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श्रेणिक पुराणम्
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पर तत्काल जमीन पर गिर गया। जो-कुछ उसमें दूध, चावल आदि चीजें थीं, मिट्टी में मिल गई और शीघ्र ही अग्नि शांत हो गई।
बस, फिर क्या था ? ज्योंही उस कौलिक ने यह दृश्य देखा मारे भय के उसके पेट में पानी हो गया। वह यह जान कि मंत्र मुझ पर कुपित हो गया है, वहाँ से तत्काल धर भागा और शीघ्र ही अपने घर आ गया।
कुछ समय बाद रात्रि में मुर्दे के धोखे से मुनिराज पर घोर उपसर्ग हुआ है! यह बात दारा नगर-निवासी सज्जनों को मानो कहता हुआ सूर्य प्राची दिशा में उदित हो गया। जिनेन्द्ररूपी सूर्य के उदय से जैसा मिथ्यात्व अंधकार तत्काल विलय को प्राप्त हो जाता है और भव्यों के चित्तरूपी कमल विकसित हो जाते हैं। उसी प्रकार सूर्य के उदय से गाढ़ अंधकार भी बात-की-बात में नष्ट हो गया। जहाँ-तहाँ सरोवरों में कमल भी खिल गये। उस समय रात-भर के वियोगी चकवा चकवी सूर्योदय से अति आनंदित हुए। और परस्पर प्रेमालिंगन कर अपने को धन्य समझने लगे। किंतु रात्रि में अपनी प्राण-प्यारियों के साथ क्रीड़ा करनेवाले कामीजन अति दुःख मानने लगे
और बार-बार सूर्य की निदा करने लगे। असली पूछिए तो सूर्य एक प्रकार का उत्तम साधु है क्योंकि साध जिस प्रकार भव्य जीवों को उत्तम मार्ग का दर्शक होता है सर्य भी पथिकों का उत्तम मार्ग का दर्शक है। साध जैसे भव्य जीवों के अज्ञानांधकार को दूर करता है सर्य भी उसी प्रकार गाढतमरूपी अंधकार को दूर करता है। साध जिस प्रकार जीव-अजीव आदि पदार्थों का विचार करता है उनके साथ संबंध रखता है। उसी प्रकार सूर्य भी अपनी किरणों से समस्त पदार्थों से संबंध रखता है। दैदीप्यमान सूर्य के तेज के सामने चन्द्रमा उस समय सूखे पत्ते के समान दिखाई पड़ने लगा। और तारागण तो लापता हो गये। श्मशान भूमि के पास एक बाग था इसलिए उस समय एक माली फूल तोड़ने के लिए वहाँ आया था, अचानक उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी। ज्योंही उसने मुझे अर्ध दग्ध मस्तकयुक्त और बेहोश देखा मारे आश्चर्य के उसका ठिकाना न रहा। वह शीघ्र ही भागकर नगर में आया और जिन धर्म के परम भक्त जो जिनदत्त आदि सेठ थे उनसे मेरा सारा हाल कह सुनाया ॥४२-५५||
आकर्येति तदा चक्र हाहाकारमुपासकाः । जग्मुः संभूय सर्वे च मुनिपुंगवसन्निधौ ॥ ५६ ॥ निरूप्य तादृशं तं च प्रणम्य मन्यमानसाः ।। करै सद्वृत्यसनीय नगरं ते बुधोत्तमाः ।। ५७ ।। योगिनं स्थापयामासासुजिनदत्तालये मुदा । व्यजने व्याधिघातार्थं । भस्मीभूतसुमस्तकं ।। ५८ ।। ततः पप्रच्छ भिषजं भेषजं जिनदत्तकः । व्याधिघातकृते साऽपि निरूप्यालीलयद्वचः ।। ५६ ।।
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