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वणिक पुराणम्
लाक्षामूल रस के लिए प्रयत्न करना चाहिए । वैद्यराज के ऐसे वचन सुनकर जिनदत्त ने कहावैद्यराज ! कृपया शीघ्र कहें लाक्षामूल तेल कहाँ और कैसे मिलेगा ? मैं उसके लिए प्रयत्न करूँ । वैद्यराज ने कहा - इसी नगर में भट्ट सोम शर्मा नाम का ब्राह्मण निवास करता है। लाक्षामूल तेल उसी के यहाँ मिल सकता है और कहीं नहीं । तुम उसके घर जाओ और शीघ्र वह तेल ले आओ । वैद्यराज के ऐसे वचन सुन शीघ्र ही भट्ट सोम शर्मा के घर गया । वहाँ उसकी तुंकारी नाम की शुभ भार्या को देखकर और उसे बहिन शब्द से पुकारकर यह निवेदन करने लगा -
बहिन ! मुनिवर मणिमाली का आधा मस्तक किसी दुष्ट ने जला दिया है। उनके मस्तक में इस समय प्रबल पीड़ा है कृपाकर मुनि पीड़ा की निवृत्ति के लिए मूल्य लेकर मुझे कुछ लाक्षामूल तेल दे दीजिए । जिनदत्त की ऐसी प्रिय बोली सुन तुंकारी अति प्रसन्न हुई । उसने शीघ्र ही जिनदत्त से कहा
प्रिय जिनदत्त ! यदि मुनि की पीड़ा दूर करने के लिए तुम्हें तेल की आवश्यकता है तो आप ले जाइए मैं आपसे कीमत नहीं लूंगी। जो मनुष्य इस भव में जीवों को औषधि प्रदान करते हैं परभव में उन्हें कोई रोग नहीं सताता । आप निर्भय हो मेरी अटारी चले जाइए। वहाँ बहुत-से घड़े तेल के रखे हैं, जितना तुम्हें चाहिए, उतना ले जाइए। तुंकारी के ऐसे दयामय वचन सुन जिनदत्त अति प्रसन्न हुआ । अटारी पर चढ़कर उसने एक घड़ा उठाकर अपने कंधे पर रख लिया और चलने लगा । घड़ा लेकर जिनदत्त कुछ ही दूर गया था अचानक ही उनके कंधे से घड़ा गिर गया । और उसमें जितना तेल था सब फैलकर मिट्टी में मिल गया । तेल को इस प्रकार जमीन पर गिरा देख जिनदत्त का शरीर मारे भय के कैंप गया। वह विचारने लगा - हाय !!! बड़ा अनर्थ हो गया । यही कठिनता से यह तेल हाथ आया था सो अब सर्वथा नष्ट हो गया । जाने अब तेल मिलेगा या नहीं ? अहा !!! अब तुंकारी मुझ पर जरूर नाराज होगी मैंने बड़ा अनर्थ किया तथा इस प्रकार अपने मन में कुछ समय संकल्प-विकल्प कर वह तुंकारी के पास गया। डरते-डरते उसे सब हाल कह सुनाया और तेल के लिए फिर से निवेदन किया । तुंकारी परम भद्रा थी उसने नुकसान पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। किंतु शांतिपूर्वक उसने यही कहा- ।।५६-६८।।
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द्वितीयं काचकुंभं तमादातुं स जिघृक्षति | भूमौ निपत्य भग्नोऽसौ तावत्कुंभो द्वितीयकः ॥ ६६ ॥
पुनस्तयाः समादेशाद्गृहीतं तृतीयं बगंज खिन्नचित्तोऽसौ तां तत्सर्वं न्यवेदयत् ॥ ७० ॥
घटम् ।
अलीलपत्तदा सापि मा भैषीस्त्वं सहोदर । यावत्प्रयोजनं तावदंगी कुरु
शुभं
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घटं ॥ ७१ ॥
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