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श्रेणिक पुराणम्
श्रुत्वा वाक्यं प्रहस्येत्थं जगाद शुभया गिरा । यत्नतो रक्षितं भोज्यं मया बुद्धयाश्वावंचनात् ॥ ६८ ॥ ये रक्षितुं न शक्या वै भोज्यपात्रं कथं च ते । रक्षति राज्यसंतानमहो ! मंत्रिन्नते मतिः ॥ ६६ ॥
केतनं ।
कथं कुप्यति भूमीशो योन रक्षति स बली रक्षणीयः स निष्कास्योन्यः कथंनयः ॥ १०० ॥
मन्त्र ! कुत्तों को बुद्धिपूर्वक हटाकर मुझे यत्न से भली प्रकार रक्षित भोजन करना ही योग्य था इसीलिए मैंने ऐसा किया था क्योंकि जो कुमार अपने भोजन पात्रों की, न कुछ बलवान
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से भी रक्षा नहीं कर सकते वे कुमार राज सन्तान अर्थात् राज्य की क्या रक्षा कर सकते हैं । इसलिए जो आपने यह बात कही है कि तुमने कुत्तों का छुआ हुआ भोजन किया इसलिए महाराज तुम पर नाराज हैं यह बात तुम्हें बुद्धिमान नहीं सूचित करती । कुमार के इस प्रकार न्याययुक्त वचन सुनकर समस्त दुष्कार्यों को भली प्रकार जानकर भी वह मंत्री फिर अतिशय बुद्धिमान श्रेणिक कुमार से बोला ।। ६६ - १०० ।।
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न्यायोपेतं वचः प्राप्य जानन्नपि पुनर्जगो । सचिवः सर्वकार्याणि कुमारं तं शुभावहं ॥ १०१ ॥ न्यायान्याय विचारं त्वं मा विधेहि विचक्षणः । राज्ञः कोपाद्भुतं याहि देशान्मा तिष्ठ मंदिरे ॥ १०२ ॥ कुलजः कुलहीनः स्यान्न्यायाढ्योन्यायवर्जितः । पंडितोऽपंडितो जीवो राज्ञः कोपाद्भवेल्लघु ॥ १०३॥ भो श्रेणिक विचारोऽत्र न कर्त्तव्यो विभावनं । नो विधेयं, प्रगंतव्यं त्वया देशात्शुभावहात् ॥ १०४॥ दिनानि कतिचित्स्थित्वान्यत्र राजसुत त्वया । आगन्तव्यं पुनः राज्यकृते राज्यं तव प्रभो ॥ १०५ ॥
बुद्धिमान कुमार! तुम्हें इस समय न्याय एवं अन्याय के विचारने की कोई आवश्यकता नहीं । महाराज का क्रोध इस समय अनिवार्य और आश्चर्यकारी है अब तुम यही काम करो कि थोड़े दिन के लिए इस देश से चले जाओ और राजमन्दिर में न रहो क्योंकि यह नियम है कि संसार में राजा के क्रोध के सामने कुलीन भी नीच कुल में उत्पन्न हुआ कहलाता है । नीतियुक्त अतियुक्त कहा जाता है । और पंडित भी वज्रमूर्ख कहा जाता है । प्यारे कुमार श्रेणिक यदि तुम राज्य ही प्राप्त करना चाहते हो तो न तो तुम्हें देश से अलग होने में किसी बात का विचार करना चाहिए और न किसी प्रकार की भावना ही करनी चाहिए किन्तु जैसे बने वैसे इस समय
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