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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
शीघ्र ही इस देश से तुम्हें चला जाना चाहिए। हे कुमार परदेश में कुछ दिन रहकर फिर तुम इसी देश में आ जाना पीछे राज्य आपको जरूर ही मिलेगा क्योंकि राज्य आपका ही है॥१०१
१०५॥
दुरंतं राजकोपं च विज्ञायाशर्मपीडितः । मात्रादिकं च न विज्ञाप्य निर्गतो राजपत्तनात् ।। १०६ ॥ गूढवेषधरैः पंच सहस्रसुभटैः स्वयं ।
मागधप्रेषितैः सोऽगादजानंस्तद्भटादिकं ॥१०७॥ मंत्री मतिसागर के ऐसे कपटभरे वचन सुनकर राजा का क्रोध परिणाम में दुःख देनेवाला है इस बात को जानकर और अपनी माता आदि को भी न पूछकर, अत्यंत दुःखित हो कुमार श्रेणिक राजगृह नगर से निकल पड़े। तथा महाराज उपश्रेणिक द्वारा भेजे हुए रक्षा के बहाने से गूढ़ वेष धारण करनेवाले पाँच हजार जासूस योद्धाओं के साथ-साथ एकदम नगर से बाहर हो गये॥१०६-१०७॥
तदेंद्राणी महामाता विललाप चिरं हृदि । हा पुत्र! हा महाभाग ! हा पद्मदलनेत्रभृत् ॥१०८।। हा कामपाश हा दीर्घपुण्य हा शुभलक्षण । हा गजेंद्रकरायत्तकर हा कोकिलध्वने ॥१०॥ हा पद्मवक्त्र हा रम्य ललाटतट पट्टक । हा कंदर्पसमानांग हा मारसमविभ्रम ॥११०॥ हा सुंदरशुभाकार ! हा नेत्रप्रिय तृप्तिद । हा शुभंकर हा राज्यभारोद्धरण हा प्रिय ॥१११॥ हा हा मां दुःखिनीमुक्त्वा क्व गतः सुंदराकृते । क्व तिष्ठसि महापुत्र ! वने व्याघ्राहिसंकुले ॥११२।। ईदृशेण सुपुत्रेण वियोगः केन हेतुना । ममाभूतिक मया पूर्वभवे दुष्कृतमाकृतं ।।११३॥ अमुत्र किं मया मात्रा साकं पुत्रो वियोजितः । जिनाज्ञालंघिता किंवा कि शीलं मदितं मया ॥११४॥ सरः सेतुविनाशो वा किं कृतः पूर्वजन्मनि । अगालितेन तोयेन वस्त्रप्रक्षालनं कृतम् ।।११।।
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