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________________ श्रेणिक पुराणम् प्रिय भाई! तुम निश्चय समझो भीतरी शुद्धि स्नान से नहीं होती किंतु तप, व्रत, जप, ध्यान, क्षमा और शुभ भाव से होती है। देखो शराब का घड़ा हजार बार धोने पर भी जैसे शुद्ध नहीं होता उसी प्रकार यह देह की स्नान से शुद्धि नहीं हो सकती। किंतु जिन मनुष्यों ने ज्ञान तीर्थ का अवगाहन किया है, ज्ञानतीर्थ में स्नान किया है, वे बिना जल के ही घी के घड़े के समान शद्ध रहते हैं। वणिक के ऐसे वचन सुन ब्राह्मण ने शीघ्र ही तीर्थमड़ता का त्याग कर दिया। वहीं पर एक तपस्वी भी पंचाग्नितप कर रहा था। वणिक ब्राह्मण रुद्रदत्त को उसके पास ले गया और जलती हुई अग्नि में अनेक प्राणियों को मरते दिखाया जिससे विप्र से पाखंडी तपोमढ़ता भी छुड़वा दी और यह उपदेश भी दिया कि वेद में जो यह बात बतलाई है हिंसा वाक्य भय का देने वाला होता है। यह पाखंडी तप महान हिंसा का करने वाला है सो कैसे तुम्हारे मन में योग्य जच सकता है ? प्रिय विप्र! यदि बिना दया के भी धर्म कहा जायेगा तो बिल्ली, मूसे, बाघ, व्याध आदि को भी धर्मात्मा कहे जायेंगे। यज्ञ में सफेद छाग का मारना यदि ठीक है तो धन-युक्त मनुष्य का चोरों द्वारा मारना भी किसी प्रकार पापप्रद नहीं हो सकता। यदि कहो कि नरमेध और अश्वमेध यज्ञ में जो प्राणी मारते हैं वे सीधे स्वर्ग चले जाते हैं तो उक्त यज्ञ भक्तों को चाहिये कि वे अपने कुटुम्बीजनों को भी यज्ञार्थ हने। प्रिय रुद्रदत्त ! वेद हो चाहे लोक हो किसी में पापप्रद प्राणीघात से कदापि धर्म नहीं हो सकता प्राणीघात से धर्म मानना बड़ी भारी भूल है। इस प्रकार अपने उपदेश से वणिक ने रुद्रदत्त की आगम मढ़ता भी छुड़वा दी। सांख्यादि दूसरे मतों के सिद्धांतों का खंडन करते हए उसे जैन तत्वों का उपदेश दिया जिससे उस ब्राह्मण ने समस्त दोष-रहित बड़े-बड़े देवों से पूजित सम्यक्त्व में अपने चित्त को जगाया। जिनोक्त तत्वों में श्रद्धा की और मिथ्यात्व की कृपा से जो उसके चित्त में मूढ़ता थी सब दूर हो गई ।।३३-५२।। जिनोदितेषु तत्त्वेषु प्रत्ययं कृतवान् द्विजः । निराकृत्य निजमौढ्यं महामिथ्यात्ववासितं ।। ५३ ।। अथ तौ व्रतसंपन्नौ ससम्यक्त्वौ महाप्रियौ । गच्छंतावटवीमध्ये कुर्वीतौ तत्वसत्कथां ।। ५४ ॥ पापात्संभ्रष्टमागौं तौ क्षणादिग्मूढतां गतौ । देशकः कोऽपि नास्त्यत्र वने मानुषवजिते ॥ ५५॥ संन्यस्य वाडवो धीमांश्चतु हारमुत्तमं । हित्वा प्राणान् जिनध्यानी देवोऽभूत्प्रथमेदिवि ॥ ५६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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