकला। उस समय उज्जयनी में कोई अर्हदास नाम का सेठ रहता था उसकी प्रिय भार्या जिनमती थी वे दोनों ही दम्पती जैन धर्म के पवित्र सेवक थे। अनेक जगह नगर में फिरता-फिरता रुद्रदत्त सेठी अहंदास के घर आया और कुछ भोजन माँगने लगा। वह समय रात्रि का था इसलिए ब्राह्मण की भोजनार्थ प्रार्थना सुन जिनमती ने कहा यह समय रात्रि का है, विप्र? मैं रात्रि में भोजन न दूंगी। सेठानी जिनमती के ऐसे वचन सुन रुद्रदत्त ने कहा बहन ! रात्रि में भोजन देने में और करने में क्या दोष है। जिससे तू मुझे भोजन नहीं देती ? जिनमती ने कहा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् प्रिय भव्य ! रात्रि में भोजन करने से पतंग, डाँस, मक्खी आदि जीवों का घात होता है इसलिए महापुरुषों ने रात्रि का भोजन अनेक पाप प्रदान करने वाला हिंसामय, घृणित और अनेक दुर्गतियों का देने वाला कहा है। यह निश्चय समझो जो मनुष्य रात्रि में भोजन करते हैं वे नियम से उल्ल, बाघ, हिरण, सर्प, बिच्छू होते हैं। और रात्रि भोजियों को बिल्ली और मूसों की योनियों में घूमना पड़ता है। और सुन-जो मनुष्य रात्रि में भोजन नहीं करते उन्हें अनेक सुख मिलते हैं। रात में भोजन न करने वालों को न तो इस भव सम्बन्धी कष्ट भोगना पड़ता है और न परभव सम्बन्धी। इसलिए हे विप्र ! मैं तुम्हें रात में भोजन न दूंगी। सबेरा होते ही भोजन दूंगी। जिनमती की ऐसी युक्तियुक्त वाणी सुनकर विप्र ने शीघ्र ही रात्रि भोजन का त्याग किया और सवेरे आनन्दपूर्वक भोजन कर सम्यक्त्व गुण से भूषित किसी जैन मनुष्य के साथ गंगा स्नान के लिए चल दिया। मार्ग में चलते-चलते एक पीपल का वृक्ष, जो कि फलों से व्याप्त था। लम्बी शाखाओं का धारी, भाँति-भाँति के पक्षियों से युक्त और जिसके चौतर्फी बड़े-बड़े पाषाणों के ढेर थे, दीख पड़ा। वृक्ष को देखते ही ब्राह्मण का कंठ भक्ति से गद्गद हो गया। उसे देव जान शीघ्र ही उसकी तीन प्रदक्षिणा दी और बार-बार उसकी स्तुति करने लगा। विप्र रुद्रदत्त की ऐसी चेष्टा देख और उसे प्रबल मिथ्यामती समझ उसके बोधार्थ वह वाणिक कहने लगा प्रियवर ! कृपया कहो यह किस नाम का धारक देव है ? और इसका महात्म्य क्या है ? विप्र ने जवाब दिया-विष्णु भगवान के वास के लिए यह बोधिकर्म नाम का देव है। यह इच्छानुसार मनुष्यों का बिगाड़-सुधार कर सकता है। ब्राह्मण के मुख से वृक्ष की यह प्रशंसा सुन वणिक ने शीघ्र ही उसमें दो लात मारी और उससे पत्ते तोड़कर उन्हें जमीन पर बिछाकर शीघ्र ही उनके ऊपर बैठ गया और विप्र से कहने लगा प्रिय विप्र ! अपने ईश्वर का प्रताप देखो। अरे! यह वनस्पति मनुष्यों पर क्या रिसखुश हो सकती है? वणिक की वैसी चेष्टा देख रुद्रदत्त ने जवाब तो कुछ नहीं दिया किंतु अपने मन में यह निश्चय किया कि अच्छा क्या हर्ज है ? कभी मैं भी इसके देवता को देखंगा। इस वणिक ने नियम से मेरा अपमान किया है तथा इस प्रकार अपने मन में विचार करता-करता कहने लगा-भाई ! देव की परीक्षा में किसी को मध्यस्थ करना चाहिये । ब्राह्मण रुद्रदत्त के ऐसे वचन सुन वणिक ने उसके अन्तरंग की कालिमा समझ ली तथा वह वणिक उसे इस रीति से समझाने लगा प्रिय मित्र ! यह पीपल एकेन्द्रिय जीव है। इसमें न तो मनुष्यों के समान विशेष ज्ञान है न किसी प्रकार की सामर्थ्य है। यह तो केवल पक्षियों का घर है। तुम निश्चय समझो सिवाय शुभाशुभ कर्म के यहाँ किसी में सामर्थ्य नहीं जो मनुष्यों का बिगाड़-सुधार कर सके। प्रिय भ्राता! यह निश्चय है जो मनुष्य धर्मात्मा है बड़े-बड़े देव भी उनके दास बन जाते हैं और पापियों के आत्मीय जन भी उनके विमुख हो जाते हैं। इस प्रकार अपनी वचनभंगी से और जिनेन्द्र भगवान के आगम की कृपा से श्रावक वणिक ने शीघ्र ही ब्राह्मण का मिथ्यात्व दूर कर दिया और वे दोनों स्नेहपूर्वक बातचीत करते हुए आगे को चल दिये॥१-३२॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ताभ्यामासादिसद्गंगांबुभुक्षुस्तत्र भुक्तवान् । श्रावको वाडवः स्नातुं गंगायां समुपाविशत् ।। ३३ ॥ स्नात्वा चिरं प्रतWशु भ्रांत्या पित्रादिकं मुदा । उच्छाल्य वारिवृदं च निर्जगाम ततो द्विजः ॥ ३४ ॥ यावद्भुक्त्वा स जैनश्च स्थितस्तावत्स आगतः । जैनेनावादि भो विप्र स्वोच्छिष्टं भुक्ष्व भावतः ॥ ३५ ॥ कथमित्थं वणिग्योग्यमित्युक्ते स जगौ वचः । गंगांबुमिश्रितं भोज्यं भुक्ष्व दोषो न तेंऽशतः ॥ ३६ ।। उच्छिष्टं च कथं योग्यं न शुद्ध तीर्थवारिणा । इति चेत्तहि पापस्य शोधकं तीर्थवार्कथम् ॥ ३७॥ स्नानेन यदि शुद्धिः स्यान्मीनधीवरदेहिनः । शुद्धाः स्नानेन नाकं चेद्यांतु ते त्रिदिवालयंम् ।। ३८ ॥ स्नानेनान्नं न चेद्योग्यं भक्तेस्तहि कथं भवेत् । शिवयोग्योनृणां देही पंचपापादिपीडितः ॥ ३६ ॥ तपोजपव्रतध्यानैरांतरी शुद्धिरीष्यते । क्षमया शुभभावेन न तु स्नानेन देहिनां ॥ ४० ॥ महापापमया जीवा अब्रह्मादिसमाकुलाः । न यांति स्नानतः शुद्धिमशुद्धा मद्यकुंभवत् ।। ४१ ॥ अवगाह्य चिरं ज्ञान तीर्थं ये शुद्धितां गताः । विना नीरेण ते शुद्धा आज्यकुंभा यथा सदा ॥ ४२ ॥ निशम्य तद्वचो विप्रस्तीर्थमौढ्यं निराकरोत । तत्रैवाथ च पंचाग्नि साधुनादुस्सहं तपः ॥ ४३ ॥ कुर्वतस्तापसस्यैव प्रज्वलद्वह्निवृदके । पतत्प्राणिविधातं च दर्शयामास तस्य सः ॥ ४४ ।। पाखंड्य मौढ्यमित्येवं तस्य तेन निराकृतं । वेदे या वीयते विप्रै हिंसावाक्यं भयप्रदं ।। ४५॥ . Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तत्कथं तव सत्तथ्यं भाति चित्ते निरंकूशं । वृषो विना कृपां विप्र वर्त्तते चेद्यथा कथम् ॥ ४६ ।। मार्जार मूषका व्याघ्रा मंडलादंतिवैरिणः । नागापल्ली मृगव्याघ्याः धर्मिणः स्युद्विजोत्तम ॥ ४७ ॥ आलभेत शिवं छागमिति तथ्यं भवेद्यदि । हंतव्यः सधनश्चौरैरिति तथ्यं च कि नहि ।। ४८ ।। नराश्च मेधयज्ञेषु हताः ये प्राणिनः खलु । ते यांति यदि नाकं च हंतव्या बांधवादयः ।। ४६ ।। प्राणिघाताद्वषो नव वेदे लोके च पापदात् । इत्यागमस्य संमौढ्यं तद्वाक्यात्सनिराकरोत् ।। ५० ॥ जैनतत्त्वोपदेशेन निराकृत्य वणिग्वरः । सांख्यादि परसद्वादान् जिनतत्त्वं न्यरूपयत् ।। ५१ ॥ समस्तदोषनिर्मुक्ते देवे देवेंद्रवंदिते । निश्चिकाय निजं चित्तं ससम्यक्त्वं धरासुर ॥ ५२ ॥ आगे चलकर वे दोनों गंदा नदी के किनारे पहुँचे। वणिक तो भूखा था इसलिए वह खाने को बैठ गया और रुद्रदत्त शीघ्र ही स्नानार्थ गंगा में घुस गया। बहुत देर तक उसने गंगा में स्नान किया, पानी उछालकर पितरों को पानी दिया, पश्चात् जहाँ वह जैन श्रावक भोजन कर बैठा था वहीं आया। विप्र को आता देख वणिक ने कहा विप्रवर ! यह झूठा भोजन रखा है, आनन्दपूर्वक इसे खाओ। वणिक की ऐसी बात सुन विप्र ने जवाब दिया वणिक सरदार ! यह बात कैसे हो सकती है ? झूठा भोजन खाना किस प्रकार योग्य हो सकता है ? अर्थात् नहीं। विप्र के ऐसे वचन सुन वणिक ने जवाब दिया गंगाजल मिश्रित है। इसमें झूठापन कहाँ से आया? तू निर्भय हो खाओ। गंगाजल मिश्रित होने से इसमें जरा भी दोष नहीं । यदि कहो कि तीर्थजल से मिश्रित भी झूठा भोजन योग्य नहीं हो सकता तो तुम्हीं बताओ पाप की शुद्धि गंगाजल से कैसे हो सकती है ? अरे भाई ! यदि यह बात ठीक हो कि स्नान से शुद्धि हो जाती है तो मछलियाँ रात-दिन गंगा के जल में पड़ी रहती हैं । धीवर हमेशा नहाते-धोते रहते हैं उन्हें शुद्ध हो सीधे स्वर्ग चले जाना चाहिये । देखो! Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् प्रिय भाई! तुम निश्चय समझो भीतरी शुद्धि स्नान से नहीं होती किंतु तप, व्रत, जप, ध्यान, क्षमा और शुभ भाव से होती है। देखो शराब का घड़ा हजार बार धोने पर भी जैसे शुद्ध नहीं होता उसी प्रकार यह देह की स्नान से शुद्धि नहीं हो सकती। किंतु जिन मनुष्यों ने ज्ञान तीर्थ का अवगाहन किया है, ज्ञानतीर्थ में स्नान किया है, वे बिना जल के ही घी के घड़े के समान शद्ध रहते हैं। वणिक के ऐसे वचन सुन ब्राह्मण ने शीघ्र ही तीर्थमड़ता का त्याग कर दिया। वहीं पर एक तपस्वी भी पंचाग्नितप कर रहा था। वणिक ब्राह्मण रुद्रदत्त को उसके पास ले गया और जलती हुई अग्नि में अनेक प्राणियों को मरते दिखाया जिससे विप्र से पाखंडी तपोमढ़ता भी छुड़वा दी और यह उपदेश भी दिया कि वेद में जो यह बात बतलाई है हिंसा वाक्य भय का देने वाला होता है। यह पाखंडी तप महान हिंसा का करने वाला है सो कैसे तुम्हारे मन में योग्य जच सकता है ? प्रिय विप्र! यदि बिना दया के भी धर्म कहा जायेगा तो बिल्ली, मूसे, बाघ, व्याध आदि को भी धर्मात्मा कहे जायेंगे। यज्ञ में सफेद छाग का मारना यदि ठीक है तो धन-युक्त मनुष्य का चोरों द्वारा मारना भी किसी प्रकार पापप्रद नहीं हो सकता। यदि कहो कि नरमेध और अश्वमेध यज्ञ में जो प्राणी मारते हैं वे सीधे स्वर्ग चले जाते हैं तो उक्त यज्ञ भक्तों को चाहिये कि वे अपने कुटुम्बीजनों को भी यज्ञार्थ हने। प्रिय रुद्रदत्त ! वेद हो चाहे लोक हो किसी में पापप्रद प्राणीघात से कदापि धर्म नहीं हो सकता प्राणीघात से धर्म मानना बड़ी भारी भूल है। इस प्रकार अपने उपदेश से वणिक ने रुद्रदत्त की आगम मढ़ता भी छुड़वा दी। सांख्यादि दूसरे मतों के सिद्धांतों का खंडन करते हए उसे जैन तत्वों का उपदेश दिया जिससे उस ब्राह्मण ने समस्त दोष-रहित बड़े-बड़े देवों से पूजित सम्यक्त्व में अपने चित्त को जगाया। जिनोक्त तत्वों में श्रद्धा की और मिथ्यात्व की कृपा से जो उसके चित्त में मूढ़ता थी सब दूर हो गई ।।३३-५२।। जिनोदितेषु तत्त्वेषु प्रत्ययं कृतवान् द्विजः । निराकृत्य निजमौढ्यं महामिथ्यात्ववासितं ।। ५३ ।। अथ तौ व्रतसंपन्नौ ससम्यक्त्वौ महाप्रियौ । गच्छंतावटवीमध्ये कुर्वीतौ तत्वसत्कथां ।। ५४ ॥ पापात्संभ्रष्टमागौं तौ क्षणादिग्मूढतां गतौ । देशकः कोऽपि नास्त्यत्र वने मानुषवजिते ॥ ५५॥ संन्यस्य वाडवो धीमांश्चतु हारमुत्तमं । हित्वा प्राणान् जिनध्यानी देवोऽभूत्प्रथमेदिवि ॥ ५६ ।। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तत्र भुक्त्वा चिरं शर्मामरंदेवी समाश्रितं । स्वायुरंते ततश्च्युत्वा त्वमभूः श्रेणिकात्मजः ॥ ५७ ॥ अतः परं तपः कृत्वा त्वं सेत्स्यसि जिनोदितं । अपृच्छत्स्वभवान् दंतिकुमारो मुनिपुंगवं ॥ ५८ ॥ तदाह भगवान् पुत्र समाकर्णय त्वद्भवान् । एकस्मिन् दारुणे भीमेऽरण्ये वृक्षादिमंडिते ॥ ५६ ॥ सुधर्माख्यो महायोगी योगोद्दीपितविग्रहः । ध्यानेनास्थाद्विशुद्धात्मविशदेनस्ववत्तिना ॥६० ॥ अथोदारुण्यभिल्लाख्योऽधिष्ठाताबिपनस्य च । अरण्येऽग्निमदात्तंवा जानन् योगभरावहं ॥६१ ॥ दावानलश्च कब्पांत कालप्रख्यो मुनीश्वरं । स्थिरध्यानं न जज्वाल कायमानं न जंतुकं ॥ ६२॥ विसW स निजप्राणान् च्युतं चागमद्दिवम् । भिल्लस्तद्विग्रहं वीक्ष्य विषण्णोऽभूत्स्वनिंदकः ॥ ६३ ।। निः कारणं मयास्यैव गात्रं चारित्रचित्रितम् । तपः पूतं नृपैर्वद्यं संदग्धं पापिना शुभम् ।। ६४ ॥ कालांते स ततश्च्युत्वा तत्राभूत्सिधुरः शुभः । दीर्धांगो दीर्घदंतश्च चलदंजनसंनिभः ॥६५॥ अथो अष्टान्हिकायां च द्वीपं नंदीश्वरं सुरः । सोऽच्युतस्थश्चचालाशु तत्रापश्यत्तकं गजं ॥ ६६ ॥ अनुदैवो मुनेर्मुद्रां पूर्वजां तत्र सद्वने । समादाय स्थितो ध्याने समुत्तीर्य च पुष्करात् ॥ ६७ ।। तदागमनमार्गे तं स्थितं वीक्ष्य गजोत्तमः । अभूज्जातिस्मरो वेगान्मुंचयन्नायनं जलम् ।। ६८ ।। प्रणिपत्य मुनिनाथं तं निंदयत्स्वभवावलीं। तद्वाक्यादाददौ श्राद्ध व्रतानि स सुदर्शनम् ॥ ६६ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् गते सुरे प्रपाल्याशु व्रतानि प्रासुकं जलम् । गज संमदितं पक्व फलान्यश्नन् गजोत्तमः ॥ ७० ॥ संन्यस्य समारोप्य स्वमानसे । स्वायुरंते स जिनं विसर्जयामास प्राणांश्च स्वसमाधिना ।। ७१ ।। सहस्रारं समासाद्य नाकं नाकिसमाश्रितम् । समुत्पादशिलायां स समासेदे सुविग्रहं ॥ ७२ ॥ अंतर्मुहूर्त्ततः पूर्णं विग्रहं प्राप्तवान् सुरः । मेघवृदं यथाव्योम्नि सर्वधातुविवर्जितम् ।। ७३॥ तारहारभराश्रितम् । किरीटं कटकान्वितम् ।। ७४ । लसत्कुंडलकेयूर विस्फुरद्रत्न संदीप्र सुगंधव्याप्तदिग्भागविशिष्टस्रग्विराजितम् सर्वधातुमलाऽपायात्पवित्रमणिमादिभिः 1 11.92 11 ऋद्धि भिलिंगितं दीनं दिव्यवस्त्रविराजितं । बभौ वपुविशालाक्षं निर्निमेषं सुरस्य च ॥ ७० ॥ शय्यायां संस्थितो देवोऽलोकयत् कुकुभा दश । अपूर्वाः कल्पवृक्षाढ्या विस्मय व्याप्तमानसः ।। ७७ ।। कोऽहं कस्मात्समायातः किं स्थानं का गतिः किमु । सं नृत्यंति लयारूढा कामिन्यः कलभाषिकाः ॥ ७८ ॥ इति चिंतयतस्तस्यावधिः प्रादुर्बभूव वै । व्यज्ञायि तेन वृत्तांतं पूर्वदंतिभवोद्भवं ॥ ७६ ॥ सुर विज्ञापनाद्ज्ञात्वा वधेश्च स्वर्गसंस्थितिं । धर्मे मति चकाराशु पूजयन् श्रीजिनादिकं ॥ ८० ॥ ततो दिव्यांगना साकं सुखमश्नाति स्वर्भवम् । मेरुनंदीश्वरादौ च चर्चयन् जिन सद्गृहान् ।। ८१ ।। वाचामगोचरं शर्म भुक्त्वा तत्र निरंतरं । च्युत्वाऽयं तनुजो जातश्चेलिन्याः प्रोदरे शुभः ॥ ८२ ॥ ३१६ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् इति सर्वे स्ववृत्तांतं श्रुत्वा पूर्वभवोद्भवं । तुष्टाः श्रेणिकसंमुख्याः प्रणेमुर्मुनिपुंगवं ।। ८३ ॥ दृढसम्यक्त्वपूर्णांगा स्मरंतो जिनशासनं । विविशुः स्वपुरं प्रीतास्तद्गुणग्रामरंजिताः ॥ ८४ ॥ आसाद्य भूपतिर्भूत्या महामंडलनाथतां । संसाध्याऽन्यमहीनाथान्बु भुजे शर्मसंतति ।। ८५॥ कदाचित् श्रावक व्रतों से युक्त सम्यक्त्व के धारी आपस में परम स्नेही वे दोनों तत्व चर्चा करते हुए मार्ग में जा रहे थे पूर्व पाप के उदय से उन्हें दिशाभूल हो गई। वह वन निर्जन वन था वहाँ कोई मनुष्य रास्ता बतलाने वाला न था इसलिए जब उन दोनों का संग छूट गया तो ब्राह्मण रुद्रदत्त ने शीघ्र ही संन्यास लेकर चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया और प्रथम स्वर्ग में जाकर देव हो गया। वहाँ पर बहुत काल तक उसने देवियों के साथ उत्तमोत्तम स्वर्ग सुख भोगे। आयु के अन्त में मर कर अव तू अभय कुमार नाम का धारी राजा श्रेणिक का पुत्र उत्पन्न हुआ और अब जैन शास्त्रानुसार तप कर तू नियम से सिद्धपद को प्राप्त होगा। इस प्रकार जब गौतम गणधर अभय कुमार के पूर्व भव वत्तांत कह चके तो दंति कुमार ने भी विनय से कहा प्रभो ! मैं पूर्वभव में कौन था ? कैसा था ? कृपाकर कहें । दंति कुमार के ऐसे वचन सुन गौतम भगवान ने कहा___यदि तुम्हें अपने पूर्व भव के सुनने की इच्छा है तो मैं कहता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनोइसी पृथ्वी तल में एक अनेक प्रकार के वृक्षों से मंडित भयंकर दारुण नाम का वन है। किसी समय उस वन में अतिशय ध्यानी सुधर्म नाम का योगी तप करता था। और अतिशय निर्मल अपने शुद्धात्मा में लीन था। उस वन का रखवाला दारुणमिल नाम का देव था। कार्यवश मुनिराज को बिना देखे ही उसने वन में अग्नि लगाई। कल्पांत काल के समान अग्नि की ज्वाला धधकने लगी। अग्नि ज्वाला से मुनिराज का शरीर भस्म होने लगा। उनके प्राण-पखेरू उड़ भगे और मरकर मुनिराज अच्युत स्वर्ग में जाकर देव हो गये। जब वन रक्षकदेव ने मुनिराज का अस्थिपंजर देखा तो उसे परम दुःख हुआ। अपनी बारबार निन्दा करता वह इस प्रकार विचारने लगा कि हाय !!! चरित्र से, पवित्र तप से शोभित बिना कारण मैंने मुनिराज के शरीर को जला दिया। हाय ! मुझसे अधिक संसार में पापी कोई न होगा तथा इस प्रकार विचार करते उसकी आयु समाप्त हो गई और वह मरकर उसी जगह शुभ विशाल शरीर का धारक उन्नत दंतों से शोभित एवं अंजन पर्वत के समान ऊँचा हाथी हो गया। __ कदाचित् अष्टाह्नि का पर्व में अच्युत स्वर्ग का निवासी वह मुनि का जीव देव नन्दिश्वर पर्वत को वन्दनार्थ निकला और उसी वन में उसे वह हाथी दीख पड़ा। अपने अवधि ज्ञानबल से Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३२१ देव ने अपनी पूर्व मुनिमुद्रा जान ली और पुष्कर विमान से उतरकर उस वन में उसी प्रकार ध्यान में लीन हो गया। हाथी ने जब उसे देखा तो उसे शीघ्र ही जाति स्मरण हो गया। जाति स्मरण होते ही उसकी आँखों से अश्रुपात होने लगा। अपने पूर्वभव की बार-बार निन्दा करते हुए शीघ्र ही उस देव को नमस्कार किया। देव के उपदेश से हाथी ने सम्यग्दर्शन के साथ शीघ्र ही श्रावकव्रत धारण किये। देव वहाँ से चला गया। हाथी भी प्रासुक जल और पक्व फलाहारों से श्रावक व्रत पालन करने लगा। अपने आयु के अन्त में संन्यास धारण कर हाथी ने समाधिपूर्वक अपना चोला छोड़ा। और अनेक देवों से सेवित सहस्रार स्वर्ग में जाकर देव हो गया। जैसे क्षणभर में आकाश में मेघ समूह प्रकट हो जाता है। उसी प्रकार उत्पादशिला पर उत्पन्न होते ही अन्तर्मुहूर्त में उसे पूर्ण शरीर की प्राप्ति हो गई। उसके कानों में कुण्डल और केयूर झलकने लगे। वक्षस्थल में मनोहर विशाल हार और सिर पर मनोहर रत्नजड़ित मुकुट झिलमिलाने लगे। चारों ओर दिशा सुगंधि से व्याप्त हो गई। निर्मल ऋद्धियों की प्राप्ति हो गई। शरीर दिव्य वस्त्र और आभूषणों से शोभित हो गया। तथा नेत्र विशाल और निनिमेष हो गये। जिस समय देव ने अपनी ऐसी सुन्दर दशा देखी तो वह विचारने लगा मैं कौन हैं ? यहाँ कहाँ से आया हूँ ? मेरा क्या स्थान और क्या गति है ? मनोहर शब्द करने वाली ये देवांगना क्यों इस प्रकार मुझे चाहती हुई नृत्य कर रही हैं ? इस प्रकार विचार करते-करते अपनी अवधि ज्ञानबल से शीघ्र ही उसने, मैं व्रतों की कृपा से हाथी की योनि से यहाँ आया हूँ इत्यादि, वृत्तांत जान लिया। तथा वृत्तांत जानकर और अपने को स्वर्गस्थ देव समझकर जिनेन्द्रआदि को पूजते हुए उसने धर्म में मति की। दिव्यांगनाओं के साथ वह आनन्द सुख भोगने लगा नन्दीश्वर पर्वत पर जिन मन्दिरों को पूजने लगा। इस रीति से वचन अगोचर स्वर्ग सुख भोगकर और वहाँ से च्युत होकर अब तू रानी चेलना के गर्भ में आकर उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार गौतमगणधर द्वारा अभय कुमार व दंति कुमार का पूर्वभव वृत्तांत सुन श्रेणिक आदि प्रधान-प्रधान पुरुषों को अतिशय आनन्द हुआ। सभी ने शीघ्र ही मुनिनाथ को नमस्कार किया। दृढ़सम्यक्त्वकथा से पूर्ण जिन शासन को स्मरण करते हुए भगवान के गुणों में दत्तचित्त वे सब प्रीतिपूर्वक नगर में आ गये। और बड़े-बड़े महाराजों को वश में कर महाराज श्रेणिक ने महामंडलेश्वर पद प्राप्त कर लिया॥५३-८५॥ एकदा त्रिदशाधीशः सभायां नाकिभिः स तः । सम्यक्त्वमहिमानं चावर्णयत् स्ववचोंशुभिः ॥ ८६ ।। शुद्धदृग्भूषण ति भूपतिर्भरते वरे । श्रेणिकस्तत्समो नास्ति क्षायिकालंकृतो नरः ॥ ८७ ॥ यस्य दर्शनसच्छाखी कुदृष्टांतगजैः कदा । न क्षुभ्यते महाशास्त्रदृढस्कंधः स्थिरांहिकः ॥ ८८ ।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ श्रीशभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कुसंगम कुठारेण नोछेद्यो वज्रबंधनः । कुशास्त्रवायुनानैव क्षमश्चालयितुं दृढः ॥ ८६ ॥ सम्यक्त्वशिखरी तस्य सिंचितः शास्त्रवारिणा । दृढभावमहास्कंधो न छेत्तुं शक्यते परैः ॥ १० ॥ इति संशयतस्तस्य सम्यक्त्वं च शचीपतेः । श्रुत्वा सर्वे दधुश्चित्ते विस्मयं धर्ममानसाः ॥ ६१ ॥ द्वौ सुरौ तत्परीक्षायायवतीणों भुवंवराम् । चिंतयंताविति प्रीतौ मानसे स्मयसुंदरौ ॥ ६२ ।। क्व पाकशासनस्यैव वर्णनं क्व नृपो नरः । इति संचित्य नद्यां तौ तस्थतु: श्रेणिकागमे ।। ६३ ॥ मुनिवेषेण चैकोऽस्थादायिका कारत: पर। प्रवृद्धगर्भभावस्थः पिच्छिका कुंडकान्वितः ॥ १४ ॥ मुनिरूप सुरो जाकैर्मत्स्यानाकृष्य निक्षिपन् । करंडके तया साकं विवृद्धभ्रू णयास्थितः ।। ६५ ।। आगच्छन्नृपतिर्वीक्ष्य तादृशंतधुगं पथि । उत्तीर्य घोटकान्नत्वा जगौ दर्शनमंडितः ॥ ६६ ॥ विधीयते युवाभ्यां किं दुःकर्म जनहास्यकृत् । मायावी वचनं प्राख्यन्नृपाऽस्यागर्भसंभवे ॥ ७ ॥ मीनमांसस्य संजाता वांछा तेन विधीयते । मत्स्याकर्षणमेवात्र नो दोषो मम भूपते ।। ६८ ॥ मनिवेषेण योग्यं नैतत्कर्मशभवजितं ।। इति प्रोक्ते जगौ देव: किं विधेयं नृपाधुना ।। ६६ ।। अनया सह संघट्टो ममासीद्विजने वने । ततो गर्भस्य संभूतिर्मासाशा च ततोऽजनि ॥१००॥ तत्पूरणं विधेयं हि मया नृप तदर्थना । नृपेणाऽभाणि भो योगिन्मुनि रूपेण नोचितं ॥१०॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३२३ मायावी वचनं चाख्यत्प्रघट्ट प्राप्य भूपते । सर्वेपि मादृशा एव शुभकार्यविदूरगाः ॥१०२॥ यस्यांगुल्लां भवेन्नूनं पीडनं तस्य वेदना। अन्ये हसंति दूरस्थास्त्वत्समा नृप पुंगव ॥१०३॥ नृपोऽवोचन्निकृष्टोऽसि सदृष्टिरपि नो भवान् । दयाहीनोऽसि चारित्रवजितोऽसि विबुद्धिमान् ॥१०४॥ सबभाण मया राजन्नोच्यते वितथं वचः । किमु गालिप्रदानं त्वं ददासि वर योगिनां ॥१०॥ जैनत्वं त्वयि नाम्नास्ति न साक्षाद्गुणमंडितं । यतीनां गालिसंदानात्परमर्मविभाषणात् ॥१०६॥ वयंजना इति प्रोक्ते प्रोवाच मगधेश्वरः । संवेगादिगुणाभावाद्दर्शनं न दयां विना ॥१०७॥ चारित्रं न हि धीमत्वं न हिचेदृग्विकुर्वणात् । संयतत्वं न योगित्वं शास्त्रवित्वं न च त्वयि ॥१०८॥ मार्गप्रभावनानाशान्नोचितं च तवेदशम् । चेत्करिष्यसि जानासि त्वमेवाद्य फलाद्रुतं ।।१०६॥ दुष्टवाक्यप्रबंधन नासि त्वं मुनिरेव हि । मुंचेदं कर्म मद्धाम समेहि मुनिपुंगव ॥११०॥ तवाशां पूरयिष्यामि नागमिष्यसि चेद्रुतम् । कारयिष्यामि ते नूनं गर्दभारोहणं मुने ॥१११॥ इति साम्यादिवाक्येन समाश्वास्य गृहं तकौ । नीतौ च स्यापयामास मंदिरे श्रेणिको नृपः ॥११२॥ तदोचुर्मत्रिणो राजन्नस्य चारित्रवजिनः । संगस्तवकथंयोग्यो विशिष्टसायिकेशिनः ॥११३॥ किसी समय महाराज इन्द्र अपनी सभा में अनेक देवों के साथ बैठे थे। अपने वचनों से सम्यक्त्व की महिमा गान करते हुए वे कहने लगे कि Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ श्रोशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् भरत क्षेत्र में महाराज श्रेणिक सम्यग्दर्शन से अतिशय शोभित हैं। वर्तमान में उनके समान क्षायिक सम्यक्त्व का धारक दूसरा कोई नहीं। जिसके सम्यग्दर्शन रूपी विशाल वृक्ष को मिथ्यादर्शन रूपी गज तोड़ नहीं सकता और वह वृक्ष महाशास्त्ररूपी दृढ़ मूल का धारक और स्थिर है। कुसंगम कुठार उसे छेद नहीं सकता। कुशास्त्ररूपी प्रबल पवन भी उसे नहीं चला सकती। उसका सम्यक्त्वरूपी वृक्ष शास्त्री जल से सिंचित है और उस सम्यग्दर्शन का दृढ़ भावरूपी महामल छिन्न नहीं किया जा सकता। महाराज इन्द्र द्वारा श्रेणिक के सम्यग्दृष्टिपने की इस प्रकार प्रशंसा सुन सभा में स्थित समस्त देव आश्चर्य करने लगे एवं अति प्रीतियुक्त किंतु मन में अति आश्चर्ययुक्त दो देव शीघ्र ही महाराज श्रेणिक की परीक्षार्थ पृथ्वीमण्डल पर उतरे और कहाँ तो महाराज श्रेणिक मनुष्य ? और कहाँ फिर उनकी इन्द्र द्वारा तारीफ? यह भले प्रकार विचार कर जो महाराज श्रेणिक के आने का मार्ग था उस मार्ग पर स्थित हो गये। उनमें एक देव ने पीछी कमण्डलु हाथ में लेकर मुनिरूप धारण किया और दूसरे ने आर्यिका का। वह आर्यिका गर्भवती बन गई और मुनिवेशधारी वह देव मछलियों को किसी तालाब से निकाल अपने कमण्डल में रखता हुआ उस गर्भवती आयिका के साथ रहने लगा। महाराज श्रेणिक वहाँ आये। उन्हें देख जल्दी घोड़े से उतर और भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार कर कहने लगे समस्त मनुष्यों का हास्यास्पद यह दुष्कर्म आप क्यों कर रहे हैं ? इस वेश में यह दुष्कर्म आपको सर्वथा वर्जनीय है। श्रेणिक के ऐसे वचन सुन मायावी उस देव ने जवाब दिया राजन् ! गर्भवती इस आर्यिका को मछली के मांस खाने की अभिलाषा हुई है। इसलिए इसी के लिये मैं मछलियाँ पकड़ रहा हूँ। इस कर्म से मुझे, कोई दोष नहीं लग सकता । देव की यह बात सुन श्रेणिक ने कहा मुनिवेश धारण कर यह कर्म आपके लिए सर्वथा अयोग्य है। इसमें मुनिलिंग की बड़ी भारी निंदा है। आपको चाहिये कि इस काम को आप सर्वथा छोड़ दें। देव ने कहा राजन् ! तुम्हीं कहो इस समय हमें क्या करना चाहिये ? मेरा अनायास ही इस निर्जन वन में इस आर्यिका के साथ सम्बन्ध हो गया इसलिए इसे गर्भोत्पत्ति और मांसाभिलाषा हो गई। मैं इसे अब चाहता हूँ इसलिए मेरा कर्तव्य है मैं इसकी इच्छाएं पूर्ण करूं। छली मुनि की यह बात सुन राजा ने कहा तथापि मुने ! इस वेश में तुम्हारा यह कर्तव्य सर्वथा अयोग्य है। आपको कदापि यह काम नहीं करना चाहिये। राजा के ऐसे वचन सुन देव ने कहा राजन् ! आप क्या विचार कर रहे हैं ? जितने मुनि और आर्यिकाओं को आप देख रहे हैं वे सब मेरे ही समान शुभ कार्य से विमुख हैं। निर्दोष कोई भी नहीं। महाराज ! जिसकी अँगुली दबती है उसे ही वेदना होती है। अन्य मनुष्य वेदना का अनुभव नहीं कर सकते वे तो हँसते हैं उसी प्रकार आप हमें देखकर हँसते हैं। देव को यह बात सुन श्रेणिक को कुछ क्रोध-सा आ गया। वे कहने लगे Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३२५ मुने ! तू मुनि नहीं है बड़ा निकृष्ट दयारहित चरित्र-विमुख और मूर्ख है । तेरे सम्यग्दर्शन भी नहीं मालूम होता। श्रेणिक के ऐसे वचन सुन देव ने जवाब दिया राजन् ! जो मैंने कहा है सो बिलकुल ठीक कहा है। क्या तेरा यह कर्तव्य है कि तू परम योगियों को गाली प्रदान करे? हमने समझ लिया कि तुझमें जैनीपना नाममात्र का है। यतियों को मर्म विदारक गाली देने से जैनीपने का तुझमें कोई गुण नहीं दीख पड़ता? देव के ऐसे वचन सुन महाराज ने कहा मुने! संवेगादि गुणों के अभाव से तो तेरे सम्यग्दर्शन नहीं है और दया बिना चारित्र नहीं है। ऐसे दुष्कर्म करने से तू बुद्धिमान भी नहीं है, नोतिमान योगी और शास्त्रवेत्ता भी नहीं। साधो! यदि तू ऐसा करेगा तो जैनधर्म की प्रभावना का नाश हो जायेगा। इसलिये तेरा यह कर्तव्य सर्वथा अनुचित है। यदि तू नहीं मानता तो तुझे नियम से इस दुष्कर्म का फल भोगना पड़ेगा। मुने! जो तुमने मुझसे दुष्ट वचन कहे हैं उनसे तुम कदापि मुनि नहीं हो सकते। इसलिए तुम शीघ्र ही दुष्कर्म का त्याग करो जिससे तुम्हें मुक्ति मिले। अभी तुम मेरे साथ चलो। मैं तुम्हारी सब आशा पूरी करूँगा और यदि तुम मेरे साथ नहीं चलोगे तो तुम्हें गधे पर चढ़ाकर तुम्हारा हाल-बेहाल करूँगा। इस प्रकार साम्य आदि वचनों से मुनि को समझा, आश्वासन दे राजा श्रेणिक को चारित्र भ्रष्ट मुनि और आर्यिका के साथ देखा तो वे कहने लगे राजन् ! आप क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं आपके संग चारित्र भ्रष्ट इस मुनि आर्यिका युगल के साथ कदापि योग्य नहीं हो सकता। आपको इनका सम्बन्ध शीघ्र ही छोड़ देना योग्य है। चारित्र भ्रष्ट मुनि आर्यिका के नमस्कार करने से आपके दर्शन में अतिचार आता है। मंत्रियों के ऐसे वचन सुन महाराज श्रेणिक ने जवाब दिया ।।८६-११३।। अतिचारो न ते देव दर्शनस्य नृपो जगौ। अयं मुनिसमाकारो जैनं मत्वा नुतो मया ॥११४॥ न चवं दर्शनस्यातिचारश्चारित्रजो भवेत् । तच्चारित्रं न मय्यस्ति को दोषोऽस्यनुतौ मम ।।११।। दृष्ट्वेति दर्शनविधिं त्रिदशाधिपेन, तस्य जुतं सुर वरौ हृदये प्रहृष्टौ । साक्षाद्विभूय विनतौ चरणांस्तयोश्च, जायापतिद्वितययोर्वरशर्मभाजी ॥११६॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् गंगा शीता प्रमुख सुजलैश्चंद्रमध्यः सुभक्त्या, संस्नाप्योच्चैः कनककलिते विष्टरे रोपयित्वा । वस्त्राभूषा कुसुमगिवहैः पूजयित्वा प्रकथ्य, देवाधीशप्रकृतसुनुतिं दंपती तौ सुरौ च ॥११७॥ वारंवारं प्रगुण सुगणदर्शनात्संप्रणुत्य, मुक्त्वा पुष्पप्रचयरचनांव्योमतो वाद्यनादात् । कृत्वा स्वर्ग सुगुणविदितं प्रापतुस्तद्गुणांश्च, चित्ते कृत्वा प्रमदभरकः पूर्ण सर्वांगगात्रौ ॥११॥ दर्शनात्सुर वरैः कृतं परं पूजनं, परमतोषदायकं दर्शनात्त्रिदशनाथ संस्तुतिर्जायते जगति देहिनां सदा ॥११॥ वेषधारी इस मुनि को मैंने वास्तविक मुनि जान नमस्कार किया है इससे मेरे दर्शन में कदापि अतिचार नहीं आ सकता किंतु चारित्र में अतिचार आता है सो चारित्र मेरे नहीं हैं इसलिए इनको नमस्कार करने पर भी कोई दोष नहीं। महाराज श्रेणिक का ऐसा पांडित्य देख और इन्द्र द्वारा की हुई प्रशंसा को वास्तविक प्रशंसा जान वे दोनों देव अति आनंदित हुए। अपना रूप बदल उन्होंने शीघ्र ही आनन्दपूर्वक रानी चेलना और महाराजा श्रेणिक के चरणों को नमस्कार किया। सुवर्ण सिंहासन पर बैठाकर दोनों देवों ने भक्तिपूर्वक गंगा, सीता आदि नदियों के निर्मल जल से राजा रानी को स्नान कराया, वस्त्र-भूषण फलों से प्रशंसापूर्वक उनकी पूजा की। अनेक अन्याय गुण और सम्यग्दर्शन से शोभित उन दोनों दंपती को नमस्कार कर आकाश में पुष्प-वर्षा के साथ वाद्यनादों को कर अतिशय हर्षित और राजा रानी के गुणों में दत्तचित्त वे दोनों देव कीर्तिभाजन बने । सो ठीक ही है सम्यग्दर्शन की कृपा से सम्यग्दृष्टियों की बड़े-बड़े देव परम सन्तोष देने वाली पूजा करते हैं और संसार में सम्यग्दर्शन की कृपा से इन्द्रों द्वारा प्रशंसा भी मिलती है ॥११४.११६॥ इति श्रेणिकभवानुबयभविष्यत्पद्मनाभपुराणे श्रेणिकस्य भट्टारक श्री शुभचंद्राचार्य विरचिते देवातिशय प्राप्तिवर्णनं नाम त्रयोदशः सर्गः ॥१३॥ इस प्रकार पद्मनाभ तीर्थंकर के पूर्वभव के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भद्रारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित देव द्वारा अतिशय प्राप्ति-वर्णन करनेवाला तेरहवां सर्ग समाप्त हुआ। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशमः सर्गः अथो सदसि संप्राप्याऽभयो भय विजितः । प्रणत्य श्रेणिकं भूपं तस्थौ स्थिति विवेदकः ॥ १ ॥ सभायां सर्वसभ्यानां तत्वं सर्वज्ञभाषितम् । नानाभेदविभिन्नांग कथयामास कौतुकी ॥ २ ॥ ततोऽवसरमासाद्य स्मरन्पूर्वभवं हृदि । निविण्णो भवभोगेषु जगौ स जनकं प्रति ॥ ३ ॥ अस्मिन्नसारसंसारे पुरुषा बहवो गताः । युगादौ वृषभाद्याश्च भरताद्याश्च चक्रिणः ॥ ४ ॥ संसाराब्धौ सदाकर्म नीरे जन्मसु मीनके । दुःखावर्ते जरातीव्र कल्लोले पापकर्दमे ॥ ५ ॥ नानामृति तटे भीमे चतुर्गति सुवाडवे । वेदनाकच्छपे तीव्र दरिद्रसिकताकुले ॥ ६ ॥ नानाश्रवसरिद्वृद प्रवाहपरिपूरिते। धर्मयानं विना राजन्नान्युदुत्तारकं मतं ॥ ७ ॥ सप्तधातुमयो देहो नवद्वारैः सदास्रवन् । पापकर्ममयः पाप कारणं शर्मवारणम् ॥ ८ ॥ को रति तत्र संधत्ते मतिमान्मलमंडिते । करणाग्राम संदीप्ते चेतो व्यापारपूरिते ॥ ६ ॥ भोगा आतृप्ति संभुक्ता न तृप्ति कुर्वते नृप । सेव्यमानाः प्रवर्द्धते तैलेनेवाग्न्यः खलु ॥ १० ॥ नाकभोगर्न संतृप्तिर्येषां तेषां कथं भवेत् । पीड़नापोषितां काष्टाद्वह्नरिव तृणाग्रतः ॥११॥ इति संसारचापल्ये प्रसीद परमेश्वर । प्रव्रज्याय पितुर्नु णां नानाशर्म भवेन्नृप ।। १२ ।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् त्वत्प्रसादान्मया नृप । एतावत्कालपर्यंत अभोज राजकीयं च शर्मस्त्रीवृंद संभवं ।। १३ ।। इत्याकर्ण्य वचो भूभृदुःसहं कर्णयोर्द्वयोः । मुमोह धरिणीं प्राप्तो बभूवेव विचेतनः ॥ १४ ॥ ततः शीतोपचाराद्यैः प्रापितश्चेतनां नृपः । बभाषे वचनं पुत्र ! किमुक्तं मम भीतिदम् ॥ १५ ॥ विना त्वया खिलं राज्यमुद्वसं तनु संभव । मयि राज्यं प्रकुर्वाणेन कर्त्तव्यं त्वया तपः ॥ १६ ॥ पश्चात् चतुर्थे वयसि तपो ग्राह्यं जिनांतिके । इदानीं वयसा नूनं लघीयान् नृपपुंगव ।। १७ ।। क्व रूपं क्व च सौभाग्यं क्व लीला राजसंभवा । क्व लावण्यं पक्व वामित्वं तव देहनिर्भरं ।। १८ ।। असाधारा मनीषा स्फुटं बलिभिः स्रुतम् । वीरत्वं वीरसामान्यं त्वयि वर्त्तेत देहज ॥ १६ ॥ राजकीयं नृपादिभिः । त्यजत्वं तप आग्रहं ॥ २० ॥ गृहाणेदं शुभं भारं सेव्यं पुण्यवतां प्राप्यं कदाचित् महाराज सानन्द सभा में विराजमान थे । समस्त भयों से रहित संसार की वास्तविक स्थिति जानने वाले अभय कुमार सभा में आये। उन्होंने भक्तिपूर्वक महाराज को नमस्कार किया और सर्वज्ञभाषित अनेक भेद-प्रभेदयुक्त वह समस्त सभ्यों के सामने वास्तविक तत्वों का उपदेश करने लगा । तत्वों का व्याख्यान करते-करते जब सब लोगों की दृष्टि तत्वों की ओर झुक गई तो वह अवसर पाकर अपनी पूर्वभवावली के स्मरण से चित्त अतिशय खिन्न हो अपने पिताजी से कहने लगा पूज्य पिताजी ! इस संसार से अनेक पुरुष चले गये । युग के आदि में वृषभ आदि तीर्थंकर भरत आदि चक्रवर्ती भी कूच कर गये । कृपानाथ ! यह संसार एक प्रकार का विशाल समुद्र है क्योंकि समुद्र में जैसी मछलियाँ रहती हैं संसाररूपी समुद्र में भी जन्मरूपी मछलियाँ हैं । समुद्र में जैसे भँवर पड़ते हैं संसाररूपी समुद्र में भी दुःखरूपी भँवर हैं । समुद्र में जैसे कलोलें होती हैं । संसार समुद्र में भी ज़रारूपी Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रणिक पुराणम् तीव्र कलोलें मौजूद हैं । समुद्र में जिस प्रकार कीचड़ होती है संसाररूपी समुद्र में भी पापरूपी कीचड़ है। जैसे समुद्र तटों से भयंकर होता है उसी प्रकार संसाररूपी समुद्र भी मृत्युरूपी तट से भयंकर है। समुद्र में जैसे वड़वानल होता है संसार समुद्र में भी चतुर्गतिरूप वड़वानल है। समुद्र में जैसे कछुवे होते हैं संसाररूपी समुद्र में भी वेदनारूपी कछुवे मौजूद हैं। संसार में जैसे बाल के ढेर होते हैं संसाररूपी समुद्र में भी दरिद्रतारूपी बालू के ढेर मौजूद हैं। एवं समुद्र जैसे अनेक नदियों के प्रवाहों से पूर्ण रहता है संसार समुद्र भी उसी प्रकार अनेक प्रकार के आस्रवों से पूर्ण है। महनीय पिताजी ! बिना धर्मरूपी जहाज के इस संसार से पार करने वाला कोई नहीं। यह देह सप्तधातुमय है। नाक, आँख आदि नौ द्वारों से सदा मल निकलता रहता है। यह पाप कर्ममय पाप का उत्पादक और कल्याण का निवारक है। ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो इन्द्रियों के समूह से दैदीप्यमान, मन के व्यापार से परिपूर्ण, विष्ट आदि मलों से मंडित इस शरीर से प्रीति करेगा? पूज्य पिताजी ! ज्यों-ज्यों इन भोगों का भोग और सेवन किया जाता है त्योंत्यों ये तृप्ति को तो नहीं करते किन्तु घी की आहुति से जैसे अग्नि प्रवृद्ध होती चली जाती है। वैसे ही भोगोपभोग भी प्रवृद्ध होते जाते हैं। काष्ठ से जैसे अग्नि की तृप्ति नहीं होती उसी प्रकार जिन मनुष्यों की तृप्ति स्वर्ग भोग भोगने से भी नहीं हुई है। उन मनुष्यों की तृप्ति थोड़ी-सी स्त्रियों के संपर्क से कैसे हो सकती है ? संसार को इस प्रकार क्षण-भंगुर समझ पूज्य पिताजी ! मुझ पर प्रसन्न हूजिये और मनुष्यों को अनेक कल्याण देने वाली समस्या के लिए आज्ञा दीजिये। पूज्यपाद ! आपकी कृपा से आज तक मैं राज्य सम्बन्धो सुख और स्त्रीजन्य सुख खूब भोग चुका। अब मैं इससे विमुख होना चाहता हूँ। पुत्र के ऐसे वचन सुन राजा श्रेणिक ने अपने कान बन्द कर लिये। उनके चित्त पर भारी आघात पहुँचा मूछित हो वे शीघ्र ही जमीन पर गिर गये और उनकी चेतना थोड़ी देर के लिए एक ओर किनारा कर गई। महाराज श्रेणिक की ऐसी विचेष्टा देख उन्हें शीघ्र सचेतन किया गया। अब वे बिल्कुल होश में आ गये तो कहने लगे प्रिय पुत्र ! तूने यह क्या कहा? तेरा यह कथन मुझे अनेक भय प्रदान करने वाला है। तेरे बिना नियम से यह समस्त राज्य शून्य हो जायेगा। मैं राज्य करूँ और तू तप करे यह सर्वथा अयोग्य है। जिन भगवान के समीप जाकर तुझे चौथेपन में तप धारण करना चाहिये इस समय तेरी उम्र निहायत छोटी है । कहाँ तो तेरा रूप ? कहाँ तेरा सौभाग्य ! कहाँ राज्य योग्य तेरी क्रीड़ा? कहाँ तेरा लावण्य तथा कहाँ तेरी युक्तियुक्त वाणी और कोमल देह ? तेरी बुद्धि इस समय असाधारण है । बलवानपना, वीरता, वीरमान्यता जैसी तुझमें है वैसी किसी में नहीं। प्रिय पुत्र ! अनेक राजा और सामन्तों से सेवनीय पुण्यवानों द्वारा प्राप्त करने योग्य यह राज्य-भार तुम ग्रहण करो और तप का हट छोड़ो। पिताजी के ऐसे मोहपरिपूर्ण वचन सुन अभय कुमार ने कहा ॥१-२०॥ तदावादीत्स भो तात गदिता जनका जनैः । जनयंति शुभं शर्म ते तत्सर्वं तपोबलात् ॥ २१॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् चतुर्थे वयसि ग्राह्यं त्वयोक्तं तत्कथं वयः । प्राप्यते यमदंतस्यमवेद्यं तज्जनः सदा ।। २२ ।। रूपादिकक्षणध्वंसी सारातीतं विनश्वरम् । मिथ्याबुद्धिरसारा सा या गृहादिकसंस्थिता ॥ २३ ॥ राज्यं विनश्वरं नाथ ! न ग्रहीष्यामि निश्चितं । अंगीकरोमि विध्वंसरहितं निश्चलं शुभं ॥ २४ ॥ ईदशं बहधा राज्यं भक्तपूर्वं नराधिप । अपूर्वमिष्यते नूनं मदृष्टं क्षयवर्जितम् ।। २५॥ अतः पूर्वं त्वदाज्ञा च कृता हि बहुशो नृप । न करिष्येऽद्य चेन्नूनं भविष्यति विरूपकं ॥ २६ ॥ अतो देहि समादेशं प्रसीद पुरुषोत्तम । इति वाक्यैः प्रबौध्याशुजनकं साश्रुलोचनं ।। २७ ।। संबोध्यजननी स्वीयां विलापमुखरां वरां । भामिनीश्च महारूपविभवा मदनावहा ।। २८ ।। समं गजकुमाराद्यैरभयो दंतिनं परम् । समारुह्यप्रतस्थे च वार्यमाणो नृपादिभिः ।। २६ ।। महावीरं समासाद्य विपुलाचलसंस्थितम् । हित्वा सर्वाणि यानानि रुरोह समवसृति ॥ ३०॥ तत्रासीनं जिनं प्रेक्ष्य त्रिः परीत्यप्रपूज्यच । नत्वा स्तुत्वा मुनींद्रंच प्रार्थयामास दीक्षणं ।। ३१ ॥ ततोवसनभूषादिन्मुक्त्वा तद्वचसाऽभयः । बहुभिः बंधुभिः सत्रं जग्राहपरमं तपः ।। ३२ ॥ त्रयोदशविधं वृत्तंचचार चरणान्वितः । ध्यानासीनः शिवाकांक्षी चितयन्परमपदं ॥ ३३ ॥ हंसतूलसुशय्यायां सवस्त्राया च यैः सदा । सुप्तंतेशेरतेभूमौ शर्करोपलसन्मृदि ।। ३४ ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् शीतात्तौशय्यते येन हर्म्य गाढं सयोषितम् । स्थीयते तेन नद्यांते निशि शीतमरुद्भरे ॥ ३५ ॥ हरिचंदनलिप्तांगजष्णे धारागृहे स्थितः ।। क्ष्माभन्मूनि स्थितः सोऽपिखरांशुकिरणाहतः ॥ ३६॥ वर्षानॊजलसंचार वजित सदने स्थितः । वृक्षमूलेजलाकीर्णे स्थितं तेन सदसके ॥ ३७॥ सूक्ष्मचीनांशकैर्येन परिवत्रे स्वविग्रहं । चतुष्पथे स निर्वस्त्रस्तिष्ठति प्रौढमानसः ॥ ३८ ॥ स्वर्णामत्रे चिरंयेनभुक्तं रत्नविराजते । पाणौ संभुज्यते तेन क्षरद्धृतजलादिके ॥ ३९ ॥ पक्वान्नपायसाद्यश्च व्यंजनैर्भुज्यते सदा । तैलकोद्रवकंग्वादिपारणायां विव्यंजनम् ॥ ४० ॥ हस्तिघोटकवाहाद्यैर्गतंयैश्च पदे पदे । पादेन गम्यते तैश्च भूतले कंटकाकुले ।। ४१ ॥ सप्तभूमे गृहे येन सुप्तं स्वार्णमणिप्रभे । सुष्यते तेनशैलेषु दरीगेहे ससर्पके ॥ ४२ ॥ यः स्तुतोभूरिभूमीशः समदैः सबलैः परैः । स्तूयते यतिनाथैः स निर्मदैश्चरणोज्वलैः ॥ ४३ ।। कांतारतिसमुत्पन्नभुक्तं शर्म यकेनच। . लिह्यते विषयातीतं शाश्वतं ध्यानसंभवं ॥४४॥ श्रुतानि येन गीतानि कामिनीमुखजानिच । श्रूयंते मृगघूकानां रावा निशि श्मशानके ॥ ४५ ॥ पुत्रपौत्रादिभिः केलिः कृता येन चिरंगृहे । क्रियते तेन सारंगैः समविश्वासतां गतः । इत्थं चिरतरं तप्त्वा तपोघोरपरीषहैः । उन्मूल्यघातिसंघातं शुक्लध्यानप्रभावतः ।। ४७ ।। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् उत्पाद्यकेवलं लोके विकाश्व सुकृतं भुवि । चिरं विहृत्य निर्वाणं प्राप्तवान् शाश्वतं स च ।। ४८ ।। अन्ये यथायथंजग्मुर्योगिनो योगयंत्रिताः । गतिनाकादिकां रम्यां स्वस्वकर्मविपाकतः ॥ ४६॥ पूज्य पिताजी ! संसार में जितने भी उत्तमोत्तम सुख मिलते हैं वे तप की कृपा से मिलते हैं ऐसे बड़े-बड़े पुरुषों के कथन हैं। आपने जो यह कहा कि तप चौथे वय में धारण करना चाहिए सो चौथेपन में शरीर तप के योग्य रहता ही कहाँ है ? उस समय तो शरीर मन्द पड़ जाता है । इंद्रियाँ भी शिथिल पड़ जाती हैं। इसलिए स्वस्थ अवस्था में ही तप महापुरुषों द्वारा योग्य माना गया है। महनीय पिताजी! रूप लावण्य आदि क्षणिक हैं, निस्सार हैं । गृहादिक में संलग्न जो बुद्धि है सो मिथ्या बुद्धि है और असार है। कृपानाथ ! यह राज्य भी विशानीक है मैं कदापि इस राज्य को स्वीकार न करूंगा किंतु समस्त पापों से रहित मैं निश्चय तप धारण करूँगा। मैंने अनेक बार इस राज्य का भोग किया है मेरे सामने यह राज्य अपूर्व नहीं हो सकता। अक्षय सुख मोक्ष सुख ही मेरे लिए अपूर्व है। पूज्यवर ! मैंने आपकी आज्ञा का भी अच्छी तरह पालन किया है। अब मैं भविष्यकाल में आपकी आज्ञा पालन न कर सकूँगा इसलिये आप कृपाकर मुझे तप के लिए आज्ञा प्रदान करें। पुत्र को तप के लिए उद्यमी देख महाराज श्रेणिक की आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। तथापि अभय कुमार उन्हें अच्छी तरह समझाकर अपनी माता को भी सम्बोधन कर और अतिशय मनोहरांगी अपनी प्रिय स्त्रियों को भी समझाकर शीघ्र ही राजमहल से निकले और राजा आदि के रोके जाने पर भी गजकुमार आदि के साथ हाथी पर सवार हो विपुलाचल की ओर चल दिये। उस समय विपुलाचल पर महावीर भगवान का समवशरण विराजमान था इसलिए ज्यों ही अभय कुमार विपुलाचल के पास पहुँचे उन्होंने राजचिह्न छोड़ दिये गज से उतर शीघ्र ही समवशरण में प्रवेश किया। समवशरण में विराजमान महावीर भगवान को देख तीन प्रदक्षिणा दीं, पूजन, नमस्कार और स्तुति की। गौतम गणधर को भी प्रणाम किया और दीक्षार्थ प्रार्थना की । वस्त्र-भूषण आदि का त्याग कर बहुत से कुटुंबियों के साथ शीघ्रही परम तप धारण किया। तेरह प्रकार का चरित्र पालने लगे एवं ध्यानकतान मुक्ति के अभिलाषी वे परमपद की आराधना करने लगे। जो अभय कुमार आदि महापुरुष अनेक कोमल-कोमल वस्त्रों से शोभित हंसों के समान स्वच्छ रुई से बने मनोहर पलंगों पर सोते थे वे ही अब कंकरीली जमीन पर सोने लगे। जो शीतकाल में मनोहर-मनोहर महलों में कामविह्वला रमणियों के साथ सानन्द शयन करने वाले थे वे चौतर्फा अतिशय शीतल पवन से व्याप्त नदी के तीरों पर सोते हैं। ग्रीष्मकाल में जो शरीर पर हरिचंदन का लेप करा फुवारा सहित महलों के रहने वाले थे वे ही अब अतिशय तीक्ष्ण सूर्य के आतप को झेलते हुए पर्वतों की शिखरों पर निवास करते हैं। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् जो उत्तम पुरुष वर्षाकाल में, जहाँ किसी प्रकार के जल का संचार नहीं ऐसे उत्तमोत्तम महलों में रहते थे उन्हें अब जल व्याप्त वृक्षों के नीचे रहना पड़ता है । पतले किंतु उत्तम चीनी वस्त्रों से सदा जिनके शरीर ढके रहते थे वे ही अब चोहटों में वस्त्र रहित हो सानन्द रहते हैं । जो चित्र विचित्र रत्नों से जड़ित सुवर्णपात्रों में भोजन करते थे उन्हें अब सछिद्र पाणिपत्रों में आहार करना पड़ता है। जो भाँति-भाँति के पके अन्न और खीर आदि पदार्थों का भोजन करते थे उन्हें अब पारणा नीरस आहारों का आहार करना पड़ता है । जो हाथी-घोड़े आदि सवारियों पर सवार हो जहाँ-तहाँ घूमते थे वे ही अब कंटकाकीर्ण जमीन पर चलते हैं । जो सातसात ड्योढीयुक्त मणिजड़ित महलों में सोते थे वे ही अब अनेक सर्पों से व्याप्त पहाड़ों की गुफा में सोते हैं । राज्यावस्था में जिनकी प्रशंसा पराक्रमी और महामानी बड़े-बड़े राजा करते थे उनकी प्रशंसा अब चारित्र से पवित्र निरभिमानी बड़े-बड़े मुनिराज करते हैं। राज्य अवस्था में जो तिजन्य सुख का आस्वादन करते थे वे ही अब विषयातीत नित्य ध्यानजन्य सुख का आस्वादन करते हैं । जो राजमंदिर में कामिनियों के मुख से उत्तमोत्तम गायन सुनते थे उन्हें अब श्मशान भूमि में मृग और शृगालों के भयंकर शब्द सुनने पड़ते हैं । राजमंदिर में जो पुत्र नातियों के साथ खेल खेलते थे अब वे निर्भय किंतु विश्वस्त मृगों के साथ खेल खेलते रहते हैं । इस प्रकार चिरकाल तक घोर तप कर परीषह जीतकर और घातिया कर्मों का विध्वंस कर शुक्ल ध्यान के प्रभाव से मुनिवर अभय कुमार ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया एवं केवलज्ञान की कृपा से संसार के समस्त पदार्थ जानकर भूमण्डल पर बहुत काल तक विहारकर अचित्य अव्या बाध मोक्ष सुख पाया। इनसे अन्य और जितने योगी थे वे भी अपने-अपने कर्मविपाक के अनुसार स्वर्ग आदि उत्तमोत्तम गतियों में गये ।। २१- ४६ ।। अथ स श्रेणिकः प्रीतः कुर्वन् धर्मं जिनेश्वरं । पालयन् वसुधां भाति कीर्तिव्याप्तजगत्त्रयः ।। ५० ।। अथ यो वारिषेणाख्यस्तनुजस्तस्य सुन्दरः । जिनधर्मेरतो धीमान् व्रताभरणभूषितः ॥ ५१ ॥ उपविश्यैकदा धीमांश्चतुर्दश्यां वने घने । कायोत्सर्गविधानेन स्थितस्तावत्पुरे वरे ।। ५२ ।। विलोकितो विलासिन्या श्रीकीत्तिश्रेष्ठिनी हृदि । स्थितश्च मुग्धसुंदर्याहारो दीप्रो मयूखवान् ।। ५३॥ विना दिव्येन हारेणाऽनेन मे जीवितंभुवि । निः फलं चेति संकल्पतिताशायनोदरे ॥ ५४ ॥ तदासक्तेनचौरेण विद्युन्नाम्नानिशिगृहं । गतेन वादितानैव वक्तिसाच कथा कथं ॥ ५५ ॥ ३३३ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् जगौ वल्लभ कि साध्यंजीवितेन त्वयाच किंः । नाप्यते कीतिश्रेष्ठिन्याहारश्चेद्दिव्यभूषणं ॥५६ ॥ श्रुत्वाश्वास्य च तां चौरो गत्वा तत्सदनंद्रुतं । प्रविश्य चोरयित्वा तं सकौशल्येन निर्गतः ॥ ५७ ॥ होरोद्योतेन तं चोरं मत्वातलवराः क्षणात् । धावंति स्मानुमार्गेण चौरोऽयमिति वादिनः ॥ ५८ ।। सकागारिः पलाय्याशु प्रविष्ट: पितृसद्वनम् । ततोगंतुमशक्तोऽग्रे वारिषेणस्य मुक्तवान् ।। ५६ ॥ हारो ध्यानस्थितस्यैवादृश्योऽभूत्तस्करः क्षणात् । कुमारं हारपादांतं वीक्ष्य राज्ञे निरूपितं ।। ६० ॥ ते राजन् यदि ते पुत्रश्चौर्यंचेक्रीयते जनाः । परेकथंनिवार्यते वृत्तिर्मुक्तेच चिर्भटान् ॥ ६१ ॥ तस्यादेशात्ततस्तत्र मातंगेनकृपाणवत् । पुष्यदामायते मुक्तं तस्य व्रतप्रभावतः ॥ ६२॥ देवादतिशयं जातं श्रुत्वा निंदां विधाय च । आगत्यश्रेणिकेनैव क्षमा संकारिता मुहुः ॥ ६३ ॥ विद्युच्चौरेण संयाच्याभयं दानं नपान्मुदा। प्रकटीकृत्य स्वात्मानं तत्वरूपं निवेदितं ।। ६४ ।। वारिषेणो गृहनेतुं प्रार्थितो वचनं जगौ । पाणिपात्रेण भोक्तव्यं गृहीतं च मयावतं ।। ६५॥ वार्यमाणो नृपाद्यैश्च सूर्यदेवमुनीश्वरम् । आसाद्यलुंचयित्वा तान् कचान्नत्वादिदीक्षके ।। ६६ ॥ त्रयोदशविधं रम्यं चचार चरणं स कः । दर्शनंसगुणं रम्यं दधद्देवनमस्कृतम् ।। ६७ ॥ पुष्पडालादिसच्छिष्या स्थापयन्व्रतवजितान् । व्रतमार्गोऽशुभाचारो वारिषेणो विचक्षणः ॥ ३८ ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३३५ चिरं विहृत्य सद्देशान संबोध्य विवधान् जनान् । रत्नत्रयं समाकीर्ण्य प्रांते संन्यस्य युक्तितः ।। ६६ ।। आराध्याराधनां रम्यांमुक्त्वा प्राणान्समाधिना । नाके महधिकोदेवो जज्ञे देवीविराजितः ॥ ७० ॥ तीनों लोक में यशस्वी अतिशय सन्तुष्ट जैन धर्म के आराधक, नीतिपूर्वक प्रजा के पालक महाराज आनन्दपूर्वक राजगृह में रहने लगे। उनका पुत्र वारिषेण अतिशय बुद्धिमान, मनोहर, जैन धर्म में रति करने वाला एवं व्रतरूपी भूषण से भूषित था। कदाचित् राजकुमार वारिषेण ने चतुर्दशी का उपवास किया। इधर यह तो रात्रि में किसी वन में जाकर कार्योत्सर्ग धारण कर ध्यान करने लगा और उधर किसी वेश्या ने सेठ श्रीकीर्ति की सेठानी के गले में पड़ा अतिशय दैदीप्यमान सुन्दर हार देखा और हार देखते ही वह विचारने लगी इस दिव्य हार के बिना संसार में मेरा जीवन विफल है। तथा ऐसा विचार, शीघ्र ही उदास हो अपने शयनागार में खाट पर गिर पड़ी। एक विद्युत नाम का चोर जो उसका आशिक था रात्रि में वेश्या के पास आया। उसने कई बार वेश्या से वचनालाप करना चाहा वेश्या ने जवाब तक न दिया किंतु जब वह चोर विशेष अनुनय करने लगा तो वह कहने लगी प्रिय वल्लभ ! मैंने सेठ श्री कीर्ति की सेठानी के गले में हार देखा है। मैं उसे चाहती हैं। यदि मुझे हार न मिला तो मेरा जीवन निष्फल है और तुम्हारे साथ दोस्ती भी किसी काम की नहीं। वेश्या की ऐसी रूखो बात सुन चोर शीघ्र ही चला गया तथा सेठ श्रीकीर्ति के घर जाकर और हार चुराकर अपनी चतुरता से बाहर निकल आया। हार बड़ा चमकदार था इसलिए चोर ज्यों ही सड़क पर आया और त्यों ही कोतवाल ने हार का प्रकाश देखा ले जाने वाले को चोर झ शीघ्र ही उसके.पीछे धावा बोला। चोर को और कोई रास्ता न सूझा वह शीघ्र ही भागता भागता श्मशान भूमि में घुस गया। जब वह श्मशान भूमि में घुसा तो उसे आगे को वहाँ कोई रास्ता न दीखा इसलिये उसने शीघ्र ही वाणिषेण कुमार के गले में हार डाल दिया और आप एक ओर छिप गया। हार की चमक से कोतवाल भागता-भागता कुमार के पास आया। कुमार को हार पहने देख शीघ्र ही दौड़ता-दौड़ता राजा के पास पहुँचा और कहने लगा-- राजन् ! यदि आपका पुत्र ही चोरी करता है तो चोरी करने से दूसरों को कैसे रोका जा सकता है ? राजकुमार का चोरी करना उसी प्रकार है जैसे बाड़ द्वारा खेत का खाना। कोतवाल की बात सुन इधर महाराज ने तो श्मशान भूमि की ओर गमन किया और उधर वारिषेण कुमार के व्रत के प्रभाव से हार फूल की माला बन गया । ज्यों ही महाराज ने यह दैवी अतिशय सुना तो वे कोतवाल की निंदा करने लगे। और कुमार के पास क्षमा मांगनी चाही। विद्यत चोर भी यह सब दश्य देख रहा था। उससे ये बातें न देखी गईं। वह शीघ्र ही महाराज के सम्मुख आया। तथा महाराज से अभयदान की प्रार्थना कर और अपना स्वरूप प्रकट कर जो कुछ सच्चा हाल था सारा कह सुनाया। जब महाराज ने चोर के मुख से सब समाचार सुन लिया तो उन्होंने वारिषेण कुमार से घर चलने के लिए कहा किंतु कुमार ने कहा Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् पूज्य पिताजी ! मैं पाणिपात्र में आहार करूँगा, दिगम्बर दीक्षा धारण करूंगा। यह व्रत मैंने ले लिया है अब मैं राजमन्दिर में नहीं जा सकता। महाराज आदि ने दीक्षा से कुमार को बहुत रोका किंतु उन्होंने एक न मानी। सीधे सूर्योदय के पश्चात मुनिराज के पास चले गये। और केशलुंचन कर दीक्षा धारण कर ली। एवं अष्ट अंग सहित सम्यग्दर्शन के धारक बड़े-बड़े देवों द्वारा पूजित वारिषेण मुनि तेरह प्रकार चारित्र का पालन करने लगे। वारिषेण मुनिराज के व्रत-रहित पुष्पड़ाल आदि अनेक शिष्य थे उन्हें उपदेश शुभाचार और चातुर्य से सन्मार्ग में प्रतिष्ठित किया। बहुत काल पर्यन्त भूमण्डल पर विहार किया। अनेक जीवों को संबोधा। आयु के अन्त में रत्नत्रययुक्त हो संन्यास धारण किया। भली प्रकार आराधना आराधी। एवं समाधिपूर्वक अपना प्राण त्यागकर मुनि वारिषेण का जीव अनेक देवियों से व्याप्त महान् ऋद्धि का धारक देव हो गया ॥५०-७०॥ अथैकदानृपो धर्मकृते चिता विहानये। सुखेन स्थातुमिच्छायै पूर्वजन्मविमोहतः ।। ७१ ॥ समक्षं सर्वभूपानां महोत्सवविधानतः । ददौकुणिकपुत्राय राज्यं प्राप्यनेश्वरम् ।। ७२ ।। कुणिक: पूर्वपुण्येन राज्यमासाद्य संबभौ । रक्षयन्वसुधां सारां कुवंश्चोरादिवजितां ।। ७३ ।। अथ स पूर्ववैरेण श्रेणिकं काष्टपंजरे । कुनिकंठे विनिक्षिप्तनागोद्भ तविपापतः ।। ७४ ॥ सुधर्मतः क्षयं नीतः किंचिदुच्छिष्टतः खलु । क्षिप्तवांस्तनुज पापी हिंसको मदमोहितः ॥ ७५ ।। मात्रानिवार्यमाणोऽपि गालिदानंददाति सः । दुर्वाक्यानि किरन् क्रोधात् मर्मभेदानिमूढधीः ।। ७६ ।। कोद्रवान्नंसतैलं च निर्लावणमव्यंजनम् । भोज्यं तस्मै प्रदत्ते स किरन् दुर्वाक्यसंतति ।। ७७ ॥ कर्मभावं विजानानस्तथा तस्थै नपाधिपः । चितयन्नेव सः पाकं सकीले काष्टपंजरे ।। ७८ ।। कुणिको दुष्टचेतस्कोऽन्यदा पुत्रेण पापधीः । लोकपालाभिधेनैव स्वर्णामत्रेभुनक्ति वै ।। ७६ ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् भुज्यमानस्य भूपस्यामत्रे पुत्रेण समूत्रौदनमुत्सार्य भुक्तवान् स सोऽबां जगौ च भो मातर्मत्समः पुत्रमोहवान् । अस्ति वा भूतले नैव चेलने वद मां प्रति ॥ ८१ ॥ सा बभाण महाराज त्वं किं मोहि जगत्त्रये । बाल्ये ते जनकस्यैव तवोपरि महामतिः ।। ८२॥ अभयादिषु पुत्रेषु सत्सु मान्यस्त्वमेव हि । बाल्येऽपित्वत्समो नैव प्रियः पुत्रो विशांपते ॥ ८३ ॥ शृणु पुत्र महामोहकारणत्वयि ते पितुः । एकदा च तवांगुल्यां व्रण आसीद्रसान्वितः ॥ ८४ ॥ मूत्रितं । विमोहतः ॥ ८० ॥ महापीड़ा तदा जाता व्रणाद्दुर्गंधतः खलु । नानागदैर्न शांति सा याति ते रोदनात्मनः ॥ ८५ ॥ तन्निरासकृते तातस्तव निक्षिप्तवान्मुखे । स्वकीर्येऽगुलिमा मोहाद्वारयामास वेदनां ॥ ८६ ॥ निशम्येति जगौ दुष्टो रे मातर्मम जन्मनि । वने मां क्षेपयामास कथं चेन्मोहवान्नृपः ॥ ८७ ॥ साबीणभन्महापुत्र त्वं ते तातेन निश्चितं । न त्याजितो मया त्यक्तो वने दुष्टे क्षणान्स्फुटं ॥ ८८ ॥ तेनानीतः सुतत्वं वै लालितः क्रीड़नादिभिः । मोहाद्राजा कृतो नूनं नो चेद्राज्यं कथं त्वयि ॥ ८६ ॥ महामोहो महास्नेहो महाप्रीतिर्महामतिः । त्वयि त्वज्जनकस्यास्ति पुत्र नात्र विचारणा ।। ६० ।। यथा त्वं जनकस्यापि ददासि बहुवेदनाम् । तथात्वत्तनुजो नूनं तव दास्यति वेदनां ॥ ६१ ॥ यादृशं दर्श्यते नूनं तादृशं प्राप्यते यादृशमुप्यते बीजं तादृशं लूयते फलम् । फलम् ।। ६२ ॥ ३३७ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् जन्मदत्तिर्विशेषतः । तस्येत्यमुचितं तव ॥ ६३ ॥ राज्यदाता विशेषतः । प्रकुर्वते । राज्यदत्तिः कृता येन विद्यादत्तिः कृता तुभ्यं जनकं पूज्यते दक्ष विद्यादाता विशेषेण त्वयेत्थं किं विधीयते ॥ ६४ ॥ उपकारादृते संत उपकारं उपकारे कृते किं न कुर्वति प्रत्युत स्फुटं ॥ ६५ ॥ उपकारं कृतं येऽत्र न जानंति नरास्तके | अधमाकीर्त्तिता लोके नरयं यांतिनिश्चितं ॥ ६६॥ कृतघ्नाः कीर्त्तिता राजन् कृतं धनंति यकेनराः । कृतज्ञाः कथितास्तेत्र कृतं जानंति ये नराः ॥ ६७ ॥ नोचितं तव पुत्रेत्थ मतः पित्रादिबंधनम् | महापापकरं निद्यं याहि मुंचय पातकं ॥ ६८ ॥ किसी समय धर्म सेवनार्थ चिन्ता विनाशार्थं और सुखपूर्वक स्थिति के लिए पूर्व जन्म के मोह से महाराज ने समस्त भूपों को इकट्ठा किया और उनकी सम्मतिपूर्वक बड़े समारोह के साथ अपना विशाल राज्य युवराज कुणक को दे दिया। अब पूर्व पुण्य के उदय से युवराज कुणक महाराज कहे जाने लगे। वे नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे और समस्त पृथ्वी उन्होंने चौरादिभय विवर्जित कर दी । कदाचित् महाराज कुणक सानन्द राज्य कर रहे थे अकस्मात् उन्हें पूर्वभव के वर का स्मरण हो आया। महाराज श्रेणिक को अपना वैरी समझ पापी हिंसक महा अभिमानी दुष्ट कुक ने मुनि कंठ में निक्षिप्त सर्पजन्य पाप के उदय से शीघ्र ही उन्हें काठ के पिंजरे में बन्द कर दिया । महाराज श्रेणिक के साथ कुणक का ऐसा बर्ताव देख रानी चेलना ने उसे बहुत रोका किंतु उस दुष्ट ने एक न मानी उल्टा वह मूर्ख गाली और ममं भेदी दुर्वाक्य कहने लगा। महाराज श्रेणिक को खाने के लिए वह रूखा-सूखा कोदों का अन्न देने लगा और प्रतिदिन भोजन देते समय अनेक कुवचन भी कहने लगा । महाराज श्रेणिक चुपचाप कीलोंयुक्त पिंजरे में पड़े रहते और कर्म के वास्तविक स्वरूप जानते हुए पाप के फल पर विचार करते रहते थे । किसी समय दुष्टात्मा पापी राजा कुणक अपने लोकपाल नामक पुत्र के साथ सानन्द भोजन कर रहा था। बालक ने राजा के भोजन पात्र में पेशाब कर दिया। राजा ने बालक के पेशाब की ओर कुछ भी ध्यान न दिया वह पुत्र के मोह से सानन्द भोजन करने लगा और उसी समय उसने अपनी माता से कहा Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३३६ माता ! मेरे समान पुत्र का मोही इस पृथ्वी तल में कोई नहीं, यदि है तो तू कह ! माता ने जवाब दिया राजन्! तेरा पुत्र में क्या अधिक मोह है ? सबका मोह तीनों लोक में बालकों पर ऐसा ही होता है। देख !!! यद्यपि तेरे पिता के अभय कुमार आदि अनेक उत्तमोत्तम पुत्र थे। तो भी बाल्य अवस्था में पिता का प्यारा और मान्य तू था वैसा कोई नहीं था। प्यारे पुत्र ! तेरे पिता का तुझमें कितना अधिक स्नेह था ? सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ-- एक समय तेरी अंगुली में बड़ा भारी घाव हो गया था उसमें पीप पड़ गया था। बहुत दुर्गन्ध आती थी। जिससे तुझे बहुत पीड़ा थी। घाव के अच्छे करने के लिए बहुत-सी दवाइयाँ कर छोड़ी तो भी तेरी वेदना शांत न हुई। उस तेरे मोह से तेरे पिता ने अपने मुख में अंगुली दे दी और तेरो सब पीड़ा दूर कर दी। माता चेलना की यह बात सुन दुष्ट कुणक ने जवाब दिया-- माता ! यदि पिता का मुझमें मोह अधिक था तो जिस समय मैं पैदा हुआ था उस समय पिता ने मुझे निर्जन वन में क्यों फिंकवा दिया था? माता ने जवाब दिया प्रिय पुत्र! तू निश्चय समझ तेरे पिता ने तुझे वन में नहीं फिकवाया था किंतु तेरी भृकुटी भयंकर देख मैंने फिकवाया था। तेरा पिता तो तुझे वन से ले आया, राजा बनाने के लिए सानंद तेरा पालन-पोषण किया था। यदि तेरा पिता ऐसा काम न करता तो तुझे राज्य क्यों देता? पुत्र तेरे पिता का तुझमें बड़ा स्नेह, बड़ा मोह और बड़ी भारी प्रीति थी। तुझसे वे अनेक आशा भी रखते थे। इसमें जरा भी झूठ नहीं। जैसी वेदना इस समय तू अपने पिता को दे रहा है 'याद रख' तेरा पुत्र भी तुझे वैसी ही देदना देगा। खेत में जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल काटा जाता है। उसी प्रकार जैसा काम किया जाता है फल भी उसी के अनुसार भोगना पड़ता है॥७१-६८।। इति संबोधितो मात्रा विषण्णो हृदये क्षणं । निंदयन्स्वकृतंकर्मतताम कुलिशाहतः ।। ६६ ।। अहो ! नियंकृतंकर्मकथं मोक्ष्यामिपापधीः । इदानीं जनकं रम्यं मोक्षामि हितकारकं ॥१०॥ यावन्मोचयितुंयाति विचार्येति तनद्भवः । तावत्तं श्रेणिकः प्रेक्षे गच्छतं वक्रवक्रकं ।।१०१।। दध्यौतदा नृपश्चित्ते करालास्यं निरूप्यतम् । चिकीषितुं किमत्राहो समागच्छति मूढधी: ।।१०२॥ | Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् पूर्वं संताषितोऽनेनेदानीं संतापयिष्यति । निर्दयेन कृतं दुःखमहं सोढुं न च क्षमः ।।१०३॥ वितयेत्यसिधारायां पपातात्तितमानसः । मृतिमाप क्षणार्द्धन श्रेणिको नरयं गतः ।।१०४।। असिधारास्थितं तातं प्राणत्यक्तं विलोक्य सः । विललापेति चेलिन्या सत्रमंत पुरेणच ॥१०॥ राजन् ! जिसने तुझे राज्य दिया, जन्म दिया और विशेषतया पढ़ा-लिखाकर तैयार किया, क्या उस पूज्यपाद के साथ तेरा यह क्रू र बर्ताव प्रशंसनीय हो सकता है ? अरे ! जो मनुष्य उत्तम हैं वे अपने पिता को पूज्य समझ भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं। पिता से भी अधिक राज्य देने वाले को और उससे भी अधिक विद्या प्रदान करने वाले को पूजते हैं। तू यह निकृष्ट काम क्या कर रहा है ? जो उपकार का आदर करनेवाला है सज्जन लोग जब उसका भी उपकार करते हैं तो उपकार करने वाले का तो वे अवश्य ही उपकार करते हैं। जो मनुष्य पर उपकार को नहीं मानते हैं । वे नराधम कहलाते हैं और वे नियम से नरक जाते हैं। राजन् ! जो किये उपकार का लोप करने वाले हैं वे संसार में कृतघ्न कहलाते हैं। किंतु जो कृत उपकार को मानने वाले हैं वे कृतज्ञ कहे जाते हैं। और सब लोग उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। प्यारे पुत्र ! पिता आदि का बन्धन पुत्र के लिए सर्वथा अनुचित है महापाप का करने वाला है। इसलिये तू अभी जा और अपने पिता को बन्धन रहित कर । माता द्वारा इस प्रकार संबोध पा राजा कुणक मन में अति खिन्न हुआ। अपने दुष्कर्म की बार-बार निंदा कर वे ऐसा विचारने लगे हाय ! मुझ पापात्मा ने बड़ा निंद्य काम कर डाला। हाय ! अब मैं इस महापाप से कैसे छुटकारा पाऊँगा? अनेक हित करने वाले पूज्य पिता को मैं अभी जाकर छुड़ाता हूँ। इस प्रकार क्षण एक अपने मन में विचारकर राजा कुणक महाराज को बंधनमुक्त करने चल दिये । ज्यों ही राजा कुणक कठेरे के पास पहुँचे और ज्यों ही क्रूर मुख राजा कुणक को देखा देखते ही उनके मन में यह विचार उठ खड़ा हुआ यह दुष्ट अभी पीड़ा देकर गया है अब यह क्या करना चाहता है जिससे मेरी ओर आ रहा है। पहले यह मुझे बहुत संताप दे चुका है अब भी यह मुझे अधिक संताप देगा। हाय ! इस निर्दयी द्वारा दिया दुःख अब मैं सहन नहीं कर सकता। बस, इस प्रकार अपने मन में अतिशय दुःखी हो शीघ्र ही तलवार की धार पर सिर मारा। तत्काल उनके प्राणपखेरू धर उडे और प्रथम नरक में पहुँच गये। पिता को असिधारा पर प्राणरहित देख राजा कुणक के होश उड़ गये। उस समय उन्हें और कुछ न मूझा। वे घेलना और अंतःपुर के साथ बेहोश हो करुणाजनक इस प्रकार रोदन करने लगे ॥६६-१०५।। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३४१ हा नाथ! हा कृपाधीश! हा स्वामिन्! हा महामते । अकारणजगबंधो ! हा प्रजाधीश ! हा शुभ ॥१०६।। हा तात! हा गुणाधार ! हा मित्र ! हा शुभाकर । त्वयेत्थं किं कृतं ज्ञानिन्नयोग्यं ज्ञानिनांक्वचित् ।।१०७।। नंदश्रीश्चेलनातीव रुरोदाऽशर्मपीड़िता। लुंचयंती निजान् केशान् दारयंती स्वमानसं ॥१०८॥ त्रोटयंती वराहारं भंजती करकंकणम् । हाकार मुखरा भूमौ पपात क्षणमोहिता ॥१०६।। पुनरुत्थापिता राज्ञीशीताचारैः समीपगैः । विललाप पुनर्दीर्घ चितयंती पराभवम् ॥११०॥ प्राणवल्लभ ! हा नाथ ! हा हा प्रिय पुरंदरः । हा कांत ! हा दयाधीश ! हा हा देव ! शुभालय ॥१११॥ अपुण्यां मां निजाधीश ! दीनां हित्वा कथं गतः । निःशरण्यां निराधारा मुद्रासित विमानसां ।।११२।। अंत: पुरेषु सर्वेषु रुद्यमानेष्विति स्फुटं । रुरुदु: सज्जनाः सर्वे पौरा नार्यो . मुहुर्मुहुः ।।११३॥ ततस्तत्तनुजस्तस्य संस्कारं कृतवान् पुनः । मात्रा निवारि तो मूढस्तन्मोक्षाय ददौमुदा ।।११४॥ दानं गो गज गंधर्व गृहभूमिधनादिकं । द्विजेभ्योव्रतसंत्यक्तमानसेभ्यः खलात्मकः ।।११५।। चेलना च ततो मत्वा संसारं सार वर्जितम् । अचितयत्तरां चित्ते संसारासुखभीतधीः ॥११६।। हा नाथ ! हा कृपाधीश ! हा स्वामिन् ! हा महामते ! हा विना कारण समस्त जगत के बन्धु ! हा प्रजाधीश ! हा शुभ ! हातात ! हा गुणमन्दिर ! हा भित्र ! हा शुभाकर ! हा ज्ञानिन् ! यह तुमने बिना समझे क्या कर डाला? आप ज्ञानी थे। आपको ऐसा करना सर्वथा अनुचित था। महाराज की मृत्यु से नन्दश्री और रानी चेलना को परम दुःख हुआ। उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली। उन्होंने शीघ्र ही अपने केश उपाट दिये छाती कूटने लगी। हार तोड़ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् दिये। हाथ के कंगन तोड़कर फेंक दिये। हाहाकार करती जमीन पर गिर गई और मछित हो गई। शीतोपचार से बड़े कष्ट से रानी को होश में लाया गया ज्यों ही रानी होश में आई तो उसे और भी अधिक दुःख हुआ। वह पति बिना चारों ओर अपना पराभव देख वह इस प्रकार विलाप करने लगी हा प्राणवल्लभ ! हा नाथ ! हा प्रिय ! हा कांत ! हा दयाधीश ! हा देव ! हा शुभाकर ! हा मनुष्येश्वर ! मुझ पापिनी को छोड़कर आप कहाँ चले गये? हाय ! मैं अशरण निराधार आपने कैसे छोड़ दी ? रनवास के (अन्तःपुर वास के) इस प्रकार रोने पर समस्त पुरवासी जन और स्त्रियाँ भी असीम रोदन करने लगीं । पश्चात् राजा कुणक ने महाराज का संस्कार किया। रानी चेलना द्वारा रोके जाने पर भी मिथ्यादृष्टि राजा कुणक ने “महाराज सीधे मोक्ष जावें" इस अभिलाषा से सर्वथा व्रतरहित ब्राह्मणों के लिये गौ, हाथी, घोड़ा, घर, जमीन, धन आदि का दान दिवा और भी अनेक विपरीत क्रिया की। कदाचित् रानी चेलना सानन्द बैठी थी अकस्मात् उसके चित्त में ये विचार उठ खड़े हुए कि यह संसार सर्वथा असार है तथा संसार से सर्वथा भयभीत हो वह इस प्रकार सोचने लगी ॥१०३-१६॥ पितुः स्नेहो न वि पुत्र सुतस्नेहो न तातके । सर्वे स्वार्थाधिसंरूढा मूढा भुवि भवंति वै ॥११७॥ यावत्स्वार्थं नरास्तावत्तिष्ठति भवनोदरे । विना स्वार्थ क्षणं नैकं यथा वृक्षे शकुंतकाः ।।११८॥ अस्थिरं जीवितं लोके न स्थिराः संपदोऽखिलाः । अस्थिरं यौवनं नैव स्थिरमैं द्रियकं सुखम् ।।११६॥ भुज्यमानेषु भोगेषु न तृप्तिर्देहिनां क्वचित् । अभिलाषस्य वृद्धि: स्यात् काष्टेनेव धनंजयः ।।१२०॥ तैलाद्धनंजयस्यैव सलिलाज्जलधेः क्वचित् । कथंचित्तृप्तिरेव स्यान्न भोगादिद्रियस्य च ॥१२१॥ याता यांति च यास्यतिनरा मुक्त्वा धनादिकं । कथं स्थास्यामि दीनाहं सुतमोहविडंबिता ॥१२२।। विषयानुभवाज्जीवैः समुपाय॑ च किल्विषं । गम्यतेनरके नूनं पातालपरिपूरिते ॥१२३।। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३४३ सहस्रशूककीटस्य स्पर्शनाद्भूमिसंगतः । किंचिदुःखं प्रजायेताधिकं तत्र शरीरिणां ।।१२४॥ योषितोऽन्यनराणां चाव्यभिलाषं प्रकुर्वते । तप्ताय: पुत्रकैः साकं योज्यंते ता: स्वपापतः ।।१२।। नरोऽन्ययोषिता साकं भुजंति विषयान्वरान् । तप्तपांचालिकासाकमालिंग्यतेऽत्र नारकैः ।।१२६॥ ये पिबंत्यासवं मढास्ते तत्राशर्मपीडिताः । तप्तनागरसास्तैश्च पाय्यंते दीनमानसाः ।।१२७।। अगालितजले येऽत्र मज्जयंत्युष्णशांतये । तप्ततैले कटाहे ते मज्यंते तत्र नारकः ॥१२८।। ये कुर्वति महामोहात्परस्त्री कुचमर्दनम् । पीड्यंते ते परैः शस्त्रैर्नारकर्ममवादिभिः ॥१२६।। योयुध्यते खलास्तत्र छछिद्यते च शस्त्रकैः । भेभियंते नखैस्तीक्ष्णैश्चेक्रीयते च घातनं ॥१३०॥ पापच्यते कृशानौ तेजहन्यते परस्परम् । सासह्यते परां पीड़ां लोलुक्यंते दिशोदश ॥१३॥ पापट्यंते च मर्माणि चंचर्यते च मष्टिभिः । अन्योन्यं नारकास्तत्र प्रेर्यमाणाश्च भावनैः ॥१३२।। जीवितात् तं सुखं तत्र क्षणमेकं न विद्यते । असातं प्रचुरं तीव्र कविवाचामगोचरं ॥१३३।। शीतवातातपादीनां दुःखं तिर्यक्षु विद्यते । भारारोपणसंजातं क्षुत्तृषावेदनाभवं ॥१३४॥ परस्परं तिरश्चां च साध्वसं मनुजात्पुनः । अन्योन्यं चर्वणं तेषां सबलैनिर्बलात्मनां ॥१३५॥ स्त्रीपुत्रमित्रपित्रादि वियोगा दे धते नरि । अशर्मधनराहित्यात्पर सेवा दरिद्रजं ॥१३६।। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् देवेषु मानसं दुःखं मृतौ शुकस्रगीक्षणात् । दिव्यांगना वियोगाच्च दुष्टदेवादिसंभवं ॥ १३७॥ चतुर्गतिमये तीव्र भवे नास्ना निरंतरं । सातं न विद्यते कुत्र तीव्रा शर्मनिबंधने ॥ १३८ ॥ इति ध्यात्वा चिरं राज्ञी निवृत्त्य भवभोगतः । सोऽतः पुरागतावेगा ज्जिनेशसमवसृति ॥१३६॥ परीत्य जिननाथं तं समर्च्य च सपर्यया । प्रणम्य जिनवक्त्राशा शुश्रावयति सद्वृषं ॥ १४०॥ चंदनार्यां समालभ्य स्वस्वसारं प्रणम्य च । जगृहे संयमं सारं राजदारादिभिः समं ।। १४१॥ चिरं तपो विधायाशु सिंहनिःक्रीडनादिकं । स्वांते संन्यस्य संमुच्य प्राणान् ध्यानबलेन सा ।। १४२ ॥ विशुद्धदग्विभावेन स्त्री वेदोदयमुल्वणं । निहत्य दिवि संजातः सुरो देवैर्नमस्कृतः ॥ १४३॥ महद्धिकां महाभूतिममरश्चेलनास्वरः । संभुज्योत्तम शर्माणि यास्यति शिवमंदिरं ॥ १४४ ॥ अन्ये ये भूपतेर्दारा विधाय विविधं तपः । यथायोग्यं गतिं जग्मुर्मुक्त्वा प्राणान्समाधिना ।। १४५ ॥ इति विविधतपोभिश्चेलनाद्याः सुभावा, स्त्रिदिवपदमवापुः प्राप्त पुंवेदभावाः, निहत निखिलपापादिव्यदेवांगनाभि व्रतसुकृतफलाभीरम्यमाणाः ज्ञात्वा च तत्र घनपापफलं निदयन्नुपपतिर्नरके स्वं रत्नप्रभाद्यपटलं समवापपापाच्छित्वा सप्तमधराप्रभवं सुखगाः ।। १४६ || च, महायुः । समुत्थं, प्रशस्ते ।। १४७ ।। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् वर्षाणि भुंक् चतुरशीतिसहस्रकाणि, वै समाद्यनरये स च सच्छेद्यभेद्यदलनादिभवं स क्षायिक: क्षितशरीर दुःखवृदं । विभीतं, सुसातभागः ॥ १४८ ॥ संसार में न तो पिता का स्नेह पुत्र में है और न पुत्र का स्नेह पिता में है । समस्त जीव स्वेच्छाचारी हैं और जब तक स्वार्थ रहता है तभी तक आपस में स्नेह करते हैं । संसार में संपत्ति यौवन और ऐन्द्रियक सुख भी अस्थिर है । भोग ज्यों-ज्यों भोगे जाते हैं उनसे तृप्ति तो बिलकुल नहीं होती किंतु काष्ठ से अग्निज्वाला जैसी बढ़ती चली जाती है उसी प्रकार भोग भोगने से और भी अभिलाषा बढ़ती ही चली जाती है । कदाचित् ! तेल से अग्नि की और जल से समुद्र की तृप्ति हो जाये किंतु इन्द्रिय भोग भोगने से मनुष्य की कदापि तृप्ति नहीं हो सकती । अनेक बड़ेबड़े पुरुष पहले धन-परिवार का त्याग कर गये । अब जा रहे हैं और जायेंगे। मैं केवल पुत्र के मोह से मोहित हो घर में ( महल में) कैसे रहूँ ? विषय भोग से जीव निरन्तर पाप का उपार्जन करते रहते हैं और उस पाप की कृपा से उन्हें नियम से नरक जाना पड़ता है । हजार कंटकों के धारक प्राणी के स्पर्श से जैसा दुःख होता है उससे भी अधिक जीवों को नरक में दुःख भोगना पड़ता है । संसार में जो स्त्रियाँ दूसरे मनुष्यों की अभिलाषा करती हैं नियम से उन्हें पूर्व पापोदय से लोहे की तप्त पुतलियों से चिपकाया जाता है । जो मनुष्य पर स्त्रियों के साथ विषय भोगते हैं उन्हें नरक में स्त्री के आकार की तप्त पुतलियों के साथ आलिंगन कराया जाता है । जो मूर्ख यहाँ शराब गटकते हैं हाहाकार करते हुए भी उन मनुष्यों को जबरन लोह पिघलाकर पिलाया जाता है। जो यहाँ बिना छने जल में स्नान करते हैं नारकी उन्हें तप्त तेल की कढ़ाइयों में जबरन स्नान कराते हैं । जो पापी मोहवश यहाँ पर स्त्रियों के स्तन मर्दन करते हैं । नारकी उन्हें मर्मघाती अनेक शस्त्रों से पीड़ा देते हैं। नरकों में अनेक नारकी आपस में लड़ते हैं । अनेक पैने हथियारों से और नखों से छिन्न-भिन्न होते हैं । अनेक अग्नि में डालकर मारे जाते हैं। और आपस में अनेक पीड़ा सहते हैं । नरक में रात-दिन भवनवासी देव भिड़ाते हैं इसलिए एक नारकी दूसरे नारकी को आपस में बुरी तरह मारता है । मुष्ठियों से पीस देता है । इस रीति से नारकी सदा पूर्वपापोदय से नरकों में दुःख भोगते रहते हैं । नरक में जीवितपर्यंत क्षणभर भी सुख नहीं मिलता किंतु तीव्र दुःख का ही सामना करना पड़ता है । तिर्यंचों में भी हमेशा बात ठंडी घाम का दुःख रहता है । बिचारे तिर्यंचों पर अधिक बोझ लादा जाता है। उन्हें भूख-प्यास से वंचित रखा जाता है जिससे तिर्यंचों को असह्य वेदना भोगनी पड़ती है। आपस में भी तिर्यंच एक-दूसरे को दुःख दिया करते हैं। मनुष्यों द्वारा भी वे अनेक दुःख भोगते हैं । एवं जब एक बलवान तिर्थंक दूसरे निर्बल तिर्यंच को पकड़कर खा जाता है । तब भी उन्हें अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं । मनुष्यभव में भी जब मनुष्यों के माता-पिता, पुत्र, मित्र मर जाते हैं उस समय उन्हें अधिक दुःख होता है । धनाभाव दरिद्रता सेवा आदि से भी अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं । देवगति में भी अनेक प्रकार मानसिक दुःख होते हैं । मरणकाल में भी माला सूख जाने से और देवांगना के वियोग से भी देवों को अनेक दुःख भोगने पडते हैं । दृष्ट देवों द्वारा भी अनेक दुःख सहने पड़ते हैं । ३४५ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् इस प्रकार सर्वथा दुःखप्रद चतुर्गतिरूप संसार में चारों ओर दुःख ही दुःख भरा हुआ है। रंचमात्र भी सुख नहीं । इस रीति से चिरकालपर्यन्त विचारकर रानी चेलना भवभोगों से सर्वथा विरक्त हो गई और शीघ्र ही भगवान महावीर के समवशरण की ओर चल दी । समवशरण में जाकर रानी ने तीन प्रदक्षिणा दीं, भक्तिपूर्वक पूजा और स्तुति की और यतिधर्म का व्याख्यान सुना पश्चात चंदना नाम की आर्यिका के पास गई। अपनी सासू को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अनेक रानियों के साथ शीघ्र ही संयम धारण कर लिया । ३४६ चिरकाल तक तप किया। आयु के अन्त में संन्यास लेकर और ध्यानबल से प्राण परित्यागकर निर्मल सम्यग्दर्शन की कृपा से स्त्रीवेद का त्याग किया और महान ऋद्धि धारक अनेक देवों से पूजित देव हो गया । स्वर्ग के अनेक सुख भोग भविष्यत्काल में चेलना का जीव नियम से मोक्ष जायेगा। रानी चेलना के सिवाय और जितनी रानियाँ थीं वे भी तप कर और प्राणों का परित्याग कर यथायोग्य स्थान गईं। इस प्रकार चेलना आदि रानियाँ समस्त पापों का नाश कर और पुंवेदपाकर स्वर्ग गईं। और वहां देव हो अनेक मनोहर देवांगनाओं के साथ क्रीड़ाकर भोग भोगने लगी । महाराज श्रेणिक भी सप्तम नरक की प्रबल आयु का नाशकर रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में गये । तथा वहाँ पाप फल का विचार करते हुए और अपनी निंदा करते हुए रहने लगे । अब वे चौरासी हजार वर्ष नरक दुःख भोगकर और वहाँ की आयु को छेदकर भविष्यत्काल में तीर्थंकर होंगे और कर्मनाशकर सिद्धपद प्राप्त करेंगे ।। ११७-१४८ ।। इति श्रेणिकभवानुबद्ध भविष्यत्पद्मनाभपुराणे श्रेणिकादि भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य गतिवर्णनं नाम चतुर्दशः सर्गः ॥ १४ ॥ इस प्रकार तीर्थंकर पद्मनाभ के पूर्वभव के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित श्रेणिक-चेलना आदि की गति - वर्णन करनेवाला चतुर्दशसर्ग समाप्त हुआ । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशमः सर्गः श्री पद्मनाभंवर भावितीर्थं ___ नत्वा समस्तार्थविबोधनेऽहं । वक्ष्ये च कल्याणक पंचकं च तस्यागहान्यशिवशर्मसिद्धये ॥ १ ॥ एकविंशतिसहस्रवर्षके पंचमस्य समयस्य संगते । हायने च युगषष्टयोर्गते पंचमस्य समकालवत्तिनः ।। २ । उत्सर्पिणी युगमकालसहस्रवर्षे ___ ख्याताश्च पोडशशुभा मनवो बभूवुः । नानासुनीति निपुणा वरबोधभावा न्याये जनान् शुभधिया खलु योजयंत: ।। ३ ।। तत्रांत्यमः शुभकरः सुरसेव्यपादो, __नानागुणः कुलकरश्च महादिपद्मः । शुभन्मयूखहतता ममको गभीरो, विख्यातकीतिरतुलाभरणविशिष्ट: ॥ ४ ॥ वक्त्रेण चंद्रं नयनेन तारां __ वक्षस्थलेनैव शिलां जिगाय । दंतेन कुंदं भुजयुग्म केन शेषं च __भूभज्जिननाथ तातः ।। ५ ।। गुणाश्च रूपं सकला: कलाश्च शीलं यशो लोकविभागचारि । नरेशताऽशेष विशेषवित्वं यस्मिन् बभूवुर्नरनाथ सेव्ये ॥ ६ ॥ जीवायते यो वर बुद्धिलब्ध्या मारायते रूप वयोमयूखैः । देवायते संततिभूतिभावः, सूर्यायते कांतिवितानवृन्दैः ॥ ७ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् वासाय वै यस्य सुभारते च, निर्मापिता पूर्मधवाज्ञयाहि । श्री किंनरेशेन विचित्ररत्नाऽयोध्या ऽभिधाभूषितभूमिभागा ॥ ८ ॥ यस्यां च शालः सरसैमयूखैः ।। र्मुक्ताफलैन्नविरत्नवर्गः । संराजते नाकसमं समंतात्स्पर्धी वहत्यां शुभगैहैश्च ॥ ६ ॥ गृहैविमाना मनुजैदिवीशाः सीमंतिनीभिः सुरयोषितश्च । भूपैः शचिशास्तरुभिश्च कल्पा जिता यया चारुविभूतिभावात् ।। १० ।। योषिन्मुखैरिंदुगणो नखैश्च तारासुनेत्रैर्वर पद्मवृन्दम् । कात्या च शूरो विजिताय यैते सीमंतिनीनां गमनेन नागाः ॥ ११ ॥ अभ्र लिहै: केतनमालिकाभिः, संलिह्यते दीप्रसुधांशुबिम्बं । संमंदिरैः किं सकलंकयुक्तः, संजातवांश्चेत्परथा विशुद्धः ।। १२ ।। कि वर्ण्यते सा घटिता सुरेण स्थित्यै जिनेशस्य महामहीशः । इंद्राज्ञया किंनरनायकेन लोकत्रये संतिलकायते या ।। १३ ।। तत्र स्थितो सौ नरनाथसेव्यो विकासयन् कीतिलतां च मह्यां । संपूर्णपुण्यः सुभगः प्रवीणः सुसप्तहस्तोच्छतिदेहभाजी ॥ १४ ।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् सुंदरीत्यभिधया वरमूर्ति तार मार दयिते वसुभावा रंगनाललित चारुशरीरा । तस्य चित्तवर पद्मयूखा ।। १५ ।। यस्या विरेजुः सरसाः कचाश्च मूर्ध्नि प्रभाढ्या भ्रमराः सुगंधात् । संसेवितुं वक्त्रमहोत्पलस्य स्थिताश्च चूड़ामणि रत्नदीप्ताः ॥ १६ ॥ यस्या विशालं वरभालपट्ट संराजते सत्तिलकायितं च । त्रैलोक्य नारी विजयाय बद्धं पत्रं विधात्रेव वराक्षराढ्यं ।। १७ ।। आकर्णविस्तारि सुनेत्रयुग्मं रक्तं सुक्रोपादिवमार्गरोधात् । श्रुत्योरलक्षा खिलकूपकृत्योः क्रीड़ाकृते पद्मदलं विधातुः ॥ १८ ॥ समस्त पदार्थों के प्रकाश करने में सूर्य के समान भावी तीर्थंकर श्री पद्मनाभ भगवान को नमस्कार कर स्वकल्याण सिद्धयर्थं उन्हीं भगवान के आचार्यों द्वारा प्रतिपादित पाँच कल्याणों का वर्णन करता हूँ । ३४६ उत्सर्पिणी काल के एक हजार वर्ष बाद अतिशय चतुर उत्तम ज्ञान के धारक चौदह कुलकर 'मनु' होंगे । और वे अपने बुद्धिबल से प्रजा को शुभ कार्य में लगायेंगे। उन सब में शुभकर्ता, अनेक देवों से पूजित, अनेक गुणों के आकर, अपनी किरणों से समस्त अन्धकार नाश करने वाले गंभीर, अनेक आभरणों से शोभित और अतिशय प्रसिद्ध तीर्थंकर पद्मनाभ के पिता अन्तिमकुलकर महापद्म होंगे। कुलकर महापद्म मुख से चन्द्रमा को, नेत्रों से ताराओं को, वक्षःस्थल से शिला को, दाँतों से कुन्दपुष्प को और बाहुयुग्म से शेषनाग को जीतेंगे। अनेक राजाओं से वंदित राजा महापद्म द्म में उत्तमोत्तम गुण, रूप, समस्त कलाएँ, शील, यश आदि होंगे । महापद्म अपने उत्तम बुद्धिबल से जीवेंगे। मनोहर रूप से कामदेव की तुलना करेंगे । निरन्तर विभूति के प्रभाव से देवतुल्य और अपने शरीर की कांति से सूर्य के समान होंगे । महापद्म के रहने के लिए इन्द्र की आज्ञा से कुबेर अनेक रत्नों से जड़ित, मनोहर भूमियों से शोभित, अयोध्या नगरी का निर्माण करेगा । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अयोध्या का परकोटा मनोहर किरणों से व्याप्त, मुक्ताफल और भी अनेक रत्नों से निर्माण किया स्वर्ग की समता को धारण करेगा। और घर स्वर्ग घरों के साथ स्पर्द्धा करेंगे । अयोध्या के घर विमानों को जीतेंगे। मनुष्य देवों को, स्त्रियाँ देवांगनाओं को, राजा इन्द्रों को और वृक्ष कल्पवृक्षों को नीचा दिखायेंगे। अयोध्या में रहनेवाली कामिनियों के मुख से चन्द्रमंडल जीता जायेगा । नखों से तारागण, मनोहर नेत्रों से कमल और गमन से हाथी पराजित होंगे। अयोध्यापुरी के महलों पर लगी ध्वजा चन्द्रमण्डल का स्पर्श करेगी। अयोध्यापुरी का विशेष कहाँ तक वर्णन किया जाये ? जिनेन्द्र के रहने के लिए कुबेर इन्द्र की आज्ञा से उसे एक ही बनावेगा । और वहाँ अनेक राजाओं से पूजित चौतर्फा अपनी कीर्ति प्रसार करने वाले अतिशय पुष्यवान, चतुर, सुन्दर और सात हाथ शरीर के धारक कुल कर महापद्म महापद्म की प्रिय भार्या सुन्दरी होगी । सुन्दरी अतिशय शरीर की धारक, पद्म के समान सुन्दर, रति के समान होगी । उसके केश अतिशय दैदीप्यमान और उत्तम होंगे। मुख कमल की सुगन्धि से उसके मुख पर भोंरे गिरेंगे। और उसके सिर पर रत्न जड़ित दैदीप्यमान चूड़ामणि शोभित होगा । अतिशय तिलक से युक्त उसका भाल अतिशय शोभा को धारण करेगा और वह ऐसा मालूम पड़ेगा मानो त्रिलोक की स्त्रियों के विजय के लिए विधाता ने एक नवीन यंत्र रचा हो । कानों तक विस्तत विशाल और रक्त उसके नेत्र होंगे । और वे पद्मदल की शोभा धारण करेंगे ।। १- १८ ।। ३५० मध्ये भ्रुवोर्भाति च येन यस्या उंकार मंत्रो लिखितो विधात्रा | जगद्वशायापरथा कथं स्यान् नरो वशी तामवलोक्य तूर्णं ॥ १६ ॥ दंतकेसरमनौपमं वरं । परमोष्टपर्णकलितं नतभ्रु वः ॥ २० ॥ भाति वक्त्रगृहकाष्टतां गतं । आस्यपद्द्मभवभाति सुंदरं नासिकाविशमनोहरं चारुकंबुललितं त्रिरेखितं कोकिलध्वनि समाजसुंदरं सुभ्र ुवो वटुविराजितं परं ॥ २१ ॥ वक्षःस्थले भाति विशालहारो मुक्ताफलाढ्यो वररत्नभासी । रक्षाकृते नाग इव स्तनस्य यस्या मनोभूवर सेविधेश्च ॥ २२ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३५१ सुदुर्लभौ हार भुजंगसेवितो सुचूचकाच्छादितवक्त्रपंकजौ । स्थितावगाधौकुचकुंभको परौ, सुसेविधेः कम्रघटौ मनोभुवि ॥ २३ ॥ अंगुलिच्छदनमंडितं परं बाहुदंडमवभातिदीप्रकं । पाणिपंकजतरं मृगीदृशः कंकणोन्नतसुकेस राश्रितं ।। २४ ।। उदरे यस्या नाभितड़ागे मदनद्विप वरपीडितमध्यः । शुभगः श्लक्ष्णाकुंतलपद्मो मदनाहतजनवांछितकेलिः ॥ २५ ॥ कटीतटं तत्र विराजति स्म च नितंबतुंगस्तनभारमध्यतः । कृशं तयोर्युग्मकयोर्भयादिव मध्यस्थितस्यैव मयं भवेत्सदा ।। २६ ।। सुरम्यजानुद्वितयं विराजते परं सुरंभासुभगं मनोभुवः । शरद्वयं कामिजनस्य घातिने स्थित यथा चारुसुलक्षणान्वितं ॥ २७ ॥ मीनशंखकुलिशादिलक्षणं पादपद्ममवभातिमेदुरं । अंगुलीय नखरत्नराजितम् भ्राजितं सर इवास्र सज्जलैः ।। २८ ।। यस्या रूपं विधात्रा विविधशुभकरै रिभिर्वक्त्रपद्म । नेत्रं पंकेजपत्ररदनवसनकं विद्रुमै पक्वबिबैः । शाखाभिर्बाहुयुग्मं कनकगिरितटै र्वक्ष एवं स्तनौ च । पीनौ स्वर्णस्य कुभैश्चरणयुगलकं पद्मपत्रैय॑धायि ॥ २६ ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् सालंकृतिः सर्वगुणा विदोषा सुरीतिसंदीपितमध्यभावा । नानारसैः सा विरराज नित्यं सुभारती वासुकवेः शुभार्था ॥ ३० ॥ गत्या करेणुं नयनेन दीप्र मृगांगनां सा च जिगाय वाचा । पिकांगनां रूपगुणेन रम्यां रति मुखेनेंदु गणं च कम्रा ॥ ३१ ॥ इंद्रादेशात्प्रथमन रये श्रेणिकस्याथ रक्षां । चेक्रीयंते नरयनिकरं वार्यमाणो सुराः स्म । उच्छिष्टे वै नयनतनुजं चायुषां षट्कमासे । हित्वा दुःखप्रथमभरते भावि तीर्थेश्वरस्य ।। ३२ ।। तस्यालयेऽथ सुरपः खलु षट्कमासान् संस्कारयिष्यति धनाधिपकेन पूर्वं । रत्नादिवर्षणममोघसुमेघवृन्दैः ___ संकालयं तदनु मासनवप्रमाणं ॥ ३३ ।। संप्रेषिता: सुर वरेण सुरांगनाश्चा प्टाविंशतिढिकहताजिनमातृभक्त्य । आगत्य ता नरपति धृतमौलिहस्ता - नत्वाज्ञया नृपगृहं विविशुः समस्ताः ।। ३४ ।। एकदा निशि नरेद्रकामिनि स्वप्नसंचयमिमं समैक्षत । पश्चिमे प्रहरके च तल्पके निद्रिता कमललोचनाशुभा ॥ ३५॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् सुन्दरी के भ्रकुटियों के मध्य में ओंकार अतिशय शोभा को धारण करेगा । विधाता उसे समस्त जगत को वश में करने के लिए निर्माण करेगा । ऐसा मालूम पड़ता है । दाँतरूपी अनुपम केशर का धारक नाशिका रूपी विष से मनोहर ओष्ठ रूपी पल्लवों से व्याप्त उसका मुख कमल अतिशय शोभा धारण करेगा । मनोहर कंबु के समान सुन्दर, तीन रेखा का धारक, मुखरूपी घर के लिए खम्भे के समान कोकिल ध्वनियुक्त उसकी ग्रीवा अतिशय शोभित होगी । मुक्ताफल से शोभित भाँति-भाँति के रत्नों से दैदीप्यमान सुन्दरी के वक्षःस्थल का हार अतिशय शोभा धारण करेगा । और वह ऐसा जान पड़ेगा मानो विधाता ने स्तन कलशों की रक्षार्थ मनोहर सर्प का ही निर्माण किया हो । सुदुर्लभ हाररूपी सर्पों से शोभित चूचुक रूपी वस्त्र से आच्छादित उसके दोनों स्तन मनोहर घड़े के समान जान पड़ेंगे। अंगुलीरूपी पत्तों से व्याप्त, बाहुरूपी दंडों का धारक, कंकणरूपी उन्नत केशर से शोभित उनके दोनों कर-कमल अतिशय शोभा धारण करेंगे । मनोहरांगी सुन्दरी का कामदेव रूपी हाथी से युक्त मनोहर बिखरे हुए केशरूपी पद्म का धारक कामीजनों की क्रीड़ा का इष्टस्थल नाभिरूपी तालाब संसार में एक ही होगा । सुन्दरी का उन्नत स्तनों के भार से अतिशय कृश कटिभाग अति शोभित होगा सो ठीक ही है । दो आदमियों के विवाद में मध्यस्थ मारे भय के कृश हो ही जाता है । सुन्दरी के दोनों जानु कदली स्तंभ के समान शोभा धारण करेंगे । कामीजनों को वश में करने के लिये वे कामदेव के दो बाण कहलाये जायेंगे और अनेक शुभ लक्षणों के धारक होंगे। मीन शंख आदि उत्तमोत्तम गुणों से उसके दोनों चरण अत्यन्त शोभित होंगे । 1 और नखरूपी रत्नों से युक्त उसकी अंगुली होगी । विधाता सुन्दरी का रूप तो अनेक उपायों से रचेगा और मुख चन्द्रमा से नेत्र कमल पत्रों से दाँत मूंगों से ओठ पके बिंबा फलों से दोनों भुजा शाखाओं से वक्षस्थल सुवर्ण तटों से दोनों स्तन सुवर्ण कलशों से एवं दोनों चरणकमल पत्रों से बनावेगा । माता सुन्दरी सरस्वती के समान शोभित होगी क्योंकि सरस्वती जैसी सालंकृति अलंकारयुक्त होती है सुन्दरी भी निर्दोष होगी । सरस्वती उत्तम रीति से दैदीप्यमान होती है उसी प्रकार सुन्दरी भी अतिशय सुड़ोल होगी । सरस्वती जैसी अनेक रसों से युक्त होती है सुन्दरी भी लावण्ययुक्त होगी। सरस्वती जैसी शुभ अर्थयुक्त होती है, सुन्दरी भी अपनी अवयवों से सुडौल होगी। माता सुन्दरी गति से हथिनी जीतेगी और नयन से मृगी, वाणी से कोकिल, रूप से रति एवं मुख से चन्द्रमा जीतेगी । भगवान के जन्म के छह मास पहले से जन्म तक पन्द्रह मास पर्यंन्त कुबेर इन्द्र की आज्ञा से तीनों काल अमोघ रत्नों की वर्षा करेगा। माता की सेवा के लिए इन्द्र की आज्ञा से छप्पन कुमारियाँ आकर माता की सेवार्थं आवेंगी और राजा महापद्म को नमस्कार कर राजमहल में प्रवेश करेंगी ।। १६-३५।। शुभ्र गजेंद्र वरदानसज्जलं गावं महास्कंधधरं सनादकं । पंचाननं दंति विदारणोद्धतं ३५३ देवेंद्र तिस्नपितां पयोब्धिजां ।। ३६॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् दाम्नी सुगंधे भ्रमरध्वनीद्धते चंद्रं सुपूर्ण तिमिरस्य बारकं । सूर्य प्रतापं तनुजस्य वा परम्, मीनद्वयं नेत्रयुगं स तस्य वा ॥ ३७॥ कुंभद्वयं दीप्र तनूजसे विधि पद्माकरं पद्समूहमंडितं । वाद्धि गंभीरं मणि मीन मंडितं सिंहासनं स्वर्णमणिप्रभाभृतं ।। ३८ ।। देवेंद्रयानं सुरभामिनीश्रितं __नागेंद्रगेहं सुतसूतिसूचकं । रत्नप्रचायं सुनिधिं सुतस्यवा निर्धूमवह्नि च ददर्श सा शुभा ॥ ३९ ॥ (चतु: कुलं) वक्त्रे गजेंद्र शुचि देहमुन्नतं । संविश्यमानं सुविलोकयिष्यति । सा पूर्णचंद्राननिका मृगेक्षणा। संरक्षिता देववधू समूहकैः ।। ४० ॥ वीणादुंदुभिशंख काहलमहानादान्निशम्याशुसा बुद्ध वा मागधगीतशब्दनिकरात् प्रातः परिज्ञाय वै । उत्थायासनमुत्तमं जिनपते माताव्यलं चक्रके पूर्वाह्न हततामसा वरतरं भानोर्मरीचिर्यथा ॥४१॥ शिरसि मुकुटबंधं भालपट्टे च भालं, हृदि सुललिहारं कंकणं बाहुयुग्मे । धरति सुभगकर्णे कुंडलं मेखलां सा, अतिकृश शुभकट्यां नूपुरं पादपद्मे ॥ ४२ ॥ सपद्म महापद्मनाथं स्वनाथं समासाद्य कांतं स्थितं विष्टरे च । प्रणम्य स्थिता वामभागे सुराज्ञी प्रगल्भा महानर्मशर्मादिवाक्या ।। ४३ ।। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३५५ नाथ ! सार्थानिमान् स्वप्रचारान् पश्चिमे यामके पश्य के वै । जल्पयत्वं फलं तेषां किं विभो, ज्ञान विज्ञान नेत्रः सुचित्रैः ॥ ४४ ॥ श्रुत्वेति वाचं नृपतिर्जगौ तां ___ कांते प्रिये दंतिगते मृगाक्षि । वक्ष्ये फलं तेऽद्य मनोजगेहे तेषां यथार्थं दयिते दयाढ्ये ॥ ४५ ॥ दंतीक्षणात्ते भविता तनूजो ज्येष्ठो वृषाद्विष्टपके मृगारेः । अनंतवीर्य शुभपुष्पदाम्नोः वृषस्य सम्यक् स पतिर्भविष्णुः ॥ ४६॥ लक्षम्याभिषेकात्कनकाद्रिमूनि संस्नाप्यतेऽसौ सुरनाथवगैः । चंद्राज्जनाह्लादकरश्च सूर्य्याद् । भास्वद्युतिवित्तपतिश्च कुंभात् ।। ४७ ।। मीनादनंतसुखभाक् सरसः सुपूर्णः, सल्लक्षणेरुदधितो वर बोधयुक्तः । सिंहासनाद्भुवनराज्यपतिर्बलिष्ठः, पुण्याधिपोऽमर विमान विलोकनाच्च ॥ ४८ ॥ नागालयादवधिबोधयुतश्च रत्नान् ___ नानागुणोज्ज्वलनवीक्षणतः क्षणेन । कर्मेधनस्य दहने खलु बद्धकक्षो वक्त्रप्रवेशनविधेर्भविता सुतस्ते ॥ ४६॥ श्रुत्वा स्वप्न फलं नृपस्य दयिता यावत्प्रमोदान्विता। तावन्नारकत: समेत्य नृपते जीवोऽशुभे चोदरे । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येन विरचितम् तस्या देव वघृ सुसोधिततरे स्थाता महापुण्यतः । हत्वा नारकदुखःपापनिचयं तीर्थोदयाच्छुद्धधीः ॥ ५० ॥ तस्योदयं देवगणो हि मत्वा नत्वा च पित्रोः पदपद्मयुग्मं । कृत्वा च कल्याणपरम्परां च, दत्वा सुवर्ण जनकाय मात्रे ॥ ५१॥ वस्त्रादिकं तज्जननादिवृत्त मुक्त्वा क्षणेन त्रिदिवं गतश्च । कुर्वन्कथां श्री जिनपस्य भक्त्या ___निर्मूलितारेर्वरपुण्यभाजः (युग्मं) ॥ ५२ ॥ कुमारिकास्ता जिननाथमातर मुपासते भोजनदानभक्तितः । विडोज आज्ञा कृत शेखराः शुभा विलेपनस्नानसुपुष्पदानतः ॥ ५३॥ काचित्करोति पदधोवनमंबिकायाः काचिद्दधाति वरपुष्पगणं तदने । काचित्सचंपकसुतैलविमर्दनं च __काचित्पयोधिजलधेः सलिलैश्च सेकं ।। ५४ ॥ पूपांश्च मंडक सुमोदकपायसानि माषान्नमुद्गघृतमंडकखज्जकाश्च । प्राज्याज्यमग्नगुडलग्नसुचूर्णकानि सद्वलंजनानि दधि दुग्धकरं बकाणि ।। ५५ ॥ काचिद्ददाति च महानसमंडपस्था सन्नून रत्नवरभाजनरंधनार्था । सन्नव्यभव्यवरपाककृते च दक्षा मात्रे च भोजनतरं वरपुण्यपाकात् ॥ ५६ ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषिक पुराणम् नत्ति हाववरभावगता च काचिद्, वर्वत्ति मातृहृदयानुगता च काचित् । वर्वद्धि मातृहृदये सुखमुल्वणं च, चर्कत्ति कार्यमखिलं सुर भामिनी च ॥ ५७ ।। तांबूलकं खदिरसार युतं च दग्ध, पाषाणचूर्णसहितं क्रमुकः समेतं । काचिद्ददाति नृपनाथ सुयोषितायै, पुष्पस्रजं मधुपझंकृति संयुतां च ।। ५८ ।। शय्यां च काचिद्वरतल्पमंडितां चेक्रीयते रत्नचयैश्च दीपकान् । काचिच्च रक्षां वर शस्त्रधारिणी विद्युल्लता वा घन मेघवर्तिनी ॥ ५६ ॥ किरीटमस्तके कर्णे कुंडलं कंकणं करे। हृदि हारं शुभे नेत्रे कज्जलं वदने परे ॥६॥ तांबूलं तिलकं भाले कट्यां च कटिमेखलां । नासायां मौक्तिकं कंठे ग्रैवेयकं सहाटकं ॥ ६१ ॥ नपुरं चरणद्वंद्वे चांगुल्यां वृश्चिकान् परान् । निवेशयंति कामिन्यो देवानां नृपयोषित (त्रिकलं) ॥ ६२ ॥ अभ्यर्णे नवमे मासे प्रश्नयिष्यति मातरं । देवांगना क्रियागुप्तं कारकादींश्च कौतुकान् ॥ ६३ ॥ शरीराच्छदकं किं स्यात् किं च स्याद्देहदाहकं । पुष्पाणां ग्रंथने किं स्याद्वदाद्याक्षरतः पृथक् ॥ ६४॥ __"त्वक रुक् स्रक्" नृसिंह तो किमाख्या स्यात्कास्ते चंद्रस्य मंडले । पापेन कीदृशा जीवा वद मातः स्वबुद्धितः ॥६५॥ "सभा विभा अभाः" Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ श्रोशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् किसी समय कमल नेत्रा रानी सुन्दरी शयनागार में अपनी मनोहर शय्या पर शयन करेगी अचानक ही वह रात्रि के पिछले प्रहर में ये स्वप्न देखेगी। (१) जिससे मद च रहा है ऐसा सफेद हाथी, (२) उन्नत स्कंध का धारक नाद करता हुआ बैल, (३) हाथी को विदारण करता बलवान सिंह, (४) दुग्ध से स्नान करती लक्ष्मी, (५) भ्रमरों से व्याप्त उत्तम दो माला, (६) सम्पूर्ण चन्द्रमा, (७) अन्धकार का नाशक (प्रतापी सूर्य) (८) जल में किलोल करती दो मछलियाँ, () दो उत्तम घड़े, (१०) अनेक पद्मों से व्याप्त (सरोवर) (११) रत्न मीन आदि से युक्त विशाल समुद्र, (१२) मणि जड़ित सोने का सिंहासन, (१३) अनेक देवांगनाओं से शोभित सुर विमान, (१४) नागेंद्र का घर, (१५) रत्नों का ढेर, (१६) और निर्धूम अग्नि। तथा उन्नत देह का धारक पवित्र किसी हाथी को अपने मुख में प्रवेश करते भी वह सुंदरी देखेगी। प्रातःकाल में वीणा ढक्का शंख आदि के शब्दों से और मागधों की स्तुति के साथ रानी पलंग से उठाई जायेगी और शय्या से उठते समय वह प्राची दिशा से जैसा सूर्य उदित होता है वैसी शोभा धारण करेगी। महारानी उठकर स्नान करेगी और सिर पर मुकुट, कंठ में ललित हार, हाथों में कंगन, भजाओं में वाजूबन्ध, कानों में कुण्डल, कमर पर करधनी एवं पैरों में नपुर पहनेगी। तथा अपने स्वामी राजा महापद्म के पास जायेगी और सिंहासन पर उनके बामभाग में बैठकर चित्त में हर्षित हो इस प्रकार कहेगी स्वामिन् ! रात्रि के पिछले प्रहर मैंने स्वप्न देखे हैं कृपाकर उनका जैसा फल हो वैसा आप कहें। रानी के ऐसे वचन सुन राजा महापद्म इस प्रकार कहेंगे प्रिये ! मृगाक्षि ! जो तुमने मुझसे स्वप्नों का फल पूछा है मैं कहता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो जिससे तुम्हें सुख मिलें Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३५६ स्वप्न में हाथी के देखने का फल तो यह है कि तेरे पुत्र रत्न उत्पन्न होगा। बैल के देखने का फल यह है कि वह तीन लोक में अतिशय पराक्रमी होगा। तूने जो सिंह देखा है उसका फल यह है कि तेरा पुत्र अनन्त वीर्यशाली होगा। और दो मालाओं के देखने से धर्मतीर्थ का प्रवर्तक होगा। जो तूने लक्ष्मी को स्नान करते देखा है उसका फल यह है कि मेरू पर्वत पर तेरे पुत्र को ले जाकर देवगण क्षीरोदधि के जल से स्नान करावेंगे। चन्द्रमा के देखने से तेरा पुत्र समस्त जगत को आनन्द प्रदान करने वाला होगा। सूर्य के देखने का फल यह है कि तेरा पुत्र अद्वितीय कांति धारक होगा। कुम्भ के देखने से अगाध द्रव्य का स्वामी होगा। मीन के देखने से तेरा पुत्र सुख का भंडार होगा और उत्तमोत्तम लक्षणों का धारक होगा। समुद्र के देखने का फल यह है कि तेरा पुत्र ज्ञान का समुद्र होगा। और जो तूने सिंहासन देखा है उससे तेरा पुत्र तीन लोक के राज्य का स्वामी होगा। देव विमानों के देखने से बलवान और पुण्यवान होगा। तूने जो नागेन्द्र का घर देखा है सका फल यह है कि तेरा पुत्र जन्मते ही अवधि ज्ञान का धारक होगा। चित्र-विचित्र रत्न राशि देखने से तेरा पुन अनेक गुणों का धारक होगा। निर्धूम अग्नि के देखने का यह फल है कि तेरा पुत्र समस्त कर्म नाश कर सिद्धि पद प्राप्त करेगा। और तूने जो मुख में हाथी प्रवेश करते देखा है उसका फल यह है कि तेरे शीघ्र ही पत्र होगा। राजा के मुख से ज्यों ही रानी स्वप्न फल सुन हर्षित होगी त्यों ही महान पुण्य का भंडार महाराज श्रेणिक का जीव नरक की आयु का विध्वंसकर रानी सुन्दरी के शुभ उदर में जन्म लेगा। तीर्थंकर महापद्म का आगमन अवधिज्ञान से विचार देवगण अयोध्या आवेंगे। तीर्थंकर के माता-पिता को भक्तिपूर्वक प्रणाम करेंगे। उन्हें उत्तमोत्तम वस्त्र पहनायेंगे। भगवान का गर्भ कल्याण कर सीधे स्वर्ग चले जायेंगे और वहाँ समस्त पुण्यों के भंडार समस्त कर्मनाश करने वाले भगवान तीर्थंकर की कथा सुन आनन्द से रहेंगे। छप्पन कुमारियाँ माता की भोजनादि से भक्तिपूर्वक सेवा करेंगी। आज्ञानुसार माता का स्नपन विलेपन आदि काम करेंगी। कोई कुमारी माता के पैर धोयेगी। कोई उनके सामने उत्तमोत्तम पुष्प लाकर धरेगी। कोई माता की देह से तेल मलेगी। कोई क्षीरोदधि जल से माता को स्नान करायेगी। कोई पूवा, मांड, लड्ड, खीर, उर्द, मूंग के स्वाद दूध, दही और भी भाँति के व्यंजन माता को देगी। कोई माता के भोजनार्थ उत्तमोत्तम भोजन बनाने के लिए उत्तमोत्तम पात्र देगी। कोईकोई माता की प्रसन्नता के लिए हाव-भावपूर्वक नृत्य करेगी। कोई माता की आज्ञानुसार बर्ताव करेगी। और कोई कुमारिका अपने योग्य बर्ताव से माता के चित्त को अतिशय आनन्द देगी। कोई-कोई कुमारी कत्था-चूना, सुपारी रखकर सुन्दरी को पान देगी। कोई उसके गले में अतिशय सुगंधित माला पहनायेगी कोई-कोई माता के लिए मनोहर शय्या का निर्माण करेगी। और कोई रत्नों के दीपक जलायेगी। और कोई-कोई कुमारी माता के मस्तक पर मुकुट, कान में कुण्डल, हाथ में कंगन, गले में हार, नेत्र में काजल, मुख में पान, मस्तक पर तिलक, कमर में करधनी, नाक में मोती, कंठ में कंठी, पैरों में नपुर, पाँव की अंगुलियों में बीछिये पहिनायेगी। जब नौवां महीना पास आ जायेगा तब कुमारियाँ माता के विनोदार्थ क्रिया गुप्त कतृ गुप्त कर्म गुप्त और Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् प्रहेलिका कहकर माता का आनन्द वढ़ायेगी। कोई पूछेगी, बताओ माता-शरीर का ढंकने वाला कौन है ? चन्द्र मंडल में क्या है ? और पाप की कृपा से जीव कैसे होते हैं ? माता उत्तर देगी-॥३६-६॥ अंते किं देहिनां नूनं कामिना कि विधीयते । कीदृशो ध्यानतो योगी समादिश मम प्रिये ॥६६॥ "विनाशः विलाशः विपाशः" अमरप नर तर समजपर, भगतमददममयजन घननतक। प्रमदनवन घनदहन कनर प, जय जय तव वर जठरभपरम ।। ६७ ॥ "एकस्वरचित्रम्" शुभेद्यजन्मसंतानसंभवं किल्विषं धनम् । प्राणिनांभ्र णभावेन विज्ञानशतपारगे ॥ ६८ ॥ "क्रियागुप्तकम्" आनंदयंतु लोकानां मनांसि वचनोत्करैः । मातः कर्तृपदं गुप्तं वद भ्रूण विभावतः ॥ ६ ॥ “कर्तृ गुप्तकम्" सुधामनयसंपन्ना लभंते किनगः क्वचित । स्वकर्मवशगा भीमे भवे विक्षिप्तमानसाः ॥ ७० ॥ “कर्मगुप्तकम्" समस्यापूरणे मातः समस्यां वद वादिनी । भ्रूणप्रभावतस्तूर्णं मुनिर्वेच्यायते सदा ॥ ७१ ।। नगर्थं लोकयत्येव गृहीत्वार्थं विमुंचति । धत्ते नाभिविकारं च मुनिबेश्यायते सदा ॥ ७२ ।। कथयस्व समस्यां त्वं वल्लीवेश्यायते सदा । अपगं भिन्नपद्मन धरायां संगतं नभः ॥ ७३ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् स्वपुष्पं दर्शयत्येव कुलीना सुपयोधरा । मधुपश्चुंब्यमाना च वल्ली वेश्याते सदा ॥ ७४ ॥ पानीये बालिशैर्नूनं धरास्थे प्रतिबिंबितं । दृश्यते च शुभाकारं धरायां संगतं नभः ॥ ७५ ॥ दूरस्थैर्दूरतो नूनं नरैविज्ञानपारगैः । ईक्ष्यते च शुभाकारं धरायां संगतं नभः ।। ७६ । सुनेत्रे च शुभाकारे प्रियवादिनि मानिनि । त्वद्गर्भे पुण्यवान् कोऽपि समस्ति नयनप्रिये ॥ ७७ ॥ बिंदुरहितं वचनं गुरुराजस्य ये कुर्वति नराः सदा । दुःखं ते यांति किं साधु पक्षपातसमुद्यताः ॥ ७८ ॥ "वंचनपदाद्विदुच्युतकं" निर्गत्य कालमखिलं जिननाथमातु, रेवं सुरेश्वर वधूर्विविधां च सेवां । चक्रे सु कालकथया वर तीर्थ चक्रि, विष्णुप्रविष्णु बलदेव कथां तथा च ॥ ७६ ॥ दालस्यतंद्रारुचिदेहगेहे, भ्रङ्गस्त्रिवल्या जठरे न चाभू तस्या मुखे पांडुरता न चाभूद् गुणप्रभावाच्छयने सुखं न ॥ ८० ॥ मासेऽथ पूर्णे नवमे सुयोगे, सुवासरे चंद्रबले सुलग्ने । नक्षत्रयोगे नरनाथ पत्नी, सविष्यते सत्तनुजं शुभांगं ॥ ८१ ॥ आशास्तदा निर्मलतां गतां पराः, विष्णोः पदं पांशुविवर्जितं शुभम् । क्षोणी त्रुणैरोमचिता प्रमोदतो, मार्गाः सुरम्या नगरं शुभावहं ॥ ८२ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् शंखारवो भावनधाम्नि सुंदरे, भेरीरवो व्यंतरपत्तनेऽखिले । सिंहारवो ज्योतिषिमेघसन्निभो, घंटा रवो नाक निकायकेऽजनि ॥८३ ॥ ज्ञात्वा च जन्म जिनपस्य सुरेंद्रवर्ग, आरुह्यमानमभितः प्रथमेश्वरोऽपि । ऐरावतं गजवरं मुखदंत रम्यं, संरुह्य देवनिकरैश्च चचाल शच्या ॥८४ ॥ आगत्य तस्य नगरं सुरराजपत्नी, वेगादरिष्टसदनं सुरराजदेशात् । संप्राप्य वीक्ष्य जिनपं जननीसमेतम्, संतत्य गूढवपुषा स्तुतिमाततान ॥ ८५॥ संयोज्यतां च शयने तसुजं विकृत्य, मायामयं च विनिवेश्य सुशिय्यकायां । आदाय तं जिनपतिं सुरराजपत्नी, निर्गत्य वासवकरे समदात् प्रक्षहृष्टा ।। ८६ ॥ सभा विभा अभाः कुमारियाँ फिर पूछेगी बता माता-जीवों का अन्त में क्या होता है ? कामी लोग क्या करते हैं ? ध्यान के बल से योगी कैसा होता है ? माता उत्तर देगी-(१) विनाश, (२) विलास, (३) विपास। कोई कुमारी क्रिया गुप्त श्लोक कहकर माता से पूछने लगी, बता माता (१) शुभेद्य जन्म सन्तान सम्भवं किल्विषं धनम् । प्राणिनां भ्र णभावेन विज्ञान शत पारगे॥ इसमें क्रिया कौन है कोई कहने लगी, बता माता (२) आनन्दयन्तु लोकांनां मनांसि वचनोत्करैः। मातः कतृपदं गुप्तं वदभ्रूण विभावतः ।। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् इसमें तीन कर्त्ता कौन हैं ? कोई कहने लगी, बता माता (३) सुधी मनयं संपन्ना लभन्ते किंनराः क्वचित् । स्वकर्म वशगा भीमे भवे विक्षिप्त मानसाः ॥ इसमें कर्म क्या है ? कोई-कोई कुमारी कहने लगी- माता ! तुम समस्या पूर्ण करने में बड़ी चतुर हो। इस समय तुम गर्भवती भी हो " मुनिर्वेश्यायते सदा" इस समस्या की पूर्ति करो। माता 'जवाब दिया (४) नरार्थ लोक यत्येय गृहीत्वार्थं विमुंचयति । धत्ते नाभिविकार च मुनिवेश्यायते सदा ।। (१) इसमें दो अवखंडने धातु का लोट के मध्यम पुरुष का एक वचन 'द्य' क्रियापद है । (२) लोगों के मन, बचनों से आनन्द को प्राप्त हों । हे माता इसमें कर्तृ पद गुप्त है गर्भ के प्रभाव से आप कहें । ३६३ (३) इस श्लोक में मनासिक कर्त्ता है। (४) विक्षेप चित्त युक्त, कर्मों के वशीभूत और नीति-रहित मनुष्य क्या संसार में कहीं उत्तम बुद्धि के धारक हो सकते हैं ? कदापि नहीं । इसमें सुधी कर्त्ता है । (५) जो मुनि पर धन की ओर देखता रहता है, धन लेकर धनी को छोड़ देता है और नाभि विकारयुक्त होता है वह मुनि वेश्या के समान होता है । दूसरी कुमारी बोली- माता ! वली वेश्यायते सदा ? धरायां संगतं नभः । इन दो समस्याओं की पूर्ति जल्दी करो । माता ने जवाब दिया (१) स्वपुष्पं दर्शयत्येय कुलीना सुपयोधराः । मधुपैरचुंव्य माना च वली वेश्यायते सदा ॥१॥ (२) पानीये बालिशैनूंनं धरास्ते प्रतिबिम्बितम् । दृश्यते च शुभाकारं धरायां संगतं नभः ॥ २ ॥ (३) दूरस्थैर्दूरतो नूनं नरं विज्ञान पारगैः । इस्यते च शुभाकारं धरायां संगतंनभः ॥ ३ ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कोई कुमारी माता से यह कहेगी, शुभ लक्षणों का आकर, मृगनयनी! प्रिय वादिनी! नियम से आपके गर्भ में किसी पुण्यवान ने अवतार लिया है। माता यह झूठ न समझो क्योंकि जो मनुष्य पक्षपाती और पूज्यों का वंचन करते हैं संसार में वे अनेक कष्ट भोगते हैं। इस प्रकार समस्त कुमारियाँ तीनों काल हृदय से माता की सेवा करेंगी और तीर्थंकर चक्रवर्ती नारायण प्रति नारायण वासुदेव आदि महापुरुषों की कथा कहकर माता का मन आनन्दित करेंगी। प्रायः स्त्रियों के गर्भ के समय वृद्धि आलस्य तन्द्रा वगैरह हुआ करते हैं किंतु माता के गर्भ के समय न तो उदर वृद्धि होगी, न आलस्य और तंद्रा होगी मुख पर सफेदाई भी न होगी। जब पूरे नवमास हो जायेंगे तब उत्तम योग में और उत्तम दिन चन्द्रमा लग्न और नक्षत्र में माता उत्तम पुत्ररत्न जनेगी। उस समय पुत्र के शरीर की कांति से दिशा निर्मल हो जाती है। भवनवासियों के घरों में शंख शब्द होने लगेंगे। व्यंतरों के घरों में भेरी बजेगी। ज्योतिषियों के धर मेध ध्वनि के समान सिंहासनरव और वैमानिक देवों के घर घंटा शब्द होंगे। अपने अवधि बल से तीर्थंकर का जन्म जान देवगण अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर अयोध्या आयेंगे। प्रथम स्वर्ग का इन्द्र भी अतिशय शोभनीय ऐरावत गज पर सवार हो अपनी इन्द्रानी के साथ अयोध्या आयेगा। अयोध्या आकर इन्द्रानी इन्द्र की आज्ञा से शीघ्र ही प्रसूति घर में प्रवेश करेगी। वहाँतीर्थंकर को अपनी माता के साथ सोता देख उनकी गूढभाव से स्तुति करेगी। माता को किसी प्रकार का कष्ट न हो इसलिये इन्द्रानी उस समय एक मायामयी पुत्र का निर्माण करेगी और उसे माता के पास सुलाकर और भगवान को हाथ में लेकर इन्द्र के हाथ में देगी। भगवान को देख इन्द्र अति प्रसन्न होगा ॥६६-८६॥ आरोप्य तं निज करे मघवा गजस्थः, संसेवितः सुर वरैर्जयवृदवादी । ईशानशक्रधृतरम्यवरातपत्रं, __ शक्रद्विकर्ललित चामरवीज्यमानं ।। ८७ ॥ आकाशमार्गमवलंब्य विमच्य तर्ण, ज्योतिर्गणं सुरागिरि क्षणतः समाप । सत्पांडुपकं वर वनं वर पांडुकायां, __मारोपयज्जिनपति सुरपः शिलायां ।। ८८ ॥ क्षीरोदधेश्च पयसा परिपूर्णकुंभ, रष्टाधिकैर्दशहतक शताभि संख्यैः । अस्नापयज्जिनपति सुरपः सकृच्च शेषः, सुरैः सहजयारव वादिभिश्च ॥८६॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् चक्रे च जिष्णुजिनपस्य नाम श्री पद्मनाभेति विशिष्टचेताः । नाना स्तवैः सन्नुतिमाततान भक्त्या सहस्त्राक्षसमन्वितोऽभूत् ॥ ६० ॥ परिष्कृतः सोऽपि सुरेंद्रपत्न्या रराज रम्थाभरणैर्विशिष्टैः । अनेकसूरप्रतिमप्रभाढ्ये नरामरैः पूजितपादपद्मः ॥ ६१ ॥ दुंदुभ्यानक शंख काहलमहानादैर्नर्टतः सुरा वीणावंशमृदंगताल निनदैः संपूरयंतो दिशः । गायंतः सरसं सुरागकलितं गीतं भवंतः स्तुति कुर्वतो जयनादमुन्नतपदाश्चक्रुः क्षणं जन्मजं ॥ ६२ ॥ आरुह्य द्विरदं सुरेश्वरपतिर्नानासुरैः सेवितः कृत्वांके जिनपं सुरपथि प्राप्तोसवैः प्राप्तवान् । रम्यां तां वर हारि शालकलितां तुंगप्रतोलीपरां, नाना केतुकराश्रितां शुभ महाधामलिसंराजितां ॥ ६३ ॥ पित्रोस्तं तनयं विशालनयनं दत्वा सुरेशः शुभं, नत्वा तत्पदपंकजं सुरगिरी संजातवृत्तं मुदा । आख्यन्नामकृतिं सुनृत्यनृपतेरग्रे शुभैर्नर्त्तनै र्दत्वा भोग कदंबकं सुरवरैः सार्द्धं स्वगेऽगमत् ॥ ६४ ॥ असुर निकरसेव्यो वर्द्धयन् पद्मनाभो जनयति मुदमिद्धं भूरिपित्रोर्यथेष्टं सकल कनकभूषा । भूषितो रम्य हो विशदतरगुणाढ्यो मूत्रविद्योगहीनः ॥ ६५ ॥ वामांगुण्ठं पादपद्मस्य रम्यं पीयूषाढ्यं संलिहन् पूतदेहः । एधे वेगाब्दालचंद्रः कलाभिस् विज्ञानाढ्यो लक्षणैः पूर्णगात्रः ॥ ९६ ॥ ३६५ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् सप्तहस्तोच्छृतिदेहः . षोडशाधिकसत्शत । आयुस्तयाऽभवत्पूर्ण दशातिशयभागिनः ।। ६७ ॥ उत्तमां ललितलक्षणान्वितां कामिनी कनककांति कोमलां यौवने ससुरपाग्रहात् । शुभां प्राप्तवान् परमर्शसंगतः ।। ६८ ॥ सतास्तस्याभवचक्रवत्तिनो भरतादयः । नाभेयस्य यथापूर्वं भरताद्याः सुलक्षणाः ॥ ६६ ॥ आसाद्य राज्यं नृपतेजिनेश्वरः __स पालयामास महीं मनोहराम् । कृष्यादिषट्कर्मरताः प्रजाः पराः कुर्वश्च नाभेय इव प्रमोदतः ॥१००। देशग्राममटवकर्वटपुरद्रोणादिकान् पत्तनं, ___वर्णादीन्नपवंशभेदगणनां राज्ञां च नीतिपरां। व्यापारं वणिजां विवाहसविधि भोज्यादिनानाक्रियाम् देवो गोत्रभिदा युगादि जिनवत्संकारयामास च ॥१०१॥ कृत्वा च राज्यं सुरनाथसेव्यः, किंचिन्निमित्तं समवाप्य बुद्धः । भवांगभोगेषुविरक्ततां च, समाप सद्धर्मरतः सुधीश्च ॥१०२॥ लोकांतिकर्बोधित बुद्धिभावो देवैः कृताराधनतोजिनेशः । संदीक्षतां बोधचतुष्ट्याढ्यो भावीकृतप्रोषण पारणश्च ॥१०३॥ कृत्वा क्षयं घाति चतुष्टयानां प्राप्त: सुबोधं खलु पंचमं च । देवागमभूषितभूमिभागः, संराजितो वै समवैः शरण्यैः ॥१०४॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रणिक पुराणम् दत्वोपदेशं विविधं नराणां विहृत्य भूमिं वरधर्मदानैः । संतृप्त लोकानगमच्छिवं स नित्यं परं दुःखविहीनभावम् ॥ १०५॥ निर्वाणमाप्तं जिननाथदेवं मत्वा सुरापत्य समं कलत्रः । कृत्वा च निर्वाणमहोत्सवं ते प्राप्ताः स्वनाकं परमर्द्धियुक्ताः ॥ १०६ ॥ श्रीपद्मनाभस्य भविष्यतश्च कल्याणचित्रं परमं पुराणं । पायादपाद्भवतः समस्यात् श्री श्रेणिकोद्भासि विभासितार्थ ॥ १०७॥ इदंचरित्रं पठते च सोमं दत्तं सुधर्मं शिवमार्ग कारिश्री । पद्मनाभेन भविष्यता च तीर्थेश्वरेणैव वहितार्थवेन ॥ १०८ ॥ छंदोविरुद्धं वरलक्षणैश्च न्यायैः पुराणैः सुगुणैर्विरुद्धं । अलंक्रियाभिः क्षमयंतु संत कृतं मयात्रेव विबुद्धिना वा ॥। १०६ ।। प्रायः कलौ संति महानुपापा उपास्यमानाऽपि दुर्विभावा दुर्दुर्जनाहास्यरताः परेषु । नागा इवात्यंतवि कूपचित्ताः ॥ ११० ॥ दृष्ट्वा खलः कुप्यति साधुवर्गं गुणैर्गरिष्टं सुकरं विदोषं । ध्वांक्षोऽहितस्तामसभाववृत्तः ॥१११॥ नित्योदयं भानुमिव स्वभावाद् ३६७ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् खलः स्वभावान्सुगुणान् जनानां निहंति नानाहित कारिणश्च । संदशितानेकपदार्थवृदान् भास्वत्करान्नाहुरिवप्रबुद्धान् ॥११२।। प्रसादितो दुर्जन एव दोषं करोति दक्षैर्वर दान वाक्यः । अहिर्यथा मिष्टपयः प्रदान जीवैः कृताशेषपरोपकारैः ॥११३॥ वरं विधात्रा विहिताः खलाश्च परस्य दोषग्रहणे समर्थाः । तथा च काव्यानि विदूषितानि । पुराणि कोलैर्मलनाशिते च ॥११४॥ कि प्रार्थ्यते सोऽपि खलो मया यः स्वभावतो दोषगणं ददाति । संप्रार्थ्यमानोऽपि यमो नराणां ___ नो मुंचते दुष्टगुणप्रभावात् ॥११५।। कि प्रार्थ्यते साधुगुणः स्वभावाद् दत्ते गुणान् पक्षिविपक्षिकाभ्यां । अप्रार्थ्यमानोऽब्दगणश्च वृष्टि करोति निबेक्ष्वहि शुक्तिकायाम् ।।११६॥ जयतु जित विपक्षो मूलसंधः सुपक्षो, हरतु तिमिरभावं भारती गच्छवारः । नयतु सुगतिमार्ग शासनं शुद्धवर्गम्, जयतु च शुभचंद्रः कुंदकुंदो मुनींद्रः ।।११७।। तदन्वये श्री मुनिपद्मनंदी विभाति भव्याकरपद्मनंदी। शोभाधिशाली वरपुष्पदंतः सुकांतिसंभिन्नपुष्पदंतः ॥११८।। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३६६ पुराणकाव्यार्यविदांवरत्वं विकासयन्मुक्तिविदांवरत्वं । विभातुवीरः सकलाद्य कीर्तिः कृता यके नो सकलाद्यकीतिः ॥११॥ भुवनकीत्तिर्यतिर्जयताद्यमौभुवनपूरितकीर्तिचयः सदा। भवनबिंबजिनागमकारणो . भवनवांबुदवातभरः परः ॥१२०॥ तत्पट्टोदयपर्वते रविरभूद् भव्यांबुजं भासयान् । सन्त्रास्त्रहरं तमो विघटयन्नानाकरैर्भासुरः । भव्यानंतगतश्च विग्रहमतः श्रीज्ञानभूषः सदा चित्रं चंद्रकसंगतः शुभकरः श्रीवर्द्धमानोदयः ।।१२१॥ जगति विजयकीत्तिः पुण्यमूर्तिसुकीत्ति, जयतु च यतिराजो भूमिपैः स्पृष्टपादः । नयनलिन हिमांशुांनभूषस्य पट्टे, विविधपरविवादिक्ष्माधरे वज्रपातः ॥१२२॥ तच्छिष्यण शुभेंदुना शुभमतः श्री ज्ञानभावेन वै । पूतं पुण्यपुराणमानुषभवं संसारविध्वंसकं । नो कीर्त्या व्यरचि प्रमोह वशतो जैने मते केवलं । नाहंकारवशात्कवित्वमदतः श्रीपद्मनाभेहितम् ॥१२३॥ इदं चरित्रं पठतः शिवं वै श्रोतुश्च पद्मेश्वरवत्पवित्र । भविष्णुसंसारसुखं नृदेवम्, संभुज्य सम्यक्त्वफलप्रदीपं ॥१२४॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० चंद्रार्क हेमगिरि सागर भूविमान, गंगानदी गगन सिद्ध शिलाश्च लोके । तिष्ठति यावदभितो वरमर्त्यसेवास् श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तिष्ठतु कोविदमनोंबुजमध्यभूताः ।। १२५।। और शीघ्र ही हाथी पर विराजमान करेगा। उस समय ईशान इन्द्र भगवान पर छत लगायेगा । सनत्कुमार और माहेन्द्र दोनां इन्द्र चमर ढोरेंगे एवं सबके सब मिलकर आकाश मार्ग से मेरू पर्वत की ओर उसी क्षण चल देंगे। मेरू पर्वत पर पहुँच इन्द्र भगवान को पांडुक शिला पर बिठायेगा । उस समय देवगण एक हजार आठ कलशों से भगवान का अभिषेक करेंगे । इन्द्र उसी समय भगवान का नाम पद्मनाभ रखेगा। अनेक प्रकार भगवान की स्तुति करेंगे । और उस समय भगवान का रूप देख तृप्त न होता हुआ सहस्त्राक्ष होगा। बालक भगवान को इन्द्रानी अपनी गोद में लेगी और अनेक भूषणां से भूषित करेगी । भूषण भूषित भगवान उस समय सूर्य के समान जान पड़ेंगे और दुंदुभि आनक शंख काहलों के शब्दों के साथ नृत्य करते हुए, ताल के शब्दों से समस्त दिशापूर्ण करते हुए, लयपूर्वक राग सहित सरस गान करते हुए, और जय-जय शब्द करते हुए समस्त देव मेरु पर्वत पर भगवान के जन्मकाल का उत्सव मनायेंगे । पश्चात अनेक देवों से सेवित इन्द्र भगवान को गोद में लेकर हाथी पर विराजमान करेगा। अनेक शालि धान्ययुक्त, बड़ी-बड़ी गलियों से व्याप्त ध्वजायुक्त, अनेक मकानों से शोभित अयोध्यापुरी में आयेगा बड़े-बड़े नेत्रों से शोभित भगबान को पिता के सुपुर्द करेगा । मेरू पर्वत पर जो काम होगा इन्द्र उस सबको भगवान के पिता महापद्म से कहेगा । पिता माता के विनोदार्थ इन्द्र फिर नृत्य करेगा एवं भगवान को अनेक भूषण प्रदान कर और भगवान को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर इन्द्र समस्त देवों के साथ स्वर्ग चला जायेगा । इस प्रकार समस्त देवों से पूजित भाँति-भाँति के आभरणयुक्त देह का धारक, अनेक गुणों का आकार बालक पद्मनाभ दिनोंदिन बकेता हुआ पिता माता का संतोष स्थान होगा। पद्मनाभ अमृत से परिपूर्ण अपने पाँव के अंगूठे को चूसेगा और पवित्र देह का धारकशुभ लक्षणों का स्थान वह कलाओं से जैसा चन्द्रमा बढ़ता चला जाता है वेसा ही शुभ लक्षणों से बढ़ता चला जायेगा । अतिशय पुण्यात्मा तीर्थंकर पद्मनाभ के शरीर की ऊँचाई सात हाथ होगी और आयु ११६ (एक सौ सोलह वर्ष की होगी । तीर्थंकर पद्मनाभ की स्त्रियाँ उत्तम अनेक गुणों 'भूषित सुवर्ण के समान कांति की धारक शुभ और यौवनकाल में अतिशय शोभायुक्त होंगी। भगवान वृषभदेव के जैसे भरत चक्रवर्ती आदि शुभ लक्षणों के धारक पुत्र हुए थे। वैसे ही तीर्थंकर पद्मनाभ के भी चक्रवर्ती पुत्र होंगे। तीर्थंकर वृषभदेव के ही समान तीर्थंकर पद्मनाभ राज्य करेंगे । नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करेंगे और प्रजा वर्ग को षट्कर्म की ओर योंजित करेगे । तथा देश ग्रामपुर द्रोण आदि की रचना करायेंगे । वर्णभेद और नृपवंश भेद का निर्माण करेंगे। राजा लोगों को नीति की शिक्षा देंगे, व्यापार का ढंग सिखलायेंगे । और भोजनादि सामग्री की शिक्षा प्रदान करेंगे। इस रीति से भगवान पद्मनाभ कुछ दिन राज्य करेंगे पश्चात् कुछ निमित्त पाकर शीघ्र ही भवभोगां से विरक्त हो जायेंगे और सद्धर्म की ओर Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक पुराणम् ३७१ अपना ध्यान खीचेंगे। भगवान को भवभोगों से विरक्त जान शीघ्र ही लोकांतिक देव आयेंगे। और भगवान की बार-बार स्तुति कर उन्हें पालकी में बैठाकर ले जायेंगे। भगवान तप धारण कर और तप के प्रभाव से मनःपर्ययज्ञान प्राप्त करेंगे और पीछे केवलज्ञान प्राप्त करेंगे। भगवान को केवल ज्ञानी जान देवगण आयेंगे और समवशरण की रचना करेंगे। भगवान समवशरण में सिंहासन पर विराजमान हो भव्य जीवों को धर्मोपदेश देंगे। जहाँ-तहाँ विहार भी करेंगे और अपने उपदेशरूपी अमृत से भव्य जीवों के मन संतुष्ट कर समस्त कर्मों का नाशकर निर्वाण स्थान चले जायेंगे जिस समय भगवान मोक्ष चले जायेंगे उस समय देव निर्वाण कल्याण मनायेंगे तथा सानन्द अपनी देवांगनाओं के साथ स्वर्ग चले जायेंगे। और वहाँ आनन्द से रहेंगे॥८७-१२५॥ इति श्री श्रेणिकभवानुबद्धभविष्यत्पद्मनाभ पुराणे भट्टारक श्री शुभचंद्राचार्य पंचकल्याणकवर्णनं नाम पंचदशः पर्व॥१५॥ इतिश्री श्रेणिक चरित्रं समाप्तमिति । संस्कृत श्लोक संख्या त्र्यधिक चतुर्विंशति शतम् । इस प्रकार भगवान पदमनाभ के पूर्वभव के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित भविष्यत्काल में होनेवाले भगवान पद्मनाभ के पंचकल्याण-वर्णन करनेवाला पंद्रहवां सर्ग समाप्त हुआ। समाप्तोऽयं ग्रन्थः । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & Flanelle