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________________ श्रेणिक पुराणम् मानुषं भवमासाद्य जेतव्याश्च व्रतादिसंसिद्धयै परीषहजयं मया परीषहाः । Jain Education International तपः ।। ४१ ।। राजन् ! अनेक देश एवं नगरों में विहार करता-करता किसी दिन मैं उज्जयिनी नगरी में जा पहुँचा । और वहाँ की श्मशान भूमि में मुर्दे के समान आसन बाँधकर ध्यान के लिए बैठ गया । वह समय रात्रि का था इसलिए एक मंत्रवादी जो कि अनेक मंत्रों में निष्णात, वैताली विद्या की सिद्धि का इच्छुक एवं जाति का कौली था, वहाँ आया और मेरे शरीर को मृत शरीर जान तत्काल उसने मेरे मस्तक पर एक चूल्हा रख दिया एवं किसी मृत कपाल में दूध और चावल डालकर, चूल्हे में अग्नि बालकर ( जलाकर ) वह खीर पकाने लग गया। फिर क्या था ? मंतवादी तो यह समझ कि कब जल्दी खीर पके और जल्दी मंत्र सिद्ध हो, बड़ी तेजी से चूल्हे लकड़ी झोंककर आग बालने लगा। और आग बलने से जब मुझे मस्तक - मुख में तीव्र वेदना जान पड़ी तो मैं कर्म रहित शुद्ध आत्मा का स्मरण कर इस प्रकार भावना भाव निकला बस, - रे आत्मन् ! तुझे इस समय इस दुःख से व्याकुल न होना चाहिए। तूने अनेक बार भयंकर नरक -दुःख भोगे हैं। नरक -दुःखों के सामने यह अग्नि का दुःख कुछ दुःख नहीं । देख ! नरक में नारकियों को क्षुधा तो इतनी अधिक है कि यदि मिले तो वे त्रिलोक का अन्न खा जाय किंतु उन्हें मिलता कणमात भी नहीं। इसलिए वे अतिशय क्लेश सहते हैं । वहाँ पर नारकियों को गरम लोहे. की कड़ाहियों में डाला जाता है उनके शरीर के खंड किये जाते हैं उस समय उन्हें परम दुःख भोगना पड़ता है । हजार बिच्छुओं के काटने से जैसी शरीर में अग्नि भैराती (लगती ) है उसी प्रकार नरक भूमि स्पर्श से नारकियों को दुःख भोगने पड़ते हैं । यदि नरक की मिट्टी का छोटा-सा टुकड़ा भी यहाँ आ जाय तो उसकी दुर्गन्धि से कोसों दूर बैठे जीव शीघ्र मर जाएँ किंतु अभागे नारकी रात-दिन उसमें पड़े रहते हैं । For Private & Personal Use Only T तुझे भी अनेक बार नरक में जाकर ये दुःख भोगने पड़े हैं। जब-जब तू एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि विकलेन्द्रिय योनियों में रहा है उस समय भी तूने अनेक दुःख भोगे हैं । अनेक बार तू निगोद में भी गया है । और वहाँ के दुःख कितने कठिन हैं यह बात भी तू जानता है । तुझे इस समय ज़रा भी विचलित नहीं होना चाहिए। भाग्यवश यह नरभव मिला है प्रसन्न चित्त होकर तुझे व्रतसिद्धि के लिए परीषह सहनी चाहिए। ध्यान रख ! परीषह सहन करने से ही व्रत - सिद्धि और सच्चा आत्मीय सुख मिल सकता है ।। २५-४१ ।। २३३ दह्यमाने च मे मूर्ध्नातीत्थंभावनया युतः । आसे यावत्पदारूढः पंचाना मस्तकोपरि । शिरासंकोच योगेन तावन्मे उद्भीभूय करौ तूर्णं स्थितौ लष्टि सुदंडवत् ॥ ४३ ॥ परमेष्ठिनां ॥ ४२ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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