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श्रेणिक पुराणम्
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भो राज्ञि! चविताऽस्माभिः किं पुनः पुनरादरात् । भवदाराच्च वर्त्ततेति प्रतिपाद्यते त्वया ॥ ८२॥ भविष्यंति तथैवात्र दापयामि कुतो द्रुतं । इत्युक्ते ह्रियमाणास्ते चक्रु रन्योन्य लोकनं ।। ८३ ॥ पादत्राणस्य किं जातं भक्षणं कृतछद्मना । वितयेति च कोपेन वमितं तत्र सौगतः ।। ८४ ।। ददृशुश्चर्मखंडानि तत्र ते चांगमे जयाः ।। ललज्जिरेऽजिनाशित्वान्निदयंतः स्वभोजनं ।। ८५॥ जग्मुस्ततो निजावासं मन्यमानाः स्ववंचनम् । बौद्धा विबुद्धितां नीताः स्फीतलज्जापरायणाः ।। ८६ ॥ श्रेणिकाग्रे निरूप्याशु महिषीसंभवं तदा । आसते निजसद्राम्नि ते स्मरंतः पराभवं ।। ८७ ।।
बौद्ध गुरुओ! जब तुम जिन धर्म का स्वरूप ही नहीं जानते तो तुम्हें उसकी निंदा करनी सर्वथा अनुचित थी। बिना समझे बोलनेवाले मनुष्य पागल कहे जाते हैं। तुम लोग कदापि गुरुपद के योग्य नहीं हो। किंतु भोले-भाले प्राणियों के वंचक असत्यवादी, मायाचारी एवं पापी हो। रानी के मुख से ऐसे कटु वचन सुनकर भी बौद्ध गुरुओं के मुख से कुछ भी जवाब न निकला। वे बार-बार उससे यही प्रार्थना करने लगे--कृपया आप हमारे जूते दे दें, जिससे हम आनंदपूर्वक अपने-अपने स्थान चले जायें। इस प्रकार बौद्ध गुरुओं की अब प्रार्थना विशेष देखी तो रानी ने जवाब दिया
बौद्ध गुरुओ! आपकी चोज आपके ही पास है। और इस समय भी वह आपके ही पास है। आप विश्वास रखें आपकी चीज किसी दूसरे के पास नहीं। रानी चेलना के ये वचन सुनकर बौद्ध गुरु बड़े बिगड़े। वे कुपित हो, इस प्रकार रानी से कहने लगे-रानी, यह तू क्या कहती है ? हमारी चीज हमारे पास है, भला बता तो वह चीज कहाँ है ? क्या हमने उसे चबा ली? तुझे हम साधुओं के साथ कदापि ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। गुरुओं के ऐसे वचन सुन रानी ने जवाब दिया।
गुरुओ! आप घबराइए नहीं, आपकी चीज आपके पास है, मैं अभी उसे निकालकर देती हूँ। रानी के इन वचनों ने बौद्ध गुरुओं को बुद्धिहीन बना दिया। वे बार-बार सोचने लगेयह रानी क्या कहती है ? यह बात क्या हो गई ? मालूम होता है इस निर्दय रानी ने हमें जूतों का भोजन करा दिया। तथा ऐसा विचार करते-करते उन्होंने शीघ्र ही क्रोध से वमन कर दिया।
फिर क्या था? जूतों के टुकड़े तो उनके पेट में अभी विराजमान ही थे। ज्योंही वमन में उन्होंने जतों के टुकड़े देखे, उनके होश उड़ गये। अब वे बार-बार रानी की निंदा करने लगे तथा
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