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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तत्कथं तव सत्तथ्यं भाति चित्ते निरंकूशं । वृषो विना कृपां विप्र वर्त्तते चेद्यथा कथम् ॥ ४६ ।। मार्जार मूषका व्याघ्रा मंडलादंतिवैरिणः । नागापल्ली मृगव्याघ्याः धर्मिणः स्युद्विजोत्तम ॥ ४७ ॥ आलभेत शिवं छागमिति तथ्यं भवेद्यदि । हंतव्यः सधनश्चौरैरिति तथ्यं च कि नहि ।। ४८ ।। नराश्च मेधयज्ञेषु हताः ये प्राणिनः खलु । ते यांति यदि नाकं च हंतव्या बांधवादयः ।। ४६ ।। प्राणिघाताद्वषो नव वेदे लोके च पापदात् । इत्यागमस्य संमौढ्यं तद्वाक्यात्सनिराकरोत् ।। ५० ॥ जैनतत्त्वोपदेशेन निराकृत्य वणिग्वरः । सांख्यादि परसद्वादान् जिनतत्त्वं न्यरूपयत् ।। ५१ ॥ समस्तदोषनिर्मुक्ते देवे देवेंद्रवंदिते । निश्चिकाय निजं चित्तं ससम्यक्त्वं धरासुर ॥ ५२ ॥
आगे चलकर वे दोनों गंदा नदी के किनारे पहुँचे। वणिक तो भूखा था इसलिए वह खाने को बैठ गया और रुद्रदत्त शीघ्र ही स्नानार्थ गंगा में घुस गया। बहुत देर तक उसने गंगा में स्नान किया, पानी उछालकर पितरों को पानी दिया, पश्चात् जहाँ वह जैन श्रावक भोजन कर बैठा था वहीं आया। विप्र को आता देख वणिक ने कहा
विप्रवर ! यह झूठा भोजन रखा है, आनन्दपूर्वक इसे खाओ। वणिक की ऐसी बात सुन विप्र ने जवाब दिया
वणिक सरदार ! यह बात कैसे हो सकती है ? झूठा भोजन खाना किस प्रकार योग्य हो सकता है ? अर्थात् नहीं। विप्र के ऐसे वचन सुन वणिक ने जवाब दिया
गंगाजल मिश्रित है। इसमें झूठापन कहाँ से आया? तू निर्भय हो खाओ। गंगाजल मिश्रित होने से इसमें जरा भी दोष नहीं । यदि कहो कि तीर्थजल से मिश्रित भी झूठा भोजन योग्य नहीं हो सकता तो तुम्हीं बताओ पाप की शुद्धि गंगाजल से कैसे हो सकती है ? अरे भाई ! यदि यह बात ठीक हो कि स्नान से शुद्धि हो जाती है तो मछलियाँ रात-दिन गंगा के जल में पड़ी रहती हैं । धीवर हमेशा नहाते-धोते रहते हैं उन्हें शुद्ध हो सीधे स्वर्ग चले जाना चाहिये । देखो!
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