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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् लक्षमलादते तेलान्न शांतिर्भविता विभोः । चिकित्सेऽहं महाव्याधि तेन श्रेष्ठिन्नचान्यथा ॥ ६० ॥ क्वास्ते तदिति संपृष्टे प्रागदीद्भिषजांवरः । गृहेऽस्ति लक्षमूलं तद्भट्टस्य सोमशर्मणः ।। ६१ ॥ दग्धव्रणविघातोत्थ व्याधयो यांति दूरतां । तैलेन तेन तस्मात्तदा नेतव्यं त्वया लघु ।। ६२ ।। ततोऽगात्तस्य स समं दृष्ट्वा तद्भामिनी शुभाम् । तुंकारी स्नेहसिद्धयर्थं भगिनीति वचो जगौ ।। ६३ । स्वसो रुजोपनोदार्थं लक्षमूलं मुनेच्दा । प्रयच्छ मूल्यमादाय श्रुत्वेति सा व्यलीलपत् ॥ ६४॥ मल्यादते गृहाण त्वं मुनेः शांतिकृते शृणु । अगदाद्गदणि शोऽमुत्र जीवस्य संभवेत् ॥ ६५ ॥ अट्टालिकायां तत्तल काचकुंभाः समासते । तत्रैकं त्वं गृहाणाणु यावत्प्रयोजनं तथा ।। ६६ ।। तत्र गत्वा गृहीत्वा तं कंठे यावन्मदा तदा। गृह्वाति क्षिप्तवान् भूमौ तैलं निः शेषमेव च ।। ६७ ।। भयकंपितगात्रेण तेनाकथि तदनके । साऽवादीदन्यमंत्रत्वमंगीकुरुसहोदर
॥ ६८ ॥
ज्योंही जिनदत्त आदि सेठों ने माली के मुख से मेरी ऐसी भयंकर दशा सुनी उन्हें परम दुःख हुआ। मारे दुःख के वे हा-हाकार करने लगे और सब-के-सब मिलकर तत्काल श्मशान भूमि की ओर चल दिये। श्मशान भूमि में आकर मुझे उन्होंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। मेरी ऐसी बुरी अवस्था देख वे और भी अधिक दुःख मनाने लगे। किस दुष्ट ने मुनिराज पर यह घोर उपसर्ग किया है ? इस प्रकार क्रुद्ध हो भव्य जिनदत्त ने मुझे शीघ्र उठाया। और व्याधि के दूर करने के लिए मुझे अपने घर ले गया। जिस समय मैं घर पहुँच गया। तत्काल जिनदत्त किसी वैद्य के घर गया। मेरी व्याधि के शान्त्यर्थ वैद्य से उसने औषधि माँगी और मेरी सारी अवस्था कह सुनाई। भव्य जिनदत्त के मुख से मुनिराज की यह अवस्था सुन वैद्य ने कहा
प्रिय जिनदत्त! मुनिराज का रोग अनिवार्य है। जब तक लाक्षामल तेल न मिलेगा कदापि मैं उनकी चिकित्सा नहीं कर सकता, लाक्षामूल तेल से ही यह रोग जा सकता है। इसलिए तुम्हें
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