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श्रीशभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
तयोः प्रीतिं विधायासौ सर्वान्संप्रेष्यमानितान् । उत्पताकं पुरं प्रापत्सहजंबूकुमारकः ॥ २३ ॥ तया विलासवत्या सोऽन्याभिर्भोगं बुभुंज च । कुमारं मानयन् जंबूं विशिष्टं चरमांगकं ॥ २४ ॥
विवाह के बाद राजा मृगांक ने केरला नगरी की ओर लौटने के लिए आज्ञा मांगी। एवं चलने के लिए तैयार भी हो गये महाराज श्रेणिक ने उन्हें सम्मानपूर्वक विदा कर दिया। तथा स्वयं भी विद्याधर जम्बू कुमार के साथ राजगृह आ गये। राजगृह आकर महाराज श्रेणिक ने विद्याधर जम्बू कुमार का बड़ा भारी सम्मान किया। और नवोढ़ा विलासवती के साथ अनेक भोग भोगते हुए वे सुखपूर्वक रहने लगे॥२३-२४॥
अथैकदा महीनाथः सस्मार द्विजनायकं । नंदिग्राम परारामं पराभवमनुत्तरम् ।। २५ ।। अहो ! विप्रस्य दुष्टत्वं खलत्वं खलचेष्टितम् । लोभित्त्वं निर्दयत्त्वं च पश्य पश्य विशर्मदं ॥ २६ ॥ परेषां सगृहं धान्यं धनं चेलं चतुष्पदम् । उपानहं च दासेयं दासी गृह्णन्ति लंपटाः ॥ २७ ॥
किसी समय महाराज आनंद से बैठे हुए थे। अकस्मात उन्हें नन्दिग्राम के निवासी विप्र नन्दिनाथ का स्मरण आया। महाराज श्रेणिक का जो कुछ पराभव उसने किया था, वह सारा पराभव उन्हें साक्षात्सरीखा दीखने लगा। वे मन में ऐसा विचार करने लगे देखो नन्दिनाथ की दुष्टता, नीचता एवं निर्दयपना राजगृह से निकलते समय जब मैं नन्दिग्राम में जा पहुंचा था उस समय विनय से मांगने पर भी उसने मुझे भोजन का सामान नहीं दिया था। यदि मैं चाहता तो उससे जबरन खाने-पीने के लिए सामान ले सकता था। किन्तु मैंने अपनी शिष्टता से वैसा नहीं किया था। और दीनवचन बोलता रहा था। मुझे जान पड़ता है जब उसने मेरे साथ ऐसा क्रूरता का बर्ताव किया है, तब वह दूसरों की आबरू उतारने में कब चुकता होगा? राज्य की ओर से जो उसे दानार्थ द्रव्य दिया जाता है। नियम से उसे वहीं गटक जाता है। किसी को पाई-भर भी दान नहीं देता। अब राज्य की ओर से जो उसे सदावर्त देने का अधिकार दे रखा है उसे छीन लेना चाहिए। और नन्दिग्राम के ब्राह्मणों को जो नन्दिग्राम दे रखा उसे वापस ले लेना चाहिए। मैं अब अपना बदला बिना लिये नहीं मनंगा। नन्दिग्राम में एक भी ब्राह्मण को नहीं रहने दूंगा। तथा क्षणेक ऐसा विचार कर शीघ्र ही महाराज श्रेणिक ने एक राजसेवक बुलाया। और उसे यह कह दिया जाओ अभी तुम नन्दिग्राम चले जाओ और वहाँ के ब्राह्मणों से कह दो शीघ्र ही नन्दिग्राम खाली कर दें॥२५-२७॥
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